दंगों में अपने पुत्रों को खो चुकी माताओं के सिरहाने
गोएबल्स के थनों को पीकर बड़ी हुई बिल्लियां
अमावस की मुर्दनी रात विलाप करती हैं
वे चाहती हैं
हत्यारों का पता न पूछ कर
संवेदना के गीत गाये जाए
न्यायालयों के गुंबदों से लिपटे न्याय के कफन पर
सोहर के गीत उकेरे जाये
वह शराफत की बिल्ली
अदालतों की दीवारों पर मत्थे पटकते हुए रोती है
कि राजा के नेफे से बंधी
कठपुतलियों के महीन धागे को
कलावा की तरह बांध कर
क्यों गाया नहीं जाता
' होइहैं वही जो राम रचि राखा '
शंबूक की छाती में जिसने बाण मारा
उसे वधिक न कह कर उसकी पीठ पर
हतभागियों तुम तुणीर क्यों नहीं सजाते हो
भेड़िए के मुख से टपकते रक्त की धार को
मेमना अपना इतिहास क्यों नहीं मान लेता
आंखों पर जो हजारों साल की बर्फ की पट्टियां बंधी है
उन्हें विचारों के ताप से क्यों पिघलाते हो
बहुरुपियों की बला को कला क्यों नहीं मान लेते हो
जंगलों की हरियाली की हत्या कर
चलो फिर से भोज पत्रों पर
छंदों का नया सौंदर्यशास्त्र लिखा जाए
पूंजी की डायन के पीठ पर सवार
किसी उलूक का राजतिलक किया जाए
मेहनत की चीख कहीं हत्यारों को न डुबो दे
इसके पहले उन्हें
नवों रसों के काले समुद्र में डुबो दिया जाए
विद्रोह के महकते हुए खुशबू को
कलावाद के सड़े हुए नासूर की बदबू से रोक दिया जाए
लकड़बग्घे अपने मठों में खरगोश को दीक्षित कर
सोलहों कलाओं के सौंदर्य का अखंड पाठ करें
पीठ पर बंधे नवजात शिशु की कच्ची धड़कनों को सुनते
पकी ईटों को सर पर ढोती स्त्री के
धरती भर के बोझ को
किसी अप्सरा के केस कुंतलों से हल्का कर
व्यभिचार का नया कोकशास्त्र लिखा जाय
धरती का असली ब्रह्मा अपने पसीने का हक मांगे
और इसके पहले कि उसका पसीना सूखे
चलो छंदों के छल से इंद्रजाल के नए घुंघरू छमछमाया जाए
भांग से लीप दी गई घर की दीवारें कहीं जाग न जाएं
इसके पहले लूट की वेदी पर
साहित्य की शतचंडी का पाठ पढ़ा जाए
परंतु सम्मोहन के शृगालों को यह पता नहीं कि
भूख धरती की एक ऋतु है
जो देह से फूटती है सूर्य की लाली की तरह
और जिसके हरित ताप के उजास से पल्लवित होती हैं
विचारों की सघन बेल
जो अपना सौंदर्य भी गढ़ती है और शमशीर भी
@ जुल्मी राम सिंह यादव
10 सितंबर 2020
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