Monday, 18 September 2023

समान नागरिक संहिता :फ़िरक़ापरस्त नफ़रत फैलाने का एक और हथियार



 मेनू

भाजपा द्वारा समान नागरिक संहिता का मुद्दा गरमाया जा रहा है। यह कोई नया मुद्दा नहीं है, बल्कि अंग्रेज़ों की ग़ुलामी के समय से ही इसके बारे में चर्चा चलती रही है। फिर 1947 की आज़ादी के बाद भी समान नागरिक संहिता बनाने पर यह चर्चा हुई कि यह काफ़ी संवेदनशील और अलग-अलग धार्मिक समुदायों की मान्यताओं और आज़ादी का भी मामला है और उन्हें भरोसे में लेकर ही ऐसा किया जा सकता है और अभी यह सही समय नहीं है। इसलिए पहले मौजूद क़ानूनों को ही मान्यता देते हुए समान नागरिक संहिता को भविष्य पर छोड़ दिया गया। हिंदू महासभा उस समय इसका विरोध करती रही है, लेकिन बाद में आर.एस.एस. और भाजपा रूपी फ़िरक़ापरस्त संगठनों ने इसे अपनी सांप्रदायिक राजनीति का हथियार बना लिया। 2014 में सत्ता में आने से पहले भाजपा ने कश्मीर से धारा 370 हटाने, राम मंदिर बनाने, नागरिकता संशोधन क़ानून लाने जैसे जो सांप्रदायिक मामले उभारे थे, उनमें से एक मामला समान नागरिक संहिता भी था। इन तीन मामलों पर भाजपा अपना दाँव चल चुकी है और अब समान नागरिक संहिता बाक़ी है। 2019 के चुनाव के दौरान भी भाजपा ने इस मसले का ख़ूब प्रचार किया था और अब 2024 के मद्देनज़र इसे फिर से उछाला जा रहा है।   

समान नागरिक संहिता क्या है?

समान नागरिक संहिता ऐसा क़ानून होता है, जो पारिवारिक ज़िंदगी से संबंधित शादी, तलाक़, बच्चे गोद लेने, संतान पर हक़, विरासत, जायदाद का बँटवारा, उत्तराधिकार, वसीयत, तलाक़ की हालत में गुज़ारा-भत्ता आदि जैसे मसलों में बिना किसी भेदभाव के सभी धर्मों, जातियों, क्षेत्र आदि के लोगों पर समान रूप से लागू हो। मौजूदा समय में पारिवारिक ज़िंदगी से संबंधित ये क़ानून धार्मिक भाईचारों के मुताबिक़ बने हुए हैं, यानी इन क़ानूनों के आधार इन धर्मों की मान्यताएँ, रीति-रिवाज़ और ग्रंथ हैं। इस समय हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और पारसियों के आधार पर चार अलग-अलग क़ानून हैं। सिख, बोधि और जैन जैसे धर्मों को संविधान कि धारा 25(2) मुताबिक़ हिंदुओं का हिस्सा बताकर उनके मसलों को हिंदू क़ानून का जबरन हिस्सा बना दिया गया है।

समान नागरिक संहिता के पक्ष में संघ-भाजपा के तर्क और
असली मंशा

भारत के संविधान में राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों की धारा 44 कहती है कि "राज्य पूरे भारत में समान नागरिक संहिता बनाने में यत्नशील रहेगा।" फ़िरक़ापरस्त संघियों का समान नागरिक संहिता के पक्ष में पहला तर्क यही है कि वे संविधान की इस धारा को लागू करने की बात कर रहे हैं। जानकारी के लिए बता दें कि निर्देशक सिद्धांत सरकार के काम करने के लिए एक तरह की सलाहें हैं और अगर इन्हें लागू करने के लिए कोई काम नहीं किया जा सकता, तो इनसे संबंधित किसी तरह की क़ानूनी, अदालती शिकायत नहीं की जा सकती। संविधान की धारा 36 से 51 तक सब ऐसे निर्देशक सिद्धांत ही हैं, जिनमें आमदनी के फ़र्क़ और आर्थिक ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करना, सभी नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता की गारंटी करना, शिक्षा सुविधाएँ देना, रोज़गार मुहैया करवाना और बेरोज़गारों को भत्ता देने के साथ और कई निर्देशक सिद्धांत भी हैं, जिन पर सरकार को अमल करना चाहिए। लेकिन इन पर अमल तो छोड़िए, इन पर बात करने पर भी संविधान लागू करने के दावेदारों की हवा निकल जाती है। इस दोगलेपन से साफ़ होता है कि संविधान लागू करना सिर्फ़ एक बहाना है, समान नागरिक संहिता के पीछे इनकी असली मंशा और है।   

समान नागरिक संहिता के पक्ष में संघियों का दूसरा तर्क है – एक देश, एक क़ानून। संविधान के अनुसार बात करें तो पारिवारिक मसलों के क़ानून के बिना दीवानी और फ़ौजदारी जैसे क़ानून भी एक जैसे नहीं हैं और ना ही हो सकते हैं। कई क़ानून अलग-अलग राज्यों के मुताबिक़ अलग-अलग हैं, कई राज्यों के अपने कुछ विशेष क़ानून हैं। उदाहरण के तौर पर गुजरात, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों में धर्म-परिवर्तन के ख़िलाफ़ क़ानून बनाए गए हैं, जो भारत के बड़े हिस्से में नहीं हैं। पंजाब का सरकारी और निजी जायदाद रोकथाम क़ानून एक विशेष क़ानून है, जो पूरे भारत में लागू नहीं है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व में अफ़सपा जैसे अन्यायी क़ानून पूरे भारत में लागू नहीं हैं। पिछले सालों में पास हुआ मोटर व्हीकल ऐक्ट भी पूरे भारत में समान नहीं है। फ़ौजदारी के मामले में जमानत की धाराएँ भी कई राज्यों में अलग हैं। यानी संवैधानिक तौर पर विभिन्न देश में क़ानून में भी विभिन्नता का हक़ है।

लेकिन मोदी के "एक देश, एक क़ानून" का सबसे बड़ा खंडन ख़ुद भाजपा हुकूमत का अमल है। क्या हिंदू बहुसंख्या और धार्मिक अल्पसंख्या के लिए भाजपा की हुकूमत के अधीन क़ानून और इंसाफ़ एक जैसा है? साल 2002 के क़त्लेआम से संबंधित मामलों में बाबू बजरंगी जैसे गुंडे और बिलकिस बानो के दोषी आज़ाद क्यों हैं और लोगों के हक़ में बोलने वाले बुद्धिजीवी भीमा-कोरेगाँव मामले के बहाने जेलों में बंद क्यों हैं? एक तरफ़ आम लोग अपने मामलों की सुनवाई के लिए सालों तक तारीख़ का इंतज़ार करते रहते हैं और दूसरी ओर भाजपा के लोगों के लिए रातो-रात अदालतें भी खुल जाती हैं? देश के बड़े पूँजीपतियों के 12 लाख करोड़ के क़र्ज़ रफ़ा-दफ़ा हो जाते हैं, पर यही क़ानून छोटे क़र्ज़ लेने वाले, मज़दूरों, छोटे किसानों, विद्यार्थियों और अन्य मध्य-वर्गीय तबक़ों के लिए क्यों नहीं हैं? आम आदमी पार्टी के विधायक सतेंद्र जैन जैसे राजनीतिक नेताओं को जेलों में मालिश, टीवी, और महँगे खाने तक की सहूलत है, लेकिन बीमार पादरी स्टेन स्वामी को पानी पीने के लिए पाइप तक नहीं मिलती।   

समान नागरिक संहिता के पक्ष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के इन फ़िरक़ापरस्तों का तीसरा और अहम तर्क औरतों की आज़ादी और बराबरी है। औरतों की आज़ादी और बराबरी की बात सुनने में अच्छी लग सकती है, लेकिन जो भी इंसान संघ और भाजपा के चरित्र से वाक़ि‍फ़ है, उसे अच्छे से पता है कि इनके मुँह से औरतों की "आज़ादी" और "बराबरी" जैसे लफ़्ज़ बिल्कुल अच्छे नहीं लगते। संघ की विचारधारा औरतों को मर्दों की सेवक बनाने, उनकी पढ़ाई, घर से बाहर नौकरी करने को ग़लत मानते हुए उनके घरों की चारदीवारी तक सीमित करने और उनके खाने-पीने, रहने-सहने, और पहरावे आदि पर कई तरह की पाबंदियाँ लगाने की बात करती है।

संघ-भाजपा द्वारा जब मौजूदा धर्म आधारित क़ानूनों में औरतों को बराबरी का हक़ ना होने की बात की जाती है, तो उन्हें सिर्फ़ शरीयत सिवि‍ल कोड में ही दिक़्क़त दिखाई देती है और सिर्फ़ मुस्लिम औरतें ही दबी-कुचली दिखती हैं। हिंदू क़ानून और हिंदू संप्रदाय में इन्हें कोई खोट नज़र नहीं आती। जबकि हक़ीक़त यह है कि मौजूदा व्यवस्था में औरतों को बराबरी का दर्जा नहीं है, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, राष्ट्रीयता आदि से संबंधित हों। पूरे भारत में ही औरतें पुरुष-प्रधानता की चक्की में पिस रही हैं। मौजूदा पारिवारिक मामलों से संबंधित धर्म आधारित सभी क़ानूनों में भी औरतों को बराबर के हक़ नहीं हैं। संघियों द्वारा प्रचार किया जाता है कि मुसलमान एक से ज़्यादा शादियाँ करते हैं, क्योंकि शरीयत क़ानून उन्हें चार पत्नियाँ रखने का हक़ देता है। जबकि हक़ीक़त यह है बहु-पत्नी प्रथा सब धर्मों में है और सबसे ज़्यादा यह क़बाइलियों में है। वैसे हक़ीक़त में बहुपत्नी प्रथा सामंतवाद और उससे पहले के युगों की बची-कुची प्रथा है, जो किसी धर्म से ज़्यादा किसी राष्ट्र की संस्कृति, शिक्षा आदि पर आधारित है और लगातार ख़ात्मे की तरफ़ जा रही है। राष्ट्रीय स्वास्थ और परिवार सर्वेक्षण के 2015-16 के आँकड़ों के मुताबिक़ नई पीढ़ी में बहुपत्नी प्रथा 1 प्रतिशत थी, जो 2019-21 के सर्वेक्षण में 0.9 प्रतिशत हो गई। शिक्षा के आधार पर बात करें, तो अनपढ़ों में 2.4, सेकंडरी शिक्षा हासिल करने वालों 0.9 प्रतिशत और उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों में 0.3 प्रतिशत है। धर्म के आधार पर बात करें, तो हिंदुओं में बहुपत्नी 1.3 प्रतिशत, मुसलमानों में 1.9 और अन्य में 1.6 प्रतिशत है, जो पिछले सालों के मुक़ाबले कम ही हो रही है। वैसे संख्या की बात करें, तो हिंदुओं में बहुपत्नी प्रथा ज़्यादा है, क्योंकि उनकी संख्या मुसलमानों से 5.5 गुना ज़्यादा है। ये आँकड़े यही बात साबित करते हैं कि संघियों को दिक़्क़त बहुपत्नी प्रथा से नहीं है, बल्कि मुसलमानों से ही है, अगर सच में उन्हें बहुपत्नी प्रथा से दिक़्क़त होती, तो वे सभी धर्मों में मौजूद बहुपत्नी प्रथा की बात करते।

दरअसल औरतों के हक़ों की रक्षा के इस आलाप का मक़सद सिर्फ़ मुस्लिम संप्रदाय को निशाना बनाना है। संघ-भाजपा के अमल से यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि समान नागरिक संहिता "बराबरी" के नाम पर धार्मिक अल्पसंख्यकों, क़बाइलियों को दबाने और उन पर हिंदुत्वी मान्यताएँ थोपने का औज़ार है।

क्या पारिवारिक मामलों के बारे में मौजूदा धर्म आधारित क़ानून
दुरुस्त हैं?

इसमें कोई शक नहीं कि आज के समय में मौजूद धर्म आधारित पारिवारिक मामलों के चारों क़ानून ठीक नहीं हैं और इनमें कई ख़ामियाँ हैं। इनकी सबसे बड़ी ख़ामी है कि इनमें से किसी में भी औरतों को मर्दों के बराबर हक़ नहीं हैं। इन हक़ों में से एक बड़ा मामला जायदाद के बँटवारे और उसमें हिस्से का हक़ है। तलाक़ जैसे मसले को भी ये क़ानून जनवादी सिद्धांतों के मुताबिक़ नहीं देखते और एक जटिल प्रक्रिया में उलझे रहते हैं। इन मामलों में धर्म निरपेक्षता और जनवाद के उसूल को लागू करना चाहिए। धर्म निरपेक्षता का मतलब है राज्य और धर्म को अलग किया जाए। यानी राज्य की कोई भी गतिविधि धार्मिक मान्यताओं पर आधारित ना हो, किसी भी धर्म को राज्य सहारा ना दे और धर्म को निजी आज़ादी का मामला बनाया जाए। इसके तहत पारिवारिक मामलों से संबंधित क़ानून भी लोकतांत्रिक और बराबरी के उसूलों पर आधारित होने चाहिए। जहाँ तक धर्म का मामला है, वह हर नागरिक का निजी मामला होना चाहिए और उसे अपनी मर्जी से धर्म मानने, उसके मुताबिक़ रहने, पाठ-पूजा करने, शादी में अपने धर्म की रस्में अदा करने का हक़ होना चाहिए। लेकिन यह बात स्पष्ट है कि संघ-भाजपा का मक़सद ऐसा धर्म निरपेक्ष और लोकतांत्रिक क़ानून लाना बिल्कुल भी नहीं है। बल्कि भाजपा हुकूमत की नीतियाँ और क़ानून पूरी तरह कट्टरपंथी हिंदुत्वी पैंतरे के मुताबिक़ धार्मिक अल्पसंख्यकों को हाशिए पर धकेल देने के मुताबिक़ चलते हैं।

मौजूदा पारिवारिक क़ानून में मौजूद ख़ामियों के बारे में 2018 के क़ानून आयोग के सुझाव भी पढ़ने लायक हैं, जिनमें मौजूदा क़ानूनों में सुधारों की बात की गई है। उसमें कहा गया है कि समान नागरिक संहिता की ना तो कोई ज़रूरत है और ना ही मौजूदा समय में संभव है। जहाँ तक मौजूदा क़ानून में ख़ामियों, ग़ैर-बराबरी और बेइंसाफ़ियों का सवाल है, तो इनकी निशानदेही करके इनमें संशोधन कर देना चाहिए। शादी, तलाक़ जैसे कुछ मामलों पर कुछ नियमों को सब धर्मों के क़ानूनों में समान रूप से लागू किया जाना चाहिए।

फ़िरक़ापरस्तों का समान नागरिक संहिता से विरोध का आधार

इस समय तरह-तरह की ताक़तें भाजपा के समान नागरिक संहिता का विरोध कर रही हैं, लेकिन सबके विरोध का पैंतरा अलग-अलग है। भाजपा द्वारा इसे सच्चे अर्थों में धर्म निरपेक्ष, जनवादी और औरतों और मर्दों की बराबरी लागू करने का साधन बनाने की जगह फ़िरक़ापरस्त राजनीति का औज़ार बनाया जाना, इसके विरोध का दुरुस्त पैंतरा है। लेकिन बहुत सारे मुस्लिम कट्टरपंथी समान नागरिक संहिता का एक अलग पैंतरे से विरोध कर रहे हैं। जो हिंदू कट्टरपंथी आज समान नागरिक संहिता की हिमायत कर रहे हैं, उनके पूर्वज, यानी हिंदू महासभा पहले अंग्रेज़ों की ग़ुलामी के दौर और बाद में 1949 में समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठने के समय इसका तीखा विरोध कर रहे थे। तब की हिंदू महासभा और अब के मुस्लिम कट्टरपंथियों (बल्कि सभी धर्मों के कट्टरपंथियों में) समान नागरिक संहिता के मामले में यह साझापन है कि उनका विरोध एक समान क़ानून से नहीं, बल्कि औरतों को बराबर के हक़ मिलने और मर्दों के विशेष हक़ ख़त्म होने के साथ ही है। अगर कोई "समान नागरिक संहिता" औरतों की ग़ुलामी को मान्यता दे, मर्दों को और विशेष अधिकार दे, धार्मिक नेताओं को लोगों के पारिवारिक मामलों में ज़्यादा से ज़्यादा दख़लंदाज़ी करने का हक़ दे तो सभी धर्मों के फ़िरक़ापरस्तों को ऐसी समान नागरिक संहिता से कोई तकलीफ़ नहीं होगी। पुरानी हिंदू महासभा और अब के मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा समान नागरिक संहिता का विरोध करने के पैंतरे की यही साँझ है। अब हिंदू फ़िरक़ापरस्त सिर्फ़ इसलिए हिमायत पर उतर आए हैं, क्योंकि सत्ता हाथ में होने की वजह से वे अपनी मर्जी का क़ानून बना सकेंगे। जाहिर है उसमें औरतों को पूरी तरह बराबर हक़ देने के लिए वे बिल्कुल भी तैयार नही होंगे। अगर भाजपा की जगह कोई और धर्म निरपेक्ष और लोकतांत्रिक सत्ता हो और वह सही मायने में समान नागरिक संहिता की बात करे तो हिंदू फ़िरक़ापरस्त हिंदू महासभा की तरह सबसे आगे होकर विरोध करेंगे।  

इसलिए समाज की प्रगतिशील और लोकतांत्रिक ताक़तों को समान नागरिक संहिता के विरोध के अपने पैंतरे को कट्टरपंथियों के पैंतरे से अलग करना चाहिए।

इस तरह समान नागरिक संहिता का मामला एक जटिल मामला है। यह सिर्फ़ पुराने धर्म आधारित पारिवारिक क़ानूनों या नए समान क़ानूनों में से किसी एक को चुनने का मामला नहीं है। मौजूदा भाजपा हुकूमत की समान नागरिक संहिता के पीछे की मंशा क्या है, इसे लाने की प्रक्रिया क्या है, इस प्रक्रिया में बाक़ी धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया क्या है, इस नई समान नागरिक संहिता में क्या होगा आदि जैसी बातों को ध्यान में रखकर ही कोई सही फ़ैसला किया जा सकता है। यह सांप्रदायिक नफ़रत फैलाकर 2024 के चुनाव जीतने का भी साधन है। इसलिए समान नागरिक संहिता के पीछे इन फ़िरक़ापरस्तों की मंशाओं को समझने, उनसे सचेत होने और उनका भांडाफोड़ करने की ज़रूरत है।

– गुरप्रीत

मुक्ति संग्राम – सि‍तंबर 2023 में प्रकाशित


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