Tuesday, 21 February 2023

जाति की आत्मकथा (64) : गड़रिया (संपूर्ण)


मैं यादवों की तरह इतिहास के माथे पर कलंक नहीं हूं। मैं गड़रिया हूं और पूरी शान के साथ कहता हूं कि मैं इस दुनिया को राह दिखाने वाला रहा हूं। मैं ईसा मसीह, पैगंबर मुहम्मद और मक्खलि गोसाल हूं। वह मैं ही हूं जिसने इस पूरी दुनिया को अनेकानेक उपलब्धियां दी। वह मैं ही हूं जिसने रास्ते खोजे और लोगों को जोड़ा। 

हां, वह मैं हूं जिसने यह जाना कि भेड़ों के कितने उपयोग हो सकते हैं। चमारों के विपरीत मैंने यह ज्ञान हासिल किया कि भेड़ों के बालों से ऊन तैयार किया जा सकता है और फिर उसके जरिए ठंड से बचने के लिए कंबल व अन्य कपड़े तैयार किये जा सकते हैं। मैं वह हूं, जो दुनिया का पहला सांस्कृतिक और सामाजिक संदेशवाहक था। 

विस्तार से कहूं तो मैं गड़रिया जाति भारतीय सामाजिक सभ्यता का वह प्रकाश स्तंभ हूं जिसने कृषि व्यवस्था के आविष्कार के पहले मनुष्य को सभ्य होने का पाठ पढ़ाया। इस मामले में मैं अन्य सभी जनजातीय समूहों से आगे रहा। सबसे पहले मैंने ही लोगों को बताया कि जिस जानवर का मांस आसानी से खाया जा सकता है और जो सुपाच्य है, वह भेड़ है। मैंने लोगों को इसके अन्य उपयोगों के बारे में जानकारियां दीं।

मुझे अब भी गौरव होता है अपनी इस उपलब्धि पर कि मैंने पूरी दुनिया को जोड़ा। भेड़ों को चराने के क्रम में मैं दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में गया और जहां गया्, वहां केवल अपनी भेड़ों को लेकर नहीं गया। मैं अपने साथ ज्ञान लेता गया। और साथ ही अन्य जगहों से मिले ज्ञान को मैंने आगे बढ़ाया।

लेकिन ब्राह्मणवाद, जिसने भारतीय समाज को अवैज्ञानिक और जड़ बना रखा है, उसने कभी भी मेरे श्रम को मान्यता नहीं दी। उसने हमेशा मुझे उपेक्षित रखा। जिन बातों के लिए पूरे भारतीय समाज को मेरे प्रति ऋणी होना चाहिए, उसने उन बातों और उपलब्धियों के लिए मुझे तिरस्कृत किया। आज भी समाज में मेरा कोई मान नहीं।

अब इस बात को ऐसे भी समझिए कि यादवों और मेरे बीच में अंतर क्या है। यादव यायावर नहीं रहे। वे कृषक भी थे और मवेशीपालक भी। वे गाय-भैंस चराते थे और इसके लिए उनके पास एक निश्चत भूभाग था। मतलब यह कि वे जिस इलाके में रहते, उसी इलाके तक सीमित रहते थे। मैं यह नहीं कहत कि सभ्यत के विकास में यादवों की भूमिका नहीं रही है, लेकिन उनकी भूमिका मेरी भूमिका के आगे नगण्य रही है। लेकिन फिर भी ब्राह्मणों ने यादवों को प्राथमिकता दी। कृष्ण के रूप में उनके नायकत्व को स्वीकार किया। यहां तक कि उन्हें विष्णु का अवतार बना दिया। यह सब उन्होंने क्यों किया, इसका कारण जो मैं गड़रिया समझता हूं, वह यही है कि यादव कृषक व मवेशीपालक रहे और इस कारण जमीन पर उनका अधिकार रहा। जमीन पर अधिकार होने के कारण ही यादवों ने राजनीतिक हस्तक्षेप किया। लेकिन मैं तो यायावर ही रहा। वैसे भी हम यायावरों के पास जमीन कहां और जब जमीन नहीं है तो राजनीतिक हस्तक्षेप कहां मुमकिन था।

लेकिन इससे मेरी दावेदारी कम नहीं हो जाती। मैं तो जनजातीय समूह का वह हिस्सा रहा हूं, जिसने पूरी प्रकृति को एक समान देखा। मैंने पहाड़ों को अपना माना, मैदानी इलाकों को भी अपनाया और यहां तक नदियों को भी आत्मसात किया। 

खैर, जो बातें अतीत की हैं, उसकी बात क्या करूं। लेकिन मन में कसक तो उठती ही है कि मेरे पूर्वजों ने केवल यायावरी पर फोकस क्यों किया? क्यों उन्होंने ईसा मसीह के गड़रियत्व को स्वीकार नहीं किया, जिसने मानवता से प्रेम किया और पूरी दुनिया क्षमाशील होने का संदेश दिया? 

निश्चित तौर पर यह बात मुझे गौरवान्वित करती है कि इतिहास के एक महत्वपूर्ण हिस्से में मेरा नाम उल्लिखित तो है। मैं तो यह सोचकर भी अपने आपको उत्साहित पाता हूं कि मेरे ही समुदाय के मक्खलि गोसाल हुए, जो बुद्ध के भी गुरू थे। हां, वही आजीवक मक्खलि गोसाल जिन्होंने यह विचार दिया कि इस धरती पर कोई ईश्वर नहीं है। हर घटना का घटित होना महज एक परिघटना है और इसके पीछे लौकिक कारण होते हैं।

दरअसल, यह केवल ईसा, मक्खलि गोसाल या फिर बुद्ध तक सीमित नहीं है। इस कड़ी में इस्लाम के पैगंबर मुहम्मद साहब भी शामिल हैं। वे भी गड़रिया ही थे। भेड़ें चराते थे। उन्हें तो उनके अनुयायी काली कमली वाला भी कहते हैं। यह कोई संयोग नहीं था कि आज पूरे विश्व में जिन तीन धर्मों को सबसे अधिक माना जाता है, उसके प्रवर्तकों में गड़रियापन कॉमन है।

यह संयोग इसलिए नहीं क्योंकि गड़रिया समाज ने मानव सभ्यता के विकास को न केवल गति दी, बल्कि नित नये प्रयोगों के जरिए इस समाज ने कृषि को भी समुन्नत किया। सबसे कारगर रहीं हमारी भेड़ें। भेड़ों ने जिन घासों को खाया, उन घासों को मेरे पूर्वजों ने खुद चखा और फिर इस दुनिया को सब्जियों और साग आदि के बारे में बताया। जिन घासों को भेड़ें नहीं खाती थीं, उन घासों की पड़ताल भी मेरे पूर्वजों ने की तथा उनके औषधीय गुणों की खोज की। चरवाही के क्रम में मेरे पूर्वजों ने पूरी दुनिया की खाक छानी और लोगों को अपनी खोजों के बारे में जानकारी दी। यही वह योगदान है, जिसने कृषि को विस्तार दिया। वह मेरे ही पूर्वज थे, जिन्होंने उन मवेशियों के बारे में पता लगाया जिनका इस्तेमाल कृषि कार्यों के लिए किया जा सकता था। यहां तक कि किन मवेशियों का इस्तेमाल दूध और मांस आदि के लिए किया जा सकता है, इसकी खोज का श्रेय भी मेरे ही पूर्वजों को जाता है। वे मेरे ही पूर्वज रहे जिन्होंने मवेशीपालन की शुरूआत की। इन्हें भारतीय समाज में यादव भी कहा जाता है। इस समाज ने तो अलहदा काम किया। चूंकि इस समाज के लोगों के पास कृषि का अनुभव भी था और गड़रियापन का भी तो इस समाज के लोगों ने कृषि कार्य के साथ ही मवेशीपालन को भी अपने अर्थशास्त्र में जोड़ दिया।

यादव समाज के कारण ही कृषि कार्यों के लिए बैलों और भैंसों का इस्तेमाल किया जाने लगा। जब बैलों और भैंसों का उपयोग नहीं किया जाता था तब कृषि उपकरण हस्तचालित ही होते थे। कुदाल, फावड़ा और गैंता आदि उपकरण के अलावा हल भी तब हस्तचालित ही थे। 

उन दिनों आज की तरह विभिन्न पेशा करनेवालों के बीच जातिगत भेदभाव नहीं था। लोहा कर्म करनेवाले, लकड़ी का कर्म करनेवाले, चमड़े का कर्म करनेवाले, खेती करनेवाले और स्वयं मेरे पूर्वजों के बीच अंतर नहीं था। इस कारण हुआ यह कि इन श्रमिक जातियों ने अपने अद्भूत समन्वय से हल का विकास किया। इसमें इन सभी का योगदान था। लोहा कर्म करनेवालों ने चौड़े और बड़े फल वाले हल बनाए तो लकड़ी का कर्म करनेवालों ने उसे लकड़ी के एक खांचे में संयोजित किया और एक लंबी लकड़ी के साथ उसे जोड़ दिया ताकि उसे दो बैलों अथवा भैंसों के गर्दन के बीच रखा जा सके। साथ ही एक लंबी लकड़ी और जोड़ दी ताकि हल की दिशा नियंत्रित रखी जा सके।

आज भले ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने खूब तरक्की कर ली है, लेकिन उन दिनों के बारे में सोचिए जब प्रारंभ में इसकी खोज हुई होगी। तब एक-एक जानकारी कितनी अहम होती होगी। 

खैर, जब अपने महान पुरखों के इतने योगदानों की चर्चा कर चुका हूं तो एक योगदान की चर्चा और कर दूं और मेरा दावा है कि इस देश के ब्राह्मण वर्ग के पास मेरे इस दावे का कोई जवाब नहीं होगा। मैं जिस योगदान की बात कर रहा हूं, वह गणन की प्रक्रिया का आविष्कार है। इस प्रक्रिया के आविष्कार में दो अहम हिेस्से रहे। एक तो यह कि महिलाओं के ऋतुकाल ने इस प्रक्रिया को एक ठोस कारण उपलब्ध कराया। दरअसल एक रजस्वला महिला साल में 13 बार ऋतुकाल में प्रवेश करती है। इस आधार पर समय की गणना की शुरूआत हुई। इससे समय को गिना गया। लेकिन असली गणना जिसे हम कहते हैं, उसकी शुरूआत तो मेरे पूर्वज गड़रियों ने की। दरअसल, उनके पास भेड़ें समूह में होती थीं। अब उनके पास कितनी भेड़ें हैं, यह जानने के लिए उन्होंने गिनना शुरू किया। प्रारंभ में उन्होंने अपने हाथ की अंगुलियाें का उपयोग किया होगा। हाथ की अंगुलियों में निशान बने होते हैं। एक अंगुली में तीन निशान और एक हाथ में कुल 15 और दोनों हाथ मिलाकर 30 निशान। ऐसे ही उन्होंने गिनना जाना होगा और पूरी दुनिया को बताया होगा कि चीजों को गिना कैसे जाता है।

मैं इसी आधार पर कहता हूं कि भारतीय ब्राह्मणों का यह दावा कि आर्यभट ने शून्य का आविष्कार कर गिनने की प्रक्रिया की शुरूआत की, एकदम झूठा है। आर्यभट को दशमलव संख्या पद्धति की खोज का श्रेय दिया जाता है। जबकि उसके पहले मेरे पूर्वजों ने 0 से 9 के अतिरिक्त की गणना कर ली थी और अनेकानेक इकाईयों का निर्माण भी कर लिया था। मसलन, काटे गए धान के पौधों का हिसाब रखने के लिए गाही नामक इकाई। एक गाही में धान के पौधों के पांच बंडल होते हैं। ऐसे ही गंडा नामक इकाई, जिसका आविष्कार यादव समाज की महिलाओं ने पाथे गए गोइठा को गिनने के लिए किया। एक गंडा में चार गोइठा शामिल होता है।

खैर, यह सब इतिहास की बातें हैं, जिन्हें कभी किसी ने लिखा ही नहीं। ब्राह्मणों ने हमारे पूर्वजों के ज्ञान को कभी महत्व नहीं दिया। आज भी इन सवालों पर भारतीय अकादमिक जगत मुंह बाए खड़ा है। और यह सब इसलिए कि ब्राह्मण समाज हमारे ऊपर अपना तथाकथित ज्ञान थोपता रहे, जबकि असल में वह ज्ञान है ही नहीं।

वर्तमान की तरफ लौटता हूं तो मुझे बेहद निराश होती है। गड़रिए, जिन्होंने एक समय मानव सभ्यता को अनुपम सौगातें दीं, सभ्यता के विकास के क्रम में पिछड़ते चले गए। और आज तो यादव समाज जो कि उनका ही एक हिस्सा है, वह स्वयं को अलग मानता है और हमारी पांत में शामिल नहीं होना चाहता। यह समाज भी हमें हिकारत भरी निगाह से देखता है। वैसे यह सब ब्राह्मणों का किया धरा है, जिन्होंने इस समाज को अपनी चपेट में ले लिया है, जो पूर्व में श्रम और वैज्ञानिक विचारों से लैस था। आज यह समाज खुद को कृष्ण का वंशज कहता है और गर्व करता है कि भगवद्गीता उसके कृष्ण ने रचा। जबकि वह यह समझना ही नहीं चाहता है कि कृष्ण ने भगवद्गीता में एक भी श्लोक श्रमिक समाज के हित में नहीं कहे। यह तो कोई भी आसानी से समझ सकता है कि कृष्ण अपने ही समाज को ब्राह्मणों का गुलाम बनने के लिए प्रेरित कैसे कर सकता है। बतौर उदाहरण यह देखिए–

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥5.18৷৷

असल में पांचवें अध्याय को ब्राह्मणों ने 'कर्म संन्यास योग' की उपमा दी है, जिसमें कृष्ण अर्जुन को कर्म की अपनी ब्राह्मणवादी परिभाषा का विस्तार करता है और अर्जुन को ज्ञानी पुरुष का मतलब समझाता है। इस क्रम में वह कहता है कि ज्ञानी वे हैं, जो विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं। अब इस श्लोक में यह तो साफ है कि चांडाल यानी एक जाति जिन्हें पहले अछूत माना गया और अब दलित के रूप में उन्हें संबोधित कहा जाता है। संविधान में इन जातियों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में रखा गया है। लेकिन भगवद्गीता नामक इस पंफलेट के उपरोक्त श्लोक में उन्हें गाय, हाथी, कुत्ते के बाद चांडाल के बाद जगह दी गई है।  

भगवद्गीता के छठे अध्याय में तो ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था और जातिगत भेदभाव को न्ययोचित ठहराने के लिए गजब का तर्क दिया है। इसका 32वां श्लोक देखा जाना चाहिए। यह कहता है–

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ৷৷6.32৷৷

इस श्लोक में कृष्ण परम योगी की परिभाषा बताता है कि वही योगी परम योगी है जो समाज के विभिन्न तबकों यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, म्लेच्छ आदि को अपने शरीर के क्रमश: मस्तक, हाथ, पैर, गुदा (शौच का अंग) के समान मानता है। इसमें ब्राह्मणों ने यह भी कहा है कि जो सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है। अब मस्तक ब्राह्मण के लिए, हाथ क्षत्रिय के लिए, पैर वैश्य के लिए, गुदा यानी शौच का अंग शूद्रों और म्लेच्छों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, तो इस पंफलेट में और मनुस्मृति में क्या अंतर है।

जाहिर तौर पर भगवद्गीता न तो यादवों का ग्रंथ और न ही हम गड़रियों का।यह किसी भी श्रमिक समुदाय का ग्रंथ नहीं हो सकता। यह विशुद्ध रूप से ब्राह्मणों का ग्रंथ है, जिसे कृष्ण नामक एक मिथकीय पात्र के मुंह से कहलवाया गया है ताकि शूद्रों को ब्राह्मणवादी फंदे में फंसा कर खा जा सके।

लेकिन अफसोस कि आज भी लोग इस सच को समझ नहीं रहे। लेकिन मैं गड़रिया, अपने पूर्वजों से मिले असीम धैर्य और साहस के बूते कह रहा हूं कि मैं निराश नहीं हूं। हालांकि भारतीय संविधान में मेरे लोगों को ओबीसी में शामिल किया गया है, और कहीं-कहीं नोमेडिक यानी घुमंतू जाति के रूप में मान्यता दी गई है, मैं आश्वस्त हूं कि मेरा यह समाज जड़ता का शिकार नहीं होगा। वह मक्खलि गोसाल, बुद्ध, ईसा और मुहम्मद के रास्ते पर चलता रहेगा।

- नवल किशोर कुमार

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