Friday, 22 October 2021

जाति (वर्ण) व्यवस्था---- ( चौथा व अंतिम भाग )



अब वर्ण व्यवस्था के घोर विरोधी समाज सुधारकों को लें; विशेषकर भीमराव अम्बेडकर साहब और लोहिया को । अम्बेडकर साहब यह नहीं मानते थे कि शुद्र प्राचीन काल में दास या अर्द्धदास थे। उनका कहना था कि अछूत थे सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। क्योंकि इन क्षत्रियों के राजाओं ने ब्राह्मणों पर अत्याचार किये थे; इसीलिए ब्राह्मणों ने उन्हें नीच तथा अछूत घोषित कर दिया और बाद में उन्हें नीच कामों में लगा दिया। अपनी इस बात को उन्होंने इतिहास द्वारा कम, बल्कि इतिहास में अपनी वकालत की तार्किक बुद्धि लगाकर सिद्ध करने की कोशिश की। अर्थशास्त्र की दृष्टि से उन्होंने सोचने की कोशिश नहीं की। इतिहासकार उनकी इस दलील को बिल्कुल नहीं मानते। पुराने इतिहास के बारे में उनके कुछ भी विचार हों, प्रश्न है, वे शूद्रों का उद्धार कैसे करना चाहते थे ? बिल्कुल पूंजीवादी ढंग से और वह भी क्रांतिकारी नहीं बल्कि सुधारवादी ढंग से। एक तो वह चुनाव व प्रशासन में शूद्रों के लिए अधिक जगहें चाहते थे। दूसरे छूआछूत आदि को कानूनन दण्डनीय घोषित करवाना चाहते थे। सामंतवाद परंतु मुख्यतः ब्राह्मणवाद का वह अंत चाहते थे। उनके काल में सामंतवाद अपनी चरम सीमा पर नहीं था, परंतु अंग्रेजों द्वारा सुरक्षित अवश्य था। भूमि संकेन्द्रण भी आज की तुलना में कहीं अधिक था। उन्होंने भूमि की सामंतवाद विरोधी नीति पर जोर तो दिया परंतु कोई व्यवहारिक व आंदोलनकारी कार्यक्रम नहीं बनाये, न ही लागू किए। स्वयं भी शिक्षित व्यक्ति थे। सरकारी पदों व अपनी वकालत के नाते प्रतिष्ठित थे। धन व सत्ता प्रतिष्ठा की उन्हें कोई कमी नहीं थी। कमी अगर थी तो इतनी कि उन दिनों
घोर सामाजिक जड़ता के वातावरण में वे शुद्र कहे या समझे जाते थे। छुआछूत के भी शिकार थे। इसीलिए उन्होंने अपनी तथा अपने जैसे शिक्षित, व अर्द्ध शिक्षित हरिजनों की स्थिति के अनुसार ही हरिजनों के कल्याण के कार्यक्रम के अपनाए, न कि भूमिहीन या अर्द्धदास हरिजनों की आम स्थिति के अनुसार। ब्राह्मणवाद या सनातन धर्म और हरिजनों के सामाजिक अपमान का उन्होंने जिस कट्टरता के साथ विरोध किया, उतना आम हरिजनों व शूद्रों की जो अर्द्ध-दाम जैसी सामाजिक आर्थिक स्थितियों का विरोध नहीं किया। इसका निशाना उस काल का सामंतवाद तथा उस समय की सारी अर्थव्यवस्था बनती थी। आज के पढ़े लिखे हरिजन भी अपने विरोध को इसी हद तक सीमित रखते हैं। कारण ? आज जो हरिजन या अन्य छोटी जाति के लोग धन-संपत्ति, शिक्षा एवं नौकरी चाकरी से बंचित नहीं है, यह सब उन्हें किसी हद तक प्राप्त है, वे संपत्तिवान होने के कारण आम हरिजनों की उत्पीड़ित व शोषित स्थिति के कट्टर विरोधी नहीं हैं। वे अपने उस सामाजिक अपमान के विरोधी हैं, जो उन्हें हरिजन होने के नाते भुगतना पड़ता है। यह अपमान चाहे छूआछूत के रूप में हो, या सरकारी नौकरियों में भेदभाव के रूप में इसका अर्थ यह है कि शोषण की प्रथा का, इस शोषण की व्यवस्था का ( वह शोषण चाहे पूंजी द्वारा हो या भूमि व अन्य संपत्तियों के कारण हो) वे इस सामाजिक व्यवस्था के विरोधी नहीं हैं। वे इसके केवल इतने ही विरोधी हैं कि इस समाज में जो उनका सामाजिक अपमान व व जातीय भेदभाव है वह नहीं होना चाहिए। उनका ऐसा सोचना तो गलत नहीं है। क्योंकि हर व्यक्ति समाज में अपनी वस्तुगत स्थिति के अनुसार ही किसी समाज व्यवस्था का पूर्णतः या अंशतः विरोधी या पोषक होता है। अतः उनका ऐसा सोचना, उन्हें इस समाज का मूल विरोधी नहीं बनाता, वल्कि उन्हें आलोचनात्मक पोषक अर्थात सुधारवादी आलोचक बना देता है।

उन्हें यह जानना चाहिए कि उन्हें जो सामाजिक अपमान व अन्य भेदभाव मिलते हैं, वे केवल उन्हीं के हरिजन होने के कारण नहीं मिलते। उन्हें इस कारण मिलते हैं क्योंकि वे समाज के उस समुदाय से आये हैं जो (i) हजारों सालों से समाज में नीच समझा जाने वाला श्रमिक कार्यकर्ता रहा है। और आज भी एक हद तक है। उसके सामाजिक उत्पादन के कार्यों को, और उनमें श्रम करने वालों को ही शूद्र समझा जाता रहा है। (ii) यही समुदाय या वर्ग (जाति) सामाजिक उत्पादन करने के बावजूद हजारों सालों से अर्द्ध-दास की स्थिति में सबसे अधिक उत्पीड़ित, शोषित तथा अधिकारहीन एवं अपमानित रहा है। इसी कारण व "सभ्य समाज" से, उच्च जातियों से अलगाव व दुराव की स्थिति में रखा जाता रहा है। अतः शिक्षित हरिजनों को अगर अपनी अपमानजनक स्थितियों व भेदभावों के विरूद्ध लड़ना है तो उन्हें अपने पूरे समुदाय के वास्ते लड़ना चाहिए, जो आज भी उन अधिकारों से वंचित हैं,

जो शिक्षित व संपत्तिवान हरिजनों को प्राप्त हैं। इसी व्यापक समुदाय की वर्तमान और भूत की निचली सामाजिक स्थितियों के कारण शिक्षित हरिजनों को भी अपमानित होना पड़ता है। इस दृष्टि से अगर वे सोचेंगे तो वे अनिवार्यतः इस समाज की शोषण व्यवस्था के अर्थात पूरी समाज व्यवस्था के विरोधी हो जायेंगे न कि कुछ बातों के विरोधी ( जैसे छूआछूत के ) और कुछ बातों के हिमायती (जैसे, आधुनिक पूंजी द्वारा हरिजन व गैर-हरिजन मजदूरों के शोषण पर आधारित इस सामाजिक व्यवस्था में प्राप्त सुविधाओं के हिमायती वनना ) । डा. अम्बेडकर साहब भी यह कबूल नहीं कर पाये थे कि समूचे भारतीय इतिहास से शूद्रों की स्थिति अर्द्ध-दासों की स्थिति रही है। अतः शूद्रों की मुक्ति का अर्थ है उनकी अर्द्ध-दासत्व की स्थितियों से मुक्ति । दूसरे, चूंकि शूद्र या हरिजन का मूल मतलब ही है आर्थिक दृष्टि से सबसे अधिक शोषित-वर्ग या वर्ण, जो समाज का मूल उत्पादक रहा है। समाज के संपत्तिवान वर्ग उसी के शोषण पर फलते-फूलते रहे हैं। हरिजनों के इसी हजारों सालों की स्थिति के कारण उन्हें अपमानित, दलित या छूआछूत का शिकार बनाया गया था। अतः छूआ छूत के विरूद्ध लड़ाई का वस्तुगत अर्थ है शूद्रों अर्थात समाज के उत्पादक दलित वर्ग की हजारों साल से चली आयी अर्द्ध-दास कमकर की स्थितियों के विरुद्ध लड़ाई। परिणामतः, समाज के शासक व संपत्तिवान वर्गों वर्णों से संघर्ष, दूसरे शब्दों में भूमि व पूंजी के माध्यम से शोषण पर टिके इस समाज के विरूद्ध संघर्ष आरक्षण व अन्य कानूनों एवं प्रचारों के साथ वर्ग-संघर्ष करने से ही शुद्र अपनी स्थितियों से मुक्त हो पायेंगे ।

इसके विपरीत अम्बेडकर साहब छूआछूत के विरुद्ध तथा शूद्रों के वास्ते चंद सुविधाएं प्राप्त करने हेतु लड़ते रहे। उनका यह संघर्ष प्रशंसनीय है। परन्तु, जैसेकि आप जानते हैं उन्होंने शोषण पर आधारित भारतीय समाज का 'संविधान' बनाने में भी भूमिका निभाई। संविधान में उन्होंने भी सम्पत्ति की रक्षा एवं उसके विकास के जनतांत्रिक अधिकार पूंजीवान वर्गों को दिये। उन दिनों सम्पत्तिवान लोगों में देहातों में अधिकांशतः उनकी घृणा के पात्र दोनों या तीनों ऊंची जातियां थीं और शहरों में भी शुद्र को अगर एक सामाजिक वर्ग वर्ण) के रूप में देखा जाय तो उनके पास लगभग कुछ नहीं था। जो कुछ था वह शोषण, सामाजिक घृणा एवं तिरस्कार ही था, जो सैकड़ों सालों से ऊंची जातियों ने अपनी सम्पत्ति के बूतों पर फैलाया हुआ था। अम्बेडकर साहब ऊंची जातियों के दोषों को देखते हुए केवल उनका ब्राह्मण या क्षत्रिय होना ही देखते थे, न कि शासक व सम्पत्तिवान होना भी, जिसके बूते पर वे जातियां शोषण करती थी और गृद्रों से घृणा व तिरस्कार करने का दम भरती थीं। तो भी किसी अन्य सम्पत्तिवान व्यक्ति की तरह डा० अम्बेडकर ने शोषण व सम्पत्ति के अधिकार को कानूनी तौर पर जायज ठहरा दिया ।

अतः हरिजन या अन्य शूद्रों को सम्पत्तिवान बड़ी जातियों द्वारा शोषण व उत्पीड़न को बरकरार रखने में वह किसी अन्य जाति के व्यक्ति की तुलना में पीछे नहीं रहे। वह वर्ण व्यवस्था की जड़ों को बरकरार रखने वाले हिन्दू सनातन धर्म व ब्राह्मणवाद के कट्टर और कई मायने में निर्भीक विरोधी थे । परन्तु जो देहाती व शहरी सम्पत्तिवान वर्ग हरिजनों पर अत्याचार आदि करने हेतु जिम्मेवार थे, वह अत्याचार केवल इसीलिए सम्भव होता था, क्योंकि ऊंचे वर्ण अपनी सम्पत्ति व धन के बूते पर अत्याचार करते थे। उसी के बूते पर वे हर जघन्य अपराध करने के बाद भी निष्कलंक बच निकलने में भी समर्थ थे। और क्या केवल ब्राह्मण या क्षत्रिय ही ? क्या अन्य सम्पत्तिवान वर्ग (या वर्ण) नहीं ? उदाहरणार्थ, वर्णों की पीढ़ी में तीसरी परन्तु सम्पत्ति के हिसाब से ऊंची और शहरों में जाति वर्ण में प्रायः तीसरी परन्तु पूंजी मालिकाने में उच्चतम पूंजीपति वर्ग जो शुद्रों समेत उच्च जातिय कमकरों के महा शोषक व उत्पीड़क थे। इनके विरुद्ध डा० अम्बेडकर ने हरिजनों के पक्ष में कोई कार्यक्रम नहीं बनाया। यह भी एक कारण था कि वे वौद्धिष्ट (Budhist) हो गये, ताकि हिन्दू समाज में रहते हुए जो कुछ उनके पास नहीं था, वह उसे प्राप्त कर सकें अर्थात धर्म व संस्कृति पर आधारित सामाजिक प्रतिष्ठा, जो हरिजन होने के नाते हिन्दू या ब्राह्मणवादी समाज में उन्हें प्राप्त नहीं थी। इस तरह उन्होंने उन शूद्रों के पूंजीवादी शोषण व अत्याचार को छोड़ दिया, जिनके पास न तो अम्बेडकर की तरह धन व शिक्षा थी, और न ही सामाजिक प्रतिष्ठा, और जिनकी गरीबी, फटेहाली, भुखमरी व शोषण दोहन के लिये अम्बेडकर साहब या बौद्ध धर्म के पास कोई सामाजिक 'हल' नहीं था; सिवाय इसके कि, सम्पत्तिवान वर्ग द्वारा इस जीवन में शोषण व दोहन करवाते-करवाते "मोक्ष" या "निर्वाण" प्राप्त करने की कल्पना के सहारे मन को बहलाते रहे। कारण, जिस व्यक्ति को अपने (भौतिक) शरीर को जीवित रखने हेतु हर समय भौतिक उत्पादन करना पड़े उसे अपने मोक्ष की काल्पनिक नहीं, भौतिक मुक्ति का रास्ता चाहिए। चूंकि बौद्ध धर्म भौतिक मुक्ति का रास्ता नहीं बता पाता इसी लिए भूमिहीन गरीब हरिजन अम्बेडकर साहब के मोक्ष मार्ग पर नहीं चल पाये।

भारत आज भी एक पिछड़ा हुआ देश है। सैकड़ों साल पुरानी कई मान्यताएं आज भी समाज को जकड़े हुए हैं। इसीलिए तो पिछड़ा हुआ समाज भी कहा जाता है। अम्बेडकर साहब एक ओर तो सैकड़ों साल पुराने सम्पत्ति के संबंधों से उत्पन्न धर्म व जाति पाँति की संस्कृति से प्रभावित होते थे। इससे वे पीड़ित थे। परन्तु दूसरी ओर आज के पूंजीवादी सम्पत्ति के से वे बधे हुए थे। पहले से वे मुक्ति चाहते थे और दूसरे को वह भोगना चाहते थे। इसी द्वन्द्व में वे अन्य छोटी व ऊंची जातियों के समाज सुधारकों की तरह फंसे रहे। यह द्वन्द्व आज भी समाज में मौजूद है। इससे बचने का रास्ता उनकी इच्छा के अनुसार एक से मुक्ति दूसरे को भोगना प्राचीन बौद्ध धर्म में नहीं आज के बौद्ध धर्म में मिलता था, न कि जातिवादी हिन्दू समाज में इसी कारण उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया।

लोहिया जी भी मूलतः अम्बेडकर जी से भिन्न नहीं थे। अन्तर केवल इतना था कि लोहिया जी धन व सम्पत्ति के बंटवारे का और समता का नारा लगाया करते थे जो अम्बेडकर साहब नहीं लगाते थे। लोहिया जी किसकी सम्पत्ति वांटना चाहते थे और किस तरह ? एक तो यह जानना चाहिए। दूसरे, इस बंटवारे से संबंधित उनकी विचारधारा को । वे मार्क्सवाद के कट्टर विरोधी थे। इसे जानने हेतु आप उनकी एक सैद्धान्तिक तथा दार्शनिक पुस्तक "इतिहास चक्र" (wheel of history )" पढ़ें उनके "समता" के सिद्धान्त को देखा जाय। उनका कहना था कि भारतीय समाज में वर्ग अन्तविरोध नहीं, वल्कि वर्ण-अन्तविरोध ही मुख्य है। वर्ग-संघर्ष यूरोपीय समाज में हो सकता है, न कि भारतीय समाज में। लोहिया जी यह बात तब भी कहते थे जबकि वह जानते थे कि वर्ग-संघर्ष मूलतः आर्थिक संघर्ष का द्योतक है। उसका लागू हो उद्देश्य-धन सम्पत्ति का बंटवारा है। अतः उसकी "समता" तो है ही। परन्तु उन्होंने कभी भी वर्ग-संघर्ष को, अथवा समाजवाद की मार्क्सवादी अवधारणा को कबूल नहीं किया। इतना ही नहीं, देहातों के भूमिपतियों की जमीनों के बंटवारे की चर्चा तो उन्होंने बार-बार की। परन्तु कोई व्यावहारिक कार्यक्रम नहीं लिया। दूसरी ओर पूंजीपतियों की सम्पत्तियों के बंटवारे पर केवल औपचारिक चर्चाएं ही करते रहे। जिस विषय पर उन्होंने बार-बार स्पष्ट चर्चा की, वह था- जाति-पांति का उन्मूलन । वे जातिय ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाकर समतावादी समाज की स्थापना करना चाहते थे, न कि समाजवाद की, जिसकी स्थापना आर्थिक वर्गों के अन्तर्विरोधों को मिटाकर ही हो सकती है। वर्ण व्यवस्था या जाति-पांति के उन्मूलन में उनके अनेक कार्यक्रम में चार पांच प्रमुख बातें थीं

(1) छोटी जातियों के लिए 50% से अधिक शिक्षा व प्रशासन आदि में आरक्षण; (2) सहभोज एवं आपसी शादी विवाह (अर्न्तजातीय विवाह) और दोनों मिला कर कहा जाय तो उनके शब्दों में 'रोटी-बेटी' के संबंध बनाना । (3) भूमि सुधार एवं भूमि आवण्टन आदि-आदि। उन्होंने बार-बार स्पष्ट किया कि जब तक रोटी-बेटी का संबंध नहीं हो जाता तब तक वे मानेगें ही नहीं कि जाति पांति के रोग का अन्त हो गया। बात तो उनकी वैसे ठीक थी; परन्तु उन्होंने यह बात कभी स्पष्ट दृढ़ता से नहीं कही कि धन या सम्पत्ति का बंटवारा भी उतना ही जरूरी है जितना कि रोटी-बेटी का संबंध | वैसे भी कोई मूर्ख होगा जो यह मानेगा कि दरिद्र हरिजनों और धनवान उच्च वर्ग ( या धनवान हरिजनों) में बिना सम्पत्ति का बंटवारा किये रोटी-बेटी का संबंध जुड़ सकता है। रोटी-बेटी के संबंध जोड़ने के वास्ते, चाहे प्राचीन काल हो या वर्तमान युग, कौन सी शर्तें आवश्यक होती हैं, भारत में ही नहीं अन्य देशों में भी यह हर कोई जानता है। हां, कल्पनावादियों और राजनीतिक उपोल शंखों के वास्ते इन शर्तों का कोई अर्थ भले ही न हो। दूसरी बात-हरिजनों में भूमि आवण्टन को लोहिया जी के जाति-पांति उन्मूलन के कार्यक्रमों में महत्वहीन स्थान दिया गया। इसका कारण क्या हो सकता है, इस पर जो चर्चाएं हम कर आये हैं, उनसे स्पष्ट हो सकता है। अव एक अन्य बात-वर्ग अन्तर्विरोधों को न मानकर वर्ण-अन्तविरोधों को प्राथमिकता देने का क्या मतलब था ? आप भी यह जानते हैं कि यह युग भूमि या भूमिपतियों का युग नहीं है। यह मुख्यतः पूंजी और पूंजीपतियों के प्रभुत्व का युग है। आज के युग में देहातों में जहां पूंजी का प्रवेश अर्थात कृषि में पूंजीवादी उत्पादन कम है, वहां भूमि के मालिकों (जमींदारों व किसानों) और मजदूरों के बीच के संबंध प्रभावशाली है। अतः वर्ण व्यवस्था या जातिवाद वहां ज्यादा है। दूसरी ओर जिन क्षेत्रों में पूंजीवाद प्रवेश कर रहा है (उदाहरणार्थ, धन-पूंजी का खेती में विनियोग, नये ढंग की खेती, लाभ की दृष्टि से खेती। जो फसल अधिक लाभ दे उसी की खेती करना, किसानों व मजदूरों के बदलते हुए संबंधों में नकदी मजदूरी देना) वहां जातिवाद में कमी आई है। पूंजीवाद केवल औद्योगिक उत्पादन एवं विनिमय को ही नहीं बल्कि कृषि उत्पादन व विनिमय को भी अब नियंत्रित कर रहा है। यह पूंजीवाद चाहे भारतीय हो चाहे साम्राज्यी यह अलग बात है। पर नियंत्रण पहले की तुलना में बढ़ता जा रहा है। जिस काल में उपजाऊ भूमि से उत्पादन व विनिमय पर ही समाज आधारित था उस काल में भूमि के मालिकों का समाज पर प्रभुत्व था। वे थे सामंत व जमींदार जो प्राय: बड़ी जातियों के लोग थे। उस काल में सामंतवाद के विरुद्ध संघर्ष का मतलब ही था बड़ी जातियों, उनकी वर्ण-व्यवस्था ( उसका पत्रक श्रम विभाजन ) तथा उनकी जाति-पांति की सभ्यता व संस्कृति ( जैसे छूआछूत ) आदि के विरुद्ध संघर्ष करना। परन्तु आज क्या है ? भूमि (या कृषि ) उत्पादन एवं विनिमय के पुराने भूमि संबंधों पर ग्रामीण जन जीवन आधारित हुए भी पूंजीवाद के प्रभाव से वह मुक्त नहीं है। ये पूंजीपति कौन हैं ? क्या सवर्ण जातियां अगर भारतीय पूंजीपतियों को देखा जाय तो वे अधिकांशतः मारवाड़ी य पारसी हैं। उनके नाम बताने की यहां कोई जरूरत नहीं है। वर्ण की दृष्टि से ये तीसरे नम्बर पर आते हैं। परन्तु समाज पर आर्थिक व राजनीतिक प्रभुत्व की दृष्टि से सबसे ऊंचे हैं। वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में और वह भी ज आप पूंजीपतियों के विरुद्ध वर्ग संघर्ष को गौण मान लें तो पूंजी के मालिक आपको सहायता और प्रोत्साहन भी देगें। क्योंकि एक ओर तो वे 'वर्ग-संवर्ण से बचेंगे जिसके वे अनिवार्यतः निशाने बनते हैं। दूसरी ओर पुरानी व्यवस्थ
भी उनके स्वयं के प्रयासों के बिना ही टूटेगी जिसे वे भी तोड़ना चाहते हैं, हां धीरे-धीरे। ताकि उनके ऊपर आंच न आये। वे इसे तोड़ना चाहते हैं इसका सबूत पत्र-पत्रिकाओं में ब्राह्मणवाद, जाति-पांति तथा प्राचीन धर्मों के खण्डन में, मिल सकता है। इनके अतिरिक्त विनोवा, जयप्रकाश व लोहिया आदि के प्रयासों में भी प्रश्न है, वे ऐसा क्यों चाहते हैं ? कारण स्पष्ट है। वर्ण व्यवस्था पुराने ढंग की व्यवस्था है और वह भी पत्रक श्रम विभाजन पर आधारित पूंजीवाद नया श्रम विभाजन चाहता है जिस पर पूंजीपतियों का नियंत्रण हो, न कि पुरानी उच्च जातियों का उदाहरणार्थ, आप आधुनिक शिक्षा प्रणाली, शासन-प्रशासन, सेना, धन व पूंजी के उत्पादन और विनिमय तथा यातायात के साधनों को देखें। क्या उन पर ब्राह्मणों या क्षत्रियों का नियंत्रण है ? आप कह सकते हैं कि सरकारी ऊंचे पदों पर ब्राह्मण व क्षत्रिय ही अधिकतर पदस्थ हैं। दो मिनट के लिए यही मान लें। तो भी प्रश्न है, क्या ऊंचे पदों पर रहकर सवर्ण जातियों के मंत्री व अधिकारी वर्ण व्यवस्था (जाति-पांति) और उसकी सभ्यता व संस्कृति एवं शिक्षा-दीक्षा का विकास करते हैं ? अथवा पूंजीवाद तथा आधुनिक पूंजीवादी शिक्षा दीक्षा राजनीति व सभ्यता का ? उसी प्रकार क्या शासन-प्रशासन व सेना सवर्ण जातियों की ओर से सामंती संबंधों की रक्षा करती हैं ? अथवा पूंजीवाद व साम्राज्यवाद की ? दूसरा प्रश्न – क्या पहले की तरह आज भी सामाजिक उत्पादन में केवल शूद्र (या वैश्य) जातियां ही लगी हुई हैं ? उदाहरणार्थ, कृषि क्षेत्र को अगर शुद्ध वर्ण व्यवस्था की दृष्टि से देखें तो यह स्पष्ट है कि ब्राह्मणों व क्षत्रियों को खेती के उत्पादन में कोई हिस्सा नहीं लेना चाहिए सिवाय इसके कि वे भूमि के व कृषि उत्पादन की मालिक बनें, और उसका उपभोग करें। परन्तु व्यावहारिक जीवन में आज आप पूर्वी उ० प्र० और विहार में उच्च जातियों के एक खासे हिस्से को खेती के कई प्रकार के कार्य करते हुए देख सकते हैं। हां, आमतौर पर वे अपनी वर्ण-व्यवस्था की दृष्टि से हर प्रकार का काम नहीं करते। इसी हद तक वर्ण व्यवस्था भी विद्यमान है; और साथ ही पुरानी संस्कृति भी। इसके विरुद्ध संघर्ष होना चाहिए। परन्तु क्या आज सामंती संस्कृति एवं सामंती संबंधों वाली व्यवस्था देश की प्रमुख या प्रभुत्वकारी व्यवस्था है ? आज के युग में जब पूंजीवाद प्रभुत्वकारी है, अर्द्ध-सामंती व्यवस्था तथा उसकी वर्ण-व्यवस्था को प्रमुख मानना, इसके विरुद्ध संघर्ष को प्रमुख संघर्ष मानना, इसका अर्थ है, समाज में घटती जा रही अथवा वीत रही व्यवस्था को प्रभुत्वकारी मानके उसी के विरुद्ध संघर्ष करना । अतः आज जो आधुनिक व्यवस्था प्रभुत्वकारी है इसके विरुद्ध संघर्ष को गौण करना। यही पूंजीपति चाहता है। इसीलिए वह ऐसे तमाम संगठनों को, जो वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष को प्रमुख मानते हैं और वर्ग संघर्ष को गौण मानते हैं उन्हें प्रोत्साहन देता है।

भारतीय समाज संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा है। इसका अर्थ है कि पुराने सामाजिक/आर्थिक / सांस्कृतिक ढांचे, रीति रिवाज, धरम - करम और इन सबसे जुड़ी आदतें, मनोवृतियां आदि आदि धीरे-धीरे जगह नये पूंजीवादी आर्थिक / राजनीतिक / सांस्कृतिक समाप्त हो रही हैं। उनकी ढांचे और वैसी ही शिक्षा प्रणालियां, अतः आदतें मनोवृतियां भी विकसित हो रही हैं। इस पर कई विचारकों का मत है कि जो कुछ भी पुराना है, वह चूंकि स्वयं खतम हो रहा है अतः उसे समाप्त करने हेतु कोई प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। जबकि कई अन्य विचारकों का मानना है कि पूंजीवाद चूंकि पुरानेपन का खात्मा करता है, इसलिए हमें पूंजीवाद को, उसकी राजनीति एवं संस्कृति को सहयोग देना चाहिए। ये दोनों मत गलत ही नहीं आत्मघाती भी हैं। पुरानी व्यवस्था के टूटने का क्रम 150 साल पहले अंग्रेजी राज के काल में शुरू हुआ था। तो भी आज अगर वह कायम है तो उसके विरुद्ध संवर्ध इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि वह संवर्षों के बगैर केवल आधुनिक विकास के कारण आज तक नहीं टूटी। दूसरे, अगर पूंजीवाद को सहयोग देकर उसका विरोध न किया जाये तो इसका अर्थ होगा, पुरानी सामंती युग की दासता की जगह पूंजीवाद की दासता को कबूल लेना। यह काम वह लोग तो कर सकते हैं जिनका व्यक्तिगत विकास पूंजीवाद से होता है; अतः वह उसकी दासता कबूलने में झिझक नहीं महसूस करते। परन्तु ऐसे वर्ग या वर्ण जो पूंजीवादी विकास से वंचित रह गये हैं; अथवा पूंजीवादी विकास से टूट गये व टूटेंगे, उनके लिए एक ही रास्ता बचता है-पुरानी सड़ी गली व्यवस्था के विरोध के साथ साथ नई गतिशील व चमक दमक दिखाने के सपने जगाने वाली आधुनिक व्यवस्था का भी विरोध किया जाये। लिहाजा, पुरानी व्यवस्था के जातिय भेदभाव, शोषण, उत्पीड़न व अन्य जड़ताओं से मुक्त होने का प्रश्न एक विशिष्ट प्रश्न तो अवश्य है, तो भी वह इस प्रश्न से जुड़ा है कि क्या आप पुराने भेदभाव, से शोषण अत्याचार आदि से मुक्त होकर नई व्यवस्था के भेदभाव पूर्ण शोषण उत्पीड़न के अंग बनना चाहते हैं या नहीं ? ध्यान रखें, नई व्यवस्था आप पर पूंजीवादी थोपते हुए कई प्रकार के आर्थिक / सांस्कृतिक / राजनीतिक लोभ दे सकती है, परन्तु समाज की अधिकतर जनसंख्या को उससे वंचित रखके ।

सितम्बर 1989

(बनारस)

जी० डी० सिंह (गुरदर्शन सिंह) ।  धन्यवाद

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