Thursday, 10 September 2020

मंदी की अंथी सुरंग



लौट आए हैं साहेब हम फिर‌ से,
हम जो‌ आवारा कुत्तों की तरह
लॉकडाउन में दुतकारे गए थे,
अचानक बन गए थे जो अछूत
महामारी फैलाने वाले,
हम जो कल तक शहर चलाते थे
कारखानों का ईंधन बन जाते थे,
पांव-पाव तय कर सफर हजारों मील का
चले गए थे अपने अपने गांव-घर
न लौटने की कसम ले कर !

लौट आए हैं साहेब हम फिर‌ से,
और कोई उपाय था ही क्या ?
मिलती अगर भर पेट रोटी घर में
गांव की बंजर जमीं के गर्भ से
तो पहले ही क्यों आते यहां,
बिलबिलाते‌ भूख से बच्चों का मुंह
इस बार भी देखा न गया
सो लौट आए हैं साहेब इस बार भी !

यहां भी तो गांव सा सन्नाटा पसरा है,
सांस जैसे हलक में अटका है
रहा नहीं याद अब तो
दिन, हफ़्ते, महीनों का हिसाब,
आदमी भी हम हैं या नहीं,
खो गया ये भी कहीं अहसास,
'काम करोगे', तरस गए कान
जाने कब से सुनने को ये‌ आवाज़,
गांव में भी इसी तरह बाट जोहते थे
किसी ठेकेदार की,
शहरी सेठ के दलाल की,
घर में कुछ करवाए की खातिर
बुलाने आते साहूकार की !
ठीक वैसे ही अब यहा इंतजार करते हैं
पल में जीते हैं, पल में मरते हैं
सुबह से शाम हो जाती है 
बुलाने मगर आता नहीं कोई यहां भी,
अक्सर पथरा जाती हैं आंखें,
मजदूरों से अटी इस मंडी में,
न तो काम ही मिलता है
और न ही मातम पसरे घर में
बच्चों की कुलबुलाती
आंतों को थोड़ा सा आराम मिलता है !
 *गुरुचरण सिंह*

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