बाबा साहब ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को दुश्मन ज़रूर मानते थे । लेकिन उनकी ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद से दुश्मनी की एक निश्चित सीमा भी थी । इसीलिए वे ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के समूल उन्मूलन के पक्ष में नहीं बल्कि हृदयपरिवर्तन के सिद्धांत के जरिए उनमें सुधारों के पक्ष में थे । साम्यवाद एक ऐसा सिद्धांत है जो सही मायनों में ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद का घोर दुश्मन रहा है । साम्यवाद, ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद में सुधारों के नहीं, बल्कि उनके समूल उन्मूलन के पक्ष में खड़ा एक क्रांतिकारी सिद्धांत है । लेकिन अंबेडकर ने साम्यवादी सिद्धांत की आलोचना नहीं, बल्कि घोर निन्दा करते हुए हिंसक और जंगल की उस आग के समान बताया जिसके रास्ते में जो भी आता है, उसका विनाश होता जाता है । इसीलिए उन्होंने साम्यवादी दर्शन को सिरे से न केवल नकार दिया, बल्कि साम्यवाद के विकल्प के रूप में बुद्ध और बौद्धधर्म को घोषित करते हुए वे बुद्ध और बौद्धधर्म की शरण में चले गए । वे यह समझने में असफल रहे कि ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद, दोनों का मूल आधार श्रम का शोषण और निजी संपत्ति का अधिकार रहा है । वर्णव्यवस्था और जातिवाद का मूल आधार भी श्रम का शोषण और निजी संपत्ति पर एक वर्ण विशेष और वर्ग विशेष का एकाधिकार ही रहा है । इसीलिए पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद के बीच कोई मूलभूत फ़र्क नहीं है । असल में, पूंजीवाद ब्राह्मणवाद का ही अद्यतन (latest) और आधुनिकतम रूप है । इसीलिए आज सामंती अवशेषों के रूप में ब्राह्मणवाद के साथ पूंजीवाद का गठजोड़ देखने को मिलता है, और इसी गठजोड़ के तहत, ब्राह्मणवादी शक्तियां विभिन्न रूपों में पूंजीवाद की प्रबंधक कमेटियों के रूप में कार्य करती दिखाई दे रही हैं, और बदले में पूंजीवाद भी सड़ेगले और मरणशील सामंती अवशेषों के रूप में उपस्थित धर्म, वर्ण और जाति अर्थात ब्राह्मणवाद को संरक्षित किए हुए है, और उनका इस्तेमाल श्रमजीवी वर्ग को धर्म, वर्ण और जाति के आधार पर आपस में बांटने और लड़वाने के लिए करने में संलग्न है, ताकि वह अपने मुनाफाखोर शोषणकारी चरित्र पर पर्दा डाले रख सके । दलित-शोषित श्रमजीवी वर्ग की विभिन्न पांतों में धर्मचेतना, वर्णचेतना और जातिचेतना की सघनता और वर्गचेतना के अभाव में शासकवर्ग यानी पूंजीपतिवर्ग अभी तक अपने इन नापाक मंसूबों में फ़िलहाल कामयाब है । बाबा साहब द्वारा बनाया गया संविधान भी श्रम के शोषण और निजी संपत्ति के अधिकार को परोक्ष रूप से मान्यता देता है । उनके बनाए हुए संविधान में श्रम के शोषण और निजी संपत्ति के अधिकार को गैर-कानूनी और दंडनीय अपराध घोषित करते हुए आपराधिक कृत्य घोषित नहीं किया गया है । यह बात आमतौर पर दलित बुद्धिजीवियों की पकड़ में नहीं आती है । इस तरह, बाबा साहब ने इस संविधान के माध्यम से, परोक्ष रूप से ही सही, जाने-अंजाने वर्णव्यवस्था और जातिवाद के उन्मूलन करने का नहीं, बल्कि संरक्षित करने का काम ही किया । लेकिन इसके बावजूद, बाबा साहब से प्रभावित उनके अनुयाई और अधिकांश दलित बुद्धिजिवियों का बड़ा तबका भी इसी संविधान का गुणगान करने में व्यस्त है । बाबा साहब के राजकीय समाजवाद की धारणा का आत्यंतिक उद्देश्य भी पूंजीवाद का समूल उन्मूलन करना नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था में छोटेमोटे आर्थिक और राजनैतिक सुधारों को अंजाम देना ही था । यह ऐसा ही है जैसे बीमारी को बचाए रखते हुए बीमार को मरने से बचाने की कोशिश करना । अंबेडकर क्रांतिकारी प्रवृत्ति के नेता कतई नहीं थे, बल्कि वे एक सुधारवादी क़िस्म के नेता थे । वर्गों में बंटे समाज में वर्गों से परे कहीं कुछ नहीं होता । इसीलिए वर्गविभक्त पूंजीवादी समाज में देश या राष्ट्र का अस्तित्व भी कहां होता है ? देश या राष्ट्र का अस्तित्व तो तभी संभव जो सकता है, जब वर्गों के अस्तित्व को पूर्णतया खत्म कर दिया गया हो, और वर्गहीन समाज की स्थापना कर दी गई हो । अभी तो परस्पर विरोधी वर्ग हैं, और उनके बीच निरंतर चल रहा वर्ग संघर्ष है । इस व्यवस्था में हर व्यक्ति और हर समूह की प्राथमिकताओं के क्रम में उसके अपने निजी स्वार्थ ही प्राथमिक होते हैं । देश और राष्ट्र तो उनकी प्राथमिकताओं के क्रम में सबसे बाद में आते हैं । वर्गविभक्त समाज में राष्ट्र का अर्थ शासकवर्ग अर्थात पूंजीपतिवर्ग और उसके हितों की पूर्ति से ही होता है । इसीलिए पूंजीवादी व्यवस्था में, पूंजीपतिवर्ग के प्रति श्रद्धा और समर्पण को ही शासकवर्ग द्वारा राष्ट्रभक्ति या देशभक्ति कहकर प्रचारित किया जाता है । वर्गों में बंटे पूंजीवादी समाज के अंतर्गत, भूमि के राष्ट्रीयकरण का अर्थ भी अंततः भूमि को शासकवर्ग अर्थात पूंजीपतिवर्ग की मिल्कियत बना देना ही होता है, और पूंजीपतिवर्ग का मुख्य और आत्यंतिक उद्देश्य राष्ट्रीयकृत भूमि का दोहन करते हुए उसे अपने निजी और अपने वर्ग हितों के लिए इस्तेमाल करते हुए ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा अर्जित करना ही होता है, दलित-शोषित श्रमजीवीवर्ग का कल्याण करना नहीं । समाजवाद तो धीरे-धीरे राज्य के विघटन की प्रक्रिया की ही एक अवस्था है, क्योंकि समाजवादी धारणा के अनुसार, राज्य शासकवर्ग के हाथों में उत्पीड़ित वर्ग के शोषण और दमन का ही हथियार होता है । इसीलिए अंबेडकर के राजकीय समाजवाद की धारणा उत्पीड़ित वर्ग के लिए एक धोखे से ज़्यादा नहीं हो सकती । यही कारण है कि समाजवादी व्यवस्था में भूमि का राष्ट्रीयकरण नहीं, बल्कि भूमि के सामूहिकीकरण या भूमि पर सामाजिक मिल्कियत को कायम करने की प्रक्रिया को अंजाम देते हुए राज्यहीन साम्यवादी व्यवस्था की ओर क़दम बढ़ाया जाता है । लेकिन इसके उलट, बाबा साहब की कल्पना के अनुसार, अधिकांश उनके अनुयाई और दलित बुद्धिजीवी जाति उन्मूलन की बात तो करते हैं, लेकिन वे भी अब पूंजीवादी व्यवस्था और ब्राह्मणवाद को स्वीकार करते हुए अपनी जातियों पर गर्व करने लगे हैं, और धर्म, वर्ण और जाति के आधार पर लड़े जाने वाले पूंजीवादी संसदीय चुनावों में सहभागी होकर इस देश का शासक बनने का ख़्वाब देखने लगे हैं । इस तरह, वे भी परोक्ष रूप से वर्णव्यवस्था और जातिवाद को खादपानी देकर उसे बढ़ावा देने का ही काम कर रहे हैं । वे भूल जाते हैं कि इस व्यवस्था में स्वयं अंबेडकर भी अपने बूते कभी कोई चुनाव नहीं जीत पाए थे । शासकवर्ग ने एक मामूली से दलित उम्मीदवार कजरोलकर को उनके ख़िलाफ़ चुनाव में खड़ा करके उन्हें आसानी से शिकस्त दे दी थी । अंततः शासकवर्ग का सहयोग और समर्थन पाकर ही वे लोकतंत्र के कथित मंदिर में प्रवेश कर पाए थे । तथ्य यह है कि पूंजीवाद ही धर्म, वर्ण और जाति यानी ब्राह्मणवाद को संवैधानिक और कानूनी रूप से संरक्षित किए हुए है, इसीलिए पूंजीवादी व्यवस्था को जड़मूल से नष्ट किए बगैर धर्म, वर्णव्यवस्था और जातिवाद यानी ब्राह्मणवाद से कदापि मुक्त नहीं हुआ जा सकता । इसीलिए आज पूंजीवाद ही दलित-शोषित श्रमजीवी वर्ग का मुख्य दुश्मन हो गया है । निश्चित ही, सामंती अवशेष और साम्राज्यवाद भी पूंजीवाद से गठजोड़ किए हुए हैं, और वे पूंजीवाद के साथ गठजोड़ करते हुए दलित-शोषित श्रमजीवी वर्ग के शोषण और दमन की प्रक्रिया में सहयोगी भी हैं, लेकिन वे दोयम दर्जे के दुश्मन हैं ।
अंबेडकर का मानना था कि वर्ण और जाति को खत्म किए बगैर समतामूलक समाज की स्थापना नहीं की जा सकती, यह कथन सही नहीं है । अंबेडकर का सारा जोर जाति के विनाश पर था । उनके अनुसार, वर्ण और जाति के उन्मूलन के बिना वर्ग का निर्माण नहीं हो सकता, इसीलिए इस देश में वर्गसंघर्ष संभव नहीं है । इसीलिए उनके अनुसार, वर्ण और जाति व्यवस्था को समाप्त किए बिना निजी स्वामित्व का उन्मूलन भी संभव नहीं है । इसके साथ-साथ वे यह भी मानते हैं कि भारत में पूंजीपतिवर्ग वर्ण और जाति को संरक्षित किए हुए हैं । लेकिन तथ्य यह हैं कि हजारों वर्षों तक वर्ण और जाति के बंधनों और गुलामी की पीड़ा को भोगते हुए, अधिकांश दलित तबके के अंदर, वर्ण और जाति की धारणा इस क़दर उनके चेतन-अचेतन और इनकी मांस-मज्जा का हिस्सा हो गई है, कि अब वे स्वयं को वर्ण और जाति के रूप में ही न केवल पहचानने लगे हैं, बल्कि वे अपने वर्ण और अपनी जातियों पर गौरवान्वित भी होने लगे हैं । इसीलिए दलितवर्ग का सर्वहारा वर्ग के रूप में परिवर्तित न हो पाने का मुख्य कारण दलितवर्ग में मौजूद धर्मचेतना, वर्णचेतना और जातिचेतना की सघनता और वर्गचेतना का सर्वथा अभाव ही है ।
अपने को समाजवादी कहने वाले मधुलिमये ने अंबेडकर द्वारा लिखित जाति का उच्छेद नामक पुस्तक की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो से तुलना करते हुए अंबेडकर के ही शब्दों को दोहराते हुए कहा था, *"अंबेडकर का सारा जोर, जाति के विनाश पर था ।उनके मुताबिक इसके बिना न वर्ग का निर्माण हो सकता है और ना ही वर्गसंघर्ष संभव है ।"* मधुलिमये का यह तर्क बड़ा ही हास्यास्पद और बेतुका मालूम पड़ता है । पहली बात, अंबेडकर द्वारा लिखित 'जाति का उच्छेद' नामक पुस्तक जातिव्यवस्था के उन्मूलन का न तो कोई ठोस कार्यक्रम प्रस्तुत करती है, और न ही उसका कोई आत्यंतिक समाधान ही पेश करती है । इसीलिए उनकी पुस्तक 'जाति का उच्छेद' की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो से तुलना करना बेहद हास्यास्पद और तर्कहीन मालूम पड़ता है । इस पुस्तक में अंबेडकर स्वयं कहते हैं की इस देश से जाति का उच्च्छेद नहीं किया जा सकता । इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि जाति उच्छेद को हिंदू कतई स्वीकार नहीं करेंगे । असल में अंबेडकर वर्ण और जातियों को न तो समूल नष्ट करना चाहते थे और न ही पूंजीवादी व्यवस्था के उन्मूलन के पक्ष में थे । वे तो सामंती अवशेषों और पूंजीवाद को नष्ट किए बगैर, हृदयपरिवर्तन के किन्हीं सिद्धांतो के माध्यम से सामंती मूल्यों और पूंजीवादी व्यवस्था में आ गई विसंगतियों में सुधारों के पक्ष में थे ।
दरअसल, जाति और वर्ण को दलितों के सर्वहारा वर्ग के रूप में प्रकट होने की बाधा के रूप में नहीं समझना चाहिए । वर्ण और जातियां तो स्थितियां है, और इन स्थितियों के पार हो जाने की आकांक्षा ही वर्गसंघर्षों की प्रेरक शक्ति हैं । दलित वर्ग के सर्वहारा के रूप में रूपांतरित होने में वर्ण और जाति उतनी बड़ी बाधा नहीं है, जितनी कि उनके भीतर मौजूद धर्मचेतना, वर्णचेतना और जातिचेतना की सघनता और वर्गचेतना का सर्वथा अभाव है । इसीलिए जैसे-जैसे उत्पीड़ित वर्ग के भीतर वर्गचेतना का प्रसार होता जाएगा, वैसे-वैसे वे स्वयं को सर्वहारा वर्ग के रूप में ज़रूर समझेंगे और पहचानेंगे, क्योंकि मूल रूप से तो दलितवर्ग सर्वहारा ही हैं । इसीलिए वर्गचेतन होते ही अनिवार्य रूप से उनका स्वयं को एक वर्ग के रूप में देखना और समझना संभव हो जाएगा । ऐसा होते ही, उनका एक वर्ग के रूप में संगठित होकर वर्गसंघर्षो का हिस्सा होना भी संभव हो पाएगा । इसीलिए अंबेडकर और मधुलिमये का यह कथन बेहद निराशाजनक और सिर के बल खड़ा मालूम होता है कि वर्णव्यवस्था और जातिवाद को मिटाए बिना दलितवर्ग को न तो सर्वहारा के रूप में संगठित किया जा सकता है, और न ही वर्गसंघर्ष संभव हो सकता है, और न ही निजी संपत्ति के अस्तित्व का उन्मूलन ही किया जा सकता है । इसके स्थान पर यह कहना तर्कसंगत होगा कि सामंती अवशेषों के साथ गठजोड़ किए पूंजीवाद को जड़मूल से नष्ट किए बगैर और उसके स्थान पर समाजवादी व्यवस्था की स्थापना किए बगैर वर्णहीन, जातिविहीन समतामूलक समाज की स्थापना कदापि नहीं की जा सकती । यह कार्य वर्गचेतन सर्वहारा वर्ग के द्वारा वर्गसंघर्षों के द्वारा ही संपन्न हो सकता है ।
*कंवल भारती द्वारा लिखे गए लेख*
*'अंबेडकर के चिंतन में मार्क्स' के*
*प्रत्युत्तर में लिखा गया लेख ।*
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