8 मार्च अंतरराष्ट्रीय स्त्री दिवस है जिसे विश्व स्तर पर मनाया जाता है। लेकिन इसके इतिहास से बहुत ही कम लोग परिचित हैं। 1908 में अमरीका में स्त्री कपड़ा मज़दूरों द्वारा काम की हालतों में सुधार और काम के घंटे कम करने, बराबर वेतन जैसी माँगों के लिए हड़ताल की गई थी।
चौदह सप्ताह की इस लंबी हड़ताल में 20,000 मज़दूर औरतें शामिल थीं। पुलिस द्वारा किए गए लगातार दमन ने इस ऐतिहासिक हड़ताल को कुचल दिया। इस घटना की याद में ही दूसरी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने 1910 में 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय स्त्री दिवस मनाए जाने की शुरुआत की। इस तरह इस दिन का इतिहास स्त्रियों की जुझारू विरासत है जिसे आत्मसात करते हुए उन्होंने आज के समय में अपनी ग़ुलामी की ज़ंजीरें तोड़ने के काम को पूरा करना है।
आज हमारे देश में औरतों के हालात दिन-प्रतिदिन बदतर होते जा रहे हैं। यहाँ हर 4.4 मिनट पर घरेलू हिंसा, हर 16 मिनट पर एक बलात्कार की घटना दर्ज होती है। 2019 में बलात्कार के 34,651 और छेड़खानी, शारीरिक शोषण के 4,05,861 मामले सरकारी काग़ज़ों में दर्ज हुए हैं। हर वर्ष 9,000 के करीब औरतों को दहेज के कारण और 1,000 को 'इज़्ज़त के लिए' क़त्ल कर दिया जाता है। 18 वर्ष की उम्र से कम तकरीबन 1500 लड़कियों को तेज़ाबी हमले का सामना करना पड़ता है। हर वर्ष हज़ारों लड़कियों की वेश्यावृति के लिए ख़रीदो-फ़रोख़्त की जाती है। ये दर्ज घटनाओं की संख्या है, असल में इन घटनाओं की संख्या कहीं ज़्यादा है। एक ओर औरतों के विरुद्ध बढ़ रहे जुर्मों की इन घटनाओं ने औरतों की ग़ुलामी वाली हालत की असलीयत बयान की है, दूसरी ओर इन घटनाओं पर विभिन्न राजनीतिक नेताओं, समाज सेवकों, साधू-संतों, धर्म गुरुओं, पत्रकारों, विद्वानों आदि ने इन घटनाओं पर "लड़कों से ग़लती हो जाती है", "औरतों का ग़लत पहरावा ज़िम्मेदार है", "लड़कियाँ रात को बाहर क्यों निकलती हैं", "बलात्कार ही हुआ है, कोई पहाड़ तो नहीं गिरा" जैसे बयान देकर अपनी दिन-प्रतिदिन सड़ रही पितृसत्ता और स्त्री विरोधी मानसिकता का सबूत देते रहते हैं। जिस भाजपा हुकूमत के कुलदीप सेंगर जैसे नेता ख़ुद बलात्कारी हो, उनसे भला औरतों की भलाई की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है। यह ऐसे नहीं कि लोग भाजपा द्वारा दिए "बेटी बचाओ" के नारे को आज "बेटी को भाजपा वालों से बचाओ" के रूप में देख रहे हैं।
उपरोक्त वे घटनाएँ हैं, जो जुर्म की क़ानूनी परिभाषा के घेरे में आती हैं। औरतों के साथ परंपराओं के नाम पर हो रहे सैकड़ों ऐसे भेदभाव हैं जिन्हें क़ानून जुर्म नहीं मानता। घरों में लड़कियों के पैदा होने से लेकर पालन-पोषण से ही भेदभाव शुरू हो जाता है। चूल्हे-चौके, सफ़ाई, घर सँभालना, बच्चे पालने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ औरतों के हिस्से ही थोपी जाती है और उनके इस काम की कोई गिनती नहीं होती। यहाँ तक कि नौकरीपेशा परिवारों में भी मर्द काम से आकर आराम करता है और बराबर काम करके आई औरत को घर के काम करने पड़ते हैं। पढ़ाई, पहरावे, काम और जीवन साथी का चुनाव में बहुत कम औरतों को ही अपनी मर्ज़ी से फ़ैसले लेने का अवसर मिलता है। अभी भी समाज का बहुत बड़ा हिस्सा है, जो लड़कियों के घर से बाहर निकलने, काम करने और रात को घर से बाहर निकलने को शक की नज़रों से ही देखता है। 'औरतों का दिमाग़ चोटी के पीछे होता है', 'औरत पैर की जूती होती है', 'औरत घर की इज़्ज़त होती है' (जो उसके अपनी मर्ज़ी के फ़ैसले लेने से मिट्टी में मिल जाती है!) आदि मध्य-युगीन विचार हमारे समाज की विरासत से चले आ रहे हैं, जो औरत को ग़ुलाम से अधिक कुछ नहीं समझते।
इसके साथ ही आधुनिकता के नाम पर भी औरतों की ग़ुलामी के नए रूप पैदा हो चुके हैं। औरतों का जिस्म, सौंदर्य आज बाज़ार की एक वस्तु बन चुका है, जिसके दम पर फै़शन, मॉडलिंग, पत्र-पत्रिकाओं, गीतों, फि़ल्मों और वस्तुओं की बिक्री के लिए औरतों के जिस्म को विज्ञापन के रूप में इस्तेमाल करने जैसे कारोबार चल रहे हैं। इसके साथ ही औरतों को कॉल-गर्ल, वेश्यावृति तथा गंदी फि़ल्मों के घिनौने और अमानवीय कामों में धकेलकर उनके ज़रिए अरबों की कमाई की जाती है। विश्व के कई देशों में वेश्यावृति और पोर्न फि़ल्मों आदि को क़ानूनी मान्यता मिल चुकी है और अन्य कई देश इसके लिए ज़ोर लगा रहे हैं। मतलब आधुनिकता के नाम पर औरत एक हाड़-मांस का पुतला बनकर रह गई है, जो कि कंधे से शुरू होकर घुटने पर ख़त्म हो जाती है, जिसे विभिन्न तरीक़ों से मुनाफ़े कमाने और हवस पूरी करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इंसानी रिश्ते, संवेदनाओं और भावनाओं का इस बाज़ार के समाज के लिए कोई मतलब ही नहीं है।
मेहनत-मज़दूरी के सिर पर जीने वाली 70 प्रतिशत आबादी की औरतों के हालात सबसे खराब हैं। कारख़ानों, खेतों, दुकानों और घरों आदि में काम करती ये औरतें ना सिर्फ़ सस्ती मज़दूर हैं, बल्कि इनके काम की जगहों पर भी शर्मनाक ग़ुलामी, छेड़छाड़ तथा बलात्कार जैसी घटनाएँ इनका पीछा नहीं छोड़तीं। विश्व-भर में घंटों तक की जाने वाली मेहनत में औरतों का हिस्सा 67 प्रतिशत है, लेकिन आमदनी में उनका हिस्सा 10 प्रतिशत ही है। भारत में आधे से ज़्यादा औरतें कुपोषण और ख़ून की कमी की शिकार हैं। माहवारी, प्रसव, नसबंदी से लेकर आम बीमारियों संबंधी जानकारी और डॉक्टरी सुविधाओं की पहुँच बहुत कम है। ये औरतें मर्द-प्रधान समाज की ग़ुलामी के साथ-साथ आर्थिक ग़ुलामी भी बहुत बुरे रूप में सह रही हैं।
शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ रही लड़कियों के लिए भी हालत बहुत अलग नहीं हैं। औरतों की बढ़ती चेतना के कारण उन्हें घर से निकल कर पढ़ने का मौक़ा मिल रहा है, लेकिन इसका दूसरा कारण यह भी है कि आज विवाह के नाम पर हो रही सौदेबाज़ी में पढ़ी-लिखी लड़की की हैसियत बढ़ जाती है। शैक्षणिक संस्थानों में पहरावे, घूमने-फिरने, मोबाइल रखने से लेकर होस्टलों की पाबंदियाँ सिर्फ़ लड़कियों पर ही लागू होती हैं। शैक्षणिक संस्थानों में लड़कियों से होने वाली छेड़छाड़, बलात्कार के मामलों में "गुरू" कहे जाने वाले अध्यापक, प्रोफ़ेसर आदि भी पीछे नहीं हैं। यानी मुकाबलतन आज़ाद दिख रहे शैक्षणिक संस्थानों के माहौल में भी ना तो लड़कियाँ आज़ाद हैं और ना ही सुरक्षित।
आज अगर समाज का ये हाल है तो हमें समझना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय स्त्री दिवस की विरासत का हमारे लिए बहुत अधिक महत्व है। हमें इससे प्रेरणा लेकर सदियों की ग़ुलामी की ज़ंजीरों को तोड़ने की इस लड़ाई को आगे बढ़ाना होगा। ये भी समझना चाहिए कि ना तो औरतों को ये समाज आज़ादी, बराबरी तोहफ़े में देगा और ना ही इसके लिए आसमान से कोई फ़रिश्ता उतरकर आएगा, बल्कि इसके लिए पीड़ित औरतों को ही ख़ुद आगे आना होगा। औरतों की ग़ुलामी के कारण निजी संपत्ति पर टिकी इस मुनाफ़ाखोर सामाजिक व्यवस्था से जुड़े हुए हैं, इसलिए औरतों की मुक्ति की इस लड़ाई को इस सामाजिक व्यवस्था को बदलकर समाजवाद की स्थापना के लिए लड़ रहे वर्गों की लड़ाई से भी अवश्य ही जोड़ा जाना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि औरतों की मुक्ति समाजवाद के आने से अपने आप होगी। समाजवाद का अर्थ संपत्ति की निजी मालिकी की व्यवस्था को ख़त्म करना है, जो औरतों की ग़ुलामी का आधार है, इस निजी मालिकी की जगह समाजवाद सामूहिक मालिकी को देता है जो औरतों के लिए आज़ादी और बराबरी की संभावनाओं को तैयार करता है। ऐसे समाजवाद से वे हालात तैयार होंगे जिनमें औरतें आज़ाद हो सकेंगी, लेकिन हज़ारों वर्षों से वर्गीय समाज क़ायम होने के कारण जनमानस के अंदर गहरी धँसी औरत विरोधी मूल्य-मान्यताओं को ख़त्म करने के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण के लंबे अमल की भी ज़रूरत रहेगी।
इस प्रसंग में समाजवादी मुल्क़ों के तजुर्बों पर नज़र डालनी चाहिए। रूस में 1917 की क्रांति के बाद 1956 तक समाजवादी सत्ता क़ायम रही और इसी तरह चीन में 1949 में नई जनवादी क्रांति के बाद 1976 तक समाजवादी सत्ता क़ायम रही। पहले क्रांति की लड़ाई और फिर समाजवाद की स्थापना से इन मुल्क़ों ने औरतों को चूल्हे-चौके की ग़ुलामी से मुक्त करवाकर समाज के सभी क्षेत्रों में बराबरी से घूमने का अवसर दिया। औरतों में अशिक्षा ख़त्म करके उन्हें अध्यापन, विज्ञान, डॉक्टरी, वकालत, रक्षा, उद्योग, खेलों तथा राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में हिस्सा लेने का अवसर मिला। समाजवादी सोवियत यूनियन ने औरतों को वोट का अधिकार दिया। मध्य-युगीन और धार्मिक मान्यताओं के कारण औरतों पर लगी पाबंदियाँ ख़त्म की गईं। तलाक़ के क़ानून को आसान बनाकर, बच्चों की सामूहिक देखभाल, बच्चों के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी उठाने तथा रोज़गार की गारंटी ने औरतों की मर्दों पर किसी भी तरह की निर्भरता को ख़त्म करके उन्हें आत्म-निर्भर और आज़ाद बनने का अवसर दिया। वेश्यावृति की जहालत का पूर्ण तौर पर ख़ात्मा करके उन औरतों को सम्मानपूर्ण जि़ंदगी दी गई। विज्ञापनों, फि़ल्मों और गीतों आदि में औरतों के वस्तुकरण को ख़त्म किया गया, यानी उनके जिस्म को बाज़ार में बेचने वाले या वस्तुएँ बेचने का साधन बनाने वाले अमल को पूरी तरह ख़त्म किया गया। औरतों के शारीरिक सौंदर्य की जगह उनके इंसानी गुणों, क्षमताओं को पहल दी गई, जिसके कारण अपने वजूद को जताने के लिए औरतों को फै़शन का सहारा नहीं लेना पड़ता था।
आज औरतों की मुक्ति या नारीवाद के नाम पर, ख़ास तौर पर शैक्षणिक संस्थाओं और बड़े महानगरों में, फै़शनेबल रुझान काफ़ी चल रहा है। नारीवाद की प्रगतिशील परंपराएँ या विश्व-भर की औरतों की मुक्ति के तज़ुर्बों पर पहरा देने की जगह ये औरतों की औज़ादी को खाने-पीने, पहरावे की आज़ादी या ज़िम्मेदारी से रहित नैतिकता पर लाकर खड़ा करता है और मर्दों को ही असली दुश्मन बनाकर पेश करता है। जो सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के कारण मर्द ऐसे बन जाते हैं या औरतें इस ग़ुलामी में बँध जाती हैं, उसके ख़िलाफ़ ये कुछ नहीं बोलता। ये औरतों की सामूहिक मुक्ति या संगठित सक्रियता की जगह व्यक्तिगत आत्म-विकास या अपने आपको चमकाने पर अधिक ज़ोर देता है। इन औरतों की समस्याओं में घरों, खेतों और कारख़ानों में काम कर रही औरतों की कहीं पर कोई चर्चा नहीं होती, जो कि बहुसंख्या होती हैं। इनके द्वारा सुझाए गए रास्ते इन मज़दूर औरतों के किसी भी काम के नहीं होते। ऐसा नारीवाद प्राथमिक स्तर पर औरतों की ग़ुलामी और भेदभाव के ख़िलाफ़ चेतना तो पैदा करता है, लेकिन इसके ख़िलाफ़ प्रतिरोध का कोई सही रास्ता पेश करने में असमर्थ रहता है। इससे यह मध्यवर्गीय औरतों के एक फै़शनेबल आंदोलन तक सीमित होकर रह जाता है।
इसके उल्ट जब हम स्त्री दिवस के इतिहास की बात करते हैं तो यह ध्यान में रखना चाहिए कि "अंतरराष्ट्रीय स्त्री दिवस" है जो कि ना सिर्फ़ मज़दूर औरतों को केंद्र में रखता है, बल्कि औरतों के सामूहिक और संगठित आंदोलन का संदेश देता है, जो औरतों की ग़ुलामी के लिए ज़िम्मेदार पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष का आह्वान करता है। आज अंतरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के इन अर्थों और समाजवादी मुल्क़ों के तज़ुर्बों को अपनाकर ही औरतों की मुक्ति का कोई आंदोलन सफल और सार्थक हो सकता है।
मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 5 ♦ मार्च 2021 में प्रकाशित
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