Friday, 22 October 2021

जाति (वर्ण) व्यवस्था ---------- चन्द ज्वलंत प्रश्न (1989)

इस लेख पर दो-चार बातें----- Pramod Chourasia 

यह लेख लिखने से लगभग 10 साल पहले 1979-80 में जातिय (वर्ण) व्यवस्था पर जो चर्चायें हो रही थीं, उन्हीं के संदर्भों में लिखा गया था। उसके बाद जो नई चर्चायें उठी हैं, उन पर इस लेख में कोई चर्चा नहीं है। उदाहरणार्थ, उन दिनों वामपंथियों का एक हिस्सा यह कबूलने लगा था कि भारत में वर्ण (जातिय) व्यवस्था ही वर्ग व्यवस्था है, जबकि इससे पहले तक मार्क्सवादी इस अवधारणा को हमेशा नकारते आये थे। इसे लेकर लोहियावादी समाजवादी मार्क्सवादियों पर इल्जाम लगाते थे कि वे वर्ण व्यवस्था को जाने-समझे वगैर पश्चिम की वर्ग-व्यवस्था की अवधारणा भारत में लागू करते हैं। इसी विवाद के कारण इस प्रश्न पर इस लेख में ज्यादा चर्चा की गयी है। दूसरी बात, चूंकि 1980 में यह लेख मैंने यानी (जी.डी. सिंह )  छपाने के लिये नहीं, हाथों-हाथ नकल करके वांटने के लिये लिखा था (क्योंकि तब तक वामपंथियों और गैर-वामपंथियों में भी यह रिवाज चला आ रहा था कि कई लेख छपाये जायें और कई नकल करके बांटें जायें, इसलिये हुआ यह कि जब कुछ साथियों ने मुझे पुराना लेख छपवाने के लिये कहा और मुझे इसकी जो प्रति (नकल) उनसे मिली, वह इतनी ज्यादा त्रुटिपूर्ण हो चुकी थी कि उसे त्रुटि मुक्त करने के लिये मुझे कई जगह शब्द ही नहीं वाक्य तक बदलने पड़े लेकिन ऐसा करते हुए मैंने यह ध्यान रखा कि न तो कोई नया विचार जोड़ा जाये और न ही किसी पहले को काटा-छांटा जाये। लेख जस का तस रह जाये। अतः वही पुराना लेख आपके सामने है। तीसरी बात - लेख की लेखनी उबड़-खाबड़ भी है। कारण, यह लेख मैंने बनारस के देहातों में घूमते हुए लिखा था; वह भी हाथों-हाथ बांटने की दृष्टि से । इसलिए यह कमी स्वाभाविक थी। वह भी जस की तस है। अंतिम पैरा लेख के सारांश के रूप में नया जोड़ा गया है।

आज उठने वाले प्रश्नों का यह लेख कितना उत्तर दे पाता है, इसका फैसला पाठक करेंगे। हाँ, यह लेख अगर आज में दुवारा लिखता तो इसमें • धर्म पर अधिक चर्चा करता। विशेषकर इस पर कि अपने काल में क्रांतिकारी भूमिका निभाने वाले बौद्ध धर्म-दर्शन ने (i) ब्राह्मणवादी उच्चता व प्रभुत्व का; (ii) कर्म से नहीं जन्म से निर्णीत जातिय ऊंच-नीच का, (iii) वैदिक धर्म और उसके कर्म-काण्ड इत्यादि का विरोध करते हुए; (iv) अच्छे आचरण करने पर भी बल दिया था। जिसमें हिंसा तथा झूठ फरेब चोरी मक्कारी आदि के विरोध भी शामिल थे। आज के बौद्ध धर्म-दर्शन के प्रशंसक व अनुयाई अन्य दार्शनिक पहलुओं के अतिरिक्त इस धर्म-दर्शन के इन्हीं सामाजिक पहलुओं पर ज्यादा जोर देते हुए इन्हें वर्तमान समाज की विभिन्न समस्याओं के निदान के रूप में पेश करते हैं। इनसे वर्तमान समस्याओं का कितना निदान होगा या नहीं, यह तो दीगर बात है। परन्तु प्रश्न है, क्या महात्मा बुद्ध ने इन्हीं चारों (ऐसे ही अन्य ) आचरणों को ही "मुक्ति" या "मोक्ष का मार्ग" बताया था ? किसी अन्य को नहीं ? क्या उन्होंने इस जगत को "दुखी जगत" कहते हुए इससे "निर्वाण", "मोक्ष" या "मुक्ति" प्राप्त करने हेतु अन्य कोई मार्ग नहीं बताया था ? संसार में दुख तब से लेके आज तक चले आ रहे हैं। हां, किसी के लिए हैं और किसी के लिये नहीं हैं। इनसे "निर्वाण" या "मुक्ति" का प्रश्न तब से लेके आज तक खड़ा है। अपने समाधान की पुकार आज भी लगाता है।

सितम्बर 1989 में  जी० डी० सिंह के लिखे यह लेख, पढ़कर पाठक खुद तय करे कि आज कितना प्रासंगिक है । जाति (वर्ण ) व्यवस्था के बारे में ।
(बनारस)
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जाति (वर्ण) व्यवस्था ----------  चन्द ज्वलंत प्रश्न (1989) -------------------------------------------------------------------------    

वर्ण व्यवस्था
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पहला प्रश्न- क्या जाति या वर्ण व्यवस्था अनादि या अनन्त है ? 

उत्तर- कोई भी वस्तु पदार्थ के सिवा अनादि अनन्त नहीं है, तिस पर भी सामाजिक संरचना । मानव समाज के बारे में दी जाने वाली एकदम प्रारंभिक शिक्षा से भी पता लगता है कि मानवीय शरीर और उसके मस्तिष्क का विकास होने में न जाने कितनी शताब्दियां लग गयीं थीं। फिर मनुष्य को मानव समाज में रहना सीखने के लिए कई सौ साल लगे। मानव समाज के गठित होने के बहुत देर बाद "वर्ण-व्यवस्था"का बनना संभव हुआ। वर्ण-व्यवस्था, जैसाकि शब्दों से स्पष्ट है, एक सामाजिक व्यवस्था थी, जिसका आविर्भाव स्वभावतः मानव समाज के गठित होने के बाद, न कि उससे पहले हुआ। अतः जो लोग यह कहते हैं कि 'वर्ण व्यवस्था' अनादि है, उन्हें यह भी मानना होगा कि मानव समाज, तथा मानव शरीर का वर्तमान रूप भी अनादि है। लेकिन अनादिवादियों के प्रिय ग्रन्थ (उदाहरणार्थ, स्मृतियां) ऐसा खुद नहीं मानती। उनका कहना है कि रचयिता या सृष्टिकर्ता ने इस सृष्टि एवं समाज की रचना की। सृष्टिकर्ता काल्पनिक ही सही, परन्तु वे यह तो मानते हैं कि समाज की रचना की गयी, वह अनादि नहीं है और न ही इसकी वर्ण व्यवस्था ।
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दूसरा प्रश्न :- तब वर्ण-व्यवस्था' कब व कैसे पैदा हुई ?

उत्तरः- प्राचीन भारत की जानकारी प्राप्त करने का प्रथम स्रोत 'ऋग्वेद' है। उसे लेकर अगर हम प्राचीन समाज व्यवस्था के बारे में अनुमान लगायें तो, जो बातें स्पष्ट होती हैं, वे निम्नलिखित हैं।

1. उस काल में आर्य कहलाने वाले लोगों में ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य, चर्मकार, कृषक, रथकार, बुनकर, दास व दासियां आदि चर्चा में आते हैं। ब्राह्मण द्वारा मंत्रों को रचने व उच्चारने, राजन्य द्वारा लड़ने व समाज की व्यवस्था करने, वैश्यों द्वारा सामानों का क्रय-विक्रय करने तथा बुनकरों व चर्मकारों द्वारा कपड़ा बनाने व चमड़े के कार्य करने की उस ग्रंथ में चर्चा आती है। ये कार्य सामाजिक श्रम विभाजन के द्योतक हैं, और साथ ही इस बात के भी कि आयों में वर्ग-विभाजन प्रारम्भिक रूप में मौजूद था परन्तु एक पेशे के कार्य करने वाले दूसरे पेशों के भी कार्य कर सकते थे। इस पर कोई पाबन्दी नहीं थी, और न ही किसी को अछूत मानने की जैसी कोई परम्परा थी। इसके विपरीत न केवल एक दूसरे के कार्यों को सम्मान से देखा जाता था, बल्कि एक का कार्य दूसरा भी कर सकता था। एक, दूसरा, बन सकता था। उदाहरणार्थ, ब्राह्मण राजन्य और राजन्य ब्राह्मण वन सकता था। कई एक मंत्र अनार्यों द्वारा भी रचे हुए हैं। इन अलग अलग कार्यों व पेशों में लगे लोगों को न तो वर्ण कहा गया और न ही उनके आधार पर उस काल की व्यवस्था को 'वर्ण व्यवस्था' कहा गया, जैसाकि बाद में हुआ।

2. जिस एक दूसरे के प्रति घृणा को ऋग्वेद में व्यक्त किया गया है, सो भी आर्यों के द्वारा अनार्यों के प्रति, जिन्हें आर्य भिन्न भिन्न नामों व संज्ञाओं से संबोधित करते थे। जैसे, काले वर्ण वाले, ठिगने, चपटी नाक वाले, मोटे होंठों वाले, लिंग पूजक, गाय व आर्यों के देवताओं को न मानने वाले राक्षस व दास आदि आदि। इस घृणा का मुख्य कारण यह था कि आर्यों को इन लोगों से यहां बसने के वास्ते लगातार लड़ना पड़ता था, जिन पर चर्चाओं से ऋग्वेद के (विशेषतः) पहले 'अध्याय' भरे पड़े हैं।

3. वर्ण शब्द केवल आर्य वर्ण, तथा कृष्ण वर्ण, दास वर्ण के संबंध में ही प्रयोग में आया था। वर्ण का शाब्दिक अर्थ वैसे भी रंग होता है। इसी अर्थ में आर्यों द्वारा भी इसका प्रयोग होता था। आर्य अपने आपको गौर वर्ण बताते थे और अनार्यों को काले या कृष्ण वर्ण से संबोधित करते थे। वर्ण शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में, जाति-पाति या विभिन्न जातियों तथा पेशों या कार्यों के रूप में कत्तई नहीं हुआ।
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4. क्या ऋग्वेद-काल के आर्यों में आपसी भिन्नता या ऊंच-नीच थी ?

 उत्तर. इसका संकेत दो बातों से स्पष्ट है 
I -खुद आर्यों में दास-दासियां रखने का प्रचलन था। उदाहरणार्थ, युद्ध में हारे आदमियों को दास बनाना तथा घरेलू कार्यों में दास-दासियों से कार्य करवाना ।

II- राजा या कवीले के सरदार को बलि या शुल्क देना, जो सम्पत्ति के संग्रह का द्योतक है।

ये बातें इस बात की द्योतक हैं कि उन दिनों एक तो स्वयं आर्यो में सम्पत्ति पर आधारित वर्ग-विभाजन था। दूसरे प्रारंभिक काल में आर्य अपने शत्रु-अनार्यों को मारते काटते थे; परन्तु जैसे जैसे वे यहां आकर खुद बसने लगे, पशु पालन के साथ साथ खेती करना उनका एक मुख्य पेशा बनता गया; इसके लिये व अन्य कार्यों के लिए मानवीय श्रम की आवश्यकता बढ़ने लगी, तो उन्होंने अनार्य लोगों को मारना बन्द कर दिया। युद्ध में हारे लोगों को अपना दास बना लिया ताकि उनसे आवश्यक श्रम की पूर्ति कर सकें। इस तरह ऋग्वेद काल में दासों का एक अलग सामाजिक अंग के रूप में, समाज के एक श्रमिक वर्ग के रूप में चलन शुरू हो गया ।
ऋग्वेद काल दो स्पष्ट सामाजिक गुटों में बंट गया-एक, दासों का; दूसरा, दासों के मालिक आर्यों का। इस संबंध में ध्यान रखें कि आर्यों में से भी कुछ लोग दास बन जाते थे, जैसे, आपसी युद्धों में व जुए में हारे हुए आर्य । लेकिन अधिकांश दास अनार्य थे। चूंकि अनार्यों को राक्षस, दस्यु या दास आदि शब्दों से संबोधित किया जाता था और उन्हें ही गुलाम बनाया जाता था। अतः दस्यु या दास शब्द गुलाम का द्योतक बन गया। इतिहास में आपको कई ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जिनमें आप पायेंगे कि प्राचीन काल में विजेता कबीलों ने जिन कवीलों (या जातियों) को पराजित करके अपना गुलाम बनाया था, उन्हीं पराजित कबीलों का नाम गुलाम शब्द का द्योतक हो गया। उदाहरणार्थ, प्राचीन रोमवासियों ने जब आज के यूगोस्लाविया, चेकोस्लाविया आदि की 'स्लाव' नामक नस्ल या जाति को अपना गुलाम बनाया तो स्लाव (slav) शब्द अंग्रेजी में स्लेव ( slave) अर्थात गुलाम का प्रतीक वन गया। इसी प्रकार मध्य एशिया, ईरान, इराक, टर्की में 'हैरियान' तथा 'दाही' शब्द | ऐसी बातों का निचोड़ यह है कि, दास या गुलाम का मूल तत्व है, उत्पादन कार्यों में लगे श्रमिक वर्ग ।
चूंकि आर्य लोग स्वयं को आर्य और दासों को दास अथवा आर्य वर्ण एवं दास वर्ण के जैसे शब्दों से संबोधित करते थे, इसलिए वर्ण शब्द जो दो रंगों की जातियों के लिए उपयोग होता था, वह विजेता तथा पराजित के लिए, और फिर, मालिकों व गुलामों के लिए प्रयोग होने लग गया। सामाजिक, विभाजन का वह प्रतीक बनता गया। अतः वैदिक काल के समाज के विकास की एक अवस्था में वर्ण शब्द दो वर्गों का प्रतीक बनता गया। वर्ण का अर्थ वर्ग भी हो गया, कबीलायी जनजातियों में भिन्नता के साथ साथ वह वर्ग विभाजन का भी द्योतक बनता गया।

4. आर्य, अनार्य लोगों को आर्य बनाते तो थे परन्तु यह आम प्रचलन नहीं था। वैसे भी शुरू के काल में उन्हें जब खेती या हस्त उद्योग आदि के लिए दास बनाया जाने लगा तो अनार्य से आर्य में परिवर्तन कम हो गया। कारण, गुलाम या दास होने के नाते उन्हें शत्रु नहीं, बल्कि अपने से सामाजिक आर्थिक दृष्टि से तथा वैदिक काल के रीति रिवाजों के अनुसार निम्न, नीचा (नीच) समझा जाने लगा; जैसाकि मालिक अपने गुलाम को देखता है। इस दृष्टि से अनार्य दासों के प्रति जो घृणा थी, वह अब शत्रु के नाते, या केवल अनार्य होने के नाते नहीं रह गयी थी, अपितु, सामाजिक धार्मिक एवं आर्थिक दृष्टि से निम्न या नीचा होने के कारण शुरू हो गयी थी। उदाहरणार्थ, ऋग्वेद में एक ऋषि दूसरे ऋषि को गाली देते हुए कहता है कि उसका आचरण दासों जैसा है। इसी सामाजिक अवस्था में अनार्य लोगों का आर्यों में परिवर्तन कम हो गया और इन्हें दास बनाया जाने लगा, तो यह प्रचलन एक रिवाज बन गया कि
अनार्य-दास मालिक नहीं बन सकते। परिणामतः, अनार्य दासों के बच्चे भी दास होंगे, अर्थात जन्म से ही दास और मालिक वर्ण या वर्ग बनने लगे। अतः मालिक और दास वर्गों के एक दूसरे से विभिन्न पेशे ( एक का मालिक बनकर उत्पादन हड़पना और दूसरे का उत्पादन करना) जन्म से ही निर्धारित होने लगे। पेशे जन्मजात निश्चित मान लिये गये। तिस पर भी जाति पांति के जैसे सामाजिक शब्दों का शुरू में प्रयोग नहीं होता था। इसके लिए समाज के आर्थिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक विकास की अवस्था अभी आनी थी, जिसमें श्रम विभाजन की अलग-अलग इकाइयां खड़ी हुई और वही जाति पांति का आधार बनीं, जैसाकि स्मृतियों के काल में हुआ।

इस संदर्भ में याद रखें कि भारत की समतल भूमि, खेतियों की सिंचाई हेतु नदियों की बहुतायत, प्राकृतिक वर्षा तथा भूमि का उपजाऊपन इत्यादि ऐसी मौलिक व भौतिक परिस्थितियां थीं, जिन्होंने आर्यों को खेती करने, उसे जीवन का मुख्य कार्य या पेशा बनाने और इसी कारण ग्रामों में बसने, तथा उपजाऊ भूमि का क्षेत्र अनुसार आपस में बांटने के आधार प्रदान किये । यहीं से आर्यों में क्षत्रिय व ब्राह्मण के अलग अलग कार्यों और वैसे ही उन्हें शब्द सम्बोधन के नाम देने की नींव भी पड़ी। कवीलों में क्षेत्रीय बंटवारा होने से जो व्यक्ति अपने क्षेत्र का प्रबंधन करता था, उसे क्षेत्र पति कहा जाने लगा और जो मंत्र उच्चारण करता था, वह ब्राह्मण कहलाने लगा। समाज के उच्च व श्रेष्ठ तबकों में ऐसा बंटवारा संसार की तमाम प्राचीन सभ्यताओं में फलीभूत हुआ था, जैसे रोम, यूनान, फारस व मिस्र की सभ्यताओं में ।

ग्रामीण जीवन के टिकाऊपन से उत्पादन के साधनों के विकास का क्रम शुरू हुआ। परिणामतः, विभिन्न प्रकार के उत्पादन में वृद्धि का भी। इसके चलते एक ओर काले वर्ण वाले दास कमकरों और दूसरी ओर गौरवर्ण वाले आर्य मालिकों के बीच वर्ग विभाजन भी बढ़ता व गहराता गया। कारण ? विभिन्न प्रकार के उत्पादनों का संग्रह दासों के पास नहीं बल्कि आर्य मालिकों के पास होता था। इससे जहां आर्यों व अनार्यों में ऊंचनीच का वर्ग विभाजन बढ़ने लगा, वहीं पर आर्यों में भी क्षत्रियों एवं ब्राह्मणों के अंतरभेद बढ़ने लगे, वे दो प्रकार के अलग अलग सामाजिक कार्यों को करने वाले और कालांतर में पेशों की वर्ण-जातियां बनने लगी थीं। इसकी शुरूआती जड़ें ऋगवेद के प्रारम्भिक काल में भी मिलती हैं। उसमें ब्राह्मण व क्षत्रिय को 'बलि' (अर्थात शुल्क) देने की चर्चा है। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली, ब्राह्मण व क्षत्रिय को शुल्क इसलिए मिलता था, क्योंकि दोनों कोई ऐसे विशिष्ट कार्य करते थे, जिन्हें करने का कार्यभार उन्हीं पर था, जिसके एवज में उन्हें शुल्क मिलता था। दूसरे, सामाजिक उत्पादन इस हद तक होने लग गया था कि शुल्क देने वाला समाज अपने उत्पादन से अपने जीवनयापन हेतु खर्चा निकाल के अतिरिक्त बचा सके
और उसे शुल्क के नाम से दूसरे को उसके कार्यभार के एवज में दे सके। शुल्क लेने व देने वाले दोनों आर्य ही थे। तो भी दोनों में यह विभाजन पहले से मौजूद था जो आर्य समाज के प्रारम्भिक वर्ग-विभाजन का द्योतक है।

यही विभाजन बाद में एक सुस्पष्ट अति कठोर व निर्मम वर्ग-विभाजन में विकसित व परिवर्तित हो गया जब अनार्यें दास एक विशिष्ट कमकर वर्ग के रूप में आर्य समाज के अंग बने और आर्य उनके मालिक शोषण दोहन पर आधारित इसी वर्ग-विभाजन के चलते उत्पादन के साधनों के विकास तथा विभिन्न प्रकार के उत्पादनों में वृद्धियां हुई। फलतः आर्यों के पास धन-संग्रह भी। यहीं से उसकी शुरूआत हुई, जिसे कालांतर में ऊंच-नीच की आदतें, प्रवृत्तियां व मनोवृत्तियां कहा जाने लगा। आर्य-मालिकों के पास धन-संग्रह और सुख-सुविधायें आने से और दूसरी ओर उत्पादन कार्यों के लिए दास-कमकरों का एक विशिष्ट वर्ग बनने से आर्य-मालिकों ने उत्पादन कार्यों में भारी श्रम करना धीरे-धीरे बंद कर दिया। यहीं से उनमें और समाज में परजीवीपन का चलन शुरू हुआ—स्वयं शारीरिक श्रम किये बगैर दूसरों के श्रम से किये गये उत्पादन को हड़पना। यहीं से आर्यों में उच्चता व श्रेष्ठता के भाव भी पैदा हुए।

 जिन उत्पादन कार्यों को वे मालिक होने के नाते खुद नहीं करते थे। उन कार्यों को तथा उनमें शारीरिक श्रम करने वाले दास कमकरों को, वे अपने से नीचा (नीच), छोटा (निम्न) काम (कालांतर में कमीना) इत्यादि मानने लगे । स्वभावतः उन्हें व उन कार्यों को करने वाले दासों को भी वे घृणा व हिकारत की नजर से देखने लगे। बाद में सामाजिक विकास की एक खास अवस्था आने पर जब जनम (जाति) से सामाजिक कार्यों (पेशों) का निर्धारण होने लगा; सामाजिक पेशे ( या कार्य ) पैतृक बनते गये, तब ऐसी तमाम जातियां जो पैतृक पेशों अनुसार उत्पादन कार्य करती थीं, जिन्हें उच्च जातियां नहीं करती थीं, उन कार्यों ( पेशों ) को और उनमें श्रम करने वाली जातियों को निम्न, नीच इत्यादि कहा जाने लगा। चूंकि उच्च जातियां स्वयं कई उत्पादन कार्य नहीं करती थी अर्थात उन्हें स्वयं छूती तक नहीं थीं, इसलिए उन कार्यों को, और उन्हें करने वाले कमकर लोगों (या जातियों) को अछूत कहा जाने लगा। यहीं से छुआछूत का पहले तो चलन शुरू हुआ, और बाद में परजीवी उच्च जातियों का एक नियम बन गया। इस संदर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए कि आर्यों में स्वयं को विजेता और अनार्यो को पराजित मानकर अनार्य के प्रति घृणा व तिरस्कार का दृष्टिकोण पहले से ही मौजूद था। यही दृष्टिकोण वर्ग विभाजन बढ़ने से और विशेष कर उसके पैतृक बनने से अधिकाधिक जड़ी भूत व विकसित होता गया।

स्मृतियों विशेषकर मनुस्मृति का काल, वह काल है जब विभिन्न प्रकार के सामाजिक कार्य पैतृक बन चुके थे। हर जाति ही नहीं, बल्कि उस जाति का पेशा तय हो चुका था। कोई एक दूसरे की सीमा नहीं लांघ सकता था। इस पर कठोर नियम बन चुके थे। सामाजिक संरचना में कठोर वर्ग विभाजन आ चुका था। यही वर्ग-विभाजन जाति-विभाजन में छिपा हुआ था। अतः जाति विभाजन, वर्ग-विभाजन का वह रूप है व था, जिसमें वर्ग-विभाजन पैतृक हो चुका था (जैसेकि किसी काल में आज के ईरान व मिस्र में भी था)। जाति-पांति रूपी वर्ग-विभाजन पर आधारित सामाजिक संरचना 'मनुस्मृति' के काल में राजतंत्रीय हो चुकी थी। जिस प्रकार विभिन्न प्रकार की छोटी जातियों के पेशे तय थे, उसी प्रकार राजा के कार्यभार भी, जिनमें आम लोगों से टैक्स वसूलने व युद्ध लड़ने की नीतियों से लेकर जातीय अंतर व भेदभाव से संबंधित नियमों का उल्लंघन करने पर नीच जातियों को दंड देने के विधि विधान भी शामिल थे। 

अब धर्म पर अगले भाग में चर्चा होगी । धन्यवाद ।

जी.डी. सिंह ।

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