पहला प्रश्न-भारत दुनियां का एक विलक्षण देश है। इसकी सामाजिक संरचना का मूल तत्व वर्ण-विभाजन है। और यह वर्ण-विभाजन शताब्दियों से चला आ रहा है।
दूसरा प्रश्न - वर्ण-विभाजन पर आधारित वर्ण संघर्ष न कि वर्गों पर आधारित वर्ग-संघर्ष भारत में होना चाहिए। यही स्थिति भारत को अन्य देशों से भिन्न करती है। इसे एक विलक्षण देश बनाती है।
पहली बात को लें – शताब्दियों से वर्ण व्यवस्था क्यों चली आयी ? सीधा जवाब तो यह है कि आर्थिक बनावट भी शताब्दियों से चली आयी है। जिस हद तक आर्थिक संरचना में परिवर्तन हुए उसी हद तक सामाजिक (वर्ण ) व्यवस्था में भी परिवर्तन हुए। प्रश्न है, भारत की कौन-सी ऐसी विशेष बनावट या विशिष्ट चारित्रिक गुण है जो सदियों से चला आ रहा है ? पंडित नेहरू जैसे विद्वानों का कहना है कि भारत में कोई न कोई विशिष्ट (आध्यात्मिक ) गुण है, जो उसकी धर्म संस्कृति सभ्यता को हजारों साल तक बनाये रखा है। विदेशी आक्रमणकारी तक इस सभ्यता में समाविष्ट हो जाते हैं। आप जानते हैं कि हिन्दुस्तान को कृषि प्रधान देश कहा जाता रहा है। इसका क्या अर्थ है? केवल इतना ही नहीं कि यहां कि 80% जनसंख्या (या पहले कभी 95% ) कृषि में लगी हुई रही है, बल्कि यह भी कृषि पर निर्भरता लम्बे काल से चली आ रही है। अधिकांश जनसंख्या की कृषि पर निर्भरता और वह भी उसका लम्बे समय से चले आना, यह क्यों ? और इसके सामाजिक परिणाम क्या होंगे ? हिन्दुस्तान, यूरोपीय या अरब देशों से इस माने में बिल्कुल भिन्न है कि (i) यहाँ पश्चिम से लेकर पूरव तक उत्तर से लेकर दक्षिण तक हजारों-हजार मील
समतल व उपजाऊ भूमि है । (ii) प्राकृतिक वनस्पतियां ( Natural Vegetable) बहुत अधिक हैं। (iii) नदियों के अलावा समय समय पर खरीफ के लिए वर्षा होती है। इन सब बातों ने यहां के जीवन को प्रकृति पर निर्भर बना दिया और उसकी उपासना करने पर मजबूर कर दिया। इतना ही नहीं भूमि तथा अन्य प्राकृतिक स्रोतों से मनुष्यों की लगभग तमाम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति से यहां के समाज को निर्भरशील, शिथिल व टिकाऊ बनाया। उन्हें अन्य देशों के लोगों की तरह अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु दुनिया के अन्य इलाकों को लूटने या उनमें जाकर बसने को मजबूर नहीं किया, जैसेकि यूनानवासियों अरबों या रोमवासियों के साथ हुआ। वहां कृषि लायक भूमि तथा कृषि की सुविधाएं दोनों ही अपर्याप्त थी। मूलतः इसके चलते जन संख्या की वृद्धि ने उन्हें अपने देश व नगर को छोड़कर अन्य देशों पर हमलावर बनने को मजबूर किया। परंतु यहां पर, जैसे पहले कहा गया समतल भूमि हजारों मील फैली हुई थी। आर्य लोग जंगल काट काटकर हर जगह अपने गण (कबीले) बसाते गये थे। कबीले के हिसाब से क्षेत्र बंट गये और उन पर गांव बस गये। गांव अपने आप में एक स्वतंत्र सामाजिक आर्थिक इकाई बनते गये। वे सदियों तक ऐसे ही बने रहे। कारण, खेती द्वारा उनके भोजन और वस्त्र की जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहती थी। खेती के तमाम साधन स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हो जाते थे। भोजन के अलावा अन्य तमाम वस्तुएं तथा उनके उत्पादन के साधन आदि और इन सब वस्तुओं आदि का उत्पादन करने वाले भी गांव में मौजूद रहते थे। बुनकर, कहार, चमार, डोम मुसहर, बढ़ई, लोहार, तेली, किसान, जमीनों के मालिक, जमींदार, कृषि और शादी विवाह के नक्षत्र बताने वाले कर्मकाण्ड रचने वाले वैदिक व अन्य शिक्षा देने वाले। इस तरह गांव की एक स्वतंत्र इकाई की आवश्यकताएं सामाजिक श्रम विभाजन द्वारा एक दूसरे से पूरी हो जाती थीं। और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति का सामाजिक आधार क्या था ? पैत्रिक सामाजिक श्रम विभाजन, पैत्रिक पेशे, अर्थात जाति-पांति। चूंकि ग्रामीण जीवन एक आत्मनिर्भर सामाजिक इकाई की तरह टिकाये रहे, इसलिए इस आत्म निर्भरता का आधार पैत्रिक श्रम विभाजन- जातिवाद - भी टिका रहा। यूनानियों, शकों व मुसलमानों तक के विदेशी हमलावरों ने गांवों को केवल इतना ही हिलाया कि वे उन्हें लूटे-पाटे। इससे गांव कुछ देर के लिये बर्बाद हो गये। परन्तु फिर पहले की ही तरह अपनी भूमि पर पुराने जन-जीवन के रास्ते पर आबाद हो गये। कारण यह भी था कि अंग्रेजों के आने से पहले के हमलावरों के पास जनजीवन का कोई दूसरा रास्ता नहीं था; और ही भारतीयों की तरह कृषि पर आधारित सभ्यता संस्कृति में स्वयं विकसित थे। वे स्वयं पिछड़े हुए थे। इसी कारण वे यहां के उत्पादन व विनिमय, रहन-सहन, रीति रिवाज से प्रभावित हुए। वे यहां खप गये। उन्होंने भी यहां के लोगों को भी प्रभावित किया। किन्तु वर्ण-व्यवस्था की जड़ को उखाड़ने में वे कुछ भी नहीं कर पाये। मुसलमानों से पहले के यवन, शक, हूण आदि आक्रमणकारी स्वयं देश के शासक बनने के कारण यहां के शासकों क्षत्रियों व ब्राह्मणों में खप गये। उन्होंने देश की कृषि पर आधारित व्यवस्था ( जो कि यहां की मुख्य सम्पदा की स्रोत थी ) को नहीं तोड़ा। वैसे भी वे तथा मुसलमान उसी को देखकर यहां आये थे। यहां की कृषि चूंकि ग्रामीण जीवन द्वारा होती थी, जिसकी सामाजिक बनावट पत्रक-सामाजिक श्रम विभाजन अथवा जाति व्यवस्था थी; वह देश की अर्थ व्यवस्था का सामाजिक आधार थी, इसलिए जाति व्यवस्था को किसी के द्वारा तोड़ने का कोई प्रश्न नहीं था। मुसलमानों ने उसे तोड़ने में एक सीमा तक भूमिका जरूर निभाई। एक तो क्षत्रियों व ब्राह्मणों की जगह स्वयं प्रभुत्वकारी शासक - प्रशासक बनकर और दूसरे धर्म परिवर्तन को बढ़ावा देकर; अन्यथा जातीय संरचना जस की तस पड़ी रही।
इसे तोड़ने का कार्य सर्वप्रथम अंग्रेजों ने किया। कारण, अपनी साम्राज्यवादी लूटपाट हेतु उन्होंने ही सबसे पहली बार गांव की अर्थव्यवस्था को तोड़ा, जिसका मूल आधार जातीय संरचना थी। यह कैसे हुआ, इस पर हम पहले ही चर्चा कर आये हैं। कृपया याद रखें अंग्रेजों ने जिस हद तक और जहां जहां गांव की अर्थव्यवस्था को लूटपाट हेतु तोड़ा, उसी हद तक वहां जाति-पांति भी टूटी। महाराष्ट्र, मद्रास व बंगाल में उनके औद्योगीकरण, वाणिज्य व व्यापार का विस्तार हुआ। वहीं पर उनकी नई शिक्षा पद्धतियों तथा प्रशासकीय केन्द्रों की स्थापना भी हुई। परिणामतः इन प्रांतों में यू.पी., विहार आदि जैसे पिछड़े प्रांतों की तुलना में जाति-पांति न केवल आज कम है, बल्कि अंग्रेजी शासन काल में ही असवर्ण जातियाँ मद्रास तथा महाराष्ट्र में राजनीतिक व प्रशासकीय क्षेत्रों में भी उभरकर आयीं। उन्होंने ब्राह्मणों के एकाधिकार तथा आधिपत्य को नष्ट करने के आंदोलन भी चलाये। ये जातियां कौन थीं? क्या वर्ण-व्यवस्था की सबसे निचली जातियां ? अथवा मध्यम वर्गीय जातियां, जैसे कुनबी, वैश्य, लाला, यादव आदि आदि ? शुद्र जातियां क्यों नहीं शुरू में उभर पायीं? अंग्रेजों के समय में जो भी कहीं-कहीं भूमि सुधार हुए थे और उसके साथ ही किसानों के जो आंदोलन हुए उसके चलते जमींदारी प्रणाली के अधीन किसान (जातियां) जमीनों के छोटे व औसत टुकड़ों के मालिक (भूमिधर) बन गईं। परन्तु शुद्र जातियां जो प्रायः भूमिहीन व सम्पत्तिहीन थीं, वे भूमिहीन रह गयीं। वे न केवल आज भी शूद्र हैं, या गांधी जी की दी गयी संज्ञा के अनुसार हरिजन हैं, बल्कि मद्रास महाराष्ट्र के पिछड़े देहाती इलाकों में आज भी उनके साथ बुरा व्यवहार किया जाता है। क्योंकि पहले की तरह वे आज भी सम्पत्तिहीन व भूमिहीन हैं। आज भी जीविका हेतु जमींदारों व किसानों पर निर्भर हैं। उधर किसान व जमींदार स्वयं पिछड़ी हुई खेती पर या प्राकृतिक खेती पर निर्भर हैं। उनके उत्पादन के साधन कहीं कहीं पूर्णतः और प्राय: आंशिक रूप से पिछड़े हुए हैं। गांव में बटाईदारी व सूदखोरी भी विद्यमान है। इन सबके फलस्वरूप मजदूरों तथा किसानों व जमींदारों में मालिक व मजदूर के पुराने संबंध भी मौजूद हैं, खास कर यू.पी., बिहार में । अर्थात एक का मूल उत्पादक के रूप में भूमिहीन कमकर होना और दूसरे का मालिक होना। जिस हद तक गांव पुराने स्वरूप में मौजूद हैं उस हद तक वर्ण व्यवस्था भी वहां मौजूद है।
महाराष्ट्र व बंगाल के बड़े नगरों को देखिए जो आज कई दशकों से वाणिज्यिक, व्यापारिक तथा आधुनिक शिक्षा व प्रशासकीय जीवन और अंग्रेज विरोधी क्रांतिकारी आंदोलन और फिर पूंजीवादी विचारों व आंदोलनों तथा मार्क्सवादी-मजदूर एवं मध्यम वर्गीय आंदोलनों व संघर्षों इत्यादि के गतिशील सामाजिक व राजनीतिक जीवन से गुजर रहे हैं। वहां के रहने वाले लोगों की चिंतनधारा क्या है ? जिन्होंने एक या दो तीन पीढ़ियां इन नगरों में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक उथल-पुथल में बितायीं, वे विभिन्न जातियों से संबंध तो रखते रहे परन्तु उनमें न तो जाति-पांति का, और न ही ऊंच-नीच का इतना भेदभाव है और न आपसी शादी-व्याह करने से इतना परहेज है जितना कि पिछड़े प्रांतों में। हां, वे लोग जो एकाध पीढ़ी से नगरों में बसे हैं और गांव के जीवन से आर्थिक रूप से जुड़े हैं वे जाति पांति के चक्करों से पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाये। कम से कम शादी-व्याह के मामलों पर । गांव के सदियों से प्रकृति पर निर्भर जीवन की तुलना में नगरों का जीवन मूलतः भिन्न है। शहरों का जीवन मानव द्वारा निर्मित स्रोतों पर निर्भर रहता है। उत्पादन व विनिमय में हर एक के श्रम का योगदात रहता है, न केवल शूद्र का। दूसरे, शहर में पूंजीवाद हर व्यक्ति को पूंजी व मालों से जोड़ता है, न कि अपनी जाति से। जो व्यक्ति उसकी पूंजी व मुनाफे को बढ़ाता है वह उसी को प्रोत्साहन देता है, चाहे उसकी जाति कुछ भी हो। अतः अपने स्वार्थी व शोषणकारी चरित्र के कारण वह पुरानी व्यवस्था तोड़ देता है। पुराने पैतृक श्रम विभाजन की जगह वह पूंजी की नई दासता वाला श्रम विभाजन पैदा करता है, सो भी सैकड़ों प्रकार के नये उत्पादन एवं पैदा करके। प्रश्न है, आज के पूंजीवादी विकास के बावजूद जाति-पांति क्यों कायम है ? जवाब बिल्कुल साफ है। भारत का अभी पूर्ण औद्योगीकरण नहीं हुआ है। क्या देहातों में खेती के नये साथ पुराने तरीके, मालिक व मजदूर के पुराने संबंध और पुराने रीति-रिवाज, धर्म-कर्म आदि अभी मौजूद नहीं है? क्या आज भी गांवों में अधिकतर बड़ी जातियां ही भूमि की मालिक नहीं है? क्या आज भी वे गांव की राजनीतिक व्यवस्था नहीं चलातीं ? क्या शूद्र मजदूर पहले की तरह मालिकों के साथ बहुत से पुराने व कई नये संबंधों से नहीं बंधा हुआ है ? तब प्रश्न है, जातियां या वर्ण व्यवस्था कैसे टूटेगी? इसका जवाब भी एकदम साफ है। जब गांव की पुरानी अर्थ व्यवस्था टूटेगी।
इस व्यवस्था का एक प्रमुख गुण है शारीरिक श्रम करने वाले मूल उत्पादक (वर्णों) का सम्पत्ति हीन और भूमिहीन होना। अतः अपनी जीविका हेतु जमीनों के मालिकों, चाहे वे ब्राह्मण, क्षत्रिय हों या यादव हों, पर निर्भर रहना। मालिकों और मजदूरों में कई पुराने संबंधों का होना और वैसे ही पुराने जातिवादी संबंधों का होना । जब ये संबंध टूटेगें; श्रम करने वालों की सम्पत्तिहीनता टूटेगी, तब हरिजनों की जाति-शूद्र वर्ण भी टूट जायेगा। बिलकुल उसी प्रकार, जिस प्रकार वे संबंध औद्योगिक इलाकों में टूटे जहां मजदूर और मालिक के संबंध तो आज भी हैं, परन्तु सामंती नहीं पूंजीवादी हैं; पूंजीपति व मजदूर के संबंध हैं। देहातों में पुराने सामंती संबंध कैसे टूटे और उनकी जगह नये पूंजीवादी संबंध कैसे आयें ? यह तभी होगा जब एक तो पिछड़ी हुई खेती की जगह नई खेती का विकास हो । नये-नये साधनों वाली खेती हो । भूमि संकेन्द्रण, बंटाइदारी, सूदखोरी का अन्त हो । भूमि का पुनः वितरण हो । भूमि का अधिकांश उपजाऊ हिस्सा आज भी उस वर्ग द्वारा जोता बोया जाता है जो खुद मालिक नहीं होता। लेकिन इसके विपरीत मालिक वे हैं जो मूल उत्पादक की तरह श्रम नहीं करते। खेती के विकास में रूचि भी कम लेते हैं। वे वटाईदारी, सूदखोरी में अधिक रूचि रखते हैं। यहां दो तरीके हैं। या तो उच्च जातियां अपना शारीरिक श्रम लगाकर कृषि उत्पादन करने लग जायें; अथवा भूमि आवण्टन से कमकर जातियों में भूमि वांट दी जाये। दोनों से कृषि उत्पादन भी बढ़ेगा और जातिवाद भी टूटेगा। इसके सबूत भी आप खुद देख सकते हैं। नये औद्योगिकरण ने चमड़े के सामान बनाने, ऊनी व सूती वस्त्र बनाने, हल चलाने, गुड़ व चीनी बनाने, वर्तन बनाने, तेल निकालने इत्यादि के जैसे पुराने उत्पादनों के लिये सैकड़ों प्रकार के नये-नये साधन निकाल दिये हैं। इन सारे धंधों या पेशों में क्या किसी वर्ण विशेष या जाति के लोग काम करते हैं? नहीं, सभी जातियों के लोग करते हैं? क्या पुराने भूमिपतियों की जगह अब पूंजीपतियों ने सबको अपना दास-मजदूर नहीं बना लिया है ? ऐसा क्यों है ? कारण यह है कि अब आदमी की भौतिक आवश्यकताएं उद्योगों द्वारा (और कृषि के औद्योगि करण के द्वारा ) पूरी हो रही हैं। ये आवश्यकताएं जिस हद तक पूरी हो रही है, अर्थात, जिस हद तक औद्योगीकरण भारत में हुआ है, उस हद तक पूंजी की दासता भी फैली है। इसी हद तक वर्ण-व्यवस्था भी टूटी है। अतः वर्ण व्यवस्था को तोड़ने हेतु औद्योगिकरण आवश्यक है। हरिजनों को नये पेशे व सम्पत्तिवान बनाने के लिये, पर साथ ही पुराने समाज के पेशे पुराने उत्पादन खत्म करके नये-नये ढंग के उत्पादन शुरू करके। समाज के औद्योगिकरण में नई शिक्षा का विकास विस्तार भी शामिल है, और साथ ही नई सरकारी व गैर-सरकारी नौकरियां ।
कांग्रेस का ब्रिटिश विरोधी आंदोलन मूलतः भारतीय पूंजीपतियों का आंदोलन था। वे अपने उद्योग व व्यापार आदि का विस्तार करना चाहते थे। जिस पर अंग्रेज रोक लगाने थे। उन्हें अपने उद्योग के वास्ते कच्चे मालों, मशीनों व मण्डियों आदि के साथ मजदूरों की भी आवश्यकता थी। जबकि मजदूर देहात में बंधुआ मजदूर के रूप में सामंती खेती में अर्द्धदास थे। उनकी वहां से मुक्ति आवश्यक थी, ताकि वे पूंजी के कमकर बन सकें। इसलिए कांग्रेस के हरिजन उत्थान तथा छूआछूत विरोधी तमाम आंदोलनों का उन्होंने स्वयं समर्थन किया और उसे हर प्रकार से सहायता भी दी। तीसरा कारण, चूंकि भारतीय पूंजीपति खुद आमतौर पर मारवाड़ी जाति के थे। वर्ण व्यवस्था के हिसाब से वे न तो पहली श्रेणी के ब्राह्मण थे, न दूसरी वर्ण जाति के क्षत्रिय थे। इसीलिए भारतीय पूंजीपतियों ने हरिजन कल्याण और उत्थान में जमींदारी प्रथा के सीमित विरोध के साथ-साथ ब्राह्मणों व क्षत्रियों का विरोध करते हुए छूआछूत का विरोध किया।
लेकिन शूद्रों हेतु कांग्रेस इससे बढ़कर कुछ और नहीं कर पायी। वह शूद्रों को उनकी उस वर्गीय स्थिति से मुक्त नहीं कर पायी, जिस स्थिति ने समाज के उन लोगों को शूद्र बनाया था। इस स्थिति से मुक्ति तभी हो सकती थी जब कांग्रेस हरिजनों में भूमि आवण्टन के सामंतवाद विरोधी कार्यक्रम बनाती। यह काम कांग्रेस ने नहीं किया। भारतीय पूंजीपतियों और उनकी पार्टी ने जिस तरह अंग्रेजों के विरुद्ध समझौते और संघर्ष का रवैया अपनाया वही रवैया उन्होंने सामंतवाद के विरुद्ध भी अपनाया। 1947 के बाद जमींदारी उन्मूलन के द्वारा किसानों से लगान लेने का हक सामंतों से सरकार ने खुद ले लिया और जमीनें लगभग उन्हीं के पास छोड़ दीं। भूमि सुधार के तमाम कानूनों के बावजूद भूमि का आवण्टन हरिजन भूमिहीनों में नहीं हो पाया। हरित क्रांति के द्वारा नये उत्पादन के साधनों ने बड़ी जोतों के मालिकों को नये प्रकार के पूंजीवादी धनी किसान बनने में सहायता की। क्या इससे हरिजनों के हरिजन वर्ण होने की स्थिति में कुछ अन्तर आया है ? बिल्कुल आया। जहां जहां ये उत्पादन के साधनों का प्रयोग अधिक हो रहा है, वहां आप हरिजन मजदूरों की आर्थिक, सामाजिक स्थिति में अन्तर पायेंगे, चाहे वे कितनी ही कम क्यों न हों। दूसरी ओर आम पूंजीवादी विकास के कारण उच्च जातिय वर्गों की अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति गिरने से भी जातिय व वर्गीय अन्तर आये हैं। कारण, जिन्हें उच्च जाति-वर्ग उन्हें हरिजन समझते थे और इन्हीं क के कारण ही कमकर वर्ग अछूत-हरिजन थे।
भारतीय तथा विदेशी पूंजीपतियों द्वारा भारत में औद्योगिक, वाणिज्यिक तथा व्यापारिक विस्तार व विकास तथा शिक्षा एवं प्रशासकीय मशीनरी के विकास में कितने पुराने पेशों (अतः जातियों) का विनाश करके नये पेशे पैदा किये हैं और किस प्रकार वर्ण व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने में मुख्य भूमिका निभाई, इसकी चर्चा हम कर चुके हैं। चूंकि यह सारा पूंजीवादी औद्योगीकरण मुख्यतः विदेशी पूंजी के हितों के अनुसार होता आ रहा है; अतः एकांगी भी है। किसी इलाके का अधिक, किसी इलाके का कम और किसी इलाके का एकदम कम विकास हुआ है। जैसे पंजाब व हरियाणा की तुलना में पूर्वी यू.पी. व बिहार में खेती का कम विकास महाराष्ट्र व बंगाल में सर्वाधिक औद्योगिक विकास के बावजूद भी कृषि का पिछड़ापन आदि। इसीलिए पुरानी पिछड़ी हुई अर्द्ध-सामंती कृषि व कई देहाती उद्योग आज भी कई इलाकों ( प्रांतों ) में मौजूद हैं। इसीलिए उन्हें पिछड़े हुए प्रांत या क्षेत्र कहा जाता है। इसी के चलते उन इलाकों में जमीन के पुराने मालिकाने और पुराने ढंग के मजदूरों के संबंध और वैसे ही व्यक्तिगत व सामाजिक विचार व्यवहार, अतः वर्ण व्यवस्था के कई अभिशाप मौजूद हैं।
अब वर्ण व्यवस्था के घोर विरोधी समाज सुधारकों को लें; लेकिन अगले भाग में ।
जी.डी. सिंह ।
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