UNIFORM CIVIL CODE
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🖊✒️ लक्ष्मण बोरकर 🖋
समान नागरिक संहिता (UNIFORM CIVIL CODE) यह फिलहाल काफी सुर्ख़ियों में है और जैसे जैसे चुनाव करीब आयेगा गर्माहट और बढ़ेगी और प्रमुख समस्या जैसे रोजगार, विकास, महँगाई, सरकार द्वारा दिए गए आश्वासन, किए गए वादे गायब हो जायेंगे।
समान नागरिक संहिता होना चाहिए इसमें कोई संदेह नहीं है। संविधान में ही धारा 44 में समान नागरिक संहिता लागू करने हेतु प्रावधान है और सरकार से आवश्यक पहल करने की अपेक्षा की जाती है। डॉ बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा प्रस्तुत हिंदू कोड बिल समान नागरिक संहिता की ओर बढ़ने का एक कदम और शुरुवात थी।
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संविधान की धारा 44 के अनुसार ::
समान नागरिक संहिता पूरे देश के लिए एक समान कानून के साथ ही सभी धार्मिक समुदायों के लिए विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि कानूनों मे एकरूपता प्रदान करने का प्रावधान करती है।
कानून मे समरसता लाने के लिए सरकार को एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए।
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यदि सरकार की मंशा और इरादे साफ है तो पारदर्शकता बनाए रखने के लिए सरकार जो कानून बनाना चाहती है उस कानून का प्रारूप (DRAFT) जाहिर करती और उसपर लोगों की राय/प्रतिक्रिया आमंत्रित करती। परंतू बिना सरकारी प्रारूप के प्रतिक्रिया देना तर्कसंगत नहीं है। सरकारी प्रारूप के अभाव में लोगों के मन में जैसी जैसी शंकाए उत्पन्न
हो रही है वैसी वैसी प्रतिक्रिया आ रही है। कुल मिलाकर सरकार लोगों को गुमराह कर रही है और मूल समस्या, असफलताओ से ध्यान हटा रही है। कुछ लोगों का मानना है कि इस कानून से मुस्लिम समाज को "लक्ष" किया जा रहा है, तो "आदिवासी समुदाय" को प्राप्त विशेषाधिकार को खत्म कर पूंजीपतियों को जल/जंगल/ जमीन के अधिकार सौपना है ताकि वे नैसर्गिक भुगर्भ अनमोल सम्पति का विदोहन कर सके यह माननेवालों की तादाद भी बड़ी है।
कानून में एकरूपता लाने के नाम पर सरकार दलित, आदिवासी, अल्पसंख्याक, मागासवर्ग के कल्याण, विकास के लिए संविधान के तहत जो मूलभूत अधिकार प्राप्त है उसपर आघात नहीं कर सकती है। संविधान के भाग 3 (III) में आर्टिकल 12 से 35 में मूलभूत अधिकार (Fundamental Rights) दिए है। मूलभूत अधिकारों की सुरक्षा (Protection) करने बाबत सरकार हमी/वचन देती है।🌺 आर्टिकल 13 का मुख्य उद्देश मूलभूत अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करता है। मूलभूत अधिकारों से असंगत, विरुद्ध या नुकसान करनेवाले
कोई भी कानून, विधि, नियम, अधिसूचना इत्यादि सरकार नहीं बना सकती हैं और ऐसे कानून, विधि, नियम "शून्य"(Not Implementation) होंगे। 🌺
मूलभूत अधिकारों के तहत :
अ. न्याय के समक्ष समानता (कोई भेदभाव नहीं)
ब. धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं
क. अस्पृश्यता, सामाजिक विषमता पालन पर
रोक, कानूनी अपराध
ड. SC/ST/OBC के कल्याण हेतु आरक्षण
व्यवस्था
च. अल्पसंख्यको के हित की सुरक्षा
छ. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
इत्यादि शामिल हैं।
समान नागरिक संहिता मे कानूनों में एकरूपता
लाने के लिए सबसे बड़ी बाधा हिंदू धर्म में ही विद्यमान विभिन्न रीति रिवाज आयेंगे तो दूसरी ओर संविधान के भाग 10(X), आर्टिकल 244 (अनुसूचि 5 व 6) के तहत आदिवासी वर्ग को सुरक्षा देने हेतु जो प्रावधान है उसका भी ध्यान रखना होगा। इसके अलावा आर्टिकल 371 के तहत आदिवासी बहुल राज्य जैसे नागालैंड, आसाम, मणिपुर, सिक्किम, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश के लिए जो विशेष प्रावधान है इसपर भी गौर करना होगा।
आर्टिकल 244 (अनुसूचि 5 व 6) मे आदिवासी वर्ग के हित की रक्षा के लिए प्रमुख प्रावधान है कि ::
अ. जमीन के हस्तांतरण को रोकना
ब. आदिवासीयो को जमीन आवंटन अधिकार
क. आदिवासी प्रतिनिधियों के नियंत्रण मे कौंसिल
का गठन, समानांतर स्वतंत्र प्रशासन अधिकार
ड. जमीन उत्खनन व अधिकार नियंत्रण
च. आदिवासी क्षेत्र के लिए स्वायत्त क्षेत्र और जिला
बनाना
छ. स्वयं के सामाजिक रीति रिवाज, विवाह,
तलाक, उत्तराधिकारी इत्यादि संबंधी अधिकार
हिंदू धर्म में ही जाति के आधार पर विवाह संबंधी विभिन्न रीति रिवाज, पूजा पद्धति है। पंडित/पूजारी निर्धारण मे एक जाति विशेष का प्रभुत्व है। जनेऊ और उपनयन संस्कार एक जाति विशेष में ही होता है। धार्मिक ग्रंथ सामाजिक विषमाताओ से भरे है और एक जाति विशेष को सर्वोच्च अधिकार और लाभ देते है। सबसे दुःखद अस्पृश्यता और सामाजिक विषमता आज भी विद्यमान है। कानून के द्वारा एकरूपता कैसी आयेगी यह जटिल प्रश्न है।
समान नागरिक संहिता के तहत समान कानून और कानून मे एकरूपता की बात करते है तो न्याय पालिका और प्रशासन मे निष्पक्षता और पारदर्शकता होनी चाहिए साथ ही समाज के सभी वर्गो का प्रतिनिधित्व होना चाहिए। न्याय पालिका में कलोजिएम सिस्टम है इसे बदलकर UPSC की तर्ज पर प्रतियोगिता परीक्षा द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्तिया होनी चाहिए। उच्च प्रशासन में एक जाति विशेष का प्रभुत्व है इसे दूर करना होगा।
समान नागरिक संहिता की आड़ में "मुस्लिम लक्ष्य" का आभास निर्मांण कर दलित, आदिवासी, अल्पसंख्याक, मागास वर्ग के अधिकारों पर आघात हो सकता है। इन वर्गों मे संविधानिक अधिकारों के प्रति जागरुकता होनी चाहिए।
सरकार को चाहिए की समान नागरिक संहिता का कानून बनाते समय पारदर्शकता बनाए रखे और प्रस्तावित ड्राफ्ट जारी/प्रदर्शित करे। उम्मीद है "मणिपुर प्रकरण" से सरकार सज्ञान लेगी। सरकार से अपेक्षा है कि सर्वागिण विकास की नीति पर कार्य करे और राष्ट्र को 'आंतरीक वर्ग संघर्ष' की खाई मे न धकेले।
✍️ लक्ष्मण बोरकर ✍️
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डूबती नैया को तिनके का सहारा
★लोकसभा चुनाव के मद्देनजर समान नागरिक संहिता के जिन्न की तैयारी
लगता है कि अपनी छवि के अत्यधिक खराब होने और रासस का समर्थन संदिग्ध होने से घबराये सिरीमान जी जल्दी ही लोकसभा चुनाव कराना चाहते हैं। राम मंदिर, अनुच्छेद 370, तीन तलाक़ और सीएए-एनआरसी जैसे भावनात्मक मुद्दों का प्रभाव क्षीण होने के बाद अब समान नागरिक संहिता का सोया हुआ जिन्न जगा दिया गया है।
22वें विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर आम जनता और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों से 30 दिन में सुझाव देने को कहा है। जबकि इससे पहले 21वें विधि आयोग ने 2016 से मार्च 2018 के बीच दो वर्ष तक देश की जनता के साथ विमर्श और ऐसी व्यवस्था लागू करने वाले देशों का अध्ययन करने के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा था कि फिलहाल समान नागरिक संहिता यानी कॉमन सिविल कोड की न तो देश को जरूरत है और न ही लोग इसे चाहते हैं।
अब इधर सिर्फ चार साल में ही ऐसा क्या हो गया कि जस्टिस ऋतुराज अवस्थी की अध्यक्षता में विधि आयोग समान नागरिक संहिता लागू करने को उतावला हो गया है? ऐसे में लगता है कि जल्दी ही विधि आयोग इस विषय पर काम पूरा कर रिपोर्ट दे देगा। ■
#एकदा_जंबूद्वीपे
समान नागरिक संहिता यानी Uniform Civil Code लागू करने की इतनी बेताबी किसलिए? एक ऐसा समतामूलक समाज बनाने में दिलचस्पी क्यों नहीं दिखाते, जहां असमानता का स्तर हमारे यहां जैसा अमानवीय, अनैतिक और शर्मनाक न हो! समाज में कुछ तो समानता हो! हर नागरिक के जीवन की गरिमा हो!
आज हमारे समाज की कितनी भयावह स्थिति है? भारत में अमीर-गरीब की खाई इतनी बढ चुकी है कि दुनिया के सर्वाधिक असमानतामूलक 161 देशों की सूची में हम 123 वें स्थान पर हैं. हमारा निजाम-हमारे हुक्मरान मुल्क की इस शर्मनाक स्थिति पर चिंतित नहीं नजर आते. उन्हें समान नागरिक संहिता की ज्यादा चिंता सता रही है. 'समान नागरिक संहिता' चाहते हो तो 'समान नागरिक सुविधा' भी दो!
सबको अच्छी शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य-सेवा मिले! पर इस मुल्क का निजाम तो अपने सभी नागरिकों को पीने का शुद्ध पानी भी नहीं उपलब्ध करा पा रहा है....
ऐसी जरूरी चीजों को छोड़कर नागरिक संहिता पर इतना जोर क्यों? संविधान में दर्ज नीति निर्देशक सिद्धांत के अनेक अनुच्छेद और भी बहुत कुछ कहते हैं. उन अनुच्छेदों की उपेक्षा क्यों? है कोई जवाब? सड़क से संसद तक ऐसे सवालों को उठाने की जरूरत है..
*बीजेपी की चाल के डर से सेक्लुयर राजनीति को समान नागरिक संहिता का मैदान नहीं छोड़ना चाहिए*
आम चुनाव से महज़ 10 माह पहले और मोदी सरकार के हाथों गठित विधि आयोग में पूरे विचार-विमर्श से खारिज़ होने के पांच साल बाद अगर यह प्रस्ताव फिर से सामने लाया गया है तो इसलिए कि अल्पसंख्यकों और खासतौर पर मुसलमानों के खिलाफ एक मोर्चा और खोला जा सके. मकसद जनता-जनार्दन के सामने ये ज़ाहिर करना है कि कांग्रेस सरीखे दल पारिवारिक कानूनों में सुधार की घुट्टी हिंदुओं के गले उतारने में तो आगे-आगे रहते हैं, लेकिन मुसलमानों और ईसाइयों के साथ ऐसा करने की उनकी हिम्मत नहीं होती. इरादा ये जताने का रहता है कि विपक्ष अपने नज़रिए में मुस्लिम और ईसाई समुदाय के रूढ़ि परस्त नेतृत्व से मेल में है. तीन तलाक मामले में उठी बहस की तरह समान नागरिक संहिता के मामले में भी विपक्ष बीजेपी के बिछाए जाल में फंसता दिख रहा है.
विपक्ष को समान नागरिक संहिता के विचार का विरोध करने की जगह ये सवाल उठाना चाहिए कि बीजेपी समान नागरिक संहिता की भावना का सत्यानाश कर रही है—वह समान नागरिक संहिता को गलत अर्थ और आशय देना चाहती है. नाम देखकर भड़कने से अच्छा है कि आलोचक समान नागरिक संहिता के सार-तत्व पर बात करें—- उसके अर्थ और आशयों पर बहस खड़ी करें. इस मामले में विपक्ष नारीवादी आंदोलन के सिद्धांत निष्ठ और बारीक नज़रिये से सबक ले सकता है. रूढ़िवादी धर्मसत्ता और बीजेपी दोनों ही समान नागरिक संहिता को अपने हित और नजरिए से परिभाषित करना चाहते हैं और नारीवादी आंदोलन बारीक सैद्धांतिक समझ के सहारे इन दोनों ही कोशिशों के खिलाफ खड़ा हुआ है. साथ ही विपक्ष चाहे तो 21वें विधि आयोग के विमर्श-पत्र (डिस्कशन पेपर) की भी मदद ले सकता है जिसमें समान नागरिक संहिता विषयक बातें अत्यंत विस्तार और स्पष्ट तर्कों के साथ दर्ज की गई हैं.
बीजेपी समान नागरिक संहिता के छिछले शाब्दिक अर्थ के सहारे अपना खेल रच रही है. बीजेपी 'समरूप (यूनिफॉर्म)' को इकहरा और एकरूप बता रही है. इस कुतर्क की रौशनी में समान नागरिक संहिता का अर्थ होगा एक नया कानून जो देश में अभी मौजूद तमाम पारिवारिक कानूनों की जगह लेगा और इस कानून में तमाम धर्म-समुदाय के लोगों के लिए विवाह, तलाक, उत्तराधिकार तथा गोद लेने संबंधी प्रावधान एक जैसे होंगे. बीजेपी समान नागरिक संहिता का यही अर्थ भला रही है और बीजेपी के आलोचक समान नागरिक संहिता के इसी अर्थ को सही मानकर समान नागरिक संहिता का विरोध कर रहे हैं. लेकिन समान नागरिक संहिता का ऐसा अर्थ करना तो संविधान के नीति-निर्देशों का कुपाठ कहलाएगा.
*समान नागरिक संहिता सही अर्थ*
देश के समाज-सुधारकों के स्वप्न, संविधान-निर्माताओं की मंशा और नारीवादी आंदोलन की मांगों का तकाज़ा है कि हम समान नागरिक संहिता का बारीकी से पाठ करें और इसमें जो 'समान' शब्द आया है उसके अर्थों पर गहराई से गौर करें. किसी संहिता के 'समान' होने का अर्थ यह कत्तई नहीं कि उसे सबके लिए एक-रूप और एक-रंग होना चाहिए. ऐसी संहिता समान सिद्धांतों पर आधारित हो सकती है साथ ही उसमें रंग-रूप का वैविध्य भी हो सकता है. यह बहुत कुछ क्लाइमेट-जस्टिस (पारिस्थितिकीय न्याय) की वार्ताओं की तरह है जिसमें सिद्धांत तो समान होते हैं, लेकिन अलग-अलग देशों के लिए ज़िम्मेदारियों का स्वरूप अलग-अलग होता है, जिसे "कॉमन बट डिफ्रेंशिएटेड रिस्पांसिबिलिटी" का सिद्धांत कहा जाता है. इस तर्ज पर सोचें तो समान नागरिक संहिता में 'समान' का अर्थ होगाः सभी धार्मिक और सामाजिक समुदायों के लिए एकरूप संवैधानिक सिद्धांतों को अमल में लाना. किसी भी समुदाय से संबंधित पारिवारिक कानूनों को इस बात की इज़ाज़त नहीं होगी कि वह समानता के अधिकार, भेदभाव के विरुद्ध अधिकार तथा लैंगिक-न्याय की धारणा का उल्लंघन करे. जो कोई रीति-रिवाज़ या पारिवारिक कानून इन सिद्धांतों के उल्लंघन में है, उन्हें खत्म होना होगा.
साथ ही, ये सर्व-सामान्य सिद्धांत विभिन्न समुदायों के लिए उनकी आचार-संहिता के हिसाब से विभिन्न रूप ले सकते हैं. मिसाल के लिए मुस्लिम समुदाय में शादी निकाहनामे पर आधारित एक अनुबंध होती है. समान नागरिक संहिता के लिए ज़रूरी नहीं कि मुस्लिम समुदाय अपनी इस प्रथा का त्याग कर दे या फिर हिंदू समुदाय इस प्रथा को अपना ले. अलग-अलग समुदाय अपने अलग-अलग रीति-रिवाज़ का पालन कर सकते हैं और कई बार विवाह, तलाक, गोद लेने तथा उत्तराधिकार संबंधी ये रीति-रिवाज़ एक-दूसरे के विपरीत भी हो सकते हैं, लेकिन शर्त यही है कि ऐसे रीति-रिवाज़ संविधान सम्मत सिद्धांत-समुच्चय का उल्लंघन न करते हों.
ऐसा भी नहीं कि समान नागरिक संहिता कानून के जोर से लोगों के बरताव में एक ही दिन में दाखिल हो जाए और जो कुछ पीछे से चला आ रहा है वो सब तत्काल ही खत्म हो जाए. इस नज़रिए से देखें तो समान नागरिक संहिता को अमल में लाने के लिए तीन दूरगामी विधायी परिवर्तन करने होंगे. पहली बात ये कि 21वें विधि आयोग के सुझावों की रोशनी में मौजूदा पर्सनल लॉ में व्यापक सुधार करने होंगे. इसमें ये भी शामिल है कि मुसलमानों में जब-तब जारी और कानूनी तौर पर मान्य बहुविवाह के चलन पर अंकुश लगे, उसे हतोत्साहित किया जाए और साथ ही महिलाओं के हितों की रक्षा के प्रावधान किए जाएं. इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि हिंदुओं तथा अन्य समुदायों में कानूनी तौर पर अमान्य, लेकिन व्यवहार में जब-तब दिखाई पड़ने वाले बहुविवाह के चलन पर अंकुश लगे, ईसाइयों में तलाक तथा गोद लेने संबंधी प्रथाओं को सरल बनाया जाए तथा विशेष विवाह अधिनियम के तहत ज़रूरी करार दिए गए नोटिस पीरियड को खत्म किया जाए. विधि आयोग ने हिंदू विधि के अंतर्गत जारी सह-दायिकता (कोपार्सेनरी) के सिद्धांत तथा हिंदू अविभाजित परिवार के कर-विशेषाधिकारों को भी खत्म करने की सिफारिश की है. बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक समुदाय के रूढ़ि परस्त तत्व इन परिवर्तनों का विरोध कर सकते हैं, लेकिन सेक्युलर राजनीति को ऐसे विरोधों की परवाह नहीं करनी होगी.
दूसरा विधायी बदलाव ये करना होगा कि विभिन्न समुदायों में जो रीति-रिवाज़ और प्रथाएं प्रचलित होने के बावजूद अभी तक कानून के दायरे में नहीं आ पाई हैं उन्हें संहिताबद्ध किया जाए. मिसाल के लिए, एक सिद्धांत यह है कि किसी बच्चे की गार्जियनशिप या उसकी कस्टडी से संबंधित विवाद में सबसे ज्यादा ध्यान बच्चे के हित का रखा जाना चाहिए. इस सिद्धांत को कानून में जगह दी जानी चाहिए.
तीसरी बात ये कि मौजूदा विशेष विवाह अधिनियम के दायरे का विस्तार होना चाहिए ताकि जो नागरिक किसी समुदाय-विशेष के पारिवारिक कानूनों से बंधकर नहीं चलना चाहते उनके लिए समान आचरण संहिता तैयार की जा सके. ऐसी संहिता का एक रूप गोवा में प्रचलित है और गोवा के तमाम नागरिकों पर लागू भी है चाहे वे किसी भी धर्म-समुदाय के हों. बाबासाहेब आंबेडकर ने इसी तर्ज पर स्वैच्छिक आचार-संहिता की बात कही थी.
बीजेपी ने जिन दायरों पर अवैध कब्ज़ा जमाया है, सेक्युलर राजनीति लंबे समय से उन दायरों को छोड़ती जा रही है. यह आत्मघाती राजनीति है और सेक्युलर राजनीति के लिए समान नागरिक संहिता ऐसी आत्मघाती राजनीति का एक और उदाहरण न बने तो ही अच्छा होगा! समान नागरिक संहिता के विचार से पीछा छुड़ाने की जगह सेक्युलर राजनीति को बेधड़क खड़ा होना चाहिए और ऊपर बताए गए ढर्रे पर लागू करने की मांग करनी चाहिए. बीजेपी की बनाई कहानी में फंसकर अल्पसंख्यक समुदायों के रूढ़िपरस्त नेतृवर्ग से हाथ मिलाने की जगह सेक्युलर राजनीति को बीजेपी से साफ-साफ कहना होगा कि झांसा पट्टी नहीं चलेगी, आप प्रस्तावित समान नागरिक संहिता का पहले कोई ठोस मसौदा तो लेकर आइए!
(प्रो. योगेन्द्र यादव के लेख से साभार)
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