Friday, 22 October 2021

अब धर्म --- जाति (वर्ण) व्यवस्था (दूसरा भाग )


बताने की आवश्यकता नहीं कि ऊंच-नीच में विभाजित समूची सामाजिक संरचना, उसमें एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्गों का शोषण उत्पीड़न, दोहन, और वैसे ही अमानवीय व दंभी दृष्टिकोण एवं व्यवहार तथा इनसे संबंधित कड़े नियम सबको ईश्वर व धर्म के नाम पर जायज ठहराया जाता था। उन्हें ईश्वरीय ईश्वर के बनाये विधान-माना जाता था; और हर वर्ण, जाति या वर्ग द्वारा उनका पालन करना हर एक का धर्म (कर्तव्य) कहा जाता था। जबकि सच्चाई यह थी कि ईश्वर ने न तो कोई सामाजिक संरचना बनायी थी, और न ही उसका विधि विधान, सबका निर्माण व विकास सामाजिक विकास के साथ साथ मनुष्य ने स्वयं किया था। तो भी तमाम प्राचीन सभ्यताओं में जैसे प्राकृतिक क्रियाओं को, वैसे ही अपने द्वारा रचित व निर्मित सम्पदाओं व उनसे संबंधित कार्यों को भी देववाणी अनुसार या ईश्वर के निर्देशन पर किये कार्य अथवा निर्माण कहा जाता था। इन्हीं में से एक समाज का जातिय विभाजन भी था। इसे भी ईश्वर द्वारा निर्देशित, अतः अनादि मान लिया गया। जबकि, जैसेकि हमने पहले बताया, ईश्वर ने मानव की रचना तक नहीं की थी और न ही मानव समाज की। इसकी जातिवादी संरचना और इसके लिए ईश्वर द्वारा वैसे ही कठोर नियम बनाने का कोई प्रश्न ही नहीं था। तो भी अगर आरम्भिक काल में स्वयं अपने द्वारा बनायी संरचना को जायज सिद्ध करने के लिए ईश्वर को पसीट के लाया गया, तो इसका कारण था, मनुष्य की अज्ञानता। इसी अज्ञानता के चलते मनुष्य समेत पूरी सृष्टि को किसी ऐसे निर्माता द्वारा रचित मान लिया गया जो रचयिता भी है और विनाशकर्ता भी है। वही हर वस्तु को गति देता है --चांद तारे, सूर्य, वर्षा, पानी, वायु, पृथ्वी से लेके मनुष्य के जनम मरण तक को मृत्यु को न समझ पाने से यह समझ लिया गया कि मनुष्य में कोई अदृश्य आत्मा नाम की चीज होती है, जो जब तक किसी में रहती है तब तक वह जीवित रहता है। जब वह निकल जाती है, तो वह मर जाता है। फिर वही आत्मा किसी दूसरे में जाकर नये मनुष्य के रूप में प्रकट होती है। यहीं से आत्मा पूजन, फिर पितृ-आत्मा पूजन, फिर पितृ-पूजन, और पितरों को देवता मान के उन्हें पूजने का रिवाज चला सो भी, लगभग तमान प्राचीन सभ्यताओं में। यहीं से यह चिंतन भी चला कि जिस मनुष्य ने अच्छे (धर्म) कर्म किये होते हैं, उसकी आत्मा या उसका जनम अच्छे या उच्च जीवन में होता है; और बुरे कर्म वाले का बुरा या नीचा कार्य करने वालों में । इसी अन्ध-दृष्टिकोण ने पैतृक-श्रम विभाजन, पैतृक वर्ग विभाजन को, ऊंची-नीची जातियों वाली जातिवादी सामाजिक संरचना को धार्मिक आधार प्रदान किये।

सामाजिक संरचना को धार्मिक रूप देने का एक अन्य मौलिक कारण भी सहायक हुआ। मनुष्य के जीवन-मरण के बारे में अज्ञानता की तरह ही प्राकृतिक वस्तुओं के बारे में भी अनुष्य अज्ञान था और साथ ही उनकी तुलना में असहाय व लाचार भी। उनसे उनको लाभ भी होता था और हानि भी; जैसे सूर्य, वादल, अग्नि, वर्षा, नदियां, पहाड़, पृथ्वी व उसकी उपज इत्यादि । इन्हें अपनी शक्ति से ज्यादा शक्तिशाली तथा लाभकारी व हानिकारक देखकर मनुष्य ने उन्हें देव-शक्ति या देवता मान लिया। उन्हें प्रसन्न करने अथवा उनका क्रोध शान्त करने हेतु उनकी पूजा करने लगा। इस प्रकार प्राचीन युगों में और पूरे संसार में "प्राकृतिक धर्म" का आविर्भाव हुआ। जो लोग पूजा करते थे, वे पूरे संसार में पुजारी कहलाये। प्रकृति पूजा से ही देव-शक्तियों को प्रसन्न करने हेतु पशुओं और यहां तक कि मनुष्यों को वलि देने का भी चलन आया। चूंकि यह जानना कि कौन देवता क्यों रंज है; उसी के चलते वह वाढ़ या अग्नि व अन्य महामारी के रूप में मनुष्यों को क्यों दंडित या पीड़ित करता है तथा उसके क्रोध को शांत करने हेतु उसकी पूजा कैसे कैसे की जाय, अथवा यह कि जीवित मनुष्य निर्जीव क्यों हो जाता है ऐसे सभी कार्य विचार या चिन्तन करने के कार्य थे। ये कार्य भी पुजारी करने लगे। चूंकि समूचा चिन्तन मनोगंत या आध्यात्मिक था, इसी कारण प्रारंभिक चिंतन या विचार स्वयं आध्यात्मिक थे। धार्मिक थे। चूंकि पूजा करने एवं मनुष्य व प्रकृति के बारे में विचारने के कार्य प्रायः एक ही व्यक्ति करने लगा, इसलिए वही पुजारी और वही विचारक भी बनने व कहलाने लगा। चूंकि इस सामाजिक हिस्से ने अपनी भौतिक आवश्यकताओं का उत्पादन करने हेतु स्वयं शारीरिक श्रम करना बंद कर दिया; उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति दास-कमकरों के शारीरिक श्रम से हुए उत्पादों से होने लगी। यूं कहिए, धर्म, दर्शन विचार और विचार करने के जैसे उस काल के नितांत आवश्यक सामाजिक कार्य करने वाले पुजारी व विचारक वर्ग की शुरूआत कमकर वर्गों के शारीरिक श्रम पर निर्भरता पर खड़ी हुई जो परजीवीपन में और फिर कमकर वर्गों के कठोर व निर्मम, शोषण, दोहन में विकसित हुई ।

ब्राह्मणों के बारे में इतिहासकारों का कहना है कि 'ब्रा' शब्द का अर्थ चूंकि उच्चारना (बोलना), उच्चारण होता है इसलिए जो लोग मंत्रोच्चारण का कार्य करते थे, वही ब्राह्मण कहलाने लगे। बाद में वही मंत्रोच्चारण करने वाले पुजारी बनने के साथ साथ धर्म गुरू भी बन गये। इतिहासकार यह भी बताते हैं कि "ऋग्वेद" का "पुरुष सूक्त" नामक अंतिम अध्याय काफी बाद में जोड़ा गया था, जब समाज का जातिवादी संरचना में बंटवारा हो चुका था । कारण, उसी अध्याय में यह कहा गया है कि ब्रह्मा के मुँह से ब्राह्मणों की, भुजा से क्षत्रियों की और पैर से शुद्रों की उत्पत्ति हुई। जबकि पूरे वेद में, जैसे कि पहले बताया गया समाज के ऐसे कठोर विभाजन की कहीं चर्चा नहीं है।

अब वैदिक काल के बाद का काल देखें। विद्वान बताते हैं कि लोहे की खोज भारत में लगभग 800 वर्ष ईसा पूर्व हुई थी। इससे समाज में मूलभूत परिवर्तन आये। कारण, लोहे से बने उत्पादन के साधन ज्यादा मजबूत व ज्यादा टिकाऊ थे। इसके चलते जंगल काटने, उपजाऊ भूमि को समतल वनाने, कृषि उत्पादन को विकसित व विस्तृत करने के जैसे कार्य ज्यादा सुगम हो गये । औद्योगिक उत्पादन तथा यातायात के साधनों का भी विकास तेजी से होने लगा। कुल मिला के कहा जाये तो यह कि सामाजिक उत्पादन और इसके विनिमय में वृद्धि व तेजी आयी। परन्तु समाज में धन व उसके चलन को वृद्धि का यह मतलब नहीं कि उसका लाभ समाज के सभी लोगों को मिला। प्रभुत्वकारी मालिक धन सम्पदा की उत्तरोत्तर उत्पत्ति एवं वृद्धि के साथ साथ अधिकाधिक धनाढ्य व सम्पत्तिवान होते गये। वहीं दूसरी ओर समाज के कमकर तबके के ऊपर उनका प्रभुत्व व अंकुश तथा उनका शोषण भी उतना ही बढ़ता गया; जैसे कि आज भी होता है। नतीजा यह कि उस काल के विकास के अनुसार लोहे के यंत्रों से जितना अधिक जंगल काटकर खेती का • विकास व विस्तार होता गया व खनिज भंडारों की खोज के साथ साथ अत्यअधिक उत्पादन भी बढ़ता गया, उतना ही अधिक मानवीय श्रम के तीव्र शोषण की आवश्यकता भी बढ़ती गयी। उसके लिए कमकर वर्गों को दासों या अर्ध दासों की स्थिति में रखकर उनसे काम लेने की आवश्यकता भी बढ़ती गई। इसी आवश्यकता पूर्ति के लिए शारीरिक श्रम करने वाले तमाम वर्गों को समाजिकताओं, (सामाजिक अधिकारों) से वंचित कर दिया गया। एक वैश्य को छोड़कर बाकी सबको शूद्र नामक एक संज्ञा दी गयी। शुद्र एक आम श्रेणी थी, जिसमें नाना प्रकार के लोग आते थे। उदाहरणार्थ-बुनकर, चमार, बढ़ई, लोहार, रथकर व धनुष बनाने वाले, जानवर व पक्षी मारने वाले, सांप पकड़ने वाले, खनिज व उद्योगों में तथा खेतियों में काम करने वाले मजदूर, मकान व सड़कें बनाने वाले मजदूर आदि इन सबके पेशे के अनुसार इन सबके नाम पड़ते गये, जैसे कि आज भी है। लेकिन समाज की श्रेणियों की दृष्टि से एक ही नाम इस श्रेणी का था, वह था शुद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के बाद सबसे नीचे शूद्र । अर्थात वर्ण तो चार थे। परन्तु शूद्र वर्ण में पैतृक पेशे के अनुसार उनके नाम की कई जातियां भी बनने लग गयीं ।

वैदिक काल के बाद स्मृतियों में शूद्रों व दासों को जब धन सम्पत्ति रखने से तथा वेद इत्यादि पढ़ने से रोका गया, तो इसका क्या अर्थ था? केवल यह कि वे दास वर्ग के लोग हैं, न तो उच्च वर्गों के कार्य कर सकते हैं और न ही उनके जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक अधिकार पा सकते हैं। स्मृतियों में यह भी स्पष्ट किया गया है कि अगर दास का मालिक दास को छोड़ भी देता है, तो वह दास के कार्य से मुक्त नहीं हो जाता है; अर्थात उसको इस व्यक्ति की नहीं तो उस व्यक्ति की दासता करनी ही पड़ेगी। नारद स्मृति तथा मनु-स्मृति देखें तो उसमें भी यही लिखा है कि शूद्रों का काम ही ऊपर की तीनों, खासकर दो वर्णों की सेवा करना है। वह अन्य वर्णों का कार्य नहीं कर सकता। ऊपर के दो वर्ण अगर चाहें, खासकर ब्राह्मण, तो शूद्रों के धन का प्रयोग कर सकता है। यह शारीरिक श्रम करने वाले तमाम पेशों में लगे शूद्रों के अर्द्ध-दासता की स्थिति का परिणाम था। उन दिनों के समाज के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक विकास का उच्चतम रूप पहले मौर्य राज्य की स्थापना थी। इस राज्य की स्थापना की नींव शूद्रों के दास जीवन पर खड़ी हुई। शूद्रों के बिना उस राज्य की स्थापना हेतु आवश्यक धन सम्पदा का उत्पादन सम्भव नहीं था। इसी की ही खातिर स्मृतियों में वर्णित शूद्रों पर अमानवीय अत्याचार किये गये। मौर्य राज्य के इतिहासकार बताते हैं कि कई हजार शूद्रों को उड़ीसा व अन्य जगहों से लाकर बिहार में बसाया गया था।

जैसा कि बताया गया है कि धन सम्पदा की वृद्धि ने ब्राह्मणों व क्षत्रियों के धन वैभव, आर्थिक व सामाजिक प्रभुत्व को बढ़ा दिया और क्रमशः उसके निरंकुश शासन व उत्पीड़न को भी ब्राह्मण खुद तो राज्य नहीं करते थे, लेकिन राज पुरोहित होने के कारण सामाजिक संरचना की व्याख्या करते थे और वह भी धर्म के नाम पर जैसाकि पहले बताया, कि दैविक शक्ति की पूजा आदि के अलावा सामाजिक धर्म का केवल एक ही मतलब था, वह था तमाम जातियों द्वारा अपनी-अपनी जातियों के अनुसार काम करना । न करने पर दंड का भागी बनना ब्राह्मण चूंकि बिना श्रम किये सम्पदाओं का उपभोग करते थे; उनके काम थे दैविक शक्तियों की पूजा करना और इससे जुड़े कर्म कांड करना इत्यादि। लेकिन इसके साथ ही पृथ्वी, इसके रचयिताओ तथा सामाजिक संरचनाओं एवं आदमी के जीने मरने के बारे में ब्राह्मण चिन्तन करते थे, इसके चलते पहले के कर्मकांडी ब्राह्मणों के साथ दूसरे प्रकार के विचारक ब्राह्मणों की भी श्रेणियां बनती गयीं। समाज पर ब्राह्मणों व क्षत्रियों के प्रभुत्व ने, विशेषकर कर्मकांडी ब्राह्मणों को अपने धन, पद व प्रतिष्ठा के लालच में सैकड़ों प्रकार के झूठे व फरेबी कर्मकांडों व सामाजिक आचरणों को गढ़ने के आधार प्रदान किये। इनसे समाज मिथ्या प्रपंचों के जाल में फंसता गया।

ईसा पूर्व 600 साल के काल को मोटे तौर पर चार वर्णों में बंटा हुआ पाते हैं। उन्हें हम उस समय के तीन या चार प्रमुख वर्ग भी कह सकते हैं। पहला, ब्राह्मण व क्षत्रिय थे तो दो वर्ण; पर दोनों का वर्ग सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से एक था; वैसे ही जैसे आज हम बड़े पूंजीपतियों एवं बड़े अधिकारियों को एक ही श्रेणी या वर्ग में रखते हैं। तीसरा वर्ण, और दूसरा वर्ग वैश्य था। चौथा वर्ण एवं वर्ग शूद्र था, जिसमें आज की मजदूर श्रेणी की तरह ही नाना प्रकार के व्यवसायों में लगे कमकर आते थे, जो जनम-जात अर्ध दास होते थे, जैसेकि आज नहीं होते। शायद आप पूछें, क्या उन दिनों ब्राह्मण या क्षत्रिय, गरीब मजदूर या श्रमिक नहीं होते थे ? अगर वे थे तो उन्हें उच्च ब्राह्मण व क्षत्रियों के साथ एक ही श्रेणी या वर्ग में कैसे रखा जा सकता है ? इसके बारे में दो बातें यहां ध्यान देने लायक हैं।

एक, यदि आप स्मृतियां व अन्य शास्त्र देखें तो स्मृतियों की रचना करने वालों ने बहुत से ऐसे ब्राह्मणों या क्षत्रियों को नीचा ब्राह्मण या नीचा क्षत्रिय कहा था, जो नीचों या शूद्रों जैसे ऐसे कार्य एवं व्यवहार करते थे जिनकी शास्त्रों द्वारा मनाही की गयी थी। केवल आपात काल में ही शूद्रों के सभी नहीं पर कई काम करने हेतु उच्च वर्णों को कहा गया है। दूसरे, ऐसे ब्राह्मण या क्षत्रिय को नीचा ब्राह्मण या क्षत्रिय कहा गया है, जो स्थानीय या अन्य जातियों के साथ घुल-मिल गये थे; ब्याह शादी के द्वारा या वैसे भी रक्त मिश्रण हो गया था। तात्पर्य यह है कि शास्त्रों में आपातकालीन छूट होने के बावजूद ऐसे ब्राह्मणों व क्षत्रियों को उच्च ब्राह्मण व क्षत्रिय तिरस्कार व घृणा की दृष्टि से देखते थे। उन्हें अपने समाज का अंग नहीं मानते थे, उनसे सामाजिक बंधन नहीं जोड़ते थे। क्या ऐसी सैकड़ों हजारों साल पुरानी बातों के अवशेष आज तक नहीं मिलते ? आज जब प्राचीन युगों से चले आये भेदभाव के अवशेष मिलते हैं, जबकि जमाना इतना बदल गया है कि ब्राह्मणवादी प्रभुत्व तथा क्षत्रिय प्रभाव स्वयं गिर चुका है; तो प्राचीन काल में समाज से बहिष्कृत ब्राह्मणों या क्षत्रियों की क्या स्थिति हुई होगी, जब ब्राह्मणवादी प्रभुत्व अपनी चरम सीमा पर था। इसका आप अनुमान लगाके देखें । अतः नाम से ब्राह्मण या क्षत्रिय होने पर भी अगर वे शुद्ध ब्राह्मणों या क्षत्रियों के
वर्णों से कटे रहते थे, तो हम क्या यह कहें कि अगर वे भी ब्राह्मणों या क्षत्रियों के वर्णों व वर्गों में शामिल थे ? हाँ, वे दासों-कमकरों-शूद्रों से उच्च थे, इसमें शक की कोई गुन्जाइश नहीं है। अतः यह कहना पूर्णतः गलत है कि प्राचीन काल के समाज में वर्ग नहीं केवल वर्ण होते थे। केवल वर्ण विभाजन था, वर्ग विभाजन नहीं था।

प्राचीन काल के समाज को उसके वर्ण विभाजन (जातीय विभाजन) को बदलने का काम सर्व प्रथम महात्मा बुद्ध ने किया। बुद्ध ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता, ब्राह्मणवाद तथा कर्मकाण्ड जैसी अनेक सामाजिक बुराइयों का विरोध किया। उन्होंने कर्मकाण्डों के द्वारा नर्क से बचकर स्वर्ग में जाने की अवधारणा की जगह निर्वाण या मोक्ष प्राप्ति का सिद्धांत दिया। कर्मकाण्डों में पशु या मानव की बलि के स्थान पर अहिंसा का सिद्धांत स्थापित किया। जन्म से जाति निर्धारण की जगह कर्म से जाति निर्धारण का सिद्धांत तो दिया, परंतु जाति पांति या वर्ण व्यवस्था का विरोध, ब्राह्मणवादी प्रभुत्व के विरोध तक ही सीमित रहा। कारण ? ब्राह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों, वैश्यों को अपने ही कुल में ब्याह करने का भी उन्होंने उपदेश दिया। हां, वौद्ध विहार में शामिल होने पर किसी वर्ण विशेष पर कोई रोक नहीं लगायी। परंतु दासों पर लगायी । अव चूंकि शूद्रों में से बहुत से लोग दास होते थे, वे वौद्ध दीक्षा से वंचित रह गये। 

बौद्ध धर्म का सबसे प्रमुख प्रभाव वैश्य वर्ण पर पड़ा। वास्तव में इसी वर्ण ने बौद्ध धर्म को फैलाया भी। कारण यह था कि वर्ण-व्यवस्था के अनुसार वैश्य वर्ण तीसरे नम्बर पर आते थे, उनमें कृषि करने वाले वैश्य को शुद्र के समान ही माना जाता था। मौर्य राज्य की स्थापना के बाद जब खनिज व खेती का काम बढ़ा तो उत्पादनों का क्रय विक्रय व्यापार का विस्तार होने लगा। इसके चलते वैश्यों का महत्व आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से बढ़ गया। उनकी सामाजिक श्रेष्ठता तथा आर्थिक विकास में अगर कोई बाधक थे, तो वे थे ब्राह्मणों का ब्राह्मणवाद और क्षत्रिय इस ब्राह्मणवाद को उस काल में अगर किसी ने नकारा था तो वह बौद्ध धर्म था, इसलिए बौद्ध धर्म को सबसे अधिक समर्थन वैश्यों से मिला।

इसके बाद ब्राह्मणवाद को अगर किसी ने चोट पहुंचाई तो वे थे, पहली व दूसरी शताब्दी के यूनानी, शक और कुषाण हमलावर। उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा राजतिलक न करने पर वैश्यों, शूद्रों को बढ़ावा दिया। ब्राह्मणों ने इसी कारण यवनों एवं मलेच्छों के राज्यों में ब्राह्मणों का रहना वर्जित घोषित कर दिया था। इसके पश्चात सातवीं से दशवीं शताब्दी तक मुसलमानों के बार बार हमलों ने और अंत में उनके लगभग 800 साल तक चले राज-काज ने किस प्रकार ब्राह्मणवाद एवं समूचे जातिवाद को तोड़ने में भूमिकाएं निभाई, यह बताने की आवश्यकता नहीं। 

लेकिन हिन्दू समाज के भीतर की वर्ण-व्यवस्था
में मुसलमान कोई मौलिक परिवर्तन नहीं कर सके। इस परिवर्तन की सर्वप्रथम आधार शिला अंग्रेजों ने डाली। उन्होंने हिन्दू सामाजिक संरचना की पहली बार जड़ें खोदीं। एक सामाजिक सुधारक होने के कारण नहीं, वरन पहले व्यापारी और बाद में पूंजीवादी लुटेरे होने के कारण। अपनी लूटपाट का राज काज स्थापित करने हेतु अंग्रेजों ने जातिवाद तोड़ने से संबंधित कई कार्य किये। जैसे...

( 1 ) पैतृक जमींदारी प्रथा तोड़कर ठेके के आधार पर जमींदारी चलायी। इसमें हर वर्ण या जाति का व्यक्ति जमींदार हो सकता था, जो अधिकाधिक जमींदारी लगान अंग्रेजों को दे सके। इससे कायस्थ और बनिया वर्ण या जाति के लोग भी जमींदार बन गये। इसके चलते बहुतेरे ब्राह्मण व क्षत्रिय उनकी चाकरी करने लग गये ।

( 2 ) प्राचीन शिक्षा दीक्षा तथा शिक्षा की पद्धति की जगह अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा तथा अपनी पद्धति लागू करके ब्राह्मणवादी शिक्षा-दीक्षा अतः ब्राह्मणबाद को गिराना शुरू कर दिया। इससे न केवल ब्राह्मणों व क्षत्रियों की श्रेष्ठता टूटी, बल्कि वैश्य जाति के लोग उच्च शिक्षा प्राप्त करके अंग्रेजी प्रशासन में अधिकारी बनकर अन्य जातियों की तुलना में श्रेष्ठता प्राप्त करने लग गये।

( 3 ) औद्योगीकरण के चलते वर्ण व्यवस्था पर क्या क्या प्रभाव पड़े, इसकी बहुत सी बातें आप जानते होंगे, लेकिन अगर उन्हें यहां गिनाया जाय तो संक्षेप में वे यों हैं— पुराने पेशों का टूटना, जैसे, कपड़ा बुनना, चमड़े का सामान बनाना, वर्तन बनाना, तेल निकालना इत्यादि इत्यादि जिन जिन पेशों को औद्योगीकरण तोड़ता गया, वो धीरे-धीरे विलीन होते गये। परिणाम यह हुआ कि ऐसे पेशों में श्रम करने वाली शुद्र जातियां जो अपने अपने पैतृक पेशों के कारण उन पेशों के नामों से पुकारी जाती थीं, वे जातियां भी पेशे टूटने के साथ-साथ टूटती गयीं। परिणामतः उन पर ब्राह्मणों और क्षत्रियों का सदियों पुराना प्रभुत्व भी टूटता गया। दूसरी ओर ब्रिटिश प्रशासन, ब्रिटिश उद्योग व व्यापार आदि में और बाद में भारतीयों के व्यापार एवं उद्योगों में भी हर उस व्यक्ति को बिना जाति-पांति का लिहाज किये नौकरियां दी गयीं, तो जातिवाद में भीतरी टूटन शुरू हो गयी ।

4. नई प्रकार की जमींदारियों व नये प्रकार के लगान एवं नई भूमि व्यवस्था के साथ साथ जब पुरानी की जगह नई प्रकार की खेतियां शुरू हुई, (उदाहरणार्थ, पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार में नील व अफीम की खेतियां, महाराष्ट्र व मद्रास में कपास की, बंगाल में चाय व जूट की खेतियां शुरू हुई और पंजाब में गेहूं की खेती पर जोर दिया गया। इससे किसानों तथा देहातों में बदहाली तो फैली परंतु जाति-पांति की जड़ व्यवस्था भी टूटी। गावों की ओर से शहर भागकर आने से कई जातियों के लोग नये औद्योगिक जीवन के मज़दूर हो गये। वर्ण या के जातियां वर्गों में बदल गयीं।

5. वर्ण व्यवस्था को तोड़ने में कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन ने भी सहयोग दिया। अपने तमाम सुधारवादी व अवसरवादी चरित्र के बावजूद कांग्रेस आंदोलन ने जाति-पांति तोड़ने में सुधारवादी ही सही, परंतु महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्यों?

कोई भी राष्ट्र जब किसी विदेशी शक्ति से लड़ता है, तो उसे एकजुट होना पड़ता है। इसके वास्ते उसके भीतरी अन्य विरोध कम होने चाहिए। इसी कारण हरिजन कल्याण जैसे विभिन्न प्रकार के आंदोलन कांग्रेस की ओर से चलाए गये, परंतु इससे अधिक नहीं, क्योंकि कांग्रेस मूलतः भारतीय पूंजीपतियों का प्रतिनिधित्व करती थी। उन्हीं के हितों के लिए लड़ती थी। यूं कहिए, अंग्रेजों के विरूद्ध कांग्रेस का आंदोलन भारतीय पूंजीपतियों के हितों को दृष्टि क्रांति में रखकर चलाया जाता था। इसी कारण कांग्रेस कोई भी सामाजिक की भूमिका नहीं निभा पायी। शूद्रों के संबंध में क्रांतिकारी भूमिका क्या हो सकती थी, इसे हम बाद में देखेंगे। इससे पहले हम 1947 के बाद के काल पर आ जायें। और अपनी बहस को उस चर्चित प्रश्न से शुरू करें, जो मार्क्सवाद का विरोध करने के लिए खड़ा किया जाता है।

पहला प्रश्न - भारत दुनियां का एक विलक्षण देश है। इसकी सामाजिक संरचना का मूल तत्य वर्ण-विभाजन है। और यह वर्ण-विभाजन शताब्दियों से चला आ रहा है।

दूसरा प्रश्न - वर्ण-विभाजन पर आधारित वर्ण संघर्ष न कि वर्गों पर -
आधारित वर्ग-संघर्ष भारत में होना चाहिए। यही स्थिति भारत को अन्य देशों से भिन्न करती है। इसे एक विलक्षण देश बनाती है।

इन प्रश्नों के उत्तर अब अगले पोस्ट में ।

जी.डी. सिंह ।

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