Thursday, 25 April 2024

चैरिटी

'चैरिटी' का एक निश्चित वर्ग अन्तर्य होता है। चैरिटी की जगह एक ऐसे ही समाज में हो सकती है, जहां व्यापक सामाजिक विषमता मौजूद हो। जहां एक तरफ दे सकने में समर्थ मुट्ठीभर धनकुबेर हों और दूसरी तरफ लेने को विवश व्यापक जन समुदाय हो। जिस समाज में कुछ के पास सब कुछ हो और शेष के पास कुछ भी न हो!

चैरिटी का मूल तर्क कि 'हमें एक दूसरे के लिए सोचना चाहिए' दअरसल एक ऐसे समाज का दोगला, पाखंडी, अनैतिक कुतर्क है जहां हर कोई सिर्फ अपने लिए जीता, सोचता है और जहां यह जरूरत सतत रूप से बनी रहती है कि सम्पन्न शासक, विपन्न शासितों के बारे में भी सोचें!

चैरिटी अमीर से गरीब की तरफ, सम्पन्न से विपन्न की तरफ, यानि एकतरफा अजस्र प्रवाह है, जो समाज के बहुसंख्यक निचले संस्तरों को निष्क्रिय याचक की भूमिका में डालती है और ऊपरी सम्पन्न संस्तरों को दानवीर की सक्रिय भूमिका देती है।

चैरिटी की इस दुनिया में गरीब, साधनहीन मेहनतकश वर्ग की भूमिका 'शून्य' हो जाती है। चैरिटी के नाम पर सारी अपीलें, सारे आह्वान सिर्फ़ और सिर्फ़ ऊपरी संस्तरों यानि दान-दाताओं को ही संबोधित होते हैं। इन ऊपरी संस्तरों को संकट-मोचको की भूमिका में रखकर 'चैरिटी' यह भ्रम पैदा करती है कि वे ही हमारी दुनिया के जीवनरक्षक और तारणहार हैं! 
चैरिटी इस बात पर पर्दा डाल देती है कि इस आपदा के लिए, हमारी तमाम पराजयों के लिए यह पूंजीपति और इनकी सत्ता ही मूलरूप से जिम्मेदार है।

चैरिटी मेहनतकश समुदायों को यह देखने से भी रोक देती है कि सारी संपत्ति/सम्पदा अंततः और प्रथमतया भी, मेहनतकश वर्ग के श्रम का ही संचित रूप है, जिसे धन-पशुओं ने दशकों-दशक लूटकर अपनी तिजोरियों में भरा है। इस तरह चैरिटी संकट के मूल-स्रोत पूंजीवाद को ही हमारे सामने एकमात्र समाधान और विकल्प के तौर पर पेश कर देती है। ऐसा करके वह पीड़ित, उत्पीड़ित जनता को उत्पीड़न, शोषण के स्रोत, पूंजीवाद के खिलाफ़ आक्रमण खोलने से रोक देती है और उसे दान लेने वाले निष्क्रिय भिखारियों में बदलते हुए उसकी संभावित क्रांतिकारी पहलकदमी को छीन लेती है।

मेहनतकश वर्ग के शोषण से जमा की गई अथाह दौलत में से सम्पन्न संस्तर चैरिटी के नाम पर कुछ टुकड़े जनता की तरफ उछालते हैं और यह भ्रम पैदा करते हैं कि बड़े कॉरपोरेट सर्वहारा के वर्ग शत्रु नहीं, बल्कि मित्र और संकटमोचक हैं।

कॉरपोरेट मीडिया चैरिटी कर रहे धनकुबेरों को देवत्व देते, कॉरपोरेट चैरिटी को महिमामंडित करते, उसे संकट से निकलने के एकमात्र रास्ते के तौर पर प्रस्तुत करते और अंततः इस बात पर पर्दा डालते हुए कि संकट का स्रोत पूंजीवाद ही है, सर्वहारा की वर्ग चेतना को कुंद करता है।

वहीं चैरिटी को आगे करके और सर्वहारा को उनके रहम पर छोड़ एकतरफ़ बुर्जुआ राज्य अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेता है तो दूसरी तरफ सर्वहारा पर कड़े पुलिस नियंत्रण थोपता है। 
मगर, संकट, सामाजिक वर्गों के बीच की खाई को पूरी तरह से उजागर कर देता है। शासक वर्ग इसे ढकने के लिए, और अधिक झूठ और प्रपंच का सहारा लेता है। कॉरपोरेट मीडिया और चैरिटी इस समय ऐसा कोहरा पैदा करने का प्रयास करते हैं जिससे वर्ग विरोधों को ढका और छिपाया जा सके और संकट के बीच वर्ग संघर्ष को जन्म लेने, पनपने और तीखा होने से रोका जा सके।

'चैरिटी' भूख और बदलहाली में घिरे सर्वहारा की ओर टुकड़े फेंकती है और कॉरपोरेट मीडिया उसे दिन-रात महिमामंडित करता है। शासक एलीट का यह चैरिटी अभियान जितना ही तीखा होता है, सर्वहारा संघर्षों की संभावना उतनी ही कम हो जाती है

 Workers' Socialist Party

57000 करोड़ का घोटाला, मोदीजी की फसल बीमा योजना

▪️मुद्दा▪️7

 57000 करोड़ का घोटाला, मोदीजी की फसल बीमा योजना
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▪️श्रीकांत आप्टे

            भारत में कृषि आज भी मौसम पर निर्भर है और इसीलिए देश का किसान मौसम की मार सहने को अभिशप्त है। इससे किसानों की रक्षा के लिए तब की कांग्रेस सरकार ने 1985 में सेंट्रल क्राॅप इंश्योरेंस कंपनी बनाई। उसके बाद 1999 में सरकार ने नेशनल एग्रीकल्चर इंश्योरेंस स्कीम बनाई जिसके लिए इंश्योरेंस का काम एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया करती थी। इसके अतिरिक्त न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी, ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी, नेशनल इंश्योरेंस कंपनी जैसी सरकारी क्षेत्र की बीमा कंपनियां भी फसल बीमा करती हैं।यह व्यवस्था थोड़ा-बहुत कमीबेशी के साथ सन् 2016 तक चलती रही।
          इस बीच सन् 2014 मई में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी। भाजपा ने चुनाव आयोग को दी रिपोर्ट के अनुसार पार्टी ने 714 करोड़ रुपए चुनाव पर खर्च किए थे। सत्ता में होने के बावजूद कांग्रेस ने लगभग दो सौ करोड़ कम 516 करोड़ खर्च किए थे। भाजपा की 2013-14 की ऑडिटेड बैलेंस शीट में 635 करोड़ " वालिंटरी कंट्रीब्यूशन "के रूप में दर्ज है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इतना बड़ा कंट्रीब्यूशन किनसे प्राप्त हुआ होगा।
         प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने धनपति मित्रों का अहसान चुकाने की बारी मोदीजी की थी।सत्ता संभालने के मात्र बीस महिने बाद ही मोदीजी ने 1999 से चली आ रही नैशनल इंश्योरेंस स्कीम ऑफ इंडिया को बंद कर प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना,2016 प्रारंभ कर इसमें सरकारी बीमा कंपनियों के अलावा प्रायवेट बीमा कंपनियां जैसे एयरटेल भारती की भारती अक्सा, रिलायंस जनरल इंश्योरेंस कंपनी,फ्यूचर समूह की फ्यूचर जनरल इंश्योरेंस, टाटा एआईजी,आईसीआईसीआई लोंबार्ड, एचडीएफसी अर्गो, इफ्को टोक्यो, चोलामंडलम जैसी प्रायवेट बीमा कंपनियों के लिए भी फसल बीमा क्षेत्र खोल दिया। 
           इन प्रायवेट बीमा कंपनियों ने किसानों के साथ क्या किया यह जानने के पहले जान लें सरकारी बीमा कंपनियों के काम   को। 1985 में सरकारी बीमा कंपनी सीसीआईसी ने किसानों से 403.56 करोड़ प्रीमियम के एवज में  पांच गुना से भी अधिक 2303 करोड़ रुपए बीमित राशि का भुगतान किसानों को किया।प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना2016 में सरकारी क्षेत्र की न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी ने 4660 करोड़ प्रीमियम लेकर 5145 करोड़ के क्लेम किसानों को दिए। सरकारी क्षेत्र की ही ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी ने 3893 करोड़ प्रीमियम लेकर 4205 करोड़ बीमा राशि के चुकाए। सरकारी क्षेत्र की नैशनल इंश्योरेंस कंपनी ने 2514 करोड़ प्रीमियम लिया और 2574 करोड़ की बीमा राशि का भुगतान किया। आप जानते ही हैं कि जीवन बीमा हो या साधारण बीमा बीमित राशि हमेशा प्रीमियम से कई गुना अधिक होती है। प्रीमियम की राशि में किसान का योगदान 2 से 5% तक रहता है।शेष सब्सिडी के रूप में राज्य और केंद्र सरकार देती है। पुरानी योजना में प्रीमियम की राशि को कम रखने के लिए सरकार ने सब्सिडी की राशि पर कैपिंग रखा था यानी अधिकतम सीमा रखी थी। 
          नई योजना प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में प्रायवेट बीमा कंपनियों के प्रवेश करते ही मोदी सरकार ने प्रीमियम राशि पर सरकारी सब्सिडी पर कैपिंग या अधिकतम की सीमा समाप्त कर दी। अब प्रायवेट बीमा कंपनियां मनमाना प्रीमियम वसूलने के लिए मुक्त हो गईं।
           अब आता है शीर्षक में लिखा फसल बीमा में 57000 करोड़ का घोटाला। 
            2016 से 2023 के बीच  प्रायवेट बीमा कंपनियों ने रू 1,97,657 करोड़ प्रीमियम वसूला ( अनुमानित बीमा राशि लगभग 10 लाख करोड़)और प्रीमियम राशि से भी 57000 करोड़ कम 1,40,036 करोड़ ( अनुमानित बीमा राशि का मात्र 14%)ही किसानों के क्लेम सैटल किए।  
         प्रीमियम की अधिकतम राशि सब्सिडी के रूप में सरकारी यानी जनता के टैक्स का पैसा था जो प्रायवेट बीमा कंपनियों ने हड़प लिया। भारती अक्सा ने 72%,रिलायंस ने 59%,फ्यूचर ग्रुप ने 60% इफ्को टोक्यो ने 52%  एचडीएफसी अर्गो ने 32% का घोटाला प्रीमियम राशि में किया।
            इतना बड़ा घोटाला पता लगने के बावजूद सरकार ने जांच कमेटी बनाकर जांच करना भी जरूरी न समझा।
             इलेक्टोरल बॉन्ड की तरह इस मामले में भी इस हाथ दे उस हाथ ले चला है। भारती अक्सा ने 235 करोड़ के इलेक्टोरल बांड में से 235 करोड़ के इलेक्टोरल बांड बीजेपी को देने के अलावा कंपनी ने अलग-अलग ट्रस्टों से भी 186 करोड़ के इलेक्टोरल बांड बीजेपी को दिए। रिलायंस और मोदीज के रिश्ते सभी जानते हैं। अन्य कंपनियों ने बीजेपी को दिए इलेक्टोरल बांड या डोनेशन्स का निश्चित आंकड़ा मिल न पाने से यहां नहीं दिया जा रहा है।
             इस घोटाले की कीमत किसानों ने चुकाई। नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2021 में 10881 और 2022 में 11290 किसानों ने मुख्यतः कर्ज चुका न पाने के कारण आत्महत्या की। देश में हर घंटे एक किसान आत्महत्या करता है।
          2022 में किसानों की आमदनी दोगुनी करने का दावा करने वाले मोदीजी की सरकार का ये है असली चेहरा।
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मुंबई,  25 अप्रैल, 2024

Saturday, 20 April 2024

Federation

In Maharashtra, the legal framework for housing societies doesn't grant the majority the power to compel the registration of a federation of societies. 

  • Maharashtra Housing Society Act (MHSA): The MHSA doesn't explicitly mandate or provide a mechanism for registering a federation of societies.
  • Model Bye-laws: The Model Bye-laws issued under the MHSA primarily focus on the functioning of individual societies and don't address federations.

Voluntary Participation:

The decision to form a federation should be based on a consensus or agreement among all participating societies. This allows each society to consider the potential benefits and drawbacks before joining.

Alternative Solutions:

  • Informal Collaboration: Societies can collaborate informally to share resources, address common issues, and negotiate with service providers without forming a formal federation.
  • Society Management Committee:  Avenue could consider forming a joint committee with representatives from each society to discuss and address common concerns.

Benefits of a Registered Federation:

  • Greater Bargaining Power: A registered federation might have more bargaining power when negotiating with vendors for services like security or waste management.
  • Collective Action: A federation can take collective action on issues that affect all societies, such as infrastructure development or environmental concerns.
  • Formalized Structure: A registered federation has a more formalized structure with defined roles and responsibilities, potentially leading to more efficient decision-making.

Challenges of a Registered Federation:

  • Bureaucracy: Registering and maintaining a federation might involve additional bureaucratic procedures and potential costs.
  • Differing Priorities: Societies within the federation might have different needs and priorities, leading to internal conflicts.
  • Loss of Autonomy: Individual societies might feel a loss of autonomy when decisions are made at the federation level.

Conclusion:

While a federation can offer advantages, compelling societies to register one in  Avenue is not legally possible in Maharashtra. Open communication, exploring alternative solutions, and reaching a consensus are crucial before taking any further steps.

Friday, 19 April 2024

Red Salute Comrade, Lenin!



Red Salute Comrade, Lenin! 

You gave us the message of life, You awakened us to the spirit of struggle, 

You showed us a new path, 

You made us a new society.


Red Salute Comrade, Lenin! 

You had stood up the working class, 

You had waved the red flag, 

You had opposed exploitation, You had built first worker's state.


Red Salute Comrade, Lenin! 

You gave us a new future, 

You showed us a new world, 

You had promised to change the world, 

You had made a new history.


Red Salute Comrade, Lenin! 

You will always be in our hearts, Your name will always be immortal, 

Your struggle will always be an inspiration, 

Your thought will always be the basis of revolution.

31.01.2024


Wednesday, 17 April 2024

चंद्रयान 3 की उपलब्धि

चंद्रयान 3 की उपलब्धि वास्तव में शासक वर्ग की है, जिसमें बहुराष्ट्रीय निगम और उनकी सरकारें शामिल हैं। चंद्रयान 3, एक वैज्ञानिक उपलब्धि है, लेकिन यह भी अंतरिक्ष में एक नए बाजार के निर्माण में एक महत्वपूर्ण कदम है।

शीत युद्ध के दौरान, अंतरिक्ष की खोज एक सैन्य प्रतिद्वंद्विता थी। लेकिन अब, अंतरिक्ष को एक आर्थिक संसाधन के रूप में देखा जा रहा है। चंद्रमा और मंगल जैसे ग्रहों में मूल्यवान संसाधनों के भंडार हो सकते हैं, जैसे कि पानी, खनिज और धातु।

चंद्रयान 3 के पीछे एक प्रमुख मकसद इन संसाधनों तक पहुंच हासिल करना है। इसरो ने पहले ही चंद्रमा पर पानी की खोज की घोषणा की है। भविष्य में, इसरो और अन्य अंतरिक्ष एजेंसियां चंद्रमा और मंगल पर अन्य संसाधनों की तलाश में होंगी।

इन संसाधनों तक पहुंच प्राप्त करने के लिए, सरकारें बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ साझेदारी कर रही हैं। इन निगमों को चंद्रयान 3 जैसे अभियानों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है।

चंद्रयान 3 की सफलता से बहुराष्ट्रीय निगमों को अंतरिक्ष में अपना पैर जमाने में मदद मिलेगी। इन निगमों के पास चंद्रमा और मंगल पर संसाधनों के शोषण के लिए तकनीक और धन होगा।

भारतीय जनता के लिए, चंद्रयान 3 की उपलब्धि केवल एक दिखावा है। इस अभियान पर खर्च किए गए पैसे का लाभ बहुराष्ट्रीय निगमों को होगा। भारतीय जनता को केवल चंद्रयान 3 जैसी उपलब्धियों का जश्न मनाने के लिए छोड़ दिया जाएगा, जबकि बहुराष्ट्रीय निगम अंतरिक्ष से मुनाफा कमाने के लिए तैयार होंगे।

यहां कुछ विशिष्ट तरीके दिए गए हैं जिनसे चंद्रयान 3 बहुराष्ट्रीय निगमों को लाभान्वित कर सकता है:

  • चंद्रमा और मंगल पर संसाधनों के शोषण के लिए निगमों को आवश्यक तकनीक और जानकारी प्रदान करना।

  • चंद्रमा और मंगल पर आधारभूत ढांचे के विकास के लिए निवेश करना।

  • चंद्रमा और मंगल पर संसाधनों के खनन और परिवहन के लिए अनुबंध प्रदान करना।

चंद्रयान 3 की सफलता से स्पष्ट है कि अंतरिक्ष की खोज एक नई पूंजीवादी साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का स्रोत बन रही है। भारत सरकार और अन्य सरकारें बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ मिलकर अंतरिक्ष में नए बाजारों का निर्माण कर रही हैं। इस प्रक्रिया में, भारतीय जनता के पैसे का उपयोग निगमों को लाभ पहुंचाने के लिए किया जा रहा है।


 आधुनिक उद्योग और विज्ञान के विकास ने काफी प्रगति की है, लेकिन इसने गरीबी और सामाजिक अशांति की नई समस्याएं भी पैदा की हैं।

 ऐसा इसलिए है क्योंकि समाज की उत्पादक शक्तियां (हमारे पास जो तकनीक और ज्ञान है) ने उत्पादन के सामाजिक संबंधों (जिस तरह से हम अपनी अर्थव्यवस्था और समाज को व्यवस्थित करते हैं) को पीछे छोड़ दिया है।

 इससे दोनों के बीच विरोध पैदा हो गया है, जो पूंजीवाद का बुनियादी विरोधाभास है।

 कुछ लोग आधुनिक उद्योग से छुटकारा पाकर या पूराने समाज में वापसी करके इस समस्या को हल करने का प्रयास कर सकते हैं, लेकिन ये समाधान काम नहीं करेंगे।

 समस्या को हल करने का एकमात्र तरीका एक नई सामाजिक व्यवस्था बनाना है जिसमें उत्पादक शक्तियों को श्रमिक वर्ग द्वारा नियंत्रित किया जाए।

 यह कथन 1856 में दिए गए कार्ल मार्क्स के एक भाषण से है। इसमें वह पूंजीवाद के विरोधाभासों का विश्लेषण कर रहे थे और तर्क दे रहे थे कि उन्हें हल करने का एकमात्र तरीका समाजवाद है।

 यह कथन आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि हम गरीबी और सामाजिक अशांति की उन समस्याओं का सामना कर रहे हैं जिनकी मार्क्स ने पहचान की थी।  इन समस्याओं का समाधान अभी भी मजदूर वर्ग के हाथों में है, जिन्हें एकजुट होकर समाजवादी क्रांति के लिए लड़ना होगा।

Saturday, 6 April 2024

बेरोजगारी के प्रश्न पर चले बहस पर टिपण्णी (भाग २ )

बेरोजगारी के प्रश्न पर चले बहस पर टिपण्णी (भाग २ )

लेकिन इस बढती हुई बेरोजगारी का कारण क्या है?

मार्क्स ने दिखाया है कि बाजार के लिए प्रतिस्पर्धा के प्रलोभन के तहत पूंजीवादी उद्योग श्रम-विस्थापन मशीनरी का उपयोग करके या कम श्रम के साथ उतना ही उत्पादन हासिल करने के अन्य तरीको के द्वारा हमेशा उत्पादन की लागत को कम करना चाहता है, इस प्रकार बेरोजगारी पैदा करता है. इसके अलावे पूंजीवाद को "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" की जरूरत होती है ताकि पुराने उद्योगों के विस्तार और नए उद्योगों को लगाने के लिए समय-समय पर मिलने वाले अवसरों का फायदा उठाने में सक्षम हो सके, और मजदूरी को एक स्तर से नीचे रखा जा सके जो उत्पादन को लाभदायक बनाता है. मार्क्स के लिए चक्रीय संकट अपरिहार्य हैं और उतना ही अपरिहार्य अंततः समृद्धि है जो विस्तार, उछाल, संकट और मंदी के दूसरे चक्र से हो कर गुजरता है. मंदी के दौरों में मज़दूरों पर बेरोज़गारी की मार और भी बुरी तरह पड़ती है।

इस तरह मार्क्स ने मुख्य रूप से बेरोजगारी के निम्न तीन कारण बताये है:

१ . प्रतिस्पर्धा के तहत पूंजीवादी उद्योग में श्रम-विस्थापन मशीनरी का उपयोग 
२. श्रम की "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" की जरूरत
३. अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट

१. प्रतिस्पर्धा के तहत पूंजीवादी उद्योग में श्रम-विस्थापन मशीनरी का उपयोग-

मशीनें आधुनिक पूंजीवादी उत्पादन–तंत्र के आधार हैं. पूँजीवाद पूर्व सामजिक व्यवस्था में उत्पादन का आधार मशीने नहीं बल्कि छोटे छोटे औजार होते थे जिसके ऊपर कामगार का निजी स्वामित्व होता था. लेकिन पूंजीवादी उत्पादन तंत्र में विराट उत्पादन के साधनों, मशीने आदि पर कामगार का नहीं बल्कि पूंजीपति का निजी स्वामित्व होता है. अगर पूँजीपति अपने कारख़ाने में उत्पादन कराने के लिए मज़दूर की श्रम शक्ति आठ घण्टे के लिए ख़रीदता है और मज़दूर को मिलने वाले श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर उत्पादन अगर मज़दूर चार घण्टे में ही कर देता है तो शेष चार घंटे में जो मूल्य वह पैदा करता है उसे पूँजीपति हड़प लेता है. इसे 'अतिरिक्त मूल्य' कहते हैं। इस अतिरिक्त मूल्य के एक हिस्से को पूँजीपति अपने अय्याशी भरे जीवन पर ख़र्च करता है, और बाक़ी को पूँजी में बदलकर उससे अपने कारोबार को और बढ़ाता है। इस तरह पूंजीपति संचय और अधिशेष मूल्य के पूंजीकरण के माध्यम से पूंजी का विस्तार करता है. इसे पूँजी का संकेंद्रण कहा जाता है. चुकि पूंजीपतियों का लक्ष्य अधिक्तम मुनाफा कमाना होता है, इस लिए लगातार उसकी कोशिश होती है कि वह उत्पादन के ऐसे उन्नत साधन, या श्रम-विस्थापन मशीनरी को लगाए जिससे कि मजदूर को मिलने वाला श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर उत्पादन मजदूर चार घंटे के बदले उससे कम, उदहारण के लिए मान ले कि दो घंटा में कर ले. परिणामस्वरुप, पूंजीपति को पुराने स्तर पर उत्पादन को बनाये रखने के लिए अब आधे मजदूरों की जरूरत पड़े गी और आधे मजदूर बेरोजगार हो जाएगे. इस तरह पूँजीवाद पूर्व सामजिक व्यवस्था के कामगर से पूंजीवादी व्यवस्था में सर्वहारा बनने बनने की प्रक्रिया में श्रमिक न केवल अपने श्रम के फल पर पूर्ण अधिकार से वंचित हो जाता है बल्कि श्रम करने के अधिकार से, काम के अधिकार से भी अनिवार्य रूप वंचित हो जाता है, श्रमिको को बेरोजगारी के आरक्षित सेना में शामिल होना पड़ता है.

उन्नत और श्रम-विस्थापन मशीनरी के उपयोग के द्वारा लागत कम कर सकने में सक्षम होने के कारण पूंजीपति बाजार की प्रतिस्पर्धा में दुसरे पूंजीपतियों को पछाड़ देने में कारगर साबित होंते है और अंततः उन्हें दिवालिया होने को मजबूर होना पड़ता है, पछाड़ दिए गए कारखानों को घाटे में बहुत दिनों तक न चल सकने के कारण उन्हें बंद होना पड़ता है, वित्तीय संस्थानों, बैंक से लिए कर्ज चुकाने में असमर्थ होने के कारण उनकी परिसम्पत्तिया दुसरे पूंजीपति द्वारा खरीद ली जाती है, मजदूरों को बेरोजगार होना पड़ता है, बहुत बड़े पैमाने पर उत्पादक शक्तियों की बर्बादी होती है. संचय के इस विधि द्वारा पूँजी के विस्तार को पूँजी का केंद्रीकरण कहा जाता है. 

भारत में भी आज ऐसे नीलाम होने वाली कम्पनियों की एक लम्बी सूची राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के साईट पर देखी जा सकती है जिसके बारे में बुर्जुआ अखबारों में अक्सर खबर सुर्खियों में आती रहती है. हाल ही में बैंक के कर्ज में फंसे 28 बड़े खातों में से 23 को ऋणशोधन प्रक्रिया के लिए भेजने की खबर आयी थी. भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी दूसरी सूची में इस तरह के 28 खातों को चिन्हित किया था और उनका निस्तारण 13 दिसंबर तक करने को कहा था. यूनिटेक लिमिटेड, जेपी बिल्डर, अर्थ, इरा और गार्डेनिया बिल्डर, एयरसेल भूषण स्टील, आरकॉम ने बैंक और फाइनेंसरों के पैसे चुकाने में असमर्थतता जताने पर या तो दिवालिया घोषित हो चुके है या इसकी राह पर है.

इस तरह पूँजी के संचय के दोनों विधि - पूँजी का संकेंद्रण और पूँजी का केंद्रीकरण - का अनिवार्य परिणाम मजदूरों की बेरोजगारी में वृद्धि होता है. आज इसका सबसे अच्छा उदाहरण दूरसंचार क्षेत्र में देखा जा सकता है. दूरसंचार कंपनियों को सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर सेवाएं उपलब्ध कराने वाली 65 तकनीकी कंपनियों के करीब 100 वरिष्ठ एवं मध्यम स्तर के कर्मचारियों के बीच किए गए सर्वेक्षण पर आधारित रिपोर्ट के आधार पर वायर में छपे एक खबर के अनुसार साल 2017 की शुरुआत से जनवरी २०१८ तक दूरसंचार क्षेत्र की 40 हज़ार नौकरियां जा चुकी थी और 80 से 90 हज़ार नौकरियां जाने की संभावना बनी हुई थी.किसी दौर में दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की करने वाले दूरसंचार क्षेत्र के लिए अगले छह से नौ महीने भारी संकट के रहने वाले हैं.

२. "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" की जरूरत -

श्रम की "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" पूंजी के संचय की प्रक्रिया का परिणाम है. प्राक पूंजीवादी व्यवस्था में अपने उत्पादन के साधनों पर कामगार का निजी स्वामित्व छोटे उद्योग का आधार होता था, चाहे वह छोटा उद्योग खेती से संबंधित हो या मेन्युफेक्चर से अथवा दोनों से। उत्पादक शक्ति के विकास के साथ पूँजीवाद में अपने श्रम से कमायी हुई निजी संपत्ति का स्थान पूंजीवादी निजी संपत्ति ले लेती है, जो कि दूसरे लोगों के नाम मात्र के लिए स्वतंत्र श्रम पर अर्थात् मजदूरी पर आधारित होती है। रूपांतरण की यह प्रक्रिया पुराने समाज को ऊपर से नीचे तक छिन्न-भिन्न कर देती है, उत्पादन के छोटे साधनों पर स्वामित्व रखने वाले कामगार सर्वहारा बन जाते हैं और उनके श्रम के साधन पूंजी में रूपांतरित होते जाते हैं, पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली स्थापित होती है जिसमे उत्पादन के साधनों पर अब पूंजीपतियों का स्वामित्व होता है. इस तरह बेरोजगारों की एक विशाल फ़ौज खड़ी हो जाती है.

विशाल पैमाने के उद्योग का विकास मजदूर की असुरक्षित स्थिति को बदतर बना देता है. पूंजी के संचय की प्रक्रिया की तेज़ गति से श्रम की औद्योगिक आरक्षित सेना बन जाती है जो मजदूर की सक्रीय सेना पर लगातार दबाब बनाये रखती है और कारखानों में रोजगारशुदा मजदूरों को अपनी मजदूरी में उल्लेखनीय वृद्धि करवाने का मौका नहीं देती है. आधुनिक उद्योग के जीवन-चक्र में उत्पादन में सामान्य वृद्धि के बाद सहसा बहुत अधिक वृद्धि होती है जिसके बाद संकट, मंदी और ठहराव की अवधि आती है. इसका विशिष्ट परिणाम यह होता है कि बेशी आबादी में वृद्धि हो जाती है और औद्योगिक आरक्षित सेना के आकार में परिवर्तन होने लगता है. आरक्षित सेना जितनी बडी होती है उतना ही मेहनतकशों के कंगालों की कतार में शामिल हो जाने का खतरा बढ़ता जाता है. यह प्रक्रिया उस बिन्दू तक पहुँच सकती है कि समाज इन्हें मुह्ताजखाने में खिलाने या इन्हें दूसरे किस्म की राहत देने के लिए बाध्य हो जाये. मार्क्स ने इसका सजीव वर्णन इस प्रकार किया था:

"इसका परिणाम यह होता है कि जिस अनुपात में पूंजी का संचय होता जाता है, उसी अनुपात में मजदूर की हालत अनिवार्य रूप से बिगड़ती जाती है — उसको चाहे ज्यादा मजदूरी मिलती हो या कम. अंत में वह नियम जो सापेक्ष बेशी आबादी या औद्योगिक आरक्षित सेना का (पूंजी) संचय के विस्तार और तेजी के साथ संतुलन कायम करता है, मजदूर को पूंजी के साथ इतनी मजबूती के साथ जकड़ देता है जितनी मजबूती के साथ हिपेसियस की बनाई जंजीर प्रोमेथियस को चट्टान के साथ नहीं जकड़ सकी थी. इस नियम के फलस्वरूप पूंजी संचय के साथ-साथ दरिद्रता बढती जाती है. इसलिए यदि एक छोर पर धन, का संचय होता है, तो इसके साथ-साथ दूसरे छोर पर — यानी उस वर्ग में जो खुद अपने श्रम के उत्पाद को पूंजी के रूप में तैयार करता है — गरीबी, यातनादायक श्रम, दासता, अज्ञान, पाशविकता और मानसिक पतन का संचय होता जाता है." (मार्क्स, कैपिटल, खंड 1, पृ. 714)

हालही के एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियां का 82% दौलत 1% कुबेरों के पास है। उस 1% पूंजीपतियों की आय 2015 के बाद 182 गुना बढ़ी जबकि न्यूनतम 50% आबादी की आय में कोई वृद्धि नही हुई.

समस्त सम्पदा और समस्त मूल्य का मूल स्रोत श्रम है, जबकि दौलत श्रमिको के पास नहीं, बल्कि निठल्ले पूंजीपतियों के पास जमा हो रहा है। पूँजीवाद के विकास के मॉडल की यह विशेषता दुनिया के हर पूंजीवादी देश में देखा जा सकता है। भारत इसका अपवाद नहीं है: विकास के इस मॉडल में किसी भी देश के बहुमत आबादी की क्या दिलचस्पी हो सकती है? बहुमत आवादी इस मॉडल को क्यों बचाना चाहे गी? बहुमत आबादी का हित इस मॉडल कें सुधार में नहीं, इसके समूल नाश में है.

३. अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट

अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट से हम सभी भली भांति परिचित है और अक्सर हम इसकी चर्चा भी करते है. लेकिन इस अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट का कारण क्या है ?

मार्क्स ने पूँजीवाद का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया, उसमे उनके दो निम्न बुनियादी विचार उभर कर सामने आये हैं:

१.पूंजीवादी संकट पूंजीवादी समाज के बुनियादी अंतर्विरोध की अभिव्यक्ति है; उत्पादन के सामाजिक चरित्र और हस्तगतकारण के निजी चरित्र और फलस्वरूप एक तरफ उत्पादन का तेजी से विस्तार की प्रवृत्ति तो दूसरे तरफ खपत की सीमाएं.

२. लाभ की दर गिरने की प्रवृत्ति पूँजीवाद के आंतरिक अंतर्विरोध का कारण हैं, जो आर्थिक संकट में अभिव्यक्त होता है.

ये दोनो ही विचार निकटता से जुड़े हुए हैं, वे दो वैकल्पिक सिद्धांत नहीं हैं, वे एक स्पष्ट आर्थिक सिद्धांत के दो पहलू है. फिर भी कई लोग अक्सर लाभ की दर गिरने की प्रवृत्ति को ही पूंजीवादी संकट का कारण मानते है.

लेकिन भारत में नकली वामपंथियों के बीच सबसे लोकप्रिय वह सिद्धांत है जो संकट की व्याख्या "अप्रयाप्त उपभोग" के सन्दर्भ में करता है. मार्क्स और एंगेल्स ने संकट के अनगढ़ एवं अतिसरलीकृत अप्रयाप्त उभोग के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया था फिर भी आज हमारे आन्दोलन के साहित्य में उसका प्रभाव दीख जाता है. आइये, थोड़े विस्तार से इस पर चर्चा करते है.

19 वीं सदी के आरम्भ में जब पूंजीवादी दुनिया में संकट की चक्रीय और नियमित घटना एक आम बात बनने लगी, संकट और उनके कारण की व्याख्या करने के लिए कई सिद्धांत सामने आये. इन व्याख्याओं में से एक जो काफी लोकप्रिय हुआ और आज तक है, वह तथाकथित "अप्रयाप्त उपभोग" का सिद्धांत है। दुसरे शब्दों में यह एक ऐसा सिद्धांत है जो संकट की व्याख्या "अप्रयाप्त उपभोग" के सन्दर्भ में करता है.

थोड़े शब्दों में रखा जाए तो अप्रयाप्त उपभोग का सिद्धांत कहता है कि चुकि पूंजीवादी समाज मजदूरों के शोषण पर आधारित है, मजदूरों का उपभोग भी सिमित होता जाता है और अनिवार्य रूप से बहुत ही छोटा होता जाता है. अगर मजदूर जितना उत्पादन करते है उतना उपभोग नहीं करते तो बेशी मूल्य कैसे प्रत्याक्षिकृत (बेचा) किया जा सकता है.पूंजीवाद के अंतर्गत किसी माल का मूल्य स्थिर पूँजी + परिवर्ती पूँजी + बेशी मूल्य के रूप में प्रकट होता है. तो सवाल यह उठता है कि बेशी मूल्य का अंश कैसे प्रत्याक्षिकृत होता है.

यह 'अप्रयाप्त उपभोग', क्रय शक्ति में कमी मजदूरी में कमी या बहुतयात आबादी की गरीबी पूंजीवादी आर्थिक संकट के कारणों का सिर्फ एक पहलु है, इसलिए उपभोग बढ़ा कर, क्रय शक्ति में वृद्धि कर के या आम गरीब आबादी के जीवन स्तर में सुधार कर के भी पूंजीवादी संकट से पार नहीं पाया जा सकता जैसा कि कीन्स और कलमघिस्सू बुर्जुआ अर्थशाश्त्री और कुछ सुधारवादी नकली कम्युनिस्ट अक्सर नुश्खे पेश करते रहते है.

अप्रयाप्त उपभोग के सिद्धांत के पैरोकार पूंजीवादी समाज के कुल मांग का कारण सिर्फ व्यक्तिगत उपभोग में ही देखते है जबकि कुल मांग उत्पादक उपभोग और व्यक्तिगत उपभोग का जोड़ होता है. समाज में उत्पादित होने वाली वस्तुओं में उत्पादन के साधन, कच्चे माल आदि भी होते है जिसकी मांग मजदूरों या आम जनता के व्यक्तिगत उपभोग के लिए नहीं होती बल्कि उत्पादन को उसी स्तर पर बनाये रखने के लिए घिस गए उत्पादन के साधनों के प्रतिस्थापन के लिए या नए उत्पादन के साधनों की मांग उत्पादन का और विस्तार करने के लिए, कच्चे माल के लिए – संक्षेप में पूंजीपतियों द्वारा उत्पादक उपभोग के लिए- होती है. अप्रयाप्त उपभोग के सिद्धांतकार इस गलती को अक्सर दुहराते है और समग्र पूंजीवादी उपत्पादन, उसके विकास और प्रत्यक्षीकरण का बहुत ही गलत और भोंडी समझ पेश करते है.

अक्सर "अप्रयाप्त-उपभोग" के सिद्धांत को मार्क्स के विचारों के रूप में पेश किया जाता है. परन्तु जैसा कि मार्क्स ने बहुत पहले ही व्याख्या की है, यह सही नहीं है. हालाकि उत्पादक शक्तियों के व्यापक विकास के बावजूद जनता के लिए निश्चित रूप से उपभोग में कमी अस्तित्व में होती है, लेकिन यह पूंजीवादी संकट के कारणों के सिर्फ एक पक्ष को ही रखता है, सिर्फ एकतरफा विश्लेषण प्रस्तुत करता है. फिर भी यह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के एक महत्त्वपूर्ण अंतर्विरोध को व्यक्त करता है जो उत्पादन के सामजिक चरित्र और हस्तगत के निजी स्वरुप के विरोधाभास पर टिका होता है. मार्क्स ने इस अंतर्विरोध का वर्णन कई जगह किया है.

पूँजी के दुसरे खंड में मार्क्स ने खुद पूंजीवादी संकट के कारण के प्रसंग में "अप्रयाप्त -उपभोग" की धारणा का खंडन किया है. अकेला उपभोग (या इसका आभाव) पूंजीवादी संकट का मूलभूत कारण नहीं है. अगर ऐसा होता तो जनता की क्रय शक्ति बढ़ा कर इस समस्या का निदान पाया जा सकता था. मार्क्स ने इसका जबाब इन शब्दों में दिया है:

"यह कहना सरासर पुनरुक्ति है कि संकट प्रभावी खपत, या प्रभावी उपभोक्ताओं की कमी की वजह से हैं। पूंजीवादी व्यवस्था प्रभावी खपत के अलावे खपत के किसी भी अन्य दुसरे तरीके को नहीं जानता. वस्तुओं के अविक्रेय होने का केवल एक ही मतलब है कि उनके लिए कोई प्रभावी खरीदार नहीं पाया गया है यानी, उपभोक्ता (क्योकि वस्तुएं अंतिम विश्लेषण में उत्पादक या व्यक्तिगत उपभोग के लिए खरीदे जाते हैं"
वह आगे कहते है:

"लेकिन अगर इस पुनरुक्ति को कोई एक गंभीर औचित्य की झलक देने का प्रयास यह कहते हुए करता है कि मजदूर वर्ग अपने खुद के उत्पाद का एक बहुत छोटा सा हिस्सा प्राप्त करता है और जैसे ही यह इसका एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करेगा और परिणामस्वरुप मजदूरी में वृद्धि होगी, बुराई का निवारण हो जाएगा, तो सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि संकट हमेशा ऐसी अवधि में तैयार होता है जिसमे सामान्यतः मजदूरी की वृद्धि होती है और मजदूर वर्ग वास्तव में वार्षिक उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करता है जो उपभोग के लिए होता है. इस गंभीर और 'सरल' (!) सामान्य ज्ञान के इन पैरोकारो की दृष्टि से, इस तरह की अवधि को, उलटे, संकट को दूर करना चाहिए। " Marx, Capital, vol.2, pp.414-15

दुसरे शब्दों में, अर्थव्यवस्था में मंदी आने के ठीक पहले तेजी के चरम पर मजदूरी में बढ़ने की प्रवृति रहती है, जब श्रम की आपूर्ति में कमी पायी जाती है. इस लिए मांग में कमी अति-उत्पादन के संकट का वास्तविक कारण नहीं माना जा सकता.

लेनिन अपनी पुस्तक "आर्थिक स्वछंदतावाद का चर्तित्र चित्रण" में संकट के अप्रयाप्त उपभोग के सिद्धांत के पैरोकारो की खबर लेते हुए और संकट के मार्क्सवादी सिद्धांत की व्याख्या करते हुए कहते है:

"पूंजीवादी समाज में संचय के तथा उत्पाद के प्रत्यक्षीकरण के विज्ञानं सम्मत विश्लेषण (मार्क्सवादी) ने इस सिद्धांत के आधार को ही उलट दिया और यह भी लक्षित किया कि ठीक संकटों से पहले की अवधियों में मजदूरों का उपभोग बढ़ता है, कि अप्रयाप्त उपभोग (जिसे संकटों का कारण बताया जाता है) अत्यंत विविधतापूर्ण आर्थिक प्रणाली के अंतर्गत विधमान था, जबकि संकट केवल एक प्रणाली –पूंजीवादी प्रणाली – का अभिलाक्षणिक गुण है. यह सिद्धांत संकटों का कारण एक और अंतर्विरोध याने उत्पादन के सामजिक स्वरुप (पूँजीवाद द्वारा सामजिकृत) तथा हस्तगतकरण की निजी, व्यक्तिगत पद्धति के बीच अंतर्विरोध बताता है." लेनिन संकलित रचनायं खंड १ पेज ३१७-१८

लेनिन आगे इन सिधान्तो के बीच गहन अंतर को स्पष्ट करते हुए कहते है.
"पहला सिद्धांत (अप्रयाप्त उपभोग का सिद्धांत) बताता है कि संकटों का कारण उत्पादन तथा मजदूर वर्ग द्वारा उपभोग के बीच अंतर्विरोध है, दूसरा सिद्धांत (मार्क्सवादी) बताता है कि उत्पादन के सामजिक स्वरुप तथा हस्तगतकरण के निजी स्वरुप के बीच अंतर्विरोध है. परिणाम स्वरुप पहला सिद्धांत परिघटना की जड़ को उत्पादन के बाहर देखता है (इसी वजह से, उदहारण के लिए, सिस्मोंदी उपभोग को नजरंदाज करने तथा अपने को केवल उत्पादन में व्यस्त रखने के लिए क्लासकीय अर्थशास्त्रियों पर प्रहार करते है); दूसरा सिद्धांत इसे ठीक उत्पादन की अवस्थाओं में देखता है. संक्षेप में, पहला अप्रयाप्त उपभोग को तथा दूसरा उत्पादन की अराजकता को संकट का कारण बनता है. इस तरह दूनो सिद्धांत संकटों का कारण आर्थिक प्रणाली में अंतर्विरोध को बताते है, वहां वे अंतर्विरोध के स्वरुप बताने में एक दुसरे से सर्वथा भिन्न है. परन्तु सवाल उठता है : क्या दूसरा सिद्धांत उत्पादन तथा उपभोग के बीच विरोध से इनकार करता है? निसंधेह नहीं. वह इस तथ्य को स्वीकार करता है, लेकिन उसे मातहत, उपयुक्त स्थान पर ऐसे तथ्य के रूप में रख देता है, जो पूरे पूंजीवादी उत्पादन के केवल एक क्षेत्र से सम्बंधित है. वह हमे सिखाता है कि यह तथ्य संकटों का कारण नहीं बता सकता, जिन्हें मौजूदा आर्थिक प्रणाली में, दूसरा अधिक गहन, आधारभूत अन्तर्विरोध अर्थात उत्पादन के सामजिक स्वरुप तथा हस्तगतकरण के निजी स्वरुप के बीच अंतर्विरोध जन्म देता है. वहीँ पेज -३१८

और भी लेनिन एंगेल्स का हवाला देते हुए स्पष्ट करते है:

"एंगेल्स कहते है : संकट संभव् है, क्योकि कारखानेदार को मांग का पता नहीं है; वे अवश्यम्भावी है, लेकिन यक़ीनन इस लिए नहीं कि उत्पाद का प्रत्यक्षीकरण नहीं किया जा सकता. यह सच नहीं है : उत्पाद का प्रताक्षिकरण किया जा सकता है. संकट अवश्यम्भावी है, क्योकि उत्पादन के सामूहिक स्वरुप का हस्तगतकरण के निजी स्वरुप से टकराव होता है" वहीँ पेज ३२२

अगर संकट अवश्यम्भावी इसलिए है, क्योकि उत्पादन के सामूहिक स्वरुप का हस्तगतकरण के निजी स्वरुप से टकराव होता है जो बेरोजगारी कि समस्या को और विकराल बना देता है तो क्या यह स्पष्ट नहीं है कि जब तक इस टकराव को खत्म नहीं किया जाता, जबतक उत्पादन के सामूहिक स्वरुप का हस्तगतकरण भी सामाजिक नही किया जाता तब तक बेरोजगारी की समस्या से निदान नहीं पाया जा सकता?

अगर इस पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में श्रमिक न केवल अपने श्रम के फल पर पूर्ण अधिकार से वंचित हो जाने को, बल्कि श्रम करने के अधिकार से, काम के अधिकार से भी अनिवार्य रूप वंचित हो जाने, बेरोजगारी के आरक्षित सेना में शामिल हो जाने को अभिशप्त है, तो क्या पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में कोई भी क़ानून बना कर बेरोजगारी की समस्या से निदान पाया जा सकता है?

आज भारतीय अर्थव्यवस्था की दिनोदिन गिरती हालत क्या दर्शाती है? निजी कॉर्पोरेट घराना पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतरविरोधो से पूरी तरह त्रस्त है, अब पूंजीपति वर्ग अपनी चहेता राजनैतिक पार्टियों पर आस लगाय बैठा है जो उन्हें अच्छा सा बेलआउट पैकेज दे सके. सारी पूंजीवादी राजनैतिक पार्टियाँ जो विकास के नारे लगा रही है, दरअसल उसके पीछे संदेश यही है- उनकी सरकार अर्थव्यस्था में हस्तक्षेप कम करेगी यानि सरकारी क्षेत्र का विनिवेश करेगी, अप्रत्यक्ष कर बढाने जैसे कदम उठा कर मिहनतकस जनता पर और बोझ बढ़ाएगी, उस पैसे से कर्ज में डूबे औधोगिक घराने को बेलआउट पैकेज देगी, पूंजीपतियों के फेवर में श्रम कानून बनाएगी, प्रत्यक्ष कर कम कर के पूंजीपतियों को राहत पहुचायेगी और "कल्याणकारी राज्य" के ज़माने से मिहनतकस जनता को सब्सिडी के माध्यम से दी जा रही हर तरह के राहत, जैसे शिक्षा, स्वास्थ जैसे सेवाओं पर खर्च की जा रही राशि को क्रमशः ख़त्म करेगी. और क्या पूंजीवादी राज्य भारत में भी यही करने को आमदा नहीं है ?

भारतीय पूंजीवादी अर्थव्यस्था की इस गिरती हुई हालत में भी पूंजीवादी पार्टियाँ जनता से बड़े बड़े झूठे वादे कर रही है. इस सड़ी गली पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकने के बदले खुद को बेहतर प्रबन्धक होने का दावा करते हुए, बुर्जुआ वर्ग के इस या उस तबके की पार्टी के साथ तरह -तरह के राजनैतिक गंठजोड़ करते हुए, पूंजीवादी व्यवस्था के दाएरे में तरह तरह के 'अल्टरनेटिव' पेश करते हुए, आम मिहनतकस जनता को गुमराह करते हुए संसदीय वाम पार्टियों को हम वर्षो से देख रहे है, जाहिर है पूँजीवाद के संकटग्रस्त होने और मेहनतकशों के आन्दोलन के कमज़ोर होते जाने के साथ ही पूंजीवादी सरकारों ने अपनी इस ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाना शुरू कर दिया है। बिगुल के साथी सत्यम ने फेब्रुअरी २०१८ के अपने लेख "बेरोज़गारी क्यों पैदा होती है और इसके विरुद्ध संघर्ष की दिशा क्या हो' में ठीक ही कहते है:

"कोई भी पूँजीवादी सरकार रोज़गार को मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं देती है। आप रोज़गार की माँग पर सरकार को अदालत में नहीं घसीट सकते हैं। लेकिन पूँजीवादी लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के अनुसार भी हर नागरिक के लिए रोज़ी-रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा का इन्तज़ाम सरकार की ज़िम्मेदारी है। हालाँकि पूँजीवाद के संकटग्रस्त होने और मेहनतकशों के आन्दोलन के कमज़ोर होते जाने के साथ ही सरकारों ने अपनी इस ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाना शुरू कर दिया है। इसलिए बेरोज़गारी के सवाल पर एक सशक्त और व्यापक आन्दोलन खड़ा करना ज़रूरी है जो हर नागरिक के लिए रोज़गार की व्यवस्था करने की सरकार की ज़िम्मेदारी पर ज़ोर दे।"

और फिर वे आगे कहते है :

"ज़ाहिर है, रोज़गार का मतलब सबके लिए सरकारी नौकरी नहीं होता, जैसाकि कुछ लोग इसे पेश करते हैं। हमारे देश जैसी स्थिति में तो लाखों-लाख की संख्या में खाली पड़े पदों पर भरती करने, बन्द पड़े कारख़ानों, खदानों आदि को शुरू कराने, सार्वजनिक निर्माण के जनोपयोगी कामों को शुरू कराने, ठेकेदारी व्यवस्था को ख़त्म करके नियमित रोज़गार देने, बाल श्रम को खत्म करने, हर क्षेत्र में उचित न्यूनतम मज़दूरी को सख़्ती से लागू कराने, बेरोज़गारों को जीवनयापन लायक बेरोज़गारी भत्ता देने जैसी माँगों को पुरज़ोर ढंग से उठाने की ज़रूरत है। साथ ही, इस संघर्ष को पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध व्यापक संघर्ष से जोड़ने के लिए निरन्तर राजनीतिक प्रचार और शिक्षा के काम को चलाने की भी ज़रूरत है।"

स्पष्ट है कि सर्वहारा वर्ग की व्यापक जनाधार वाली एक सशक्त क्रन्तिकारी पार्टी के आभाव में हम अपने आन्दोलन से, जो अभी पूंजीवादी दाएरे में रहने को अभिशप्त है, मिहनतकस और बेरोजगार आबादी के लिए फिलहाल थोड़ी राहत के सिवा और उम्मीद भी नहीं कर सकते.

हालाकि सच्चाई एक यह भी है कि विज्ञान और तकनीकी का विकास आज इस हद तक हो गया है कि अगर तमाम उत्पादन के साधनो को अधिक्तम मुनाफ़ा के लिए नहीं, बल्कि सबकी जरुरत को ध्यान में रख कर, समाज के नियंत्रण में रख कर उपयोग में लाया जाये तो निश्चित रूप से सबको रोजगार दिया जा सकता है, काम का अधिकार दिया जा सकता है जैसाकि सोवियत रूस में महान सर्वाहारा वर्ग सत्ता में आने केे बाद कर दिखाया था, जहां पूर्ण रोजगार दिवा स्वप्न नहीं, एक हकीकत बन पायी थी.

और अंत में हम बेरोजगारी के खिलाफ संघर्ष कर रहे फेसबुक पर '100 प्रतिशत रोजगार गारंटी चाहिए' नामक ग्रुप द्वारा व्यक्त किये गए विचारों को उद्धृत किये बिना हम नहीं रह सकते जो थोड़ी बहुत त्रुटियों के वावजूद बेरोजगारी के खिलाफ लड़ रहे नौजवानों के मनोभाव को आकर्षक ढंग से पेश करता है और जो PDYF, PDSF, विमुक्ता और सर्वहारा जन मोर्चा और उनके साथी खुसबू के विचारो के भी थोडा करीब है जो रोजगार गारंटी कानून नहीं, रोजगार की गारंटी की मांग के लिए अभियान इस सोच के साथ चला रहे है कि अगर इस पूँजीवादी व्यवस्था में यह नही हो सकता है तो जिस व्यवस्था में यह सम्भव हो उस व्यवस्था की ओर कुच करने के लिए काम करें, संगठित हो और उन तमाम शक्तियों से एकबद्ध हो जो पूर्ण रोजगार वाली व्यवस्था के लिए लड़ रहे हैं यानी समाजवाद और सर्वहारा जनतंत्र के लिए लड़ रहे हैं. '100 प्रतिशत रोजगार गारंटी चाहिए' नामक ग्रुप ने अपने बातो को कुछ इस तरह रखा है :

"कलमघिस्सू बुद्धिजीवी और सरकारें दिन-रात इस बात का प्रचार करती रहती हैं कि सबको नौकरी नहीं दी जा सकती है. जबकि सच्चाई इसके उलट है. हमारा देश इतना संसाधन सम्पन्न हैं कि सबको सरकारी नौकरी दी जा सकती है. इसके लिए कई ठोस कदम उठाने होंगे. जैसे- मुनाफे की लूट का चारगाह बन चुके निजी क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाय. पूंजीपतियों की टैक्समाफ़ी खत्म करके, उनके ऊपर बकाया कर्जों की वसूली करके और भ्रष्ट अधिकारियों तथा नेताओं की सम्पत्ति जब्त करके जो कई अरबों का कोष तैयार होगा, उसे रोजगार सृजन के उद्यमों में लगाया जाए. जैसे—नहरों, तालाबों, नदियों और अन्य प्राकृतिक स्थलों की साफ़-सफाई, सडक तथा रेल परिवहन और अन्य मूलभूत ढांचें में सुधार, कपड़ा, दवा और अन्य रोजमर्रा की जरूरतों के उद्योग को बढावा, निर्माण उद्योग को नये सिरे से खड़ा करना और देश में रिसर्च को बढ़ावा देना आदि. लेकिन क्या मौजूदा सरकारों से हम ऐसी उम्मीद कर सकते हैं जो इसका ठीक उलटा कर रही हो. सरकारें औने-पौने दामों पर सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को निजी हाथों में बेचती जा रही हैं. मौजूदा केंद्र सरकार पीपीपी मॉडल के तहत पहले चरण में देश के 23 स्टेशनों को निजी हाथों में सौंप देगी. कानपुर को 200 और अलहाबाद को 150 करोड़ में बेचा जाएगा. यह बहुत घिनौना है, लेकिन इस सरकार से इससे अलग कुछ करने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती. इसलिए सबको रोजगार मुहैया कराने वाली सरकार और समाज व्यवस्था का निर्माण संघर्षों के रास्ते पर ही सम्भव है."

जाहिर है कि यह सर्वहारा वर्ग की व्यापक जनाधार वाली एक सशक्त क्रन्तिकारी पार्टी ही राज्य पर पूर्ण अधिकार करने के बाद ऐसे क्रांतिकारी कदम उठा सकती है.

एंगेल्स के एक बहुत ही प्रेरक और सटीक उद्दहरण से हम अपनी बात समाप्त करते है :

"लेकिन ये आविष्कार और खोजें, जो नित्य बढ़ती हुई गति से एक दूसरे से आगे बढ़ रही हैं, मानव-श्रम की उत्पादनशीलता, जो दिन-ब-दिन इतनी तेज़ी के साथ बढ़ रही है कि पहले सोचा भी नहीं जा सकता था, अन्त में जाकर एक ऐसा टकराव पैदा करती हैं, जिसके कारण आज की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का विनाश निश्चित है। एक ओर, अकूत धन-सम्पत्ति और मालों की इफ़रात है, जिनको ख़रीदार ख़रीद नहीं पाते; दूसरी ओर, समाज का अधिकांश भाग है, जो सर्वहारा हो गया है, उजरती मज़दूर बन गया है और जो ठीक इसीलिए इन इफ़रात मालों को हस्तगत करने में असमर्थ है। समाज के एक छोटे-से अत्यधिक धनी वर्ग और उजरती मज़दूरों के एक विशाल सम्पत्तिविहीन वर्ग में बँट जाने के परिणामस्वरूप उसका ख़ुद अपनी इफ़रात से गला घुटने लगता है, जबकि समाज के सदस्यों की विशाल बहुसंख्या घोर अभाव से प्रायः अरक्षित है या नितान्त अरक्षित तक है। यह वस्तुस्थिति अधिकाधिक बेतुकी और अधिकाधिक अनावश्यक होती जाती है। इस स्थिति का अन्त अपरिहार्य है। उसका अन्त सम्भव है। एक ऐसी नयी सामाजिक व्यवस्था सम्भव है, जिसमें वर्त्तमान वर्ग-भेद लुप्त हो जायेंगे और जिसमें–शायद एक छोटे-से संक्रमण-काल के बाद, जिसमें कुछ अभाव सहन करना पड़ेगा, लेकिन जो नैतिक दृष्टि से बड़ा मूल्यवान काल होगा–अभी से मौजूद अपार उत्पादक-शक्तियों का योजनाबद्ध रूप से उपयोग तथा विस्तार करके और सभी के लिए काम करना अनिवार्य बनाकर, जीवन-निर्वाह के साधनों को, जीवन के उपभोग के साधनों को तथा मनुष्य की सभी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के विकास और प्रयोग के साधनों को समाज के सभी सदस्यों के लिए समान मात्र में और अधिकाधिक पूर्ण रूप से सुलभ बना दिया जायेगा।" मार्क्स की पुस्तक "मजदूरी श्रम और पूँजी" पर फ्रेडरिक एंगल्स द्वारा लिखित भूमिका से

Wednesday, 3 April 2024

Lession from life and struggle of Bhagat Singh

Bhagat Singh: A Revolutionary Icon for India's Capitalist Struggle

Bhagat Singh, the young Indian revolutionary, remains a powerful symbol of resistance against oppression. His life and struggle offer valuable lessons for the youth of India grappling with the harsh realities of capitalism.

From a Revolutionary Perspective:

  • Armed Resistance: Bhagat Singh's act of throwing a bomb in the Central Assembly was a powerful act of defiance against British colonialism. It challenged the legitimacy of the colonial state and inspired others to take up arms. For today's youth, it raises the question of whether non-violent protests are enough to achieve systemic change in a capitalist system that prioritizes profit over people.
  • Anti-Imperialism: Singh's struggle was deeply intertwined with the fight against British imperialism. In today's globalized world, a similar critique can be applied to powerful multinational corporations that exploit Indian resources and labor. The youth can learn from Singh's commitment to national self-determination and economic justice.
  • Socialism as an Alternative: Bhagat Singh became a socialist after witnessing the brutality of capitalism. He saw it as a system that perpetuated inequality and poverty. The vast economic disparity in contemporary India echoes Singh's concerns. His life can inspire young people to explore socialist alternatives that prioritize social welfare and worker ownership.


  • Class Struggle: Marxist theory emphasizes the inherent conflict between the capitalist class (bourgeoisie) and the working class (proletariat). Singh's act can be seen as a desperate act of a young man from a poor family fighting against a system rigged in favor of the wealthy. The struggles of Indian youth facing unemployment, low wages, and rising costs of living echo this class struggle. Singh's story can inspire them to organize and fight for their rights.
  • False Consciousness: Marx argued that workers under capitalism are often unaware of their exploitation. Singh's revolutionary act aimed to awaken the masses to the injustices of the system. Today's youth can learn from him to critically analyze the media and education systems that often promote a pro-capitalist ideology. They can work to spread awareness about worker exploitation and fight for a more equitable distribution of wealth.
  • Revolution as Change: Marx believed that a socialist revolution was necessary to overthrow the capitalist system. While Singh may not have envisioned a full-blown revolution, his actions challenged the status quo. Young people in India can learn from his commitment to radical change and the pursuit of a more just society.


The core message of Bhagat Singh's life – the fight against exploitation and the pursuit of a more just society – holds immense value for the youth struggling within India's capitalist system.


भगत सिंह: भारत के पूंजीवादी संघर्ष के लिए एक क्रांतिकारी प्रतीक

युवा भारतीय क्रांतिकारी भगत सिंह, उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिरोध के एक शक्तिशाली प्रतीक बने हुए हैं। उनका जीवन और संघर्ष पूंजीवाद की कठोर वास्तविकताओं से जूझ रहे भारत के युवाओं के लिए मूल्यवान सबक प्रदान करता है।

एक क्रांतिकारी परिप्रेक्ष्य से:

  • सशस्त्र प्रतिरोध: भगत सिंह का सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने का कार्य ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ अवज्ञा का एक शक्तिशाली कार्य था। इसने औपनिवेशिक राज्य की वैधता को चुनौती दी और दूसरों को हथियार उठाने के लिए प्रेरित किया। आज के युवाओं के लिए, यह सवाल उठाता है कि क्या अहिंसक विरोध पूंजीवादी व्यवस्था में प्रणालीगत परिवर्तन हासिल करने के लिए पर्याप्त है जो लोगों पर लाभ को प्राथमिकता देता है।
  • साम्राज्यवाद विरोध: सिंह का संघर्ष ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई से गहराई से जुड़ा हुआ था। आज की वैश्वीकृत दुनिया में, ऐसी ही आलोचना उन शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय निगमों पर लागू की जा सकती है जो भारतीय संसाधनों और श्रम का शोषण करते हैं। युवा राष्ट्रीय आत्मनिर्णय और आर्थिक न्याय के प्रति सिंह की प्रतिबद्धता से सीख सकते हैं।
  • विकल्प के रूप में समाजवाद: पूंजीवाद की क्रूरता को देखने के बाद भगत सिंह समाजवादी बन गये। उन्होंने इसे एक ऐसी व्यवस्था के रूप में देखा जो असमानता और गरीबी को कायम रखती है। समकालीन भारत में विशाल आर्थिक असमानता सिंह की चिंताओं को प्रतिबिंबित करती है। उनका जीवन युवाओं को समाजवादी विकल्प तलाशने के लिए प्रेरित कर सकता है जो सामाजिक कल्याण और श्रमिक स्वामित्व को प्राथमिकता देते हैं।

मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य से:

  • वर्ग संघर्ष: मार्क्सवादी सिद्धांत पूंजीपति वर्ग (बुर्जुआ वर्ग) और श्रमिक वर्ग (सर्वहारा) के बीच अंतर्निहित संघर्ष पर जोर देता है। सिंह के कृत्य को अमीरों के पक्ष में धांधली वाली व्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाले एक गरीब परिवार के युवक के हताश कृत्य के रूप में देखा जा सकता है। बेरोजगारी, कम वेतन और जीवन यापन की बढ़ती लागत का सामना कर रहे भारतीय युवाओं के संघर्ष इस वर्ग संघर्ष की प्रतिध्वनि करते हैं। सिंह की कहानी उन्हें संगठित होने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित कर सकती है।
  • झूठी चेतना: मार्क्स ने तर्क दिया कि पूंजीवाद के तहत श्रमिक अक्सर अपने शोषण से अनजान होते हैं। सिंह के क्रांतिकारी कृत्य का उद्देश्य जनता को व्यवस्था के अन्याय के प्रति जागृत करना था। आज के युवा उनसे मीडिया और शिक्षा प्रणालियों का आलोचनात्मक विश्लेषण करना सीख सकते हैं जो अक्सर पूंजीवाद समर्थक विचारधारा को बढ़ावा देते हैं। वे श्रमिकों के शोषण के बारे में जागरूकता फैलाने और धन के अधिक न्यायसंगत वितरण के लिए लड़ने के लिए काम कर सकते हैं।
  • परिवर्तन के रूप में क्रांति: मार्क्स का मानना ​​था कि पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए समाजवादी क्रांति आवश्यक है। हालाँकि सिंह ने पूर्ण क्रांति की कल्पना नहीं की होगी, लेकिन उनके कार्यों ने यथास्थिति को चुनौती दी। भारत में युवा आमूल-चूल परिवर्तन और अधिक न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से सीख सकते हैं।

भगत सिंह के जीवन का मूल संदेश - शोषण के खिलाफ लड़ाई और एक अधिक न्यायपूर्ण समाज की खोज - भारत की पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर संघर्ष कर रहे युवाओं के लिए बहुत महत्व रखता है।


१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...