Saturday, 23 December 2023

लोकसभा में तीन नए बिल पेश

नाबालिग से गैंगरेप पर मृत्युदंड, भड़काऊ भाषण पर 5 साल की सजा… गृहमंत्री अमित शाह ने  आज पेश किए 3 बिल, आसान भाषा समझें !! 
गृहमंत्री अमित शाह ने मंगलवार को लोकसभा में तीन नए बिल पेश किए. सीआरपीसी और आईपीसी की जगह भारतीय न्याय संहिता बिल 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 और भारतीय साक्ष्य विधेयक 2023 को सदन के पटल पर रखा. अमित शाह का कहना है कि इन्हें लाने का लक्ष्य आपराधिक कानूनों में सुधार करना है. इनके जरिए कानून व्यवस्था को बेहतर और सरल बनाया जाएगा.

इन विधेयकों को गृहमंत्री अमित शाह ने मानसून सत्र में पेश किया था. जिसके बाद उन्हें संसदीय स्थायी समिति के पास भेजा गया. जानिए इनके लागू होने पर क्या-क्या बदलाव होगा.
पुराने कानून से क्या समस्या थी, पहले इसे समझें
कानून में IPC, CRPC और इंडियन एविडेंस एक्ट से ऐसे नियम जुड़े हैं जिससे देश में न्याय की प्रक्रिया पर बोझ बढ़ रहा है. इसे कम करने के लिए नए बिल लाए गए हैं. वर्तमान में आर्थिक रूप से पिछड़े लोग न्याय से वंचित रह जाते हैं और ज्यादातर मामलों में दोषी साबित नहीं हो पाते. नतीजा, जेल में कैदियों की संख्या बढ़ रही है. इसे कम करने के लिए नए बिल लाए गए हैं. ये बिल कानून का रूप लेते हैं तो जटिलताएं कम होंगी.
नए बिल में कितना बदलाव हुआ?
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023: इसमें 533 धाराओं को शामिल किया गया है. ये सीआरपीसी की 478 धाराओं की जगह लेंगी. 160 धाराओं में बदलाव किया गया है. इसके अलावा 9 नई धाराएं जुड़ी हैं और 9 पुरानी धाराओं को हटाया गया है.
भारतीय न्याय संहिता 2023: इसमें आईपीसी की 511 धाराओं की जगह 356 धाराएं लेंगी. इसमें कुल 175 धाराओं में चेंजेस किए गए हैं. बिल में 8 नई धाराओं को जोड़ा गया है और 22 धाराओं को निरस्त किया गया है.
भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023: इसमें 167 पुरानी धाराओं की जगह 170 धाराएं रहेंगी. इसके अलावा इसकी 23 धाराओं में बदलाव किया गया है. 1 नई धारा को शामिल किया गया और 5 धाराओं को हटा दिया गया है.
आसान भाषा में ऐसे समझें 15 बड़े बदलाव
1 भड़काऊ भाषण पर 5 साल की सजा: भड़काऊ भाषण और हेट स्पीच को अपराध के दायरे में लाया गया है. अगर कोई इंसान ऐसे भाषण देता है तो उसे तीन साल की सुनाई जाएगी. इसके साथ जुर्माना भी लगेगा. अगर भाषण किसी धर्म या वर्ग के खिलाफ होता है तो 5 साल की सजा का प्रावधान है.
2 गैंगरेप में दोषी को आजीवन कारावास: नए बिल के तहत गैंगरेप के दोषियों को 20 की सजा या आजीवन कारावास की सजा सुनाई जा सकती है. अगर दोषी 18 साल से कम उम्र की बच्ची के साथ ऐसा करता है तो उसे मृत्युदंड देने का प्रावधान है..
3 मॉब लिंचिंग पर 7 साल की सजा: अगर 5 या इससे ज्यादा लोगों का समूह किसी की जाति, समुदाय, भाषा और जेंडर के आधार पर हत्या करता तो हर दोषी को मौत या कारावास की सजा दी जाएगी. वहीं, इस मामले से जुड़े दोषी को कम से कम 7 साल की सजा के साथ जुर्माना भी लगाया जा सकता है.
4 भगौड़ों की अनुपस्थिति में जारी रहेगा ट्रायल: भगौड़े देश में हों या नहीं, दोनों की मामलों में ट्रायल जारी रहेगा. उनकी सुनवाई होगी और सजा सुनाई जाएगी.
5 मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदलेगी: नए बिल में एक बड़ा प्रावधान यह भी जोड़ा गया है कि अगर दोषी को मौत की सजा दी जाती है तो उसकी सजा को आजीवन कारावास में बदला जा सकेगा.
6 कोर्ट देगा कुर्की का आदेश: अगर किसी मामले में संपत्ति की कुर्की होती है तो उसका आदेश कोर्ट देगा, पुलिस का कोई अधिकारी नहीं.
7 ऑनलाइन मिलेगी मुकदमों की जानकारी: आम इंसान को एक क्लिक पर मुकदमों की जानकारी मिल सकेगा, इसलिए 2027 तक देश की सभी कोर्ट को ऑनलाइन कर दिया जाएगा ताकि मुकदमों का ऑनलाइन स्टेटस मिल सके.
8 गिरफ्तारी हुई तो देनी होगी परिवार को सूचना: किसी भी मामले में आरोपी को गिरफ्तार किया जाता है तो उसकी सूचना परिवार को देना अनिवार्य होगा. इतना ही नहीं, 180 दिन के अंदर जांच को खत्म करके लिए ट्रायल के लिए भेजना होगा.
9 120 दिन में आएगा ट्रायल का फैसला: किसी पुलिस अधिकारी के खिलाफ कोई ट्रायल चलाया जा रहा है तो इसको लेकर 120 दिन में अंदर फैसला लेना होगा. यानी न्यायिक मामलों की रफ्तार बढ़ेगी.
10 बहस पूरी हुई तो एक माह में अंदर आएगा फैसला: अगर किसी मुकदमे में बहस खत्म हो चुकी है तो एक महीने के अंदर कोर्ट को फैसला देना होगा. फैसले की तारीख के 7 दिन के अंदर इसे ऑनलाइन उपलब्ध भी कराना होगा.
11 चार्जशीट 90 दिन में फाइल होगी: बड़े और गंभीर अपराध से जुड़े मामले में पुलिस को तेजी से काम करना होगा. उन्हें 90 दिन के अंदर चार्जशीट को फाइल करना होगा. अगर कोर्ट मंजूरी देती है तो समय 90 दिन तक बढ़ाया जा सकता है.
12 पीड़िता के बयान की रिकॉर्डिंग: अगर मामला यौन हिंसा से जुड़ा है कि पीड़िता के बयान की वीडियो रिकॉर्डिंग होगी. यह अनिवार्य होगा.
13 क्राइम सीन पर फॉरेंसिक टीम अनिवार्य: ऐसे अपराध जिसमें 7 साल या इससे अधिक की सजा का प्रावधान है, उनमें क्राइम सीन पर फॉरेंसिक टीम का पहुंचना अनिवार्य होगा.
14 बिना गिरफ्तारी के लिया जाएगा सैम्पल: अगर किसी मामले में ब्लड सैम्पल लिया जाना है तो उसके लिए गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं होगी. मजिस्ट्रेट के ऑर्डर के बाद आरोपी की हैंडराइटिंग, वॉयस या फिंगर प्रिंट के सैम्पल लिए जा सकेंगे.
15 अपराधी का रिकॉर्ड होगा डिजिटल: हर पुलिस स्टेशन और जिले में एक ऐसा अधिकारी नियुक्त किया जाएगा जो अपराधियों के काले चिट्ठे का रिकॉर्ड रखेगा.


क्या सिर्फ़ काग़ज़ात पूछोगे?

क्या सिर्फ़ काग़ज़ात पूछोगे?

आज धर्म पूछोगे, कल जात पूछोगे
कितने तरीक़ों से मेरी औक़ात पूछोगे

मैं हर बार कह दूँगा, यही वतन तो मेरा है
घुमा फिरा के तुम भी तो वही बात पूछोगे

सच थोड़े ही बदलेगा पूछने के सलीकों से
थमा के क़ुरान या फिर जमा के लात पूछोगे

मेरी नीयत को तो तुम कपड़ों से समझते हो
लहू का रंग भी क्या अब मेरे हज़रात पूछोगे

मैं यहीं था 84 में, 93 में, 02 में, 13 में
किस किस ने बचाया मुझे उस रात पूछोगे

तुम्हीं थे वो भीड़ जिसने घर मेरा जलाया था
अब तुम्हीं मुझसे क़िस्सा-ए-वारदात पूछोगे

ज़बान जब भी खुलती है ज़हर ही उगलती है
और बिगड़ जाएँगे ग़र तुम मेरे हालात पूछोगे

पुरखों की क़ब्रें, स्कूल की यादें, इश्क़ के वादे
कुछ देखोगे सुनोगे या सिर्फ़ काग़ज़ात पूछोगे

~ सुमित सपरा

Friday, 22 December 2023

नई आपराधिक कानून प्रणाली

नई आपराधिक कानून प्रणाली
पुराने औपनिवेशिक कानूनों से ज्यादा दमनकारी साबित होंगे नए फासीवादी काल के कानून

सिद्धांत,  'यथार्थ', अगस्त 2023

मोदी सरकार ने संसद के 2023 मानसून सत्र के अंतिम दिन लोक सभा में देश की आपराधिक (क्रिमिनल) कानून प्रणाली का "कायापलट" करने के दावे के साथ तीन नए विधेयक प्रस्तुत किए। भारत में आपराधिक कानून प्रणाली को संचालित करने हेतु मुख्यतः तीन कानून हैं – भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी), आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी), और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (इंडियन एविडेंस ऐक्ट)। जो तीन नए विधेयक लाए गए वह पारित हो जाने पर इन तीनों कानूनों को प्रतिस्थापित करेंगे।

आईपीसी के बदले "भारतीय न्याय संहिता", सीआरपीसी के बदले "भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता" और इंडियन एविडेंस ऐक्ट के बदले "भारतीय साक्ष्य अधिनियम"।

अभी यह विधेयक पारित नहीं हुए हैं और संसदीय स्थाई (स्टैंडिंग) कमेटी के समक्ष भेजे गए हैं। हालांकि पूर्व मिसालों की माने तो ऐसे बड़े दावे के साथ लाए गए विधेयक भी संसद के अगले सत्र में ही बिना बहस के सरकार द्वारा पारित करवा दिए जाएंगे। अतः यह समझना जरूरी है कि इन कानूनों में क्या ठोस बदलाव प्रस्तावित हैं और उसके क्या मायने हैं।

प्रथम दृष्टया गौरतलब बात यह है कि तीनों विधेयकों के नाम केवल हिंदी में हैं। यह अभूतपूर्व है कि संसद में पेश विधेयकों के नाम केवल हिंदी में प्रस्तुत हुए हैं जबकि संविधान के अनुछेद 348 में यह निर्दिष्ट है कि संसद से पारित सभी अधिनियम अंग्रेजी भाषा में होंगे। अतः यह नामकरण असंवैधानिक तो है ही, साथ ही विविध भाषाओं व राष्ट्रीयताओं से समावेशित इस देश में "हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान" के फासीवादी अजेंडे के तहत एक भाषा थोपने का ही एक और उदाहरण है।

अगर प्रावधानों की संख्या की बात करें, तो आईपीसी की 511 धाराओं के बदले भारतीय न्याय संहिता में कुल 356 धाराएं हैं। वहीं नागरिक सुरक्षा संहिता में सीआरपीसी की 478 धाराओं के बदले 533 धाराएं हैं, तथा साक्ष्य विधेयक में पुराने अधिनियम की 167 धाराओं के बदले 170 धाराएं हैं। हालांकि "कायापलट" और औपनिवेशिक "गुलामी की मानसिकता को तिलांजलि देने" के दावे के साथ लाए गए इन तीन कानूनों में ज्यादातर प्रावधान पुराने कानूनों से हूबहू लिए गए हैं। लेकिन जो परिवर्तन या जोड़ किए गए हैं वह महत्वपूर्ण और गंभीर हैं।

संसद में गृहमंत्री अमित शाह द्वारा इन विधेयकों को पेश करते हुए दिए गए बयानों में जो सबसे अधिक प्रचलित हुआ वो था राजद्रोह (सेडिशन) कानून रद्द करने के ऊपर। यह सच है कि नई न्याय संहिता में राजद्रोह का जिक्र नहीं है, परंतु धारा 150 में भारत की "संप्रभुता, एकता व अखंडता" को खतरे में डालने वाली गतिविधियों के खिलाफ जो प्रावधान लाया गया है, वह पुराने राजद्रोह कानून से भी अधिक दमनकारी साबित होगा। पहली बात कि अन्य प्रावधानों की तरह इसे भी अस्पष्ट बनाया गया है। इतना ही स्पष्ट बताया गया है कि "अलगाववादी गतिविधि, सशस्त्र विद्रोह, "विनाशक" (subversive) गतिविधि या ऐसी गतिविधि जिससे भारत की "संप्रभुता, एकता व अखंडता" को खतरा पहुंचे" में शामिल होना या भड़काना अपराध है जिसपर 7 वर्षों तक या आजीवन कारावास की सजा होगी। एक तरफ तो "अलगाव" को अपराध घोषित कर के पहले से ही जिन राष्ट्रीयताओं के आत्म-निर्णय के अधिकार को दमन के बल पर कुचल देने की कार्रवाई जारी थी उसे कानूनीजामा पहनाया गया है, वहीं दूसरी तरफ यह अस्पष्ट छोड़ दिया गया है कि अलगाव व सशस्त्र विद्रोह के अलावा आखिर किस गतिविधि को "संप्रभुता, एकता, अखंडता" को खतरा पहुंचाने वाला माना जाएगा और किसे विनाशक ("subversive") माना जाएगा।

जनतांत्रिक न्याय व्यवस्था का यह सामान्य नियम है कि आपराधिक कानून संकीर्णतम शब्दों में परिभाषित हों ताकि न्याय प्रक्रिया व्यक्तिपरक न हो कर वस्तुगत व निष्पक्ष रहे, अन्यथा कानूनों को अस्पष्ट छोड़ देने से पूरी प्रक्रिया जज, वकील, पुलिस आदि के विवेक पर निर्भर हो जाती है। कुल मिला कर ऐसे प्रावधानों के रहने से पुलिस के पास किसी को भी गिरफ्तार कर लेने की पूरी छूट मिल जाती है। आज जब जनतंत्र के लगभग सभी संस्थाओं व निकायों पर सत्तासीन आरएसएस-भाजपा का भीतर से कब्जा हो चुका है, तो ऐसे में किसी भी व्यक्ति को इन अस्पष्ट लेकिन खतरनाक कानूनों के जरिए दबोचा जा सकता है और इसका मुख्य नियंत्रण राज्य के हाथों में होगा। इसके साथ ही, नए प्रावधान में उपरोक्त गतिविधि को भड़काने में शामिल होने के अर्थ को भी विस्तार दिया गया है। इसके तहत केवल भौतिक/शारीरिक रूप से गतिविधि में उपस्थित व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि ऑनलाइन लिखने वालों या महज आर्थिक सहयोग करने वालों को भी गतिविधि भड़काने में शामिल माना जा सकेगा!

यह भी उल्लेखनीय है कि इसी दिशा में आपराधिक कानूनों में एक और "सुधार" मोदी सरकार ने एक वर्ष पहले ही संसद से आपराधिक दंड प्रक्रिया (पहचान) बिल पारित करवा कर किया था (जो अब कानून बन चुका है)। यह कानून पुलिस व जांच एजेंसियों को ना सिर्फ दोषियों से बल्कि महज गिरफ्तार हुए व्यक्तियों (जिनका दोष सिद्ध होना या न होना बाकी है) से भी बायोमेट्रिक एवं व्यवहारिक डाटा (जैसे फिंगरप्रिंट, रेटिना स्कैन, लिखावट, हस्ताक्षर, तथा अन्य भौतिक व जैविक सैंपल) इकट्ठा करने का अधिकार प्रदान करता है, जिसे 75 सालों तक संग्रहीत किया जा सकता है!

नई न्याय संहिता की धारा 111 में पहली बार आतंकवादी गतिविधि को परिभाषित किया गया है। इस प्रावधान की बनावट भी इतनी व्यापक है कि इसका इस्तेमाल जनता के जुझारू आंदोलनों, रैलियों, जुटानों आदि को कुचलने और आंदोलनकारियों व नेतृत्वकारी तत्वों को आतंकवादी घोषित कर आजीवन कारावास की सजा देने के लिए किया जा सकता है। यहां तक कि इस प्रावधान में ऐसी गतिविधि से किसी भी रूप से संबंधित संपत्ति को भी जब्त करने का अधिकार राज्य को दिया गया है। गौरतलब है कि इस व अन्य कुछ प्रावधानों की अंतर्वस्तु यूएपीए जैसे काले जन-विरोधी कानूनों से काफी हद तक ली गई है।

सीआरपीसी की जगह लेने वाली नागरिक सुरक्षा संहिता में अब अभियुक्त की अनुपस्थिति के बावजूद कानूनी मुकदमे की संपूर्ण प्रक्रिया चलाने व संपन्न करने का प्रावधान लाया गया है। यानी बिना निष्पक्ष सुनवाई के सजा नहीं देने के प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को भी नकार दिया गया है। गौरतलब है कि यह प्रावधान भी यूएपीए कानून से लिया गया है। साथ ही संपूर्ण मुकदमे की प्रक्रिया को ऑनलाइन (विडियो कांफ्रेंसिंग के) माध्यम से चलाने का विकल्प भी जोड़ दिया गया है, जिसमें साक्ष्य रिकॉर्ड करने की प्रक्रिया भी शामिल है।

नागरिक सुरक्षा संहिता में सबसे खतरनाक प्रावधानों में से एक है पुलिस हिरासत की समयसीमा का विस्तार। यह सर्वविदित है कि पुलिस हिरासत के दौरान अभियुक्त से जबरन दोष-स्वीकृति (confession) या सादे कागज पर हस्ताक्षर करवाने हेतु अमानवीय यातनाओं का इस्तेमाल किया जाता है। सीआरपीसी के तहत पुलिस हिरासत की अधिकतम समयसीमा गिरफ्तारी से 15 दिनों तक की थी, लेकिन सुरक्षा संहिता में इसे अपराध के अनुसार 60 से 90 दिनों तक बढ़ाया जा सकेगा। अन्य समय सीमाओं को भी प्रस्तावित किया गया है जैसे दलील प्रक्रिया संपन्न हो जाने के 30 दिनों के भीतर न्यायालय द्वारा फैसला सुना देने की सीमा। परंतु वर्तमान पूंजीपरस्त न्याय प्रक्रिया, जो आर्थिक गैर-बराबरी के आधार पर खड़ी है, जिसमें करीब 5 करोड़ केस लंबित हैं, जजों की भारी कमी है, न्यायपालिका पर कार्यपालिका (सरकार) का भारी दबाव व हस्तक्षेप है, में बिना कोई संरचनात्मक सुधार के महज कानून में प्रावधान जोड़ते जाने से कोई बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है। वर्तमान सीआरपीसी में भी अभियुक्त के विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में रहने की समयसीमा तय है जो अधिकतम 60 से 90 दिन है, जिसके बाद उसे बेल का अधिकार मिल जाता है। लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि आज देश में कुल कैदियों में से 77% विचाराधीन कैदी हैं! इनमें से एक बड़ा हिस्सा कई सालों से जेल में कैद हैं, केवल इसलिए क्योंकि उनके ऊपर आरोप है और न्याय प्रक्रिया उस आरोप पर फैसला नहीं कर पा रही है। यह खबरें भी आम बन गई हैं कि न्यायालय द्वारा रिहाई का फैसला आने पर वो मासूम लोग दोषमुक्त साबित हो कर जेल से अंततः बाहर आए जो 10 से 20 सालों तक विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में कैद थे, और जिनमें से कुछ की गिरफ्तारी के वक्त उम्र 18 वर्ष से भी कम थी! समयसीमा की नजर से अन्य प्रावधानों को देखें तो मृत्युदंड रोकने हेतु राज्यपाल व राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दायर करने पर भी 30 व 60 दिनों की समयसीमा लगा दी गई है।

न्याय संहिता में कुछ नए अपराधों के भी प्रावधान जोड़े गए हैं जैसे मॉब लिंचिंग, नफरत के आधार पर किए गए अपराध, "कपटपूर्ण साधनों" से यानी पहचान छुपा कर यौन संबंध बनाना आदि। तीसरा प्रावधान तो "लव जिहाद" के फासीवादी अजेंडे को और तेज करने तथा अंतर-धार्मिक विवाह करने वाले आम लोगों को कानूनी रूप से उत्पीड़ित करने के लिए ही लाया गया है। पहले दो प्रावधानों को लें, तो यह विडंबना ही है कि जिस आरएसएस-भाजपा की सरकार ने नफरत के आधार पर एक पूरे प्रतिक्रियावादी सामाजिक आंदोलन को खड़ा किया है जिसके लिए मॉब लिंचिंग अपने अजेंडे को आगे बढ़ाने का ही एक साधन है, वह आडंबरपूर्ण रूप से इन्हीं गतिविधियों के खिलाफ कानून ला रही है। इसका तत्काल कारण सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसे कानून की स्थापना को लेकर हाल में बने दबाव को बताया जा रहा है, लेकिन असल में यह सत्तासीन फासीवादी ताकतों द्वारा जनतंत्र के बचे-खुचे परदे को थोड़ा साफ करने भर की कोशिश है, ताकि आम जनता और समाज के न्यायपक्षीय बुद्धिजीवी तबके के समक्ष जनतंत्र के सुरक्षित होने का झूठा दावा बरकरार रखा जा सके। यही कारण है कि सेडिशन कानून का सबसे आक्रामक इस्तेमाल करने वाली, यूएपीए को और भी दमनकारी बनाने वाली, श्रम कानूनों, आरटीआई, जैसे जनवादी कानूनों को निरस्त करने वाली, और जनपक्षीय आवाजों/आंदोलनों को बर्बर रूप से कुचलने वाली यह सरकार सेडिशन कानून को "निरस्त" करते हुए संसद में कहती है कि "यहां लोकतंत्र है और सबको बोलने का अधिकार है"। जैसे 2013 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर बने कड़े कानूनों के बावजूद उसके बाद महिलाओं के खिलाफ अपराध और बढ़ गए, कुछ वैसा ही हाल इन कानूनों के साथ भी होता हुआ दिखने की पूरी संभावना है।

पूंजीवाद की स्थापना के बाद से ही निजी संपत्ति (पूंजी) की रक्षा और उसकी शोषण पर टिकी उत्पादन व्यवस्था के सुचारु परिचालन हेतु ही पहले विकसित राज्यों और बाद में औपनिवेशिक शासनों से मुक्त हुए देशों में एक सामान्य न्याय प्रणाली (न्यायालय, कानून, पुलिस आदि) की स्थापना की गई थी। उसके तहत ही आईपीसी सीआरपीसी जैसे कानून भारत में आए। पूंजीवाद के संकट में पड़ने यानी बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे पर संकट छाने की स्थिति में इस प्रणाली का इस्तेमाल भी जनता पर और आक्रामक रूप से किया जाता रहा। परंतु आज जब पूरे विश्व में पूंजीवादी व्यवस्था एक अनुत्क्रमणीय संकट में फंस चुकी है तो शासन करने के पुराने तरीके काम नहीं आ रहे हैं। इसी संकट का नतीजा है कि मजदूर मेहनतकश वर्ग का शोषण और तेज करने तथा जनता के प्रतिरोध को पूरी तरह कुचलने हेतु भारत सहित पूरे विश्व में घोर दक्षिणपंथी तथा फासीवादी सरकारें शासन में आ रही हैं और जनतंत्र संकुचित या समाप्त होने की कगार पर पहुंच रहा है। इसी "विकास" का परिचायक है जनतांत्रिक निकायों पर कब्ज़ा, श्रम कानूनों को ध्वस्त कर लेबर कोड का आगमन, कृषि कानूनों का कार्यान्वयन, और अब आपराधिक कानून में यह "सुधार"।

हालांकि गहराते संकट के दौर में क्योंकि मोदी सरकार भी जनता का जीवनस्तर थोड़ा भी बेहतर करने में असमर्थ है, इस कारण से धार्मिक नफरत, अंधराष्ट्रवाद, और औपनिवेशिक काल विरोधी लफ्फाजी (rhetoric) इसके आखिरी सहारे बन गए हैं। नया संसद भवन, राजपथ के बदले कर्तव्य पथ, शहरों/सड़कों/भवनों का नव नामकरण, और अब आईपीसी सीआरपीसी के बदले यह भारतीय संहिताएं आदि इसी एजेंडा के तहत लाए जा रहे हैं। जबकि असलियत है कि इन आपराधिक संहिताओं (जिनका अधिकतर हिस्सा उन्हीं औपनिवेशिक कानूनों से हूबहू लिया गया है) में औपनिवेशिक कानूनों से भी दमनकारी और खतरनाक प्रावधान जोड़े गए हैं जो, श्रम संहिताओं की तरह ही, मजदूर वर्ग और आम जनता को जनतांत्रिक समाज से सैकड़ों साल पीछे धकेल नागरिक से प्रजा में तब्दील करने की क्षमता रखते हैं और इसी मंशा से लाए गए हैं।

Saturday, 9 December 2023

उसका चेहरा दमक रहा है

कड़ी मेहनत के पसीने से उसका चेहरा दमक रहा है,
लेकिन पसीने और गंदगी के नीचे आशा और हंसी की मुस्कान छिपी हुई है।

उसके हाथ वर्षों की मेहनत के कारण कठोर हो गए हैं,
लेकिन वे अभी भी बहुत प्यार और देखभाल करने में सक्षम हैं।

कठिनाइयों का सामना करने के बावजूद उसका दिल मजबूत है,
और यह अपने परिवार और अपने लोगो के लिए प्यार से धड़कता है।

ओह, काश कि श्रमिकों का जीवन खुशियों से भरा होता, जैसे उनके चेहरे पर रोशनी होती है और उनका दिल जोश से भरा होता है!

तब दुनिया सभी के लिए एक बेहतर जगह होती, और उसकी मुस्कान सभी के देखने और अनुसरण करने के लिए, आशा की किरण होती! 

Thursday, 7 December 2023

शहादत दिवस

समय निकाल कर जरुर पढ़े ।
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पिछले कई बरसों से भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु व सुखदेव इत्यादि के शहादत दिवस मनाने का रिवाज बढ़ रहा है । चंद्रशेखर का शहादत दिवस 27 फरवरी को और भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव का 23 मार्च को। ऐसा करना अच्छा है, करना भी चाहिए ।

परंतु उनके शहादत दिवस को मनाना क्या केवल इस हद तक सीमित हो कि उस दिन विभिन्न लोग इकट्ठे हो। चंद्र लोग उनकी बहादुरी त्याग, बलिदान के गीत व कविताएं गायें व दूसरे लोग नाटक करें, और चंद एक बुद्धिजीवी उनके त्याग --- बलिदान के साथ-साथ उनके विचारों और सिद्धांतों की अपने भाषणों में चर्चा करें और ऐसा करके सब लोग प्रसन्नचित हों कि उन्होंने शहीदों का शहादत दिवस मनाकर एक महान कार्य किया है ? 

क्या शहीदों का महत्व केवल उनकी याद करना गाने --गाना व भाषण देने तक ही सिमित होना चाहिए, अथवा इसका कुछ दूसरा महत्व भी होना चाहिए ? इस प्रश्न का सर्वाधिक न्यायोचित उत्तर उन शहीदों से ही मिल सकता है ।

कैसे ?  उन्होंने अपने विचारों को केवल विचार जगत तक ही सीमित नहीं रखा था । केवल बहसे चर्चाएं नहीं की थी । केवल नाटक भाषण ही नहीं किए थे, बल्कि इसके एकदम विपरीत उन्होंने अपने विचारों को व्यवहारों में उतारा था। 

उनके विचार व व्यवहार अलग-अलग या परस्पर विरोधी नहीं थे;  बल्कि एक जैसे थे । आज हम उनके विचारों की चाहे जैसे भी आलोचनाएं अथवा प्रशंसायें कर ले, परंतु यह आलोचना कोई माई का लाल नहीं कर सकता कि उन्होंने अपने विचारों को व्यवहारों में नहीं उतारा था अथवा उनके विचारों व व्यवहारों में अन्तर्भेद था । 

उदाहरणर्थ : शहीदों में से कई एक शहीद अगर धार्मिक थे जैसे ---राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाकउल्ला खान तो उन्होंने इसे कभी नहीं लुगाया छुपाया‌।  दूसरी ओर यदि भगत सिंह इत्यादि  गैर धार्मिक अधर्मी थे तो इसे भी उन्होंने खुलकर कहा और धार्मिक भावना वाले शहीदों की आलोचनाएं करते हुए उनके बहादुरी व बलिदानों की हिकभर प्रशंसायें की। उनमें कहीं कोई आपसी दुराव --मनमुटाव नहीं था, ऐसी दर्जनों उदाहरण मिलेंगे।

इसीलिए उन्हीं से सबक सीखते हुए हमें सोचना विचारणा चाहिए कि क्या हम उन शहीदों की याद में केवल नाटक करें ? केवल भाषण बहस करें, गायें बजाएं, चाहे भगत सिंह, चंद्रशेखर की याद में अथवा बिस्मिल, रोशन की याद में अथवा खुदीराम बोस, सूर्य सेन की याद में अथवा इनसे पहले के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की याद में ?

क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं है कि हम भी अपने विचारों असूलों के अनुसार व्यवहारिक आचरण भी बनायें ? अपन से पूछें कि क्या हम उन शहीदों को मनाते हुए उनके विचारों व उद्देश्यों का समर्थन करते हैं तो क्या आज हम उनके विचारों व उद्देश्यों को लागू करते हैं ? अथवा उन्हें लागू करने हेतु प्रयासरत है ? अथवा ऐसे प्रश्नों को टालते टकराते रहते हैं ? शहीदों को याद करके केवल मौज मेला मनाते हैं, जैसे कई अन्य बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता करते रहते हैं जब वे नेहरू जयंती, लोहिया जयंती, गांधी जयंती, अंबेडकर जयंती मनाते हैं तथा रामलीला व कृष्ण लीला करने वाले नाटक करते हैं ? हमारा कर्तव्य है इस प्रश्न पर अवश्य सोचें ।

हम इसी संदर्भ में  निम्नलिखित सुझाव या प्रश्न आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं ।

सर्वप्रथम भगत सिंह, चंद्रशेखर, सुखदेव, दोहरा इत्यादि के "हिसप्रस" नामक संगठन के विचारों व उद्देश्यों को जान लें, ये निम्नलिखित थे । 

(1)  ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विदेशी शासन से हिंदुस्तान को स्वतंत्र करवाना और इस उद्देश्य के वास्ते निरंतर जुझारू संघर्ष करना।

(2) जब उन्होंने यह देखा कि स्वतंत्रता आंदोलन की अगुआ पार्टी ---गांधी, नेहरू, पटेल की कांग्रेस हर आंदोलन के पश्चात अंग्रेजों से समझौता कर लेती है । आंदोलन वापस लेती है और जो समझौता होता है वो समझौता यहां के आम लोगों के हितों में नहीं होता केवल भारती पूजीपतियों के हितों में होता है तो भगत, चंद्रशेखर इत्यादि इत्यादि ने नया निर्णय करके नया उद्देश्य बनाया।  वह यह था कि ऐसे समझौतों व समझौतावादियों का विरोध हो और इन्हें नंगा किया जाए । ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का राज खत्म करने के साथ ही भारतीय पूंजी पतियों का भी विरोध हो अतः पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा कर दिया जायें। 

(3) इसी संदर्भ में निर्णय हुआ कि पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़कर इसकी जगह समाजवादी व्यवस्था कायम जाय, जिसमें मजदूरों,किसानों का राज हो ।

(4)  इस उद्देश्य के वास्ते  मजदूर, किसान व मध्यम वर्गीय सतत् वर्ग संघर्ष चलायें जो त्याग व बलिदान की भावना से भरे हो ।

(5) उन्होंने यह भी देखा कि अंग्रेज शासक स्वतंत्रता आंदोलन को बांटने व तोड़ने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक झगड़े व तनाव पैदा करते रहते हैं। अफसोस यह है कि कई धर्मों पर आधारित भारती दल भी यही कार्य करते हैं, जैसे ------मुस्लिम लिंग, हिंदू महासभा, समाचार पत्र सांप्रदायिकता भड़काने रहते हैं । पूजीपति इसमें हाथ सेकते हैं ।
ऐसी स्थिति में स्वतंत्रता आंदोलन की एकता हेतु आवश्यक है कि संप्रदायवादी व धर्मवादी दलों व उसके नेताओं का विरोध हो। भड़काऊ समाचार पत्रों का विरोध हो। पूजीपतियों का विरोध हो। (भगत सिंह का संप्रदायिकता पर लिखे लेख देखिए )

(6) उन्होंने यह भी देखा कि इस देश की सदियों पुरानी ऊंच-नीच व छुआछूत जैसे भेदभाव करने वाली जातिवादी व्यवस्था समाज को भीतर से बांटे रहती है । निचली जातियों का ऊंची जातियों द्वारा शोषण दोहन होता है । इस जातिवाद का अंत करना भी क्रांतिकारियों ने अपना एक उद्देश्य बनाया।  इस संदर्भ में उन्होंने खुलकर यह भी कहा कि हमें उन जातिवादी नेताओं से अलग व दूर रहना चाहिए जो जातिवादी दूर करने के नाम पर इसका राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे हैं। 

संक्षेप में उपरोक्त 6 विचार व उद्देश्य उनके पूरे चारित्रिक गुणों को दर्शाते हैं । अब प्रश्न है क्या आज हम उन विचारों व उद्देश्यों को सत्य, सही व प्रासंगिक मानते हैं ? कहने के नाम पर चारों ओर से एक ही उत्तर आता है । सभी का कहना है कि वे उनके विचारों का पूर्णतया समर्थन करते हैं तथा इन्हें प्रसांगिक भी मानते हैं । तब प्रश्न होगा कि क्या हम उन्हें अपने जीवन के व्यवहारों व विचारों में लागूं करते हैं  ? अथवा ---बहसों में तो मानते हैं, परन्तु जीवन में लागू नहीं करते ।

उदाहरणार्थ,  उपरोक्त विचारों के संदर्भ में हम आपके सामने निम्नलिखित प्रश्न रखते हैं ---

(1) क्या हम धार्मिक रूढ़ियों व रूढ़िवादी रीति-रिवाजों और परंपराओं का विरोध करते हैं ? अथवा किसी न किसी बहाने स्वयं भी उससे भागीदार हुए रहते हैं ? जैसे ---नाना प्रकार के वहमों से भरे हुए पूजा-पाठ कर्मकांड के रीति रिवाज आदि ।
इस संदर्भ में अगला राजनीतिक व सामाजिक प्रश्न ---क्या हम भगत सिंह इत्यादि की तरह धार्मिक व सांप्रदायिकतावादी पार्टियों व दलों और उनके नेताओं का विरोध करते हैं ? अथवा कथनी व भाषण चर्चा में तो करते हैं, परंतु मौका आते ही अपने स्वार्थ वंश या किसी दबाववश संप्रदायवादी पार्टियों व नेताओं से तालमेल, समझौतों या परस्पर प्रेम करते रहते हैं ? सो भी अपनी मजबूरियों का बहाना बनाकर ?

(2) क्या  हम जातिवादी छुआछूत व अन्य भेदभाव का विरोध करते हैं ? अथवा करते तो हैं परंतु जब अपने से छोटी व निकली जातियों से भाईचारे व बराबरी करने का व्यवहारिक मौका आता है तो हम उनसे भेदभाव करने लग जाते हैं और केवल अपने से ऊंची जातियों के ही भेदभाव का विरोध करते हैं, जिससे हम खुद प्रताड़ित होते हैं ? इसकी दूसरी उदाहरण भी है 

---- एक ओर धार्मिक कर्मकांडोंं का तो विरोध करना परंतु दूसरी ओर पैसा, कुर्सी सरकारी या गैर सरकारी पद प्रतिष्ठा मिलने पर अपनी उच्चता का दिखावा करने हेतु उन्हीं धार्मिक कर्मकांडों को करना व करवाना जिनका विरोध हम वैचारिक जगत में करते हैं । ऐसे दोहरे पन वाले चरित्र केवल ऊंची जातियों के लोगों में ही नहीं है, मध्य जातियों के कुनवीयों, यादव, कोइरियों से लेकर पढ़े-लिखे हरिजनों में  भी फैलतें जा रहे हैं ।  ये लोग भी अपने से निचली जातियों के लोगों से अन्तर्भेद बनाते रहते हैं और अपने से ऊंची जातियों के लोगों के साथ परस्पर प्रेम व ताल मेल बढ़ाते रहते हैं ताकि उन्हें भी दिखने की श्रेष्ठता मिलें। 
क्या ऐसे लोगों को भगत सिंह इत्यादि के शहादत दिवस मनाने चाहिए ?

(3) भगत सिंह इत्यादि का उद्देश्य था ---विदेशी साम्राज्यवाद के साथ साथ भारती पूंजीवाद के विरोध में वर्ग संघर्ष चलाना ताकि पूंजीवादी व्यवस्था का अंत हो और मजदूर, किसान राज कायम हो। क्या हम इस विचार व उद्देश्य को अपने निजी व संगठनिक जीवन में लागू करते हैं ?  इस प्रश्न का उत्तर व्यवहारिक उदाहरण से सोचें ।

पूंजीवाद का मतलब है ----एक ऐसी समाज व्यवस्था जो पैसे पूजी पर तथा पैसे-पूजी से मालों सामानों की खरीद बिक्री पर आधारित हो, और जिसमें मजदूरों, किसानों व मध्य वर्गी श्रमिक जनता का शोषण दोहन होता हो, और उसी शोषण दोहन से पूंजी बनती व बढ़ती हो, खरीद बिक्री के बाजार में मानवीय बौद्धिक व शारीरिक श्रम भी वैसे ही खरीदा बेचा जाता हो जैसे कि बेजान माल व समान खरीदे व बेचे जाते हैं। 
अत: इसका परिणाम यह हो कि जिसके पास जितना अधिक पैसा-पूजी हो वह उतना ही अधिक मजदूरों, किसानों के शोषण दोहन से बड़ा धनी बने , बड़ा पूंजीपति बने और जिनके पास कुछ नहीं हो वह मजदूरी वेतन पाने हेतु अपना शोषण दोहन करवायें। इसके विपरीत जिसके पास जितना अधिक नगदी व गैर नगदी पैसा पूंजी हो  चाहे चोरी चकारी या सरकारी व गैर सरकारी नौकरी पेशे से कमाया हों उस पैसे से उतने ही ज्यादा बाजारों से उपभोक्ता सामान खरीदें, अथवा खेती करने के लागत मूल्य के सामान जैसे, बीज, खाद, ट्रैक्टर, थ्रेसर, आदि आदि खरीद के बढ़िया खेती करें। अतः ज्यादा पैसे से अपने खेती अच्छी करें । बाजारों से उपभोग के मालों सामानों को खरीदकर अपनी निजी जीवन में उपयोग करें ।

आजकल आपके पिछड़े हुए देहातों में औद्योगिक नगरों के बने हुए केवल ट्रैक्टर, थेशर, पंम्सेट इत्यादि जैसे समान ही नहीं आए जो देहातों में बनाए नहीं जा सकते बल्कि इनके साथ ही ऐसे उपभोग के समान भी देहातों में आ गए हैं जो मूलत पैदा तो हुए थे देहातों में परंतु उन्हें औद्योगिक नगरों में ले जाकर उनसे औद्योगिक सामान बनाए गए फिर उन्हें देहातों में बेचने हेतु भेजे गए हैं । जैसे, बंद दूध के डिब्बे, तिलहन के तेल, वनस्पति घी, तथा यहां तक कि देसी घी, सूती कपड़े, बेसन, आटा, सत्तू, मिठाइयां, मिर्च, मसाले इत्यादि और इनके साथ ही पश्चिमी देशों से आया हुआ फ़ूहड़ गीत-संगीत व नाच गान का प्रचलन देहातों में भी बढ़ रहा है। परिणाम क्या है ? 

जिस व्यक्ति के पास जितना पैसा होगा वह उतना ही ज्यादा इन सामानों को खरीदकर अपनी उपभोग श्रेष्ठता का दिखावा कर सकता है ।
इसके चलते पड़ोसियों में ही नहीं भाइयों में व कहीं कहीं तो मां बाप के साथ भी भेदभाव होने लगे हैं । आपसी तनाव उभर आए हैं। नाना प्रकार के खर्चों व कर्जो से खेतिया टूट रही हैं। बेकारी बढ़ रही है । तों भी उपभोग के सामान खरीदने की भूख लालसा व आपसी  होड़-दौड़ भी रहीं हैं । तिलक दहेज लेने के रिवाज भी बढ़ते जा रहे हैं  । ऊपर की जातियों से लेकर निचली जातियों तक में ये रिवाज बढ़ रहें हैं।

इतना ही नहीं शादी विवाह इत्यादि में अब भोजन व नाश्ता बनाने वाले ठेकेदार कस्बों व शहरों से पैसे से बुलाए जाते हैं । पैसे के ये इस्तेमाल जैसे शहरों में वैसे पिछड़े हुए देहातो में भी आपसी संबंधों को तोड़ रहा है । भाइयों व पड़ोसियों के संबंध अब पैसे व मालों पर आधारित होते जा रहे हैं । देहाती समाज और उपभोक्तावादी समाज बनता जा रहा है। इससे केवल ऊंची जाति के ही नहीं मध्य व निचली जातियों के लोग भी शामिल होते जा रहे हैं, विशेषकर पढ़े-लिखे लोग।  क्योंकि पूंजीवादी उपभोक्ता बाजार की एक ही कसौटी व शर्त होती है ---यह कि जिस व्यक्ति को माल सामान खरीदना हो उसके पास पैसे-पूजी होना चाहिए, चाहे वह व्यक्ति किसी जाति धर्म क्षेत्र का हो। इसी कारण जातिवादी व धार्मिक विभाजन कम होते हुए भी पैसे-पूजी पर आधारित सामाजिक विभाजन निरंतर बढ़ रहा है । जैसे शहरों में वैसे देहातों में पड़ोसियों भाइयों व पाटीदारों में, पैसे का नया पूंजीवादी भेदभाव पैदा हो रहा है।

आज की ऐसी ही परिस्थितियों में प्रश्न है कि आज जब हम भगत सिंह, चंद्रशेखर इत्यादि के शहादत दिवस मनाते हैं अथवा राम प्रसाद बिस्मिल को रोशन, अशफाक का शहादत दिवस मनाते हैं और इसे मनाते हुए शहीदों के पूंजीवाद के विरोधी विचारों का समर्थन करते हैं तो क्या हम स्वयं पूंजीवाद विरोधी विचारों को मानते हैं ? अगर मानते हैं तो क्या हम ऐसे विचारों को अपने व्यवहारिक जीवन में लागू करते हैं ---व्यक्तिगत जीवन में, सामाजिक जीवन में, परिवारिक या ग्रामीण जीवन में, अथवा शहरी जीवन में ?

कहीं ऐसा तो नहीं, कि विचारों में तो हम पूंजीवाद साम्राज्यवाद के विरोधी हो परंतु व्यवहार में अपने लालच स्वार्थ के चलते पूंजीवाद की बहती हुई नदी में खुद भी बहते हो ? ऊंचे धन्नाढ़ों की तरह अपने पैसों से धार्मिक रीति रिवाज करवाते हो, तिलक दहेज लेते हो, साथ ही उपभोक्ता बाजार का आनंद लेते हो, तथा हर प्रकार की जातिवादी, धर्मवादी सत्ताधारी पार्टियों व उनके नेताओं से तालमेल करते हो ?  इधर उधर से पैसा-पूजी की कमाइयां करके तरह तरह के उपभोग के सामान खरीदते हो ? इससे अपनी उच्चता श्रेष्ठता का दिखावा करते हो, और अपने से कम पैसे वाले लोगों का तिरस्कार या अवहेलना करते हो, भले ही कोई भाई-बंधु हो या ऊंची-नीची जाति धर्म नस्ल कोई व्यक्ति हो ?

अगर हम स्वयं इसी तरह के पूंजीवादी लालच स्वार्थ में बहतें रहे हो तो प्रश्न है कि क्या हम पूंजीवाद का विरोध कर सकते हैं ? यदि नहीं कर सकते हो तो क्या हमें भगत चंद्रशेखर इत्यादि के शहादत दिवस मनाने चाहिए ?  क्या इधर उनके शहादत दिवस मनाना और उधर पूंजीवाद का पिछलग्गू बनना, यह शहीदों का अपमान करना नहीं होगा ?  उनका अपने जीवन में स्वार्थी दुरुपयोग करना नहीं होगा, जैसे कि अन्य दल व संगठन करते हैं, चाहे वे गांधीवादी, लोहियावादी, अंबेडकरवादी या रविदासवादी या सिक्खवादी, या मुस्लिमवादी, हिंदूवादी हो अथवा कई एक प्रकार कि वामपंथी ?

उपरोक्त गम्भीर प्रश्नों पर विचार करने हेतु किसी विशिष्ट या उच्च ज्ञान व प्रबुद्धता की आवश्यकता नहीं है, बल्कि आवश्यकता है -----जिसे कहाना तो आसान है, परंतु व्यवहारत: लागू करना अति कठिन है । अपने भीतर टटोलना, खोजना व खुद को कुरेदना  कि क्या हम ऐसे विचारों को अपने व्यवहारिक जीवन में लागू करते हैं अथवा कर सकते हैं जिन विचारों को हम बहुसंख्यक समाज के हितेषी विचार मानते हैं और जिनके लिए अनेकों शहीदों ने शहादत दी थी ?

शहीदों के उपरोक्त गिनाए गए सिद्धांतों के अनुसार हमने उपरोक्त जो 6 विचारणीय प्रश्न खड़े किए हैं कि हम उनमें से कौन-कौन विचारों को अपने जीवन में लागू कर सकते हैं इन्हीं प्रश्नों पर आप खुद भी विचार करें। 

संगठन के साथी , बृज इन्क्लेव  सुन्दरपुर वाराणसी ।      धन्यवाद ।

समाजवाद ही क्यों ? - अलबर्ट आइन्सटीन


क्या ऐसे व्यक्ति का समाजवाद के बारे में विचार करना उचित है जो आर्थिक-सामाजिक मामलों का विशेषज्ञ नहीं है? कई कारणों से मेरा विश्वास है कि यह उचित है।

सबसे पहले वैज्ञानिक ज्ञान के दृष्टिकोण से इस सवाल पर विचार करें। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि खगोल विज्ञान और अर्थशास्त्र में कार्य-पद्धति का कोई मूलभूत फर्क नहीं है; दोनों ही क्षेत्रों में वैज्ञानिक किन्हीं परिघटनाओं के अन्तरसंबंधों को यथासंभव स्पष्ट ढंग से समझने लायक बनाने के लिए उन परिघटनाओं के एक सीमित समूह के लिए सामान्य तौर पर स्वीकार्य नियमों को ढूँढन का प्रयास करते हैं। लेकिन वास्तव में, इन दोनों विज्ञानों के बीच कार्य-पद्धति का फर्क मौजूद है। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में सामान्य नियमों की खोज इस बात से कठिन हो जाती है कि जिन आर्थिक परिघटनाओं का हम निरीक्षण करते हैं उन्हें बहुत-सी ऐसी बातें प्रभावित करती हैं जिनका मूल्यांकन अलग से कर पाना कठिन होता है। इसके अतिरिक्त, जैसा कि सभी जानते हैं, मानव इतिहास के तथाकथित सभ्यकाल के शुरू से ही संचित अनुभव ऐसे कारणों से बहुत ज्यादा प्रभावित और सीमित होते रहे हैं जो स्वभावतः किसी भी तरह महज आर्थिक नहीं होते। उदाहरण के लिए, इतिहास में अधिकतर बड़े राज्यों का अस्तित्व अन्य देशों को जीतने पर आधारित रहा है। विजेता लोगों ने कानूनी और आर्थिक तौर पर अपने को विजित देश के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के रूप में स्थापित किया। उन्होंने जमीन की मिल्कियत में अपना एकाधिकार कायम किया और अपने ही बीच के लोगों में से पुरोहित नियुक्त किये। शिक्षा पर नियन्त्रण रखने वाले पुरोहितों ने समाज के वर्ग- विभाजन को एक स्थायी संस्था का रूप दिया और मूल्यों के एक ढाँचे की रचना की, जिससे उसी समय से लोग काफी हद तक अचेतन रूप से अपने सामाजिक व्यवहार में निर्देशित होते थे।

थोस्टींन बेव्लेन द्वारा बताई गई मानव विकास की 'लूटपाट की अवस्था', कहने को तो बीते दिनों की ऐतिहासिक परम्परा है किंतु हम आज भी इससे आगे नहीं बढ़

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सके हैं। जिन आर्थिक तथ्यों का हम निरीक्षण कर सकते हैं वे इसी अवस्था के हैं इसलिए उनसे निकाले गये नियम भी दूसरी अवस्थाओं पर लागू नहीं होते। चूंकि समाजवाद का वास्तविक लक्ष्य सुनिश्चित तौर पर मानव विकास को, इस लूट-पाट की अवस्था को पार करना और उससे आगे बढ़ाना है, इसलिए अपनी मौजूदा स्थिति में आर्थिक विज्ञान भविष्य के समाजवादी समाज पर थोड़ा ही प्रकाश डाल सकता है।

दूसरे, समाजवाद का एक निश्चित सामाजिक और नैतिक लक्ष्य है। विज्ञान न तो लक्ष्यों का निर्माण कर सकता है और न ही उनको इन्सान के अन्दर उतार सकता है। विज्ञान, ज्यादा से ज्यादा, किन्हीं लक्ष्यों को प्राप्त करने के साधन जुटा सकता है लेकिन खुद ये लक्ष्य उदात्त नैतिक आदशों वाले व्यक्तित्वों द्वारा ही तय किये जाते हैं और यदि ये लक्ष्य मुर्दा न होकर जीवन्त और ओजस्वी हैं तो उन बहुत सारे लोगों द्वारा अपनाये और आगे बढ़ाये जाते हैं जो आधे अचेतन रूप से समाज के मन्थर विकास को निर्धारित करते हैं।

इन कारणों से, मानवीय समस्याओं के प्रश्न पर हमें विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धतियों को आवश्यकता से अधिक करके नहीं आँकना चाहिए और यह भी नहीं मानना चाहिए कि समाज के संगठन को प्रभावित करने वाले प्रश्नों पर अभिव्यक्ति का अधिकार केवल विशेषज्ञों का ही है।

अनगिनत लोग इधर कुछ समय से इस बात पर जोर देते रहे हैं कि मानव समाज एक संकट के दौर से गुजर रहा है और इसकी स्थिरता भयंकर रूप से छिन्न-भिन्न हो गई है। यह एक ऐसी स्थिति का लक्षण है, जब लोग उस छोटे या बड़े समूह के प्रति असंपृक्तता या यहाँ तक कि शत्रुतापूर्ण भाव महसूस करने लगते हैं, जिसमें वे रहते हैं। अपनी बात साफ करने के लिए एक निजी अनुभव बताऊँ। हाल ही में मैंने एक प्रबुद्ध सज्जन से एक और युद्ध के खतरे के बारे में बातचीत की जो मेरे विचार से मानवता के अस्तित्व के लिए गंभीर संकट पैदा कर देगा और मैंने कहा कि उस संकट से केवल एक राष्ट्रोपरि या अधिराष्ट्रीय (सुप्रानेशनल) संगठन ही रक्षा कर सकता है। इस पर मेरे अतिथि ने बहुत शांत और ठन्डे ढंग से कहा, आप मानव जाति के मिट जाने का इतनी गंभीरता से क्यों विरोध करते हैं? मुझे यकीन है कि कम से कम एक शताब्दी पहले किसी ने भी इतने हल्के ढंग

से इस किस्म का बयान नहीं दिया होता। यह एक ऐसे आदमी का बयान है जो अपने भीतर सामंजस्य कायम करने के निरर्थक प्रयास करता रहा है और काफी हद तक इसमें सफल होने की उम्मीद खो चुका है। यह एक ऐसे दर्दनाक एकाकीपन और अलगाव की अभिव्यक्ति है जिससे आजकल बहुत से लोग पीड़ित हैं। इसका कारण क्या है?

क्या कोई समाधान भी है?

सवाल खड़े करना आसान है मगर किसी भी हद तक भरोसेमन्द जवाब

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देना कठिन है। फिर भी जहाँ तक हो सकेगा, मैं प्रयास अवश्य करूंगा, हालाँकि इस तथ्य के प्रति मैं काफी सचेत हूँ कि हमारी अनुभूतियाँ और हमारे प्रयास अक्सर इतने अन्तर्विरोधी और दुर्बोध होते हैं कि सीधे-सीधे सूत्रों में व्यक्त नहीं किए जा सकते।

मनुष्य एक ही समय में और एक ही साथ एकाकी प्राणी भी होता है और सामाजिक प्राणी भी। एक एकाकी प्राणी की हैसियत से वह खुद अपने और अपने सबसे ज्यादा करीबी लोगों के अस्तित्व की रक्षा का प्रयास करता है और अपनी निजी इच्छाओं की तृप्ति का प्रयास करता है और अपनी सहज योग्यताओं के विकास का प्रयास करता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते वह संगी-साथियों का स्नेह और सम्मान पाना चाहता है, उनकी खुशियों का भागीदार होना चाहता है, उनके दुखों में दिलासा देना और उनकी जिन्दगी को बेहतर बनाना चाहता है।

किसी मनुष्य के विशिष्ट चरित्र के पीछे केवल इन विविध व बहुधा परस्पर विरोधी प्रयासों का ही अस्तित्व है और इनका विशिष्ट संयोजन ही उस हद को भी तय करता है जिस हद तक कोई मनुष्य आन्तरिक संतुलन पा सकता है तथा समाज के हित में योगदान कर सकता है। यह बिल्कुल संभव है कि इन दोनों प्रवृत्तियों की सापेक्षिक शक्ति का निर्धारण मुख्यतः वंशानुक्रम द्वारा होता है। किंतु अंतिम रूप से जो व्यक्तित्व उभर कर सामने आता है उसका निर्धारण मुख्य तौर पर उस समाज के ढाँचे द्वारा जिसमें वह पलता-बढ़ता है, उस समाज की परम्पराओं द्वारा और खास व्यवहारों के प्रति उस समाज के मूल्यांकन द्वारा होता है। किसी भी व्यक्ति के लिए 'समाज' की धारणा का अर्थ अपने समकालीनों और पिछली पीढ़ियों के सभी लोगों के साथ उसके प्रत्यक्ष-परोक्ष संबंधों का कुल योग होता है। व्यक्ति सोचने, महसूस करने, प्रयास करने और कार्य करने में खुद सक्षम है, किंतु वह अपने शारीरिक, बौद्धिक और भावनात्मक अस्तित्व के लिए समाज पर इतना अधिक निर्भर है कि समाज के दायरे के बाहर उसके विषय में विचार करना या उसे समझ पाना असंभव है। यह 'समाज' ही है जो आदमी को भोजन, वस्त्र, आवास, काम के औजार, भाषा, विचारों के रूप और उनकी अधिकांश अन्तर्वस्तु देता है, उसका जीवन उन लाखों-लाख वर्तमान और विगत लोगों के श्रम और कौशल के ही कारण संभव है, जो सब के सब इस छोटे से शब्द, 'समाज' के पीछे छिपे हुए हैं।

इसलिए, यह स्पष्ट है कि व्यक्ति की समाज पर निर्भरता प्रकृति का एक ऐसा तथ्य है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता, ठीक उसी तरह जैसे कि चीटियों और मक्खियों के मामले में है। लेकिन जहाँ चीटियों व मक्खियों की पूरी जीवन-प्रक्रिया की छोटी से छोटी बात भी सारतः वंशानुगत प्रवृत्तियों द्वारा निर्धारित होती है, वहीं मनुष्य की सामाजिक बनावट और अतंर्सम्बन्ध बदले जा सकते हैं तथा बदलाव के

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प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं। स्मृति, नये संयोजनों के निर्माण की क्षमता व मौखिक संवाद के गुण द्वारा मनुष्य में वे विकास सम्भव हो सके हैं जो जैविक आवश्यकताओं द्वारा निर्दिष्ट नहीं होते। ऐसा विकास परम्पराओं, संस्थाओं व संगठनों में, साहित्य में, वैज्ञानिक व अभियांत्रिक उपलब्ध्यिों में, कलाकृतियों में खुद को अभिव्यक्त करता है। इससे स्पष्ट होता है कि आदमी कैसे एक निश्चित अर्थ में अपने जीवन को खुद अपने व्यवहार से प्रभावित कर सकता है और कैसे इस प्रक्रिया में सचेत चिंतन और जरूरत एक भूमिका अदा कर सकते हैं।

आदमी जन्म से ही आनुवांशिकता द्वारा उन स्वभावगत आवेगों सहित जो मानव जाति की लाक्षणिक विशेषताएँ हैं, एक जैविक संरचना पाता है, जिसे हमें स्थिर व अपरिवर्तनीय मानना चहिए। इसके साथ ही, अपने जीवन काल के दौरान वह एक सांस्कृतिक संरचना पाता है जिसे वह संवादों और बहुत से दूसरे प्रकार के प्रभावों के जरिए समाज से ग्रहण करता है। यह सांस्कृतिक संरचना ही वह चीज है जो समय के साथ-साथ बदलती रहती है तथा व्यक्ति और समाज के बीच के संबंधों को बहुत ज्यादा हद तक तय करती है। तथाकथित आदिम संस्कृति की तुलनात्मक खोज द्वारा आधुनिक नृतत्वशास्त्र हमें बताता है कि मनुष्यों के सामाजिक व्यवहार में काफी अन्तर हो सकता है जो समाज में प्रचलित सांस्कृतिक बनावट और समाज में प्रभावी संगठन के स्वरूप पर निर्भर है। किसी मानव समुदाय की उन्नति के लिए प्रयासरत लोग अपनी आशाएँ इसी पर आधारित कर सकते हैं; अपनी जैविक संरचना के कारण, एक दूसरे का विनाश करने के लिए या किसी क्रूर व आत्मघाती स्थिति की दया पर बने रहने के लिए मानव जाति अभिशप्त नहीं है।

यदि हम खुद से सवाल करें कि मानव जीवन को यथासंभव संतोषजनक बनाने के लिए समाज की संरचना तथा व्यक्ति का सांस्कृतिक दृष्टिकोण कैसे बदला जाय, तो इस तथ्य के बारे में हमें सतत् सचेत रहना होगा कि कुछ ऐसी भी परिस्थितियाँ हैं जिन्हें बदल पाने में हम असमर्थ हैं। जैसा पहले ही बताया जा चुका है कि व्यावहारिक अर्थों में मनुष्य की जैविक प्रकृति परिवर्तनशील नहीं है। और भी, पिछली शताब्दियों के तकनीकी व जनसांख्यिकीय विकास द्वारा निर्मित परिस्थितियाँ भी बनी रहने वाली हैं। अपेक्षतया घनी आबादियों के अस्तित्व की खातिर अपरिहार्य सामग्री की आपूर्ति के लिए एक चरम श्रम-विभाजन तथा अत्यन्त केन्द्रित उत्पादन तंत्र परम आवश्यक है। अतीत की ओर देखने पर वह समय, जो इतना रमणीय लगता था, जबकि व्यक्ति या सापेक्षतया छोटे समूह पूरी तरह आत्मनिर्भर रह सकते थे, सदा के लिए जा चुका है। यह कहना बहुत अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि मानव जाति ने अभी

ही उत्पादन व उपभोग के एक विश्वव्यापी समुदाय की रचना कर ली है। अब मैं उस बिन्दु पर पहुँच गया हूँ जहाँ से मैं आज के संकट के सारतत्व की

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ओर थोड़े में इंगित कर सकता हूँ। यह व्यक्ति के समाज के साथ संबंध से ताल्लुक रखता है। आज इंसान समाज के ऊपर अपनी निर्भरता के प्रति हमेशा से अधिक सचेत हो गया है। किन्तु वह इस निर्भरता को एक सकारात्मक गुण के रूप में, एक जीवंत बंधन के रूप में, एक रक्षक शक्ति के रूप में महसूस नहीं करता है। बल्कि इसे अपने प्राकृतिक अधिकारों, यहाँ तक कि अपने आर्थिक अस्तित्व के लिए भी खतरे के रूप में महसूस करता है। इसके अतिरिक्त, समाज में उसकी स्थिति ऐसी है कि उसकी (मानसिक) संरचना में निहित स्वार्थी प्रवृत्तियाँ निरन्तर प्रबल होती जा रही हैं। जबकि उसकी सामाजिक प्रवृत्तियों का, जो स्वभाव से ही कमजोर हैं, क्षरण तेज गति से हो रहा है। सभी लोग चाहे समाज में उनका जो स्थान हो, क्षरण की इस प्रक्रिया के शिकार हैं। अनजाने ही अपने स्वार्थों के कैदी बने हुए हैं, वे स्वयं को अरक्षित, एकाकी तथा जीवन के सहज सरल व निष्कपट आनन्द से वंचित महसूस कर रहे हैं। आदमी की जिन्दगी छोटी और जोखिम भरी है। इसी जीवन में खुद को समाज के प्रति समर्पित करके ही वह सार्थकता पा सकता है।

मेरे ख्याल से बुराई का असली स्रोत वर्तमान पूँजीवादी समाज की वह आर्थिक अराजकता है, जो आज मौजूद है। हमारे सामने विशाल उत्पादक समुदाय है जिसके सदस्य एक दूसरे को सामूहिक श्रम के फल से वर्वोचत करने के लिए कोशिश कर रहे हैं। ऐसा वे बल प्रयोग द्वारा नहीं बल्कि कुल मिलाकर कानूनी रूप से कायम नियमों का ईमानदारी से पालन करके ही करते हैं। इस संदर्भ में यह अनुभव करना महत्वपूर्ण है कि उत्पादन के साधन, अर्थात् समस्त उत्पादक क्षमता जो उपभोक्ता सामग्री के साथ-साथ पूँजीगत सामग्री पैदा करने के लिए आवश्यक है, कानूनी तौर पर व्यक्तियों की निजी संपत्ति हो सकते हैं ओर अधिकतर हैं भी।

आगे की बहस में सरलता की दृष्टि से मैं उन सभी लोगों को मजदूर कहूँगा जिनका उत्पादन के साधनों के मालिकाने में कोई हिस्सा नहीं है। हालाँकि यह इस शब्द के परंपरागत प्रयोग के पूरी तरह अनुरूप नहीं है। उत्पादन के साधनों का मालिक मजूदर की श्रमशक्ति को खरीद सकने की स्थिति में होता है। उत्पादन के साधनों का प्रयोग करके मजदूर नयी चीजें बनाता है जो पूँजीपति की संपत्ति बन जाती है। इस पूरी प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु मजदूर द्वारा किये गए वास्तविक उत्पादन और उसे मिले वास्तविक मेहनताने के बीच का सम्बन्ध है। श्रम अनुबंध की 'स्वतंत्रता' के कारण मजदूर जो पाता है, वह उसके द्वारा उत्पादित सामग्री के वास्तविक मूल्य से निर्धारित न होकर उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं से और काम की तलाश में होड़ में लगे मजदूरों की संख्या के अनुपात में पूँजीपति को श्रम-शक्ति की जरूरत से निध रित होता है। यह जानना महत्वपूर्ण है कि सैद्धान्तिक रूप से भी मजदूर का वेतन उसके द्वारा किए गए उत्पादन के मूल्य द्वारा निर्धारित नहीं होता।

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अंशतः पूँजीपतियों की आपसी होड़ के कारण और अंशत: तकनीकी विकास के कारण निजी पूँजी कुछ हाथों में केन्द्रित होती जाती है और बढ़ता हुआ श्रम-विभाजन उत्पादन की लघुतर इकाईयों की कीमत पर बृहतर इकाईयों के निर्माण को प्रोत्साहित करता है। इस विकास का ही परिणाम निजी पूँजी का एक गुटतंत्र (ऑलीगार्की) है; जिसकी अपार शक्ति को जनतांत्रिक ढंग से संगठित एक राजनीतिक समाज द्वारा भी प्रभावी ढंग से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। यह एक सच्चाई है क्योंकि विधायिका संस्थाओं के सदस्यों का चुनाव राजनीतिक दलों द्वारा होता है, जो पूँजीपतियों से आर्थिक सहायत प्राप्त करते हैं या दूसरे तरीकों से उनके प्रभावों में रहते हैं। ये पूँजीपति व्यावहारिक तौर पर हर तरीके से निर्वाचकों को विधायिका से अलग कर देते हैं। नतीजा यह होता है कि जनता के प्रतिनिधि आबादी के दलित-शोषित तबकों के हितों की वस्तुतः पर्याप्त रक्षा नहीं करते। इसके अतिरिक्त, वर्तमान परिस्थितियों में निजी पूँजीपति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सूचना के प्रमुख स्रोतों (प्रेस, रेडियो शिक्षा) पर अनिवार्यतः अपने नियंत्रण रखते हैं। इस प्रकार किसी नागरिक के लिए वस्तुगत निष्कर्षों तक पहुँच सकना या अपने राजनीतिक अधिकारों का सटीक प्रयोग कर पाना अत्यन्त कठिन होता है और वास्तव में अधिकांश मामलों में तो एकदम असंभव होता है।

इस प्रकार, सम्पत्ति के निजी मालिकाने पर आधारित अर्थव्यवस्था में मौजूदा स्थिति को दो मुख्य सिद्धान्तों द्वारा स्पष्ट किया जाता है; पहला, उत्पादन के साधनों (पूँजी) पर निजी मालिकाना होता है और मालिक जैसे भी समझे उसका इस्तेमाल कर सकते हैं। दूसरा, श्रम अनुबंध स्वतंत्र होता है। वास्तव में, इस अर्थ में एक शुद्ध पूँजीवादी समाज जैसी कोई चीज नहीं होती। विशेष तौर पर उल्लेखनीय है कि मजदूर लम्बे और तीखे राजनीतिक संघर्षों द्वारा 'स्वतंत्र श्रम समझौते' का किन्चित सुधारा हुआ रूप, कुछ तरह के मजदूरों के लिए पा सकने में सफल हुए हैं, किंतु समग्रता में आज की अर्थव्यवस्था 'शुद्ध' पूँजीवाद से बहुत भिन्न नहीं है।

उत्पादन मुनाफे के लिए किया जाता है न कि उपयोग के लिए। ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि सक्षम और काम के इच्छुक सभी लोग हमेशा काम पा सकने की हालत में रहें, 'बेकारों की फौज' लगभग हमेशा मौजूद रहती है। मजदूर हरदम काम छिन जाने के भय से ग्रस्त रहता है। चूँकि बेकार और बहुत कम वेतन पाने वाले मजदूर एक लाभदायक बाजार नहीं बनाते, इसी से उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन सीमित रहता है, जिसका परिणाम होता है, भंयकर कठिनाई। तकनीकी प्रगति सबके काम का बोझ घटाने के बजाय लगातार और अधिक बेकारी पैदा करती है। पूँजीपतियों के बीच की होड़ के साथ जुड़ा मुनाफे का मकसद ही पूँजी के संचय और उपयोग में अस्थिरता के लिए जिम्मेदार है। यह समाज को उत्तरोत्तर गहन महामंदी की ओर

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ले जाता है। यह असीमित होड़ श्रम की बड़े पैमाने पर बर्बादी को पैदा करती है और साथ ही व्यक्तियों की सामाजिक चेतना को पंगु बनाती है जिसका उल्लेख मैं पहले ही कर चुका हूँ।

व्यक्तियों के इस प्रकार पंगु बनाए जाने को मैं पूँजीवाद का सबसे बड़ा अभिशाप मानता हूँ। हमारा सारा शैक्षणिक ढाँचा इस अभिशाप से ग्रस्त है। विद्यार्थी के मन में एक अतिरंजित प्रतियोगी दृष्टिकोण बैठाया जाता है तथा उसे आगामी कैरियर के लिए तैयारी के रूप में धनपिपासु (लोभी) सफलता की पूजा करना सिखाया जाता है।

मैं इस बात से सहमत हूँ कि इन विकट बुराइयों को समाप्त करने का केवल एक ही रास्ता है, केवल एक समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना द्वारा ही ऐसा किया जा सकता है, जिसके साथ-साथ सामाजिक लक्ष्यों से युक्त एक शिक्षा व्यवस्था भी हो। ऐसो अर्थ-वयवस्था में उत्पादन के साधनों पर स्वयं समाज का स्वामित्व होता है और उनका उपयोग नियोजित ढंग से होता है। नियोजित अर्थव्यवस्था समुदाय की आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पादन को समायोजित करती है, काम करने में सक्षम लोगों के बीच किये जाने वाले काम को बाँट देती है तथा प्रत्येक स्त्री, पुरुष और बच्चे को आजीविका की गारण्टी देती है। ऐसे समाज में शिक्षा, व्यक्ति की सहज क्षमता का विकास करने के साथ ही हमारे वर्तमान समाज की सत्ता और सफलता का गुणगान करने की जगह उसके अन्दर अपने जैसे लोगों के प्रति एक जिम्मेदारी की भवना को विकसित करने का प्रयास करेगी।

फिर भी, इसे याद रखना जरूरी है कि एक नियोजित अर्थव्यवस्था ही समाजवाद नहीं होती है। एक नियोजित अर्थव्यवस्था में व्यक्ति पूरी तौर पर गुलाम हो सकता है। समाजवाद की स्थापना कुछ अत्यन्त कठिन सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं के समाधान की मांग करती है; राजनैतिक और आर्थिक शक्ति के व्यापक केन्द्रीयकरण को ध्यान में रखते हुए नौकरशाही को सर्वशक्ति सम्पन्न व उद्धत होने से कैसे रोका जा सकता है? व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा कैसे हो सकती है और इसके साथ ही नौकरशाही की ताकत को निष्प्रभावी बनाने वाली जनतांत्रिक शक्ति को सुनिश्चित तौर पर कैसे स्थापित किया जा सकता है?

हम संक्रमण के युग से गुजर रहे हैं। समाजवाद के लक्ष्य और समस्याओं के प्रति स्पष्टता इस दौर में सबसे ज्यादा अहमियत रखती है। मौजूदा हालात में इन समस्याओं पर स्वतंत्र और बेरोक-टोक बहस-मुबाहिसे पर सख्त वर्जनाएँ लागू हैं। इसलिए इस पत्रिका की शुरुआत मेरे विचार में एक अहम जन सेवा है।

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Wednesday, 6 December 2023

जाति का उच्छेद अंबेडकर और मार्क्स- Forwarded by Pramod Chaurasia


बाबा साहब ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को दुश्मन ज़रूर मानते थे । लेकिन उनकी ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद से दुश्मनी की एक निश्चित सीमा भी थी । इसीलिए वे ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के समूल उन्मूलन के पक्ष में नहीं बल्कि हृदयपरिवर्तन के सिद्धांत के जरिए उनमें सुधारों के पक्ष में थे । साम्यवाद एक ऐसा सिद्धांत है जो सही मायनों में ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद का घोर दुश्मन रहा है । साम्यवाद, ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद में सुधारों के नहीं, बल्कि उनके समूल उन्मूलन के पक्ष में खड़ा एक क्रांतिकारी सिद्धांत है । लेकिन अंबेडकर ने साम्यवादी सिद्धांत की आलोचना नहीं, बल्कि घोर निन्दा करते हुए हिंसक और जंगल की उस आग के समान बताया जिसके रास्ते में जो भी आता है, उसका विनाश होता जाता है । इसीलिए उन्होंने साम्यवादी दर्शन को सिरे से न केवल नकार दिया, बल्कि साम्यवाद के विकल्प के रूप में बुद्ध और बौद्धधर्म को घोषित करते हुए वे बुद्ध और बौद्धधर्म की शरण में चले गए । वे यह समझने में असफल रहे कि ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद, दोनों का मूल आधार श्रम का शोषण और निजी संपत्ति का अधिकार रहा है । वर्णव्यवस्था और जातिवाद का मूल आधार भी श्रम का शोषण और निजी संपत्ति पर एक वर्ण विशेष और वर्ग विशेष का एकाधिकार ही रहा है । इसीलिए पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद के बीच कोई मूलभूत फ़र्क नहीं है । असल में, पूंजीवाद ब्राह्मणवाद का ही अद्यतन (latest) और आधुनिकतम रूप है । इसीलिए आज सामंती अवशेषों के रूप में ब्राह्मणवाद के साथ पूंजीवाद का गठजोड़ देखने को मिलता है, और इसी गठजोड़ के तहत, ब्राह्मणवादी शक्तियां विभिन्न रूपों में पूंजीवाद की प्रबंधक कमेटियों के रूप में कार्य करती दिखाई दे रही हैं, और बदले में पूंजीवाद भी सड़ेगले और मरणशील सामंती अवशेषों के रूप में उपस्थित धर्म, वर्ण और जाति अर्थात ब्राह्मणवाद को संरक्षित किए हुए है, और उनका इस्तेमाल श्रमजीवी वर्ग को धर्म, वर्ण और जाति के आधार पर आपस में बांटने और लड़वाने के लिए करने में संलग्न है, ताकि वह अपने मुनाफाखोर शोषणकारी चरित्र पर पर्दा डाले रख सके । दलित-शोषित श्रमजीवी वर्ग की विभिन्न पांतों में धर्मचेतना, वर्णचेतना और जातिचेतना की सघनता और वर्गचेतना के अभाव में शासकवर्ग यानी पूंजीपतिवर्ग अभी तक अपने इन नापाक मंसूबों में फ़िलहाल कामयाब है । बाबा साहब द्वारा बनाया गया संविधान भी श्रम के शोषण और निजी संपत्ति के अधिकार को परोक्ष रूप से मान्यता देता है । उनके बनाए हुए संविधान में श्रम के शोषण और निजी संपत्ति के अधिकार को गैर-कानूनी और दंडनीय अपराध घोषित करते हुए आपराधिक कृत्य घोषित नहीं किया गया है । यह बात आमतौर पर दलित बुद्धिजीवियों की पकड़ में नहीं आती है । इस तरह, बाबा साहब ने इस संविधान के माध्यम से, परोक्ष रूप से ही सही, जाने-अंजाने वर्णव्यवस्था और  जातिवाद के उन्मूलन करने का नहीं, बल्कि संरक्षित करने का काम ही किया । लेकिन इसके बावजूद, बाबा साहब से प्रभावित उनके अनुयाई और अधिकांश दलित बुद्धिजिवियों का बड़ा तबका भी इसी संविधान का गुणगान करने में व्यस्त है । बाबा साहब के राजकीय समाजवाद की धारणा का आत्यंतिक उद्देश्य भी पूंजीवाद का समूल उन्मूलन करना नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था में छोटेमोटे आर्थिक और राजनैतिक सुधारों को अंजाम देना ही था । यह ऐसा ही है जैसे बीमारी को बचाए रखते हुए बीमार को मरने से बचाने की कोशिश करना । अंबेडकर क्रांतिकारी प्रवृत्ति के नेता कतई नहीं थे, बल्कि वे एक सुधारवादी क़िस्म के नेता थे । वर्गों में बंटे समाज में वर्गों से परे कहीं कुछ नहीं होता । इसीलिए वर्गविभक्त पूंजीवादी समाज में देश या राष्ट्र का अस्तित्व भी कहां होता है ? देश या राष्ट्र का अस्तित्व तो तभी संभव जो सकता है, जब वर्गों के अस्तित्व को पूर्णतया खत्म कर दिया गया हो, और वर्गहीन समाज की स्थापना कर दी गई हो । अभी तो परस्पर विरोधी वर्ग हैं, और उनके बीच निरंतर चल रहा वर्ग संघर्ष है । इस व्यवस्था में हर व्यक्ति और हर समूह की प्राथमिकताओं के क्रम में उसके अपने निजी स्वार्थ ही प्राथमिक होते हैं । देश और राष्ट्र तो उनकी प्राथमिकताओं के क्रम में सबसे बाद में आते हैं । वर्गविभक्त समाज में राष्ट्र का अर्थ शासकवर्ग अर्थात पूंजीपतिवर्ग और उसके हितों की पूर्ति से ही होता है । इसीलिए पूंजीवादी व्यवस्था में, पूंजीपतिवर्ग के प्रति श्रद्धा और समर्पण को ही शासकवर्ग द्वारा राष्ट्रभक्ति या देशभक्ति कहकर प्रचारित किया जाता है । वर्गों में बंटे पूंजीवादी समाज के अंतर्गत, भूमि के राष्ट्रीयकरण का अर्थ भी अंततः भूमि को शासकवर्ग अर्थात पूंजीपतिवर्ग की मिल्कियत बना देना ही होता है, और पूंजीपतिवर्ग का मुख्य और आत्यंतिक उद्देश्य राष्ट्रीयकृत भूमि का दोहन करते हुए उसे अपने निजी और अपने वर्ग हितों के लिए इस्तेमाल करते हुए ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा अर्जित करना ही होता है, दलित-शोषित श्रमजीवीवर्ग का कल्याण करना नहीं । समाजवाद तो धीरे-धीरे राज्य के विघटन की प्रक्रिया की ही एक अवस्था है, क्योंकि समाजवादी धारणा के अनुसार, राज्य शासकवर्ग के हाथों में उत्पीड़ित वर्ग के शोषण और दमन का ही हथियार होता है । इसीलिए अंबेडकर के राजकीय समाजवाद की धारणा उत्पीड़ित वर्ग के लिए एक धोखे से ज़्यादा नहीं हो सकती । यही कारण है कि समाजवादी व्यवस्था में भूमि का राष्ट्रीयकरण नहीं, बल्कि भूमि के सामूहिकीकरण या भूमि पर  सामाजिक मिल्कियत को कायम करने की प्रक्रिया को अंजाम देते हुए राज्यहीन साम्यवादी व्यवस्था की ओर क़दम बढ़ाया जाता है । लेकिन इसके उलट, बाबा साहब की कल्पना के अनुसार, अधिकांश उनके अनुयाई और दलित बुद्धिजीवी जाति उन्मूलन की बात तो करते हैं, लेकिन वे भी अब पूंजीवादी व्यवस्था और ब्राह्मणवाद को स्वीकार करते हुए अपनी जातियों पर गर्व करने लगे हैं, और धर्म, वर्ण और जाति के आधार पर लड़े जाने वाले पूंजीवादी संसदीय चुनावों में सहभागी होकर इस देश का शासक बनने का ख़्वाब देखने लगे हैं । इस तरह, वे भी परोक्ष रूप से वर्णव्यवस्था और जातिवाद को खादपानी देकर उसे बढ़ावा देने का ही काम कर रहे हैं । वे भूल जाते हैं कि इस व्यवस्था में स्वयं अंबेडकर भी अपने बूते कभी कोई चुनाव नहीं जीत पाए थे । शासकवर्ग ने एक मामूली से दलित उम्मीदवार कजरोलकर को उनके ख़िलाफ़ चुनाव में खड़ा करके उन्हें आसानी से शिकस्त दे दी थी । अंततः शासकवर्ग का सहयोग और समर्थन पाकर ही वे लोकतंत्र के कथित मंदिर में प्रवेश कर पाए थे । तथ्य यह है कि पूंजीवाद ही धर्म, वर्ण और जाति यानी ब्राह्मणवाद को संवैधानिक और कानूनी रूप से संरक्षित किए हुए है, इसीलिए पूंजीवादी व्यवस्था को जड़मूल से नष्ट किए बगैर धर्म, वर्णव्यवस्था और जातिवाद यानी ब्राह्मणवाद से कदापि मुक्त नहीं हुआ जा सकता । इसीलिए आज पूंजीवाद ही दलित-शोषित श्रमजीवी वर्ग का मुख्य दुश्मन हो गया है । निश्चित ही, सामंती अवशेष और साम्राज्यवाद भी पूंजीवाद से गठजोड़ किए हुए हैं, और वे पूंजीवाद के साथ गठजोड़ करते हुए दलित-शोषित श्रमजीवी वर्ग के शोषण और दमन की प्रक्रिया में सहयोगी भी हैं, लेकिन वे दोयम दर्जे के दुश्मन हैं । 

अंबेडकर का मानना था कि वर्ण और जाति को खत्म किए बगैर समतामूलक समाज की स्थापना नहीं की जा सकती, यह कथन सही नहीं है । अंबेडकर का सारा जोर जाति के विनाश पर था । उनके अनुसार, वर्ण और जाति के उन्मूलन के बिना वर्ग का निर्माण नहीं हो सकता, इसीलिए इस देश में वर्गसंघर्ष संभव नहीं है । इसीलिए उनके अनुसार, वर्ण और जाति व्यवस्था को समाप्त किए बिना निजी स्वामित्व का उन्मूलन भी संभव नहीं है । इसके साथ-साथ वे यह भी मानते हैं कि भारत में पूंजीपतिवर्ग वर्ण और जाति को संरक्षित किए हुए हैं । लेकिन तथ्य यह हैं कि हजारों वर्षों तक वर्ण और जाति के बंधनों और गुलामी की पीड़ा को भोगते हुए, अधिकांश दलित तबके के अंदर, वर्ण और जाति की धारणा इस क़दर उनके चेतन-अचेतन और इनकी मांस-मज्जा का हिस्सा हो गई है, कि अब वे स्वयं को वर्ण और जाति के रूप में ही न केवल पहचानने लगे हैं, बल्कि वे अपने वर्ण और अपनी जातियों पर गौरवान्वित भी होने लगे हैं । इसीलिए दलितवर्ग का सर्वहारा वर्ग के रूप में परिवर्तित न हो पाने का मुख्य कारण दलितवर्ग में मौजूद धर्मचेतना, वर्णचेतना और जातिचेतना की सघनता और वर्गचेतना का सर्वथा अभाव ही है ।

अपने को समाजवादी कहने वाले मधुलिमये ने अंबेडकर द्वारा लिखित जाति का उच्छेद नामक पुस्तक की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो से तुलना करते हुए अंबेडकर के ही शब्दों को दोहराते हुए कहा था, *"अंबेडकर का सारा जोर, जाति के विनाश पर था ।उनके मुताबिक इसके बिना न वर्ग का निर्माण हो सकता है और ना ही वर्गसंघर्ष संभव है ।"* मधुलिमये  का यह तर्क बड़ा ही हास्यास्पद और बेतुका मालूम पड़ता है । पहली बात, अंबेडकर द्वारा लिखित 'जाति का उच्छेद' नामक पुस्तक जातिव्यवस्था के उन्मूलन का न तो कोई ठोस कार्यक्रम प्रस्तुत करती है, और न ही उसका कोई आत्यंतिक समाधान ही पेश करती है । इसीलिए उनकी पुस्तक 'जाति का उच्छेद' की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो से तुलना करना बेहद हास्यास्पद और तर्कहीन मालूम पड़ता है । इस पुस्तक में अंबेडकर स्वयं कहते हैं की इस देश से जाति का उच्च्छेद नहीं किया जा सकता । इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि जाति उच्छेद को हिंदू कतई स्वीकार नहीं करेंगे । असल में अंबेडकर वर्ण और जातियों को न तो समूल नष्ट करना चाहते थे और न ही पूंजीवादी व्यवस्था के उन्मूलन के पक्ष में थे । वे तो सामंती अवशेषों और पूंजीवाद को नष्ट किए बगैर, हृदयपरिवर्तन के किन्हीं सिद्धांतो के माध्यम से सामंती मूल्यों और पूंजीवादी व्यवस्था में आ गई विसंगतियों में सुधारों के पक्ष में थे ।

दरअसल, जाति और वर्ण को दलितों के सर्वहारा वर्ग के रूप में प्रकट होने की बाधा के रूप में नहीं समझना चाहिए । वर्ण और जातियां तो स्थितियां है, और इन स्थितियों के पार हो जाने की आकांक्षा ही वर्गसंघर्षों की प्रेरक शक्ति हैं । दलित वर्ग के सर्वहारा के रूप में रूपांतरित होने में वर्ण और जाति उतनी बड़ी बाधा नहीं है, जितनी कि उनके भीतर मौजूद धर्मचेतना, वर्णचेतना और जातिचेतना की सघनता और वर्गचेतना का सर्वथा अभाव है । इसीलिए जैसे-जैसे उत्पीड़ित वर्ग के भीतर वर्गचेतना का प्रसार होता जाएगा, वैसे-वैसे वे स्वयं को सर्वहारा वर्ग के रूप में ज़रूर समझेंगे और पहचानेंगे, क्योंकि मूल रूप से तो दलितवर्ग सर्वहारा ही हैं । इसीलिए वर्गचेतन होते ही अनिवार्य रूप से उनका स्वयं को एक वर्ग के रूप में देखना और समझना संभव हो जाएगा । ऐसा होते ही, उनका एक वर्ग के रूप में संगठित होकर वर्गसंघर्षो का हिस्सा होना भी संभव हो पाएगा । इसीलिए अंबेडकर और मधुलिमये का यह कथन बेहद निराशाजनक और सिर के बल खड़ा मालूम होता है कि वर्णव्यवस्था और जातिवाद को मिटाए बिना दलितवर्ग को न तो सर्वहारा के रूप में संगठित किया जा सकता है, और न ही वर्गसंघर्ष संभव हो सकता है, और न ही निजी संपत्ति के अस्तित्व का उन्मूलन ही किया जा सकता है । इसके स्थान पर यह कहना तर्कसंगत होगा कि सामंती अवशेषों के साथ गठजोड़ किए पूंजीवाद को जड़मूल से नष्ट किए बगैर और उसके स्थान पर समाजवादी व्यवस्था की स्थापना किए बगैर वर्णहीन, जातिविहीन समतामूलक समाज की स्थापना कदापि नहीं की जा सकती । यह कार्य वर्गचेतन सर्वहारा वर्ग के द्वारा वर्गसंघर्षों के द्वारा ही संपन्न हो सकता है ।

*कंवल भारती द्वारा लिखे गए लेख*
*'अंबेडकर के चिंतन में मार्क्स' के* 
*प्रत्युत्तर में लिखा गया लेख ।*

Sunday, 3 December 2023

अम्बेडकर और इस्लाम

अपनी पुस्तक 'पाकिस्तान या भारत का विभाजन', में हिन्दू प्रतिक्रियावादियों को खुश करने के लिए, मुस्लिमों के विरुद्ध जहर उगलते, अम्बेडकर ने लिखा-
"इस्लाम एक बंद (सीमित) संगठन है तथा मुसलमानों और गैर मुसलमानों के बीच जो भेदभाव वह करता है वह बहुत ही ठोस, वास्तविक आचरण में उतरा हुआ और अत्याधिक वैमनस्यकारी है । इस्लाम का भाईचारा पूरी मानवता का भाईचारा नहीं है। मुसलमानों का यह भाईचारा केवल मुसलमानों के लिए ही है। उसमें आपसी बंधुत्व तो है, पर इसका लाभ केवल इसी सीमित संगठन के भीतर रहने वालों के लिए है। जो इस संगठन से बाहर है उनके लिए तो केवल तिरस्कार और शत्रुता है। इस्लाम में दूसरी कमी यह है कि वह वास्तव में एक व्यवस्था है सामाजिक नियंत्रण की और इस नाते यह देशपरक स्व-शासन की व्यवस्था से मेल नहीं खाती, क्योंकि मुसलमान की निष्ठा उसके निवास के देश के प्रति नहीं होती जोकि उसी का है बल्कि उसके मजहबी ईमान से जुडी होती है, मुसलमानों के लिए "जहां जीवन अच्छा है वहीं हमारा देश है" यह असंभव है । जहां भी इस्लाम का शासन है वही उसका देश है ‌। दूसरे शब्दों में भारत को अपनी मातृभूमि मानने और हिंदुओं को अपने बंधु-बाधव मानने की अनुमति इस्लाम एक पक्के मुसलमान को कभी नहीं देगा । शायद यही कारण है कि मौलाना महमूद अली जैसे महान हिंदुस्तानी, मगर पक्के मुसलमान, ने अपने दफ़न के लिए भारत भूमि को नहीं यरुशलम को ही पसंद किया।"

भगवा तालिबानी डर



आजाद भारत मे  अपने चुनावी फायदे के लिये कांग्रेस और भाजपा बुर्जुवा राजनीति के तहत हिन्दुओ और मुस्लिमो के बीच साम्प्रदायिक जहर घोलने का काम करती रही है, जिसे संघ और भाजपा ने आज परवान चढ़ा दिया है। लगता है भाजपा ने तय कर लिया है - यूपी चुनाव मुस्लिमो  की प्रताड़ना करके लड़ा जायेगा! 

BJP का IT Cell लगातार मुस्लिमो के खिलाफ नफरत भड़काने वाला मैसेज भेजता रहता है। और लोग उसे बस फारवर्ड करते रहते है। और गाहे बगाहे उनके गुंडे गरीब मुस्लिमो पर जुल्म ढाते रहते है। कानून इन गरीब, कमजोर लोगो के साथ खड़ा नही होता।

देश में लगातार धार्मिक उनमाद फैला रहे लोगों का शिकार इस बार इंदौर के एक चूड़ी बेचने वाला हुआ है. चूड़ीवाला गिड़गिड़ाता रहा, वो पीटते रहे, गुनाह था-''हिंदू इलाके में क्यों आया?

और अब  चूड़ी बेचने वाले युवक पर पास्को एक्ट में एफआईआर दर्ज कर दी गई है। इंसाफ का घण्टा उसे बजाने वाले पर ही गिर पड़ा है! 

'जो पिट रहा है वो साफ दिख रहा है, जो पीट रहे हैं वो भी साफ वीडियो में दिख रहे हैं, वीडियो भी जो बनाया है वो भी पीटने वाले के साथ वालो में से ही किसी ने बनाया है, वीडियो भी उन्होंने ही वायरल कराया है, लेकिन सबसे गंभीर धाराओं में केस उस पर दर्ज किया गया है जो पिट रहा है।' 

इस सब के बावजूद, बुर्जुवा स्वार्थ के वशीभूत हिन्दुओ और मुस्लिमो में घृणा फैलाने की राजनीति के बावजूद आजभी  हिंदू और मुसलमान के बीच सहमिलन और सद्भाव के हजारों उदाहरण हमारे समाज में भरे पड़े हैं।  पेश है इसी साझी सांस्कृतिक विरासत की एक झलक जो कृष्णकांत जी के पोस्ट से साभार लिया गया है:

"पिता पूजा करता है. बेटा नमाज पढ़ता है. पिता का नाम शंकर है. बेटे का नाम अब्दुल है. पिता का नाम जवाहर है तो बेटे का नाम सलाउद्दीन है. पति का नाम मोहन तो पत्नी का नाम रूबीना. पिता हिंदू है, लेकिन बेटा मुसलमान है. मां मुसलमान है लेकिन बेटा या बेटी हिंदू है. एक ही आंगन में दिया भी जलता है और नमाज भी अदा होती है. वे नवरात्र भी रखते हैं और रोजा भी रखते हैं. वे भगवान की पूजा भी करते हैं, वे अल्लाह की इबादत भी करते हैं. 

आप सोच रहे हैं कि ये क्या घनचक्कर है! लेकिन ये हिंदुस्तान का सच है. हिंदुस्तान ऐसा ही है. हमने-आपने इसे ठीक से देखा-समझा नहीं है. 

कुछ दिन पहले जिस राजधानी में लोगों को काटने का नारा लगाया गया है, वहां से कुछ ही घंटे की दूरी तय करके अजमेर पहुंचिए. आपको ऐसे परिवार मिल जाएंगे जो हिंदू भी हैं और मुस्लिम भी हैं. राजस्थान के करीब चार जिलों में एक समुदाय रहता है चीता मेहरात समुदाय. ये ऐसा समुदाय है, जहां एक ही परिवार में हिंदू और मुस्लिम दोनों होते हैं. कभी कभी तो एक ही व्यक्ति दोनों धर्म को एक साथ मानता है. ज्यादातर परिवार होली, दिवाली, ईद सब मनाते हैं. राजस्थान में इस समुदाय की संख्या करीब 10 लाख तक बताई जाती है.  

माना जाता है कि इस समुदाय का ताल्लुक चौहान राजाओं से रहा है. इन्होंने करीब सात सौ साल पहले इस्लाम की कुछ प्रथाओं को अपनाया था. तबसे यह समुदाय एक ही साथ हिंदू मुसलमान दोनों है. 

अजमेर के अजयसर गांव के जवाहर सिंह बताते हैं, 'मैं हिंदू हूं लेकिन मेरे बेटे का नाम सलाउद्दीन है. हमारे यहां भेद नहीं है. हम शादियां भी इसी तरह से करते हैं, सैंकड़ों वर्षों से यही होता आ रहा है.

इस गांव में एक ही जगह मंदिर और मस्जिद दोनों हैं. शादियों में जब लड़के की बारात निकलती है तो मंदिर और मस्जिद दोनों जगहों पर आशीर्वाद लिया जाता है. लड़कियों की शादी में कलश पूजन होता है, उसके बाद आपका मन हो तो फेरे लीजिए, मन हो निकाह कीजिए, मन हो तो दोनों कर लीजिए. 

सिर्फ यही नहीं, असम के मतिबर रहमान भगवान शंकर के मंदिर की देखभाल करते हैं. यह काम उन्हें उनके पुरखों ने सौंपा है. 500 साल पुराने इस मंदिर की देखभाल मतिबर रहमान के पुरखे ही करते आए हैं. नीचे फोटो उन्हीं की है. 

मैंने इधर बीच गौर किया कि कई लोग गंगा जमुनी तहजीब का मजाक उड़ाते हैं. सावरकर और जिन्ना की जोड़ी से प्रभावित कुछ लोगों का कहना है कि भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता की बात राजनीतिक है. वास्तव में दोनों अलग-अलग हैं. लेकिन अगर आप देखना चाहेंगे तो पाएंगे कि दोनों एक-दूसरे में इतने घुले-मिले हैं, कि फर्क करना मुश्किल है. 

जो लोग हिंदू-मुस्लिम विभाजन का सपना देखते हैं, वे चीता मेहरात समुदाय को किस तरफ रखेंगे? समाज और संस्कृति की सुंदरता तो इसी में है कि जो जैसा है, उसे वैसा ही रहने दिया जाए. जब कोई नेता या पार्टी धार्मिक विभाजन का प्रयत्न करे तो आपको लाखों करोड़ों के बारे में सोचना चाहिए कि वे किधर जाएंगे? जो जैसे हैं, उनको वैसे रहने दीजिए. फिर हम आप सदियों तक गर्व से कह पाएंगे कि मैं उस हिंदुस्तान का बाशिंदा हूं जहां पर हर धर्म और हर भाषा के लोग घुलमिल कर रहते हैं और यही हमारी ताकत है: 'विविधता में एकता'. 

कोई है जो हमारी अपनी सुंदरता को मिटाने पर तुला है लेकिन दुनिया भर की विद्रूपता को हम पर थोपना चाहता है. आपको अपनी यही सुंदरता बचानी है."

  अंडमान निकोबार द्वीप समूह में भी यही परंपरा है। वहां भी धर्म चुनने की आज़ादी है।  एक ही परिवार में ईसाई, मुसलमान और हिन्दू धर्म के मानने वाले लोग रहते हैं। इस सन्दर्भ में अंडमान निकोबार द्वीप समूह एक यूनीक द्वीप समूह है। 

लेकिन पूंजीवादी स्वार्थ हिन्दुओ और मुस्लिमो के बीच अपवादस्वरूप बचे सदियों पुराने इन रागात्मक सम्बन्धो की सुंदरता  को कब नष्ट कर देगा और एक दूसरे के प्रति घृणा और नफरत से भरी  दुनिया भर की पूंजीवादी विद्रूपता   थोप देगा, इसकी कोई गारंटी नही है। इतना तो तय है कि पूंजीवाद के रहते इस सुंदरता को बचाना नामुमकिन है। और आज तो मन्दिग्रस्त लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था को बचाये रखने के लिये भगवा तालिबानी डर की सबसे अधिक जरूरत है।

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...