भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति में 'रक्षा' एवं 'अभय दान' का भाव सर्वोपरि रहा है। सनातन काल से ही "रक्षा सूत्र" बांधने की परंपरा रही है।
रक्षाबंधन त्योहार में यही संदेश दिया जाता है कि औरत तुम कमजोर हो- तुम अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकती। तुम्हे अपनी रक्षा के लिये किसी ना किसी पुरुष की ज़रूरत पड़ेगी ही। फिर चाहे वो पुरुष उसका पिता हो, पति हो या भाई हो।
इस पुरुषप्रधान समाज में कोई त्योहार ऐसा नहीं है जिसमें औरत की आजादी की बात की गई हो, जिसमें औरत को स्वावलंबी होने की बात की गई हो। लगभग हर त्योहार औरत को बंधक बनाये रखने के लिए ही बनाया गया है।
तुम अब 22वीं सदी की औरत हो। स्त्री-पुरुष समानता का युग प्रारम्भ हो चुका है। तुम अपनी रक्षा खुद करना सीखो। 'तुम औरत हो, इसीलिए तुम्हारी रक्षा कोई पुरुष ही करेगा', इस मानसिक गुलामी से कब आजाद होओगी ? मुश्किलें तो हरेक के जीवन में आती है, तुम्हारें जीवन में भी आयेंगी। तुम पढी-लिखी हो, आत्मविश्वासी बन कर खुुद पर भरोसा करना व मुश्किलों का सामना करना सीखो। किसी की दया पर निर्भर रहना 22वीं सदी की पढी-लिखी लड़की को शोभा नहीं देता है।
घिसीपिटी प्रथा में बह कर 10 साल छोटे भाई को भी राखी बांध कर तुम्हारी रक्षा की उम्मीद कैसे कर सकती हो ?
भाई से प्यार करो ,पर "रक्षा" के इस बंधन से आजाद होना है तुम्हें। त्योहार मनाना है तो भाई के प्रति प्यार के तौर पर मनाओ ना कि "रक्षा के बंधन" के तौर पर।
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