बेरोजगारी के प्रश्न पर चले बहस पर टिपण्णी (भाग २ )
लेकिन इस बढती हुई बेरोजगारी का कारण क्या है?
मार्क्स ने दिखाया है कि बाजार के लिए प्रतिस्पर्धा के प्रलोभन के तहत पूंजीवादी उद्योग श्रम-विस्थापन मशीनरी का उपयोग करके या कम श्रम के साथ उतना ही उत्पादन हासिल करने के अन्य तरीको के द्वारा हमेशा उत्पादन की लागत को कम करना चाहता है, इस प्रकार बेरोजगारी पैदा करता है. इसके अलावे पूंजीवाद को "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" की जरूरत होती है ताकि पुराने उद्योगों के विस्तार और नए उद्योगों को लगाने के लिए समय-समय पर मिलने वाले अवसरों का फायदा उठाने में सक्षम हो सके, और मजदूरी को एक स्तर से नीचे रखा जा सके जो उत्पादन को लाभदायक बनाता है. मार्क्स के लिए चक्रीय संकट अपरिहार्य हैं और उतना ही अपरिहार्य अंततः समृद्धि है जो विस्तार, उछाल, संकट और मंदी के दूसरे चक्र से हो कर गुजरता है. मंदी के दौरों में मज़दूरों पर बेरोज़गारी की मार और भी बुरी तरह पड़ती है।
इस तरह मार्क्स ने मुख्य रूप से बेरोजगारी के निम्न तीन कारण बताये है:
१ . प्रतिस्पर्धा के तहत पूंजीवादी उद्योग में श्रम-विस्थापन मशीनरी का उपयोग
२. श्रम की "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" की जरूरत
३. अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट
१. प्रतिस्पर्धा के तहत पूंजीवादी उद्योग में श्रम-विस्थापन मशीनरी का उपयोग-
मशीनें आधुनिक पूंजीवादी उत्पादन–तंत्र के आधार हैं. पूँजीवाद पूर्व सामजिक व्यवस्था में उत्पादन का आधार मशीने नहीं बल्कि छोटे छोटे औजार होते थे जिसके ऊपर कामगार का निजी स्वामित्व होता था. लेकिन पूंजीवादी उत्पादन तंत्र में विराट उत्पादन के साधनों, मशीने आदि पर कामगार का नहीं बल्कि पूंजीपति का निजी स्वामित्व होता है. अगर पूँजीपति अपने कारख़ाने में उत्पादन कराने के लिए मज़दूर की श्रम शक्ति आठ घण्टे के लिए ख़रीदता है और मज़दूर को मिलने वाले श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर उत्पादन अगर मज़दूर चार घण्टे में ही कर देता है तो शेष चार घंटे में जो मूल्य वह पैदा करता है उसे पूँजीपति हड़प लेता है. इसे 'अतिरिक्त मूल्य' कहते हैं। इस अतिरिक्त मूल्य के एक हिस्से को पूँजीपति अपने अय्याशी भरे जीवन पर ख़र्च करता है, और बाक़ी को पूँजी में बदलकर उससे अपने कारोबार को और बढ़ाता है। इस तरह पूंजीपति संचय और अधिशेष मूल्य के पूंजीकरण के माध्यम से पूंजी का विस्तार करता है. इसे पूँजी का संकेंद्रण कहा जाता है. चुकि पूंजीपतियों का लक्ष्य अधिक्तम मुनाफा कमाना होता है, इस लिए लगातार उसकी कोशिश होती है कि वह उत्पादन के ऐसे उन्नत साधन, या श्रम-विस्थापन मशीनरी को लगाए जिससे कि मजदूर को मिलने वाला श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर उत्पादन मजदूर चार घंटे के बदले उससे कम, उदहारण के लिए मान ले कि दो घंटा में कर ले. परिणामस्वरुप, पूंजीपति को पुराने स्तर पर उत्पादन को बनाये रखने के लिए अब आधे मजदूरों की जरूरत पड़े गी और आधे मजदूर बेरोजगार हो जाएगे. इस तरह पूँजीवाद पूर्व सामजिक व्यवस्था के कामगर से पूंजीवादी व्यवस्था में सर्वहारा बनने बनने की प्रक्रिया में श्रमिक न केवल अपने श्रम के फल पर पूर्ण अधिकार से वंचित हो जाता है बल्कि श्रम करने के अधिकार से, काम के अधिकार से भी अनिवार्य रूप वंचित हो जाता है, श्रमिको को बेरोजगारी के आरक्षित सेना में शामिल होना पड़ता है.
उन्नत और श्रम-विस्थापन मशीनरी के उपयोग के द्वारा लागत कम कर सकने में सक्षम होने के कारण पूंजीपति बाजार की प्रतिस्पर्धा में दुसरे पूंजीपतियों को पछाड़ देने में कारगर साबित होंते है और अंततः उन्हें दिवालिया होने को मजबूर होना पड़ता है, पछाड़ दिए गए कारखानों को घाटे में बहुत दिनों तक न चल सकने के कारण उन्हें बंद होना पड़ता है, वित्तीय संस्थानों, बैंक से लिए कर्ज चुकाने में असमर्थ होने के कारण उनकी परिसम्पत्तिया दुसरे पूंजीपति द्वारा खरीद ली जाती है, मजदूरों को बेरोजगार होना पड़ता है, बहुत बड़े पैमाने पर उत्पादक शक्तियों की बर्बादी होती है. संचय के इस विधि द्वारा पूँजी के विस्तार को पूँजी का केंद्रीकरण कहा जाता है.
भारत में भी आज ऐसे नीलाम होने वाली कम्पनियों की एक लम्बी सूची राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के साईट पर देखी जा सकती है जिसके बारे में बुर्जुआ अखबारों में अक्सर खबर सुर्खियों में आती रहती है. हाल ही में बैंक के कर्ज में फंसे 28 बड़े खातों में से 23 को ऋणशोधन प्रक्रिया के लिए भेजने की खबर आयी थी. भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी दूसरी सूची में इस तरह के 28 खातों को चिन्हित किया था और उनका निस्तारण 13 दिसंबर तक करने को कहा था. यूनिटेक लिमिटेड, जेपी बिल्डर, अर्थ, इरा और गार्डेनिया बिल्डर, एयरसेल भूषण स्टील, आरकॉम ने बैंक और फाइनेंसरों के पैसे चुकाने में असमर्थतता जताने पर या तो दिवालिया घोषित हो चुके है या इसकी राह पर है.
इस तरह पूँजी के संचय के दोनों विधि - पूँजी का संकेंद्रण और पूँजी का केंद्रीकरण - का अनिवार्य परिणाम मजदूरों की बेरोजगारी में वृद्धि होता है. आज इसका सबसे अच्छा उदाहरण दूरसंचार क्षेत्र में देखा जा सकता है. दूरसंचार कंपनियों को सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर सेवाएं उपलब्ध कराने वाली 65 तकनीकी कंपनियों के करीब 100 वरिष्ठ एवं मध्यम स्तर के कर्मचारियों के बीच किए गए सर्वेक्षण पर आधारित रिपोर्ट के आधार पर वायर में छपे एक खबर के अनुसार साल 2017 की शुरुआत से जनवरी २०१८ तक दूरसंचार क्षेत्र की 40 हज़ार नौकरियां जा चुकी थी और 80 से 90 हज़ार नौकरियां जाने की संभावना बनी हुई थी.किसी दौर में दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की करने वाले दूरसंचार क्षेत्र के लिए अगले छह से नौ महीने भारी संकट के रहने वाले हैं.
२. "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" की जरूरत -
श्रम की "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" पूंजी के संचय की प्रक्रिया का परिणाम है. प्राक पूंजीवादी व्यवस्था में अपने उत्पादन के साधनों पर कामगार का निजी स्वामित्व छोटे उद्योग का आधार होता था, चाहे वह छोटा उद्योग खेती से संबंधित हो या मेन्युफेक्चर से अथवा दोनों से। उत्पादक शक्ति के विकास के साथ पूँजीवाद में अपने श्रम से कमायी हुई निजी संपत्ति का स्थान पूंजीवादी निजी संपत्ति ले लेती है, जो कि दूसरे लोगों के नाम मात्र के लिए स्वतंत्र श्रम पर अर्थात् मजदूरी पर आधारित होती है। रूपांतरण की यह प्रक्रिया पुराने समाज को ऊपर से नीचे तक छिन्न-भिन्न कर देती है, उत्पादन के छोटे साधनों पर स्वामित्व रखने वाले कामगार सर्वहारा बन जाते हैं और उनके श्रम के साधन पूंजी में रूपांतरित होते जाते हैं, पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली स्थापित होती है जिसमे उत्पादन के साधनों पर अब पूंजीपतियों का स्वामित्व होता है. इस तरह बेरोजगारों की एक विशाल फ़ौज खड़ी हो जाती है.
विशाल पैमाने के उद्योग का विकास मजदूर की असुरक्षित स्थिति को बदतर बना देता है. पूंजी के संचय की प्रक्रिया की तेज़ गति से श्रम की औद्योगिक आरक्षित सेना बन जाती है जो मजदूर की सक्रीय सेना पर लगातार दबाब बनाये रखती है और कारखानों में रोजगारशुदा मजदूरों को अपनी मजदूरी में उल्लेखनीय वृद्धि करवाने का मौका नहीं देती है. आधुनिक उद्योग के जीवन-चक्र में उत्पादन में सामान्य वृद्धि के बाद सहसा बहुत अधिक वृद्धि होती है जिसके बाद संकट, मंदी और ठहराव की अवधि आती है. इसका विशिष्ट परिणाम यह होता है कि बेशी आबादी में वृद्धि हो जाती है और औद्योगिक आरक्षित सेना के आकार में परिवर्तन होने लगता है. आरक्षित सेना जितनी बडी होती है उतना ही मेहनतकशों के कंगालों की कतार में शामिल हो जाने का खतरा बढ़ता जाता है. यह प्रक्रिया उस बिन्दू तक पहुँच सकती है कि समाज इन्हें मुह्ताजखाने में खिलाने या इन्हें दूसरे किस्म की राहत देने के लिए बाध्य हो जाये. मार्क्स ने इसका सजीव वर्णन इस प्रकार किया था:
"इसका परिणाम यह होता है कि जिस अनुपात में पूंजी का संचय होता जाता है, उसी अनुपात में मजदूर की हालत अनिवार्य रूप से बिगड़ती जाती है — उसको चाहे ज्यादा मजदूरी मिलती हो या कम. अंत में वह नियम जो सापेक्ष बेशी आबादी या औद्योगिक आरक्षित सेना का (पूंजी) संचय के विस्तार और तेजी के साथ संतुलन कायम करता है, मजदूर को पूंजी के साथ इतनी मजबूती के साथ जकड़ देता है जितनी मजबूती के साथ हिपेसियस की बनाई जंजीर प्रोमेथियस को चट्टान के साथ नहीं जकड़ सकी थी. इस नियम के फलस्वरूप पूंजी संचय के साथ-साथ दरिद्रता बढती जाती है. इसलिए यदि एक छोर पर धन, का संचय होता है, तो इसके साथ-साथ दूसरे छोर पर — यानी उस वर्ग में जो खुद अपने श्रम के उत्पाद को पूंजी के रूप में तैयार करता है — गरीबी, यातनादायक श्रम, दासता, अज्ञान, पाशविकता और मानसिक पतन का संचय होता जाता है." (मार्क्स, कैपिटल, खंड 1, पृ. 714)
हालही के एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियां का 82% दौलत 1% कुबेरों के पास है। उस 1% पूंजीपतियों की आय 2015 के बाद 182 गुना बढ़ी जबकि न्यूनतम 50% आबादी की आय में कोई वृद्धि नही हुई.
समस्त सम्पदा और समस्त मूल्य का मूल स्रोत श्रम है, जबकि दौलत श्रमिको के पास नहीं, बल्कि निठल्ले पूंजीपतियों के पास जमा हो रहा है। पूँजीवाद के विकास के मॉडल की यह विशेषता दुनिया के हर पूंजीवादी देश में देखा जा सकता है। भारत इसका अपवाद नहीं है: विकास के इस मॉडल में किसी भी देश के बहुमत आबादी की क्या दिलचस्पी हो सकती है? बहुमत आवादी इस मॉडल को क्यों बचाना चाहे गी? बहुमत आबादी का हित इस मॉडल कें सुधार में नहीं, इसके समूल नाश में है.
३. अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट
अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट से हम सभी भली भांति परिचित है और अक्सर हम इसकी चर्चा भी करते है. लेकिन इस अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट का कारण क्या है ?
मार्क्स ने पूँजीवाद का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया, उसमे उनके दो निम्न बुनियादी विचार उभर कर सामने आये हैं:
१.पूंजीवादी संकट पूंजीवादी समाज के बुनियादी अंतर्विरोध की अभिव्यक्ति है; उत्पादन के सामाजिक चरित्र और हस्तगतकारण के निजी चरित्र और फलस्वरूप एक तरफ उत्पादन का तेजी से विस्तार की प्रवृत्ति तो दूसरे तरफ खपत की सीमाएं.
२. लाभ की दर गिरने की प्रवृत्ति पूँजीवाद के आंतरिक अंतर्विरोध का कारण हैं, जो आर्थिक संकट में अभिव्यक्त होता है.
ये दोनो ही विचार निकटता से जुड़े हुए हैं, वे दो वैकल्पिक सिद्धांत नहीं हैं, वे एक स्पष्ट आर्थिक सिद्धांत के दो पहलू है. फिर भी कई लोग अक्सर लाभ की दर गिरने की प्रवृत्ति को ही पूंजीवादी संकट का कारण मानते है.
लेकिन भारत में नकली वामपंथियों के बीच सबसे लोकप्रिय वह सिद्धांत है जो संकट की व्याख्या "अप्रयाप्त उपभोग" के सन्दर्भ में करता है. मार्क्स और एंगेल्स ने संकट के अनगढ़ एवं अतिसरलीकृत अप्रयाप्त उभोग के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया था फिर भी आज हमारे आन्दोलन के साहित्य में उसका प्रभाव दीख जाता है. आइये, थोड़े विस्तार से इस पर चर्चा करते है.
19 वीं सदी के आरम्भ में जब पूंजीवादी दुनिया में संकट की चक्रीय और नियमित घटना एक आम बात बनने लगी, संकट और उनके कारण की व्याख्या करने के लिए कई सिद्धांत सामने आये. इन व्याख्याओं में से एक जो काफी लोकप्रिय हुआ और आज तक है, वह तथाकथित "अप्रयाप्त उपभोग" का सिद्धांत है। दुसरे शब्दों में यह एक ऐसा सिद्धांत है जो संकट की व्याख्या "अप्रयाप्त उपभोग" के सन्दर्भ में करता है.
थोड़े शब्दों में रखा जाए तो अप्रयाप्त उपभोग का सिद्धांत कहता है कि चुकि पूंजीवादी समाज मजदूरों के शोषण पर आधारित है, मजदूरों का उपभोग भी सिमित होता जाता है और अनिवार्य रूप से बहुत ही छोटा होता जाता है. अगर मजदूर जितना उत्पादन करते है उतना उपभोग नहीं करते तो बेशी मूल्य कैसे प्रत्याक्षिकृत (बेचा) किया जा सकता है.पूंजीवाद के अंतर्गत किसी माल का मूल्य स्थिर पूँजी + परिवर्ती पूँजी + बेशी मूल्य के रूप में प्रकट होता है. तो सवाल यह उठता है कि बेशी मूल्य का अंश कैसे प्रत्याक्षिकृत होता है.
यह 'अप्रयाप्त उपभोग', क्रय शक्ति में कमी मजदूरी में कमी या बहुतयात आबादी की गरीबी पूंजीवादी आर्थिक संकट के कारणों का सिर्फ एक पहलु है, इसलिए उपभोग बढ़ा कर, क्रय शक्ति में वृद्धि कर के या आम गरीब आबादी के जीवन स्तर में सुधार कर के भी पूंजीवादी संकट से पार नहीं पाया जा सकता जैसा कि कीन्स और कलमघिस्सू बुर्जुआ अर्थशाश्त्री और कुछ सुधारवादी नकली कम्युनिस्ट अक्सर नुश्खे पेश करते रहते है.
अप्रयाप्त उपभोग के सिद्धांत के पैरोकार पूंजीवादी समाज के कुल मांग का कारण सिर्फ व्यक्तिगत उपभोग में ही देखते है जबकि कुल मांग उत्पादक उपभोग और व्यक्तिगत उपभोग का जोड़ होता है. समाज में उत्पादित होने वाली वस्तुओं में उत्पादन के साधन, कच्चे माल आदि भी होते है जिसकी मांग मजदूरों या आम जनता के व्यक्तिगत उपभोग के लिए नहीं होती बल्कि उत्पादन को उसी स्तर पर बनाये रखने के लिए घिस गए उत्पादन के साधनों के प्रतिस्थापन के लिए या नए उत्पादन के साधनों की मांग उत्पादन का और विस्तार करने के लिए, कच्चे माल के लिए – संक्षेप में पूंजीपतियों द्वारा उत्पादक उपभोग के लिए- होती है. अप्रयाप्त उपभोग के सिद्धांतकार इस गलती को अक्सर दुहराते है और समग्र पूंजीवादी उपत्पादन, उसके विकास और प्रत्यक्षीकरण का बहुत ही गलत और भोंडी समझ पेश करते है.
अक्सर "अप्रयाप्त-उपभोग" के सिद्धांत को मार्क्स के विचारों के रूप में पेश किया जाता है. परन्तु जैसा कि मार्क्स ने बहुत पहले ही व्याख्या की है, यह सही नहीं है. हालाकि उत्पादक शक्तियों के व्यापक विकास के बावजूद जनता के लिए निश्चित रूप से उपभोग में कमी अस्तित्व में होती है, लेकिन यह पूंजीवादी संकट के कारणों के सिर्फ एक पक्ष को ही रखता है, सिर्फ एकतरफा विश्लेषण प्रस्तुत करता है. फिर भी यह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के एक महत्त्वपूर्ण अंतर्विरोध को व्यक्त करता है जो उत्पादन के सामजिक चरित्र और हस्तगत के निजी स्वरुप के विरोधाभास पर टिका होता है. मार्क्स ने इस अंतर्विरोध का वर्णन कई जगह किया है.
पूँजी के दुसरे खंड में मार्क्स ने खुद पूंजीवादी संकट के कारण के प्रसंग में "अप्रयाप्त -उपभोग" की धारणा का खंडन किया है. अकेला उपभोग (या इसका आभाव) पूंजीवादी संकट का मूलभूत कारण नहीं है. अगर ऐसा होता तो जनता की क्रय शक्ति बढ़ा कर इस समस्या का निदान पाया जा सकता था. मार्क्स ने इसका जबाब इन शब्दों में दिया है:
"यह कहना सरासर पुनरुक्ति है कि संकट प्रभावी खपत, या प्रभावी उपभोक्ताओं की कमी की वजह से हैं। पूंजीवादी व्यवस्था प्रभावी खपत के अलावे खपत के किसी भी अन्य दुसरे तरीके को नहीं जानता. वस्तुओं के अविक्रेय होने का केवल एक ही मतलब है कि उनके लिए कोई प्रभावी खरीदार नहीं पाया गया है यानी, उपभोक्ता (क्योकि वस्तुएं अंतिम विश्लेषण में उत्पादक या व्यक्तिगत उपभोग के लिए खरीदे जाते हैं"
वह आगे कहते है:
"लेकिन अगर इस पुनरुक्ति को कोई एक गंभीर औचित्य की झलक देने का प्रयास यह कहते हुए करता है कि मजदूर वर्ग अपने खुद के उत्पाद का एक बहुत छोटा सा हिस्सा प्राप्त करता है और जैसे ही यह इसका एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करेगा और परिणामस्वरुप मजदूरी में वृद्धि होगी, बुराई का निवारण हो जाएगा, तो सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि संकट हमेशा ऐसी अवधि में तैयार होता है जिसमे सामान्यतः मजदूरी की वृद्धि होती है और मजदूर वर्ग वास्तव में वार्षिक उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करता है जो उपभोग के लिए होता है. इस गंभीर और 'सरल' (!) सामान्य ज्ञान के इन पैरोकारो की दृष्टि से, इस तरह की अवधि को, उलटे, संकट को दूर करना चाहिए। " Marx, Capital, vol.2, pp.414-15
दुसरे शब्दों में, अर्थव्यवस्था में मंदी आने के ठीक पहले तेजी के चरम पर मजदूरी में बढ़ने की प्रवृति रहती है, जब श्रम की आपूर्ति में कमी पायी जाती है. इस लिए मांग में कमी अति-उत्पादन के संकट का वास्तविक कारण नहीं माना जा सकता.
लेनिन अपनी पुस्तक "आर्थिक स्वछंदतावाद का चर्तित्र चित्रण" में संकट के अप्रयाप्त उपभोग के सिद्धांत के पैरोकारो की खबर लेते हुए और संकट के मार्क्सवादी सिद्धांत की व्याख्या करते हुए कहते है:
"पूंजीवादी समाज में संचय के तथा उत्पाद के प्रत्यक्षीकरण के विज्ञानं सम्मत विश्लेषण (मार्क्सवादी) ने इस सिद्धांत के आधार को ही उलट दिया और यह भी लक्षित किया कि ठीक संकटों से पहले की अवधियों में मजदूरों का उपभोग बढ़ता है, कि अप्रयाप्त उपभोग (जिसे संकटों का कारण बताया जाता है) अत्यंत विविधतापूर्ण आर्थिक प्रणाली के अंतर्गत विधमान था, जबकि संकट केवल एक प्रणाली –पूंजीवादी प्रणाली – का अभिलाक्षणिक गुण है. यह सिद्धांत संकटों का कारण एक और अंतर्विरोध याने उत्पादन के सामजिक स्वरुप (पूँजीवाद द्वारा सामजिकृत) तथा हस्तगतकरण की निजी, व्यक्तिगत पद्धति के बीच अंतर्विरोध बताता है." लेनिन संकलित रचनायं खंड १ पेज ३१७-१८
लेनिन आगे इन सिधान्तो के बीच गहन अंतर को स्पष्ट करते हुए कहते है.
"पहला सिद्धांत (अप्रयाप्त उपभोग का सिद्धांत) बताता है कि संकटों का कारण उत्पादन तथा मजदूर वर्ग द्वारा उपभोग के बीच अंतर्विरोध है, दूसरा सिद्धांत (मार्क्सवादी) बताता है कि उत्पादन के सामजिक स्वरुप तथा हस्तगतकरण के निजी स्वरुप के बीच अंतर्विरोध है. परिणाम स्वरुप पहला सिद्धांत परिघटना की जड़ को उत्पादन के बाहर देखता है (इसी वजह से, उदहारण के लिए, सिस्मोंदी उपभोग को नजरंदाज करने तथा अपने को केवल उत्पादन में व्यस्त रखने के लिए क्लासकीय अर्थशास्त्रियों पर प्रहार करते है); दूसरा सिद्धांत इसे ठीक उत्पादन की अवस्थाओं में देखता है. संक्षेप में, पहला अप्रयाप्त उपभोग को तथा दूसरा उत्पादन की अराजकता को संकट का कारण बनता है. इस तरह दूनो सिद्धांत संकटों का कारण आर्थिक प्रणाली में अंतर्विरोध को बताते है, वहां वे अंतर्विरोध के स्वरुप बताने में एक दुसरे से सर्वथा भिन्न है. परन्तु सवाल उठता है : क्या दूसरा सिद्धांत उत्पादन तथा उपभोग के बीच विरोध से इनकार करता है? निसंधेह नहीं. वह इस तथ्य को स्वीकार करता है, लेकिन उसे मातहत, उपयुक्त स्थान पर ऐसे तथ्य के रूप में रख देता है, जो पूरे पूंजीवादी उत्पादन के केवल एक क्षेत्र से सम्बंधित है. वह हमे सिखाता है कि यह तथ्य संकटों का कारण नहीं बता सकता, जिन्हें मौजूदा आर्थिक प्रणाली में, दूसरा अधिक गहन, आधारभूत अन्तर्विरोध अर्थात उत्पादन के सामजिक स्वरुप तथा हस्तगतकरण के निजी स्वरुप के बीच अंतर्विरोध जन्म देता है. वहीँ पेज -३१८
और भी लेनिन एंगेल्स का हवाला देते हुए स्पष्ट करते है:
"एंगेल्स कहते है : संकट संभव् है, क्योकि कारखानेदार को मांग का पता नहीं है; वे अवश्यम्भावी है, लेकिन यक़ीनन इस लिए नहीं कि उत्पाद का प्रत्यक्षीकरण नहीं किया जा सकता. यह सच नहीं है : उत्पाद का प्रताक्षिकरण किया जा सकता है. संकट अवश्यम्भावी है, क्योकि उत्पादन के सामूहिक स्वरुप का हस्तगतकरण के निजी स्वरुप से टकराव होता है" वहीँ पेज ३२२
अगर संकट अवश्यम्भावी इसलिए है, क्योकि उत्पादन के सामूहिक स्वरुप का हस्तगतकरण के निजी स्वरुप से टकराव होता है जो बेरोजगारी कि समस्या को और विकराल बना देता है तो क्या यह स्पष्ट नहीं है कि जब तक इस टकराव को खत्म नहीं किया जाता, जबतक उत्पादन के सामूहिक स्वरुप का हस्तगतकरण भी सामाजिक नही किया जाता तब तक बेरोजगारी की समस्या से निदान नहीं पाया जा सकता?
अगर इस पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में श्रमिक न केवल अपने श्रम के फल पर पूर्ण अधिकार से वंचित हो जाने को, बल्कि श्रम करने के अधिकार से, काम के अधिकार से भी अनिवार्य रूप वंचित हो जाने, बेरोजगारी के आरक्षित सेना में शामिल हो जाने को अभिशप्त है, तो क्या पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में कोई भी क़ानून बना कर बेरोजगारी की समस्या से निदान पाया जा सकता है?
आज भारतीय अर्थव्यवस्था की दिनोदिन गिरती हालत क्या दर्शाती है? निजी कॉर्पोरेट घराना पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतरविरोधो से पूरी तरह त्रस्त है, अब पूंजीपति वर्ग अपनी चहेता राजनैतिक पार्टियों पर आस लगाय बैठा है जो उन्हें अच्छा सा बेलआउट पैकेज दे सके. सारी पूंजीवादी राजनैतिक पार्टियाँ जो विकास के नारे लगा रही है, दरअसल उसके पीछे संदेश यही है- उनकी सरकार अर्थव्यस्था में हस्तक्षेप कम करेगी यानि सरकारी क्षेत्र का विनिवेश करेगी, अप्रत्यक्ष कर बढाने जैसे कदम उठा कर मिहनतकस जनता पर और बोझ बढ़ाएगी, उस पैसे से कर्ज में डूबे औधोगिक घराने को बेलआउट पैकेज देगी, पूंजीपतियों के फेवर में श्रम कानून बनाएगी, प्रत्यक्ष कर कम कर के पूंजीपतियों को राहत पहुचायेगी और "कल्याणकारी राज्य" के ज़माने से मिहनतकस जनता को सब्सिडी के माध्यम से दी जा रही हर तरह के राहत, जैसे शिक्षा, स्वास्थ जैसे सेवाओं पर खर्च की जा रही राशि को क्रमशः ख़त्म करेगी. और क्या पूंजीवादी राज्य भारत में भी यही करने को आमदा नहीं है ?
भारतीय पूंजीवादी अर्थव्यस्था की इस गिरती हुई हालत में भी पूंजीवादी पार्टियाँ जनता से बड़े बड़े झूठे वादे कर रही है. इस सड़ी गली पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकने के बदले खुद को बेहतर प्रबन्धक होने का दावा करते हुए, बुर्जुआ वर्ग के इस या उस तबके की पार्टी के साथ तरह -तरह के राजनैतिक गंठजोड़ करते हुए, पूंजीवादी व्यवस्था के दाएरे में तरह तरह के 'अल्टरनेटिव' पेश करते हुए, आम मिहनतकस जनता को गुमराह करते हुए संसदीय वाम पार्टियों को हम वर्षो से देख रहे है, जाहिर है पूँजीवाद के संकटग्रस्त होने और मेहनतकशों के आन्दोलन के कमज़ोर होते जाने के साथ ही पूंजीवादी सरकारों ने अपनी इस ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाना शुरू कर दिया है। बिगुल के साथी सत्यम ने फेब्रुअरी २०१८ के अपने लेख "बेरोज़गारी क्यों पैदा होती है और इसके विरुद्ध संघर्ष की दिशा क्या हो' में ठीक ही कहते है:
"कोई भी पूँजीवादी सरकार रोज़गार को मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं देती है। आप रोज़गार की माँग पर सरकार को अदालत में नहीं घसीट सकते हैं। लेकिन पूँजीवादी लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के अनुसार भी हर नागरिक के लिए रोज़ी-रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा का इन्तज़ाम सरकार की ज़िम्मेदारी है। हालाँकि पूँजीवाद के संकटग्रस्त होने और मेहनतकशों के आन्दोलन के कमज़ोर होते जाने के साथ ही सरकारों ने अपनी इस ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाना शुरू कर दिया है। इसलिए बेरोज़गारी के सवाल पर एक सशक्त और व्यापक आन्दोलन खड़ा करना ज़रूरी है जो हर नागरिक के लिए रोज़गार की व्यवस्था करने की सरकार की ज़िम्मेदारी पर ज़ोर दे।"
और फिर वे आगे कहते है :
"ज़ाहिर है, रोज़गार का मतलब सबके लिए सरकारी नौकरी नहीं होता, जैसाकि कुछ लोग इसे पेश करते हैं। हमारे देश जैसी स्थिति में तो लाखों-लाख की संख्या में खाली पड़े पदों पर भरती करने, बन्द पड़े कारख़ानों, खदानों आदि को शुरू कराने, सार्वजनिक निर्माण के जनोपयोगी कामों को शुरू कराने, ठेकेदारी व्यवस्था को ख़त्म करके नियमित रोज़गार देने, बाल श्रम को खत्म करने, हर क्षेत्र में उचित न्यूनतम मज़दूरी को सख़्ती से लागू कराने, बेरोज़गारों को जीवनयापन लायक बेरोज़गारी भत्ता देने जैसी माँगों को पुरज़ोर ढंग से उठाने की ज़रूरत है। साथ ही, इस संघर्ष को पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध व्यापक संघर्ष से जोड़ने के लिए निरन्तर राजनीतिक प्रचार और शिक्षा के काम को चलाने की भी ज़रूरत है।"
स्पष्ट है कि सर्वहारा वर्ग की व्यापक जनाधार वाली एक सशक्त क्रन्तिकारी पार्टी के आभाव में हम अपने आन्दोलन से, जो अभी पूंजीवादी दाएरे में रहने को अभिशप्त है, मिहनतकस और बेरोजगार आबादी के लिए फिलहाल थोड़ी राहत के सिवा और उम्मीद भी नहीं कर सकते.
हालाकि सच्चाई एक यह भी है कि विज्ञान और तकनीकी का विकास आज इस हद तक हो गया है कि अगर तमाम उत्पादन के साधनो को अधिक्तम मुनाफ़ा के लिए नहीं, बल्कि सबकी जरुरत को ध्यान में रख कर, समाज के नियंत्रण में रख कर उपयोग में लाया जाये तो निश्चित रूप से सबको रोजगार दिया जा सकता है, काम का अधिकार दिया जा सकता है जैसाकि सोवियत रूस में महान सर्वाहारा वर्ग सत्ता में आने केे बाद कर दिखाया था, जहां पूर्ण रोजगार दिवा स्वप्न नहीं, एक हकीकत बन पायी थी.
और अंत में हम बेरोजगारी के खिलाफ संघर्ष कर रहे फेसबुक पर '100 प्रतिशत रोजगार गारंटी चाहिए' नामक ग्रुप द्वारा व्यक्त किये गए विचारों को उद्धृत किये बिना हम नहीं रह सकते जो थोड़ी बहुत त्रुटियों के वावजूद बेरोजगारी के खिलाफ लड़ रहे नौजवानों के मनोभाव को आकर्षक ढंग से पेश करता है और जो PDYF, PDSF, विमुक्ता और सर्वहारा जन मोर्चा और उनके साथी खुसबू के विचारो के भी थोडा करीब है जो रोजगार गारंटी कानून नहीं, रोजगार की गारंटी की मांग के लिए अभियान इस सोच के साथ चला रहे है कि अगर इस पूँजीवादी व्यवस्था में यह नही हो सकता है तो जिस व्यवस्था में यह सम्भव हो उस व्यवस्था की ओर कुच करने के लिए काम करें, संगठित हो और उन तमाम शक्तियों से एकबद्ध हो जो पूर्ण रोजगार वाली व्यवस्था के लिए लड़ रहे हैं यानी समाजवाद और सर्वहारा जनतंत्र के लिए लड़ रहे हैं. '100 प्रतिशत रोजगार गारंटी चाहिए' नामक ग्रुप ने अपने बातो को कुछ इस तरह रखा है :
"कलमघिस्सू बुद्धिजीवी और सरकारें दिन-रात इस बात का प्रचार करती रहती हैं कि सबको नौकरी नहीं दी जा सकती है. जबकि सच्चाई इसके उलट है. हमारा देश इतना संसाधन सम्पन्न हैं कि सबको सरकारी नौकरी दी जा सकती है. इसके लिए कई ठोस कदम उठाने होंगे. जैसे- मुनाफे की लूट का चारगाह बन चुके निजी क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाय. पूंजीपतियों की टैक्समाफ़ी खत्म करके, उनके ऊपर बकाया कर्जों की वसूली करके और भ्रष्ट अधिकारियों तथा नेताओं की सम्पत्ति जब्त करके जो कई अरबों का कोष तैयार होगा, उसे रोजगार सृजन के उद्यमों में लगाया जाए. जैसे—नहरों, तालाबों, नदियों और अन्य प्राकृतिक स्थलों की साफ़-सफाई, सडक तथा रेल परिवहन और अन्य मूलभूत ढांचें में सुधार, कपड़ा, दवा और अन्य रोजमर्रा की जरूरतों के उद्योग को बढावा, निर्माण उद्योग को नये सिरे से खड़ा करना और देश में रिसर्च को बढ़ावा देना आदि. लेकिन क्या मौजूदा सरकारों से हम ऐसी उम्मीद कर सकते हैं जो इसका ठीक उलटा कर रही हो. सरकारें औने-पौने दामों पर सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को निजी हाथों में बेचती जा रही हैं. मौजूदा केंद्र सरकार पीपीपी मॉडल के तहत पहले चरण में देश के 23 स्टेशनों को निजी हाथों में सौंप देगी. कानपुर को 200 और अलहाबाद को 150 करोड़ में बेचा जाएगा. यह बहुत घिनौना है, लेकिन इस सरकार से इससे अलग कुछ करने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती. इसलिए सबको रोजगार मुहैया कराने वाली सरकार और समाज व्यवस्था का निर्माण संघर्षों के रास्ते पर ही सम्भव है."
जाहिर है कि यह सर्वहारा वर्ग की व्यापक जनाधार वाली एक सशक्त क्रन्तिकारी पार्टी ही राज्य पर पूर्ण अधिकार करने के बाद ऐसे क्रांतिकारी कदम उठा सकती है.
एंगेल्स के एक बहुत ही प्रेरक और सटीक उद्दहरण से हम अपनी बात समाप्त करते है :
"लेकिन ये आविष्कार और खोजें, जो नित्य बढ़ती हुई गति से एक दूसरे से आगे बढ़ रही हैं, मानव-श्रम की उत्पादनशीलता, जो दिन-ब-दिन इतनी तेज़ी के साथ बढ़ रही है कि पहले सोचा भी नहीं जा सकता था, अन्त में जाकर एक ऐसा टकराव पैदा करती हैं, जिसके कारण आज की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का विनाश निश्चित है। एक ओर, अकूत धन-सम्पत्ति और मालों की इफ़रात है, जिनको ख़रीदार ख़रीद नहीं पाते; दूसरी ओर, समाज का अधिकांश भाग है, जो सर्वहारा हो गया है, उजरती मज़दूर बन गया है और जो ठीक इसीलिए इन इफ़रात मालों को हस्तगत करने में असमर्थ है। समाज के एक छोटे-से अत्यधिक धनी वर्ग और उजरती मज़दूरों के एक विशाल सम्पत्तिविहीन वर्ग में बँट जाने के परिणामस्वरूप उसका ख़ुद अपनी इफ़रात से गला घुटने लगता है, जबकि समाज के सदस्यों की विशाल बहुसंख्या घोर अभाव से प्रायः अरक्षित है या नितान्त अरक्षित तक है। यह वस्तुस्थिति अधिकाधिक बेतुकी और अधिकाधिक अनावश्यक होती जाती है। इस स्थिति का अन्त अपरिहार्य है। उसका अन्त सम्भव है। एक ऐसी नयी सामाजिक व्यवस्था सम्भव है, जिसमें वर्त्तमान वर्ग-भेद लुप्त हो जायेंगे और जिसमें–शायद एक छोटे-से संक्रमण-काल के बाद, जिसमें कुछ अभाव सहन करना पड़ेगा, लेकिन जो नैतिक दृष्टि से बड़ा मूल्यवान काल होगा–अभी से मौजूद अपार उत्पादक-शक्तियों का योजनाबद्ध रूप से उपयोग तथा विस्तार करके और सभी के लिए काम करना अनिवार्य बनाकर, जीवन-निर्वाह के साधनों को, जीवन के उपभोग के साधनों को तथा मनुष्य की सभी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के विकास और प्रयोग के साधनों को समाज के सभी सदस्यों के लिए समान मात्र में और अधिकाधिक पूर्ण रूप से सुलभ बना दिया जायेगा।" मार्क्स की पुस्तक "मजदूरी श्रम और पूँजी" पर फ्रेडरिक एंगल्स द्वारा लिखित भूमिका से
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