Wednesday, 12 October 2022

बाल गंगाधर तिलक के स्त्रीद्वेषी विचार



"हमें प्रकृति और सामाजिक नीतियों के मुताबिक चलना चाहिए। पीढ़ियों से घर की चारदीवारी महिलाओं के काम का मुख्य केंद्र रहा है। उनके लिए अपना  बेहतर प्रदर्शन करने हेतु यह दायरा पर्याप्त है। एक हिंदू लड़की को निश्चित रूप से एक बेहतरीन बहू के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। हिंदू औरत की सामाजिक उपयोगिता उसकी  सिंपैथी और परंपरागत साहित्य को ग्रहण करने को लेकर है। लड़कियों को हाइजीन, डोमेस्टिक इकोनॉमी, चाइल्ड नर्सिंग, कुकिंग, सिलाई आदि की बेहतरीन जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।"(बाल गंगाधर तिलक, 20 फरवरी 1916, मराठा अखबार)

यह पंक्तियां किसी अनाम व्यक्ति कि नहीं बल्कि भारत में लोकमान्य के रूप में स्वीकार किए जाने वाले बाल गंगाधर तिलक की है। स्त्रीद्वेषी विचारों के बाद भी चितपावन ब्राह्मण होने का लाभ हमेशा से तिलक को मिला है इसलिए वे भारत में लोकमान्य के रूप में स्वीकार किये जाते हैं।
हिंदुत्ववादी फायरब्रांड नेता कहे जाने वाले तिलक ने 1885 में लड़कियों के लिए पहला हाई स्कूल खोले जाने के रमाबाई के प्रयासों का घनघोर विरोध किया था। इस प्रयास में असफल होने पर उन्होंने लड़कियों के 11:00 बजे से 5:00 बजे तक घर के बाहर रहने का भी विरोध किया और उन्हें घर के कामकाज सिखाने के लिए तीव्र अभियान चलाया। इन्होंने लगातार अपने अखबारों के लेखों में लिखा की कोई भी अपनी लड़की को इतने समय तक घर से बाहर नहीं रहने दे ताकि वे स्कूल नहीं जा सके। उनका कहना था कि पढ़-लिखकर लड़कियां रमाबाई की तरह हो जाएंगी जो अपने पति का विरोध करके समाज और संस्कृति को खराब करेंगी। 
तिलक ने लड़कियों की शिक्षा का पाठ्यक्रम बदलकर उन्हें केवल पुराण, धर्म और घरेलू काम जैसे बच्चों की देखभाल, खाना बनाना आदि की शिक्षा प्राप्त करने तक ही सीमित रखने की वकालत की। उनका मानना था कि लड़कियों को शिक्षा देना करदाताओं के धन की बर्बादी है |
महिलाओं के संदर्भ में तिलक के विचार मनु के विचारों से किसी भी रुप में अलग न होकर उसका ही विस्तार और अभिव्यक्ति है। हिंदू धर्म में स्त्री शिक्षा एवं स्वतंत्रता के प्रश्न को सदैव ही नकारा गया है| 

दूसरी ओर शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले ,सावित्रीबाई फुले, बाबासाहेब अंबेडकर जैसे महान बहुजन नायक स्त्री शिक्षा और उनके अधिकारों की शुरुआत के पक्षधर  थे।


Sunday, 9 October 2022

ए बिलियन कलर स्टोरी': क्या 'नए भारत' में हमने सारी कविताएं खो दी हैं...

'ए बिलियन कलर स्टोरी': क्या 'नए भारत' में हमने सारी कविताएं खो दी हैं...

पद्मकुमार नरसिंहमूर्ती की फ़िल्म 'ए बिलियन कलर स्टोरी' 
का प्रमुख पात्र 11 साल का हरी अजीज़ अपनी 'हिन्दू' मां पार्वती से कहता है कि उसे अपने पिता इमरान अजीज़ के लिए डर लगता है, क्योंकि उसके पिता 'मुस्लिम' हैं। पार्वती अपने बेटे से कहती है कि तुम तो जानते हो कि तुम्हारे पापा धर्म को नहीं मानते। इस पर बेटे का जवाब न सिर्फ मां को बल्कि दर्शकों को भी हैरान कर देता है। वह कहता है-'लेकिन ये बात उन्हें नहीं मालूम।' नंदिता दास की फ़िल्म 'मंटो' में भी ऐसा ही एक दृश्य है। मंटो के दोस्त श्याम के ये कहने पर कि तुम तो शराब पीते हो, नमाज़ नहीं पढ़ते, तुम कहां के मुसलमान हुए। इस पर मंटो का जवाब हिला कर रख देता है। मंटो कहते हैं- इतना मुसलमान तो हूँ ही कि दंगे में मारा जा सकूं।
हमने ये कैसा भारत बना डाला, जहाँ एक 11 साल का बेटा अपने बाप के दंगे में मारे जाने की संभावना से भयभीत है। फ़िल्म में बेटे हरी अजीज़ के इसी भय से यह सवाल पैदा हुआ कि क्या हमने अपनी सारी कविताएं खो दी हैं।
हरी अजीज़ के 'मुस्लिम' पिता और 'हिन्दू' मां एक आदर्श वादी दंपति हैं जो एक ऐसी फिल्म बना रहे हैं जिसमे टाइम मशीन से पीछे जाकर प्रेम के माध्यम से भारत-पाकिस्तान विभाजन को रोक दिया गया है। इसमें यह संकेत साफ है कि आज की बहुत सी समस्याओं की जड़ विभाजन में ही हैं। आज के नफ़रत भरे माहौल में ऐसी फिल्म बनाने के रास्ते में आने वाली दुश्वारियां और उनके खुद के जीवन मे इस 'नए असहिष्णु भारत' के कारण आने वाली मुसीबतों को एक 11 साल के बच्चे की नज़र से देखने का प्रयास किया गया है।
फ़िल्म का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा यानी बच्चे हरी अज़ीज़ की हत्या तक फ़िल्म 'ब्लैक एंड व्हाइट' रहती है। चूंकि यहाँ तक फ़िल्म बच्चे की नज़र से है और बच्चे रंगों में अर्थ नही तलाशते। रंगों से (और कपड़ो से) किसी को नही पहचानते। शायद इसीलिए यहां तक फ़िल्म 'ब्लैक एंड व्हाइट' है। और उसके बाद रंगीन हो जाती है। इसकी दूसरी व्याख्या यह भी हो सकती है कि हरी अज़ीज़ की हत्या के कुछ पहले ही हरी अजीज़ के पिता इमरान अजीज़ का आदर्शवाद लगातार हो रही घटनाओं से चकनाचूर हो जाता है। वे फ़िल्म बनाने का प्लान कैंसिल करके 'नार्मल'
जीवन में जाने की योजना बना लेते हैं। 
लेकिन हरी अजीज़ ने मानो अपनी जान देकर अपने पिता के आदर्शवाद को फिर से जगा दिया। इसी आशा को दर्शाने के लिए अंत मे कलर का इस्तेमाल किया गया।
बहुत पहले एक फ्रेंच उपन्यास पढ़ा था- तेराज रॉक। उसका दर्शन ही यह था कि यदि हम नफरत के आधार पर बंटवारा करते हैं तो यह वहीं नहीं रुकता। यह परमाणु चेन रिएक्शन की तरह लगातार अन्य विभाजनों को भी जन्म देता है। फ़िल्म का एक पात्र इसे यूं बयां करता है- 'यहाँ सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई नहीं है, बाकी हर व्यक्ति की हर व्यक्ति से लड़ाई है। गुजराती की मराठी से, मराठी की उत्तर भारत से, शादीशुदा की लिव-इन वालों से आदि आदि। 
'ए बिलियन कलर स्टोरी' फ़िल्म का संदेश साफ है - क्या प्रकृति में मौजूद अनगिनत रंगों को महज चंद धार्मिक रंगों में रिड्यूस किया जा सकता है? बाकी रंगों के लिए क्या इस 'नए भारत' मे कोई जगह होगी? क्या इस 'नए भारत' की बगिया में अब एक ही रंग के फूल होंगे। क्या इस 'नए भारत' में कविताओं के लिए कोई जगह होगी? क्या इस 'नए भारत' मे हरी अजीज़ के पिता इमरान अजीज़ के आदर्शवाद के लिए कोई जगह होगी? क्या इस 'नए भारत' में इंसान के लिए कोई जगह होगी? क्या इस 'नए भारत' में हरी अजीज़ और उसके सपनों के लिए कोई जगह होगी? उसके मासूम सवालों के लिए कोई जगह होगी?
वास्तव में ये सारे सवाल 'नए भारत' के भ्रूण में पल रहे उस बच्चे के सवाल हैं जो गर्भ से बाहर तभी आएगा जब उसे इन सवालों का संतोषजनक जवाब मिलेगा। बच्चे की किलकारी का  आनंद लेना है तो हमें इन सवालों के जवाब जल्द से जल्द तलाशने होंगे।
यह फ़िल्म फिलहाल 'हॉटस्टार' पर मौजूद है।
#मनीष आज़ाद

होलिका! मेरी परदादी"-

"होलिका! मेरी परदादी"-

            होलिका मेरी मां की मां की मां…
             मेरी परदादी
             तुम पहली स्त्री थी
             जिसे आग में झोंकर जलाया गया
             फिर तो
             स्त्री को जलाने की परंपरा चल पड़ी
             कभी सती के नाम पर
             कभी कुलटा के नाम पर
             कभी दहेज के लिए
             
             मेरी परदादी
             दहेज के लिए
             तुम्हारी हजारों बेटियां
             साल- दर-साल जलाई जाती हैं
             जलाने की परंपरा आज भी जारी है
             जिसका शिकार
             मेरी लाडली बेटी 
             तुम्हारी पोती भी हो सकती है
             
             तुम्हारे जिस्म के जलने की चिरांध
             मुझे आज भी बेचैन करती है 
             तुम्हारी छटपटाहट
             मैं आज भी महसूस करता हूं  
             घेर तुम्हें जलाया गया
             तुम्हारे चिल्लान की आवाज
             आज भी मुझे सुनाई देती है
            
             मेरी परदादी
             वे आज भी हर वर्ष
             तुम्हें जलाने का जश्न मनाते हैं
             जिसे वे होलिका दहन कहते हैं
             जलाने के इस जश्न में
             सब शामिल होते हैं
             यहां तक  तुम्हारी बेटियां-पोतियां भी
            
            मेरी दादी, मनु पुत्रों ने
            उमंग, खुशी और रंगों के त्योहार को
            होलिकोत्सव नाम दे दिया

            मेरी परदादी
            तुम्हारा अपराध क्या था
            तुमसे इतनी घृणा क्यों
            साल-दर-साल 
            तुम्हें जलाने का जश्न क्यों
            जब तक तुम्हें जलाने का जश्न
            मनाया जाता रहेगा
            कोई-न-कोई स्त्री जलाई जाती रहेगी
            क्या तुम्हें जलाए बिना 
            रंगों का उत्सव नहीं बनाया जा सकता?

कविता में किसान



  1. भारतीय समाज मूलतः कृषि समाज हैन केवल आबादी का अधिकांश भाग खेती पर निर्भर करता हैबल्कि यहां की संस्कृतिनीति व संस्कार व आम चेतना मुख्यतः कृषि-समाज की हैं। साहित्यकार सामाजिक यथार्थ का ही पुनर्सृजन करता हैइसलिए किसान किसी न किसी रूप में साहित्य में उपस्थित रहा है। यद्यपि आधुनिक काल से पहले साहित्य में आमजन के सुख-दुखआशा-निराशा और जीवन-संघर्ष को प्रमुखता से अभिव्यक्ति नहीं मिलीलेकिन 'खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलिके वर्णनअकाल के वर्णनसामाजिक दुर्दशा के चित्र तथा प्रेम-कथाओं में प्रसंगवश कहीं न कहीं किसान जीवन की ओर संकेत रचनाओं में अवश्य दिखाई पड़ता है।
    हिन्दी के आधुनिक साहित्य की पृष्ठभूमि 1857 का किसान-विद्रोह हैजिसमें किसानों ने खूब बढ़चढ़कर भाग लिया था। आधुनिक इतिहास साम्राज्यवादी शोषण व लूट के विरूद्ध किसानों के विद्रोहों से भरा पड़ा है। यद्यपि तत्कालीन साहित्य में किसान-विद्रोह की अभिव्यक्ति नहीं मिलतीलेकिन बाद के साहित्य पर तथा सामाजिक राजनीतिक आन्दोलनों पर इसका गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। आधुनिक काल में मशीन व औद्योगिक समाज में तब्दीली के साथ समाज में नए वर्गों का उदय भी हुआ और वर्ग-संतुलन भी बदला हैप्राथमिकताएं भी बदली हैं। समाज के मेहनतकश वर्गों के सुख-दुख व जीवन-संघर्ष ने आधुनिक साहित्य में केन्द्रीय स्थान ग्रहण किया है। आधुनिक समाज ने उपन्यास जैसी सशक्त साहित्यिक विधाओं को पैदा कियाजिसने शोषित-वंचित वर्ग की आशाओं-आकांक्षाओं को व्यक्त किया।
    किसान का जीवन कथा-साहित्य में हमेशा एक मुद्दे की तरह से रहा है। किसान को केन्द्रित करके कितने ही श्रेष्ठ उपन्यासों की रचना हुई है। यद्यपि आधुनिक समय में महाकाव्यों की भी कोई कमी नहीं हैसैकड़ों महत्त्वपूर्ण महाकाव्य लिखे गए हैंजिनमें अपने समय की चेतना व महत्त्वपूर्ण सवालों को अभिव्यक्ति मिली है। लेकिन यह भी सच है कि इक्का-दुक्का खंडकाव्य को छोड़कर किसान-जीवन पर केन्द्रित महाकाव्य या अनेक खंडकाव्य दिखाई नहीं पड़ते।
    किसान-केन्द्रित महाकाव्यों-खण्डकाव्यों की ही बात नहीं हैबल्कि सैंकड़ों कविता-संग्रह खंगालने के बाद भी किसान को केन्द्र में रखने वाली दो सौ-चार सौ कविताएं भी न मिल पाना चिन्ताजनक है। कवियों की प्रतिबद्धता में कमी नहीं हैसैंकड़ों कवि हैं जो मेहनतकश जनता के प्रति संवेदनशील हैंजिनकी प्रतिबद्धता घोषित हैलेकिन किसान जीवन का उनके चित्रों से गायब होना कुछ गम्भीर सवाल छोड़ जाता है। कविता विधा पर सोचने पर मजबूर करता है कि कविता में किसान के न आ पाने के पीछे इस विधा का मिजाज है या फिर कवियों की पृष्ठभूमि। किसान वर्ग को महत्त्वपूर्ण जनता न मानना या उनके प्रति असंवेदना-उपेक्षा।
    किसान कभी कविता में चर्चा का विषय नहीं बनाइसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि किसान को लेकर जो कविताएं रची गईंवे कभी मुख्य विमर्श का हिस्सा नहीं बनी। हिन्दी के प्रमुख प्रकाशनों ने हिन्दी के मुख्य कवियों की रचनाओं को पाठकों तक पंहुचाने के लिए उनकी 'प्रतिनिधिकविताओं के संकलन प्रकाशित कियेलेकिन इस संकलनों में किसान को केन्द्रित करके रची गई कविताओं का अकाल है। जिन कवियों ने किसानों को अपनी कविताओं का विषय बनायावे कविताएं संकलनकर्ताओं की रूचि कैंची से कतर दी गई। मैथलीशरण गुप्त के 'किसानखंडकाव्य की आलोचकों ने नाम परिगणन के अलावा कभी प्रमुखता से चर्चा नहीं की। अब इसे उपेक्षा नहीं तो क्या कहें?
    विता में किसान-जीवन का प्रमुखता से न आ पाने के पीछे समाज परिवर्तन में वर्गों की भूमिका की पहचान सम्बंधी सोच भी रही। किसान की अपेक्षा औद्योगिक-मजदूर को क्रांतिकारी चेतना का वाहक माना गया। क्रांति में औद्योगिक मजदूर वर्ग को नेतृत्वकारी भूमिका में देखा गयान कि किसान को। इस तरह की सोच आरम्भ से ही सोच-चिन्तन में छाई रही। सुमित्रनन्दन पन्त की कविताओं में किसान और मजदूर के बारे में व्यक्त धारणा इसका खुलासा करती है। 'कृषककविता में ''उन्होंने किसान को 'युग-युग का भार वाहकवज्रमूढ़हठीरूढिय़ों का रक्षकदीर्घ सूत्रीदुराग्रहीसशंकसंकीर्णसमूह-कृपणस्वाश्रितशोषितक्षुधार्दितकूप-मण्डूक आदि कहकर उसकी कमजोरियों पर प्रकाश डाला है। इसके विपरीत उन्होंने 'युगान्तकी 'श्रमजीवीशीर्षक कविता में पन्त ने मजदूरों का अत्यन्त भव्य एवं गौरवपूर्ण चरित्र अंकित किया। उन्होंने मजदूरों को 'कर्दम से पोषित होने पर भी पवित्रशोषित होने पर भी निर्माताअशिक्षित होने पर भी शिक्षितों से अधिक शिक्षितदृढ़ चरित्रदुख सहिष्णुअभय-चित्त आदि बताते हुए अन्त में कहा हैः
    'लोक क्रांति का अग्रदूतवर वीरजनादृत,
    नव्य सभ्यता का उन्नायकशासकशासित।
    चिर पवित्र वहभयअन्यायघृणा से पालित,
    जीवन का शिल्पी, - पावन भ्रम से प्रक्षालित।'1
    मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभावस्वरूप जो आमजन कविता के केन्द्र में आया उसमें किसान अलग से कोई वर्ग नहींबल्कि सर्वहारा के एक हिस्से के रूप में था। इसीलिए तत्कालीन आह्वान गीतों व कविताओं में किसान और मजदूर अलग अलग नहींबल्कि साथ-साथ ही मौजूद हैं। प्रगतिवादी-आन्दोलन ने सचेत तौर पर किसानों-श्रमिकों को मुख्य रूप पर कविता में केन्द्रित किया। किसानों की आबादीमहत्त्व व शोषण को देखते हुए कविताएं उतनी मात्र में तो नहीं हैंजितनी कि अपेक्षित हैंलेकिन ऐसा नहीं कहा जा सकता कि कविता से किसान गायब है। कम-से-कम साम्राज्यवादी अंग्रेजी शासन के खिलाफ मुक्ति-संग्राम में किसान का शोषण कविताओं में प्रस्तुत हुआ है। आजादी के बाद की कविता मध्यवर्ग की मन:स्थितियां व स्थितियां छाई रही हैंवहां जरूर किसान उपेक्षित हुआ है। साम्राज्यवाद के खिलाफ जब भी संघर्ष तीव्र हुआ हैतो किसान कविता में उपस्थित हुआ है। 
    साम्राज्यवादी व्यवस्था में किसान को जो लगान देना पड़ता थावह उसकी फसल से भी अधिक होता था और लगान वसूल करने के लिए अत्याचार व दमन किया जाता था। अंग्रेजी राज की क्रूरता व दमन का सूक्ष्मता व समग्रता से वर्णन करते हुए बालमुकुन्द गुप्त 'सर सैयद अहमद का बुढ़ापाकविता में किसानों के शोषण की प्रक्रियाओं का वर्णन किया। सारे समाज का पेट भरने वाला किसान ही भूखा हैउसके जानवरों को भी कुछ खाने के लिए नहीं मिलता। जब वे कहते हैं कि 'जिनके बिगड़े सब जग बिगडै़ उनका हमको रोवा हैतो उनकी किसानों के प्रति प्रतिबद्धता प्रकट होती है।
    जिनके बिगड़े सब जग बिगडै़ उनका हमको रोवा है।
    जिनके कारण सब सुख पावें जिनका बोया सब जन खावें,
    हाय हाय उनके बालक नित भूखों के मारे चिल्लावें।
    हाय जो सब को गेहूं देते वह ज्वार बाजरा खाते हैं,
    वह भी जब नहिं मिलता तब वृक्षों की छाल चबाते हैं।
    उपजाते हैं अन्न सदा सहकर जाड़ा गरमी बरसात,
    ठिन परिश्रम करते हैं बैलों के संग लगे दिन रात।जेठ की दुपहर में वह करते हैं एकत्र अन्न का ढेरजिसमें हिरन होंय काले चीलें देती हैं अंडा गेर।
    काल सर्प की सी फुफकारें लुयें भयानक चलती हैं,
    धरती की सातों परतें जिसमें आवा सी जलती हैं।
    तभी खुले मैदानों में वह कठिन किसानी करते हैं,
    नंगे तन बालक नर नारी पित्ता पानी करते हैं।
    जिस अवसर पर अमीर सारे तहखाने सजवाते हैं,
    छोटे बड़े लाट साहब शिमले में चैन उड़ाते हैं।
    उस अवसर में मर खपकर दुखिया अनाज उपजाते हैं,
    हाय विधाता उसको भी सुख से नहिं खाने पाते हैं।
    जम के दूत उसे खेतों ही से उठवा ले जाते हैं,
    यह बेचारे उनके मुंह को तकते ही रह जाते हैं।
    अहा बेचारे दु:ख के मारे निस दिन पचपच मरें किसान,
    जब अनाज उत्पन्न होय तब सब उठवाय ले जाय लगान।
    यह लगान पापी सारा ही अन्न हड़प कर जाता है,
    भी कभी सब का सब भक्षण कर भी नहीं अघाता है।
    जिन बेचारों के तन पर कपड़ा छप्पर पर फूंस नहीं,
    खाने को दो-सेर अन्न नहीं बैलों को तृण तूस नहीं।
    नग्न शरीरों पर उन बेचारों के कोड़े पड़ते हैं,
    माल माल कह कर चपरासी भाग की भांति बिगड़ते हैं।
    सुनी दशा कुछ उनकी बाबाजो अनाज उपजाते हैं,
    जिनके श्रम का फल खा खाकर सभी लोग सुख पाते हैं।
    बालमुकुन्द गुप्त ने किसानों की दुर्दशा का जो वर्णन कियावह आज भी काला हांडी के किसानों की याद दिला जाता है। गुप्त जी कविता में किसान वृक्षों की छाल चबाकर पेट भरने को विवश हैंतो आज के किसानों कच्ची गुठलियां खाकर बीमार होने को विवश हैं। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी शोषण के कारण एक लाख अस्सी हजार से अधिक किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं। यह कोई प्राकृतिक विपदा के कारण नहीं हैबल्कि पूंजीपरस्त सरकारी नीतियों व योजनाओं के कारण हैं।
    रामधारी सिंह दिनकर ने साम्राज्यवादी शोषण को भारतीय जन की दुर्दशा का मुख्य कारण माना है। उन्होंने शोषण के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए जनमानस को उद्वेलित किया। मेहनतकश जनता के दुखों-तकलीफों को व्यक्त करने वाली कविताएं उन्होंने लिखीजिसमें किसान का जिक्र आया है। 'कस्मै देवाय', 'कविता की पुकार', 'हाहाकारका नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। विजेन्द्र नारायण सिंह ने कहा कि 'हाहाकारकविता भारतीय किसानों की बेमिसाल गरीबी का शोकगीत है।2 कभी खलिहान किसानों के लिए खुशहाली की जगह हुआ करती थी। पर उपनिवेशवादी शोषण ने इसे रोने और आंसू बहाने की जगह बना दी। दिन भर और उसी क्रम में साल भर मरने-खपने के बाद भी उन्हें भरपेट खाना और कपड़ा नहीं मिल पाता है। असन और वसन दोनों का अभाव किसानों के जीवन को आंसुओं से तर कर देता है:
    जेठ हो कि हो पूसहमारे कृषकों को आराम नहीं है,
    छुटे बैल के संगकभी जीवन में ऐसा याम नहीं है।
    मुख में जीभशक्ति भुज मेंजीवन में सुख का नाम नहीं है,
    वसन कहांसूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।
    विभव-स्वप्न से दूर भूमि पर यह दुखमय संसार कुमारी,
    खलिहानों में जहां मचा करती है हाहाकार कुमारी।
    बैलों के बन्धु वर्ष भरक्या जानेंकैसे जीते हैं?
    बंधी जीभआंखें विषण्णगम खाशायदआंसू पीते हैं3
    देखकलेजा फाड़ कृषक दे रहे हृदय-शोणित की धारें
    बनती ही उनपर जाती हैं वैभव की ऊंची दीवारें।
    धन-पिशाच के कृषक-मेधा में नाच रही पशुता मतवाली,
    अतिथि मग्न पीते जाते हैं दीनों के शोणित की प्याली।4
    रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी लेखनी को सर्वहारा को समर्पित करने का संकल्प लिया। किसान पूरे समाज का पेट पालता हैलेकिन शोषण के कारण खुद वह भूखा रहता है। वह दूध पैदा करता हैलेकिन उसके बच्चे दूधा पीने के लिए तरसते हैं।
    ऋण-शोधन के लिए दूध-घी बेच-बेच धन जोड़ेंगे
    बूंद-बूंद बेचेंगेअपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे
    शिशु मचलेंगेदूध देखजननी उनको बहलाएगी
    मैं फाडूंगी हृदयलाज से आंख नहीं रो पाएगी

    सूखी रोटी खायेगा जब कृषक खेत में धरकर हल
    तब दूंगी मैं तृप्ति उसे बनकर लौटे का गंगाजल,
    उसके तन का दिव्य स्वेदकण बनकर गिरती जाऊंगी
    और खेत में उन्हीं कणों-से मैं मोती उपजाऊंगी।5
    स्वतंत्रता से पूर्व साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष के दौरान रूस में श्रमिकों का शासन मेहनतकश जनता के संघर्षों को प्रेरणा व दिशा देता था। किसान-आन्दोलनों की पृष्ठभूमि में रूस की समाजवादी-व्यवस्था एक आदर्श की तरह व्याप्त थी। नरेन्द्र शर्मा की 'लाल निशानकविता इसे व्यक्त करती है।
    लाल रूस है ढाल साथियों सब मजदूर किसानों की।
    वहां राज है पंचायत का वहां नहीं है बेकारी।
    लाल रूस का दुश्मन साथीदुश्मन सब इनसानों का।
    दुश्मन है सब मजदूरों कादुश्मन सभी किसानों का।
    भगवतीचरण वर्मा ने 'भैंसा गाड़ीकविता के माध्यम से ग्रामीणों और किसानों के जीवन यथार्थ का वर्णन किया। किसानों के शोषण के चित्र दिखाते हुए अनके शोषण के कारणों की ओर संकेत किया।
    'उस ओर क्षितिज के कुछ आगेकुछ पांच कोस की दूरी पर,
    भू की छाती पर फोड़ों सेहैं उठे हुए कुछ कच्चे घर।
    मैं कहता हूं खण्डहर उसको पर वे कहते हैं उसे ग्राम।
    पैदा होना फिर मर जानायह है लोगों का एक काम।
    दिनकरबालकृष्ण शर्मा नवीनभगवतीचरण वर्मानरेन्द्र शर्मारामेश्वर शुक्ल अंचल आदि कवियों की कविताएं शोषित-पीडि़त जनता के प्रति करूणा व सहानुभूति प्रकट करती हैं। साम्राज्यवादी सत्ता के खिलाफ जनता की भारी संख्या में भागीदारी इन्हें मेहनतकश के चित्र देने पर तो मजबूर कर रही थीलेकिन साम्राज्यवाद के क्रूर व दमनकारी चरित्र को उद्घाटित करने के लिए किसानों की दुर्दशा का चित्रण किया गया है। इसलिए इनकी कविताएं सामन्तवादी शोषण व उसकी कुटिलताओं पर चोट नहीं करती। किसान-दुर्दशा के वास्तविक कारण ओझल हो जाते हैंकिसान यहां या तो बहुत ही आदर्शवादी रूप में 'अन्नदाताकी रोंमाटिक छवि लिये उपस्थित होता है या फिर बिल्कुल दीन-हीन व बेचारा के रूप में। गौर करने की बात है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इस धारा में किसान की बदहाली के चित्र व स्वर कुछ मंद हो गयाजबकि किसान अभी उतनी घोर दुर्दशा में था। आजादी के बाद के किसान संघर्ष यहां लगभग गायब ही हैं।
    लल्लन राय ने हिन्दी कविता में किसान आन्दोलनों के प्रभाव को देखने के लिए तत्कालीन कविताओं का जिक्र किया हैजो यहां देना उचित होगा। ''हिन्दुस्तान के बहुसंख्यक शोषित-उत्पीडि़त जीवन में कृषि क्रांति की आवश्यकता से प्रेरित 'किसान सभाका प्रभाव सन् 1930 सेविशेष रूप से 1936 से 1953 तक काफी गहरा था। फलस्वरूप प्रगतिशील कविता का कृषि क्रांतिमूलक स्वर सबसे तीव्र और व्यापक रहा है। इस काल खण्ड के आरम्भिक दौर में किसान और गांव के जीवन को लेकर अनेक कविताएं लिखी गईं। शील की 'बैल', 'अंगडाई', 'किसान', 'मजदूर की झोंपड़ी';रामविलास शर्मा की 'कुहरे के बादल', 'तूफान के समय', 'बुधई के गांव में लाल झण्डा'; भवानीप्रसाद मिश्र की 'गाय'; रामेश्वर 'करुणकी 'यह दो विपरीत कथाएं'; आरती प्रसाद सिंह की 'बैलगाड़ी'; शंकर शैलेन्द्र की 'तू जिन्दा है', 'उठे कदम'; बालकृष्ण शर्मा नवीन की 'झूठे पत्ते', 'नरक विधान'; जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द की 'किसान का जन्म दिन', 'किसान की चुनौती'; सोहनलाल द्विवेदी की 'किसान', 'गांवों मेंआदि कविताएं उस समय की किसान चेतना के नये उभार को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है।''6
    प्रगतिवादी-आन्दोलन के जन कवि शीलत्रिलोचननागार्जुनशिवमंगल सिंह सुमनकेदारनाथ अग्रवाल सीधे तौर पर जनता के संघर्षों से जुड़े थे। इनका किसानी-जीवन से सीधा संबंध था। मजदूर को क्रांति का अगुवा मानते हुए भी किसान की उपेक्षा नहीं की। इनकी कविताओं में किसान के जीवन के वास्तविक चित्र देखे जा सकते हैं। किसान यहां अपनी जीवन्त दुनिया के साथ मौजूद है। यहां उसके पशु भी हैंउसका परिवार भी और किसान-आन्दोलन भीप्रकृति का विकराल रूप भी और मनमोहक रूप भी। इनके रचना-व्यक्तित्व के निर्माण में तत्कालीन कृषक-आन्दोलन हैं।
    जनकवि शील ने किसानों पर कई कविताएं लिखींउनकी दो कविताओं सन् 1934 में लिखी गई 'तक-तक तक-तक बैलतथा स्वतंत्रता के बाद रचित 'भाई का पत्रका विशेष तौर पर जिक्र किया जा सकता हैजो अपने समय में बहुत ही लोकप्रिय भी हुई थी। 'तक-तक तक-तक बैलकविता में हल जोतता किसान अपने साथी बैल से बातें करता है। जीवन संघर्ष में किसान के पशु उसके दोस्त हो जाते हैं। वे एक दूसरे के जीवन का आधार हैं। किसान की पूरी दिनचर्या यहां दिखाई देती है।
    'भाई का पत्रकिसान जीवन की दुर्दशा को पूरी तरह से प्रस्तुत कर देती है। गांव की तथा विशेषकर किसान की बदतर हालात जो उसके नहींबल्कि व्यवस्था के बनाए हुए हैंवे सब सामने आ जाते हैं। किसान अपनी जमीन की कमाई से उसका लगान भी नहीं भर सकताउसकी कमाई से वह अपने परिवार का गुजार व बेहतर भविष्य तो क्या बनायेगाकिसानी जीवन के इस भयावह यथार्थ को यह कविता प्रस्तुत करती है।
    जंगल बेच ज़मीदारों ने राह संजोई,
    रह जाती है ईंधन बिन अधपकी रसोई
    पुरखों की जायदाद करूं क्या सर पर रखकर,
    रुपया कर्ज़उधार नहीं जब देता कोई
    सोचा-समझा खूब बहुत मन को समझाया,
    बेच रहा हूं नीम द्वार की शीतल छाया
    गयी चैत की फसल बेबसी के घेरे में,
    निगल गया खलिहान न घर में दाना आया
    ऐसी हालत में बोलो क्या खर्चें खाएं,
    ब तक ड्योढ़ा ले लेकर परिवार जिलाएं
    डपट रहा दुष्काल जिंदगी की चिंता है
    जिस धरती में रहें कहां पर पैर जमाएं
    पिछली बार मरा जो धौलाफिर उठ न सका
    चला गया सुरधाम हाय साथी मेहनत का
    मांग चांग कर बैलबीज धरती में डाले,
    पर हो गए अनाथ लगा खेती को झटका
    बिन बैलों की काश्त स्वप्न में मोर नचाना
    बिन सरगम का गीतभूख में गाल बजाना,
    तुम तो कवि हो जराकल्पना करके देखो
    छोड़ दिया है यहां जवानी ने इठलाना

    बिना दया के मरी अभी कंचन की साली
    लखपतशाह दाब बैठे हैं लोटा-थाली
    कुछ लोगों को छोड़ गांव का गांव दुखी है
    अबकी अपने गांव न आएगी दीवाली
    िसकी किसकी कहें गांव के बुरे हाल हैं,
    खद्दरधारी पंचायत में गोलमाल हैं
    झूठों के सरताज कसम गांधी की खाते,
    भूखों मरे किसान मगर नेता निहाल हैं

    दुख दे रहा सुराजकिसान कराह रहे हैं,
    उठने को तूफानअभी कुछ थाह रहे हैं

    नागार्जुन ने 'दूर दूर से आए मनवाने निज अधिकारकविता में जमीन के बारे में लिखा। एक तरफ तो जमींदारों के पास हजारों एकड़ भूमि उनके पशुओं के नाम से है और वह बंजर पड़ी हुई हैलेकिन दूसरी तरफ बहुत बड़ी आबादी के पास जमीन ही नहीं है।
    लाखों एकड़ खेत पड़े हैंठप्प है पैदावार,
    फाजिल धरती का कण-कण करता है हाहाकार
    कागज पर खेती होती हैकलम हुई हर-फार,
    छोड़ रहे हैं गांव-गांव खेत मजदूरों के परिवार।
    जमींदार थे सौउनके बच्चे बीस हजार,
    उपजाऊ खेतों पर उनको दिला दिया अधिकार।
    बंजर-धरती के भी तो हम हो न सके हकदार,
    हदबंदी बिल पेश हुआ थाउसका बना अचार।''
    त्रिलोचन की कविता पर विचार करते हुए मैनेजर पाण्डे ने टिप्पणी की हैवह कविता में किसान की प्रस्तुति की ओर ध्यान आर्कर्षित करती है। ''त्रिलोचन की कविता के बारे में यह कहना काफी नहीं है कि वह किसानों के जीवन-संघर्ष की कविता है। यह भी देखना जरूरी है कि वे किसान-जीवन के यथार्थ को किस दृष्टि से देखते और चित्रित करते हैं। हिन्दी में किसान-जीवन के कवियों की कमी नहीं है। उनमें से अधिकांश कवि मध्यवर्गीय दृष्टि से किसान-जीवन के यथार्थ को देखते हैं। वे कभी समय की मांग और कभी बौद्धिक सहानुभूति के कारण किसान-जीवन की कविता लिखते हैं। ऐसी कविताओं में कहीं कवि तटस्थ दर्शक की तरह होता है तो कहीं किसानों का वकील। इनसे भिन्न मध्यवर्गीय दृष्टि के कवि हैं जो किसान की दयनीयता से द्रवित होकर उनकी व्यथा-कथा कहते हैं या किसान-जीवन की सरलतासादगी और पवित्रता का गौरव-गान करते हैं। त्रिलोचन ऐसे कवि नहीं हैं। उनकी दृष्टि एक सजग किसान की दृष्टि है जो उस जीवन को जीतेदेखते-सुनते और समझते हुए कवि को मिली हैइसलिए उसमें मध्यवर्गीय तटस्थता और भावुकता नहीं है। उसमें किसान जीवन से आत्मीयता और तादात्म्य हैलेकिन उस जीवन में मौजूद रूढिय़ों की आलोचना भी है। उनकी दृष्टि किसान जीवन की समग्रता को देखती है। वह उस जीवन की शक्ति के स्रोतों की खोज करती है तो जड़ता की जड़ों पर प्रहार भी करती है। त्रिलोचन इसी सजग किसान-दृष्टि से प्रकृतिसमाज और विश्व को देखते हैं। मानवीय संबंधों और भावों के उनके बोध में भी वही दृष्टि सक्रिय रहती है।''7
    अकाल केवल किसान की ही नहींपूरे भारतीय समाज की दुर्दशा का वर्णन करते हैं। अकाल पर सबसे ज्यादा बुरी हालत किसानों की होती है। उनके पशु भी भूखे मरने लगते हैं। नागार्जुन ने 'अकाल और उसके बादकविता में वर्णन किया है:
    कई दिनों तक चूल्हा रोयाचक्की रही उदास,
    कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास।
    कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त,
    कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

    दाने आए घर के अन्दर कई दिनों के बाद
    धुआं उठा आंगन से उफपर कई दिनों के बाद
    चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद
    कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद!
    आजादी प्राप्त करने के बाद भी किसान की हालत बहुत नहीं बदली। अंग्रेजी साम्राज्यवादी शासन किसानों के अनाज को खलिहान से उठा ले जाता थालेकिन आज की शोषक नीतियां फसल पकने से पहले ही खाद-तेल-दवाई-बीज के माधयम से पहले ही लूट लेती हैं। किसान के श्रम का शोषण ही हैजिसके कारण उसकी ऐसी दयनीय हालत हैवरन् वह न तो कामचोरी करता है और न ही फिजूलखर्ची।
    वैश्वीकरणउदारीकरण व निजीकरण की नीतियों ने किसान की हालत और अधिक खस्ता कर दी है। वैश्वीकरण की नीतियों के चलते समाज में असमानता की गहरी खाई बनी हैजिसकी सबसे ज्यादा मार समाज के निम्न वर्गों पर पड़ी है। किसानों पर कर्जे की अधिकता के कारण उन्होंने बहुत बड़ी संख्या में आत्महत्याएं की हैं। आधिकारिक तौर पर ही एक लाख पचास हजार से अधिक किसानों की आत्महत्याओं की पुष्टि हुई है। सड़क से लेकर संसद तक में यह चर्चा का विषय रही है। लेकिन इतनी भारी संख्या में हुई आत्महत्याओं के बावजूद भी शासक वर्ग किसान की ओर संवेदनशील नजर नहीं आया। बसंत त्रिपाठी की 'किसानों की आत्महत्याकविता इस ओर ध्यान आर्कषित करती है।
    खेती घाटे का व्यापार बनी है और किसान उसे छोड़कर शहर जाने पर विवश हैं। उससे उनके बच्चों व परिवार को तथा उसको जो विस्थापन की पीड़ा झेलनी पड़ती है वह भी कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है। बहुत बड़ी आबादी इस परायेपन के संकट को झेल रही है। विशेष आर्थिक क्षेत्र( सेजविकसित करने और शहरों के विस्तार से किसान जिस तरह विस्थापित हो रहे हैं वह दर्द किसी से छुपा नहीं है। उनके इस विस्थापन को उच्च वर्गों में बड़ा महिमामंडित भी किया जा रहा है। इस तरह की खबरें समाचारों में आम जगह बना लेती हैं कि किसान करोड़पति बन गए हैं और कागज के टुकड़ों के बदले उसकी जमीन छीनी जा रही है। बेशक इस जमीन से उसका परिवार कोई सुविधाएं नहीं जुटा पा रहा हैलेकिन किसान होने का सुख तो उसे मिलता है इसी जमीन के टुकड़े से ही। यह जमीन का टुकड़ा ही उसे पहचान दे रहा है और समाज में सम्मान पा रहा है।
    किसान का जमीन के प्रति मोह अपने अस्तित्व को बचाने जैसा है। उसके लिए वह झगड़ा करता है। लेकिन वैश्वीकरण के दौर की लूट ने उसको पंगुअसहाय व लाचार बना दिया है। 'बित्ते भरजमीन के लिए मरने मारने पर उतारू होने वाले किसान को अपनी जमीन को जबरदस्ती बिकते देख काठ मार गया है। मथिलेश श्रीवास्तव की 'बित्ता भरकविता में किसान की सबसे कीमती वस्तु उसकी जमीन के छिन जाने की व्यथा है। किसान अपने को बेबस महसूस कर रहा है। वह इस जमीन के लिए इस लिए भी नहीं लड़ रहा है कि इसमें उसके लिए विशेष कुछ है नहीं। इस जमीन से उसे अब कथित 'सम्मानभी नहीं मिलने वाला।
    उसकी जमीन की
    बोली लग रही है
    आज
    वह खड़ा है
    उसी जमीन की डरेर पर
    जिसके बित्ते भर इधर या उधर होने के
    महज अंदाज पर
    वह लड़ पड़ता है
    िसी का सिर फट जाता है
    टूट जाती है किसी की बांह
    ई बित्ते की जमीन उसकी ओर से
    ई बित्ते की जमीन दूसरे की ओर से
    डरेर मजबूत करने में गल जाती है
    तोड़ दी जाती है
    सामूहिक हरवाही
    एक का बैल बिक जाता है
    दूसरे का बैल पागल हो जाता है
    एक की जमीन बिक चुकी है
    पहले ही
    दूसरे की जमीन की बोली है आज8
    किसान चाहे जमीन कितना ही खदेड़ दिया जाए जमीन से दूर होने की पीड़ा व दर्द उसमें निरन्तर कुलबुलाता है। एकान्त श्रीवास्तव की कविता 'जमीन-2' में जमीन किसान के सपने में आती है।
    जमीन
    बिक जाने के बाद भी
    पिता के सपनों में
    बिछी रही रात भर

    वह जानना चाहती थी
    हल के फाल का स्वाद
    चीन्हना चाहती थी
    धांवरे बैलों के खुर

    वह चाहती थी
    पिता के सीने में लहलहायें
    पिता की बोयी फसलें

    एक अटूट रिश्ते की तरह
    भी नहीं टूटना चाहती थी जमीन बिक जाने के बाद भी।9

    एकान्त श्रीवास्तव की कविताओं में गांव व किसान के चित्र आते हैं। ऐसा व्यक्ति जो गांव से दूर आ गया है और गांव उसको कभी सपने में दिखाई देता है तो कभी प्रकृति में। किसान के संघर्षउसके जीवन के अन्तर्विरोधउसके जीवन के विरोधाभास यहां से लगभग गायब हैं। किसानी जीवन की ऐसी स्मृतियों के बिम्ब इनकी कविताओं में होते हैं जेसे कि सपने आ रहे हों। बचपन की स्मृतियों की तरह से वे उस जीवन की रोमांटिक किस्म का लगाव है।
    किसान जीवन के विभिन्न पक्षों के चित्र कविता में उभरते हैं। किसान जीवन के वास्तविक सुख दुखआशा-निराशा और संघर्ष भी कविता में है और काल्पनिक विजय उल्लास भी। वह खेती करता नजर आता है। प्रकृति से प्रेम करता नजर आता है। अपने परिवार के लिए खटता नजर आता है। कविता में किसान जीते-जागते हाड-मांस का व्यक्ति भी है और एक धारणा मात्र भी। किसान के विभिन्न स्तर हैं। धनी किसान भी हैमध्यवर्गीय भी और खेतीहर मजदूर भी।


    संदर्भः

    1. डालल्लन रायहिन्दी की प्रगतिशील कविताहरियाणा साहित्य अकादमीचण्डीगढ़, 1989, पृ.-108
     2. रामधारी सिंह दिनकर विजेन्द्र नारायण सिंह साहित्य अकादमीनई दिल्ली ; 2007, पृ.59
    3. चक्रवा, पृ49
    4.  कस्मै देवाय, पृ19
    5. कविता की पुकारपृ12;चक्रवाल
    6लल्लन राय;पृ118
    7. परमानन्द श्रीवास्तव (सं)समकालीन हिन्दी आलोचनासाहित्य अकादमी प्रकाशनदिल्ली; 1998; पृ.-453
    8. मिथिलेश श्रीवास्तवकिसी उम्मीद की तरहआधार प्रकाशनपंचकूला; 1999, पृ59
    9. एकान्त श्रीवास्तवअन्न हैं मेरे शब्दपृ.-23)

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*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...