Saturday, 8 October 2022

अतिरिक्त मूल्य के सवाल पर सीमा आज़ाद

अतिकिरान्तिकारी (मूर्खवादी) अब कुत्सा प्रचार और गाली-गलौज पर उतर चुके हैं। जाहिर है कि जब तर्क चुक जाता है तो कुत्साप्रचार और झूठ के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। पिछले लम्बे समय से इनका इतिहास यह रहा है कि हर बहस में ये पूँछ उठाकर भाग खड़े होते हैं, कोई जवाब न दे पाने की सूरत में ये झूठे मनगढन्त आरोपों की बौछार कर देते हैं और ब्राह्मणवादी, साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ जैसे आरोपों की बौछार करते हैं। हम इनके इन वाहियात आरोपों का जवाब देना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। हम सिर्फ़ उन बहसों की बात करते हैं, ताकि लोग खुद तर्क के आधार पर फैसला कर लें-

अतिरिक्त मूल्य के सवाल पर...

कार्ल मार्क्स के जन्मदिवस के अवसर पर दस्तक पत्रिका की सम्पादक सीमा आज़ाद ने अपने फ़ेसबुक वॉल पर दस्तक पत्रिका के मई-जून 2018 में प्रकाशित एक लेख साझा किया है। लेख में वैसे तो दार्शनिक स्तर पर और ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण से देखने पर कई त्रुटियाँ और अस्पष्टताएँ हैं, लेकिन उन पर फ़िर कभी। फ़िलहाल इस लेख में राजनीतिक अर्थशास्त्र की जो समझदारी प्रस्तुत की गयी है उस पर कुछ बातें!

सीमा आज़ाद अपने लेख में लिखती हैं – "उन्होंने बताया कि पूंजीपति अपना मुनाफा अपने दिमाग या कारोबार में लगाई गयी पूंजी से नहीं कमाता है, बल्कि वह अपना मुनाफा मजदूरों के श्रम की चोरी से ही कमाता है। संक्षेप में इसे ऐसे समझा जा सकता है कि पूंजीवाद के आने के बाद नित नयी विकसित तकनीक वाली मशीनों के रूप में मनुष्य का श्रम पहले ही लग चुका होता है। मशीनें मनुष्य के श्रम का ही विकसित रूप है और कुछ नहीं। यानि यदि मनुष्य पहले यदि 8 घण्टे में 10 जोड़ी जूते बना लेता था, और आठ घण्टे का उस 200 रूपये मिलता था (जो कि हम फिलहाल मान लेते हैं, कि उसके पुनरूत्पादन पर लगने के लिए पर्याप्त हैं। अब नयी विकसित मशीनें, जो कि मजदूरों के श्रम का ही विकसित रूप है, के आ जाने पर वह 10 जोड़ी जूते 4 घण्टे में ही बना लेता है, लेकिन पूंजीपति अब भी उससे 8 घण्टे ही काम ले रहा है, और मजदूरी उतनी ही दे रहा है, या वो एक मजदूरी में दो मजदूर का काम करा रहा है। यानि श्रम के विकसित रूप में मशीनों के इस्तेमाल से एक मजदूर पहले 4 घण्टे में ही खुद को मिलने वाले मूल्य का श्रम कर ले रहा है, उसके आगे के 4 घण्टे जो वह श्रम कर रहा है, वह पूंजीपति द्वारा उसके श्रम की चोरी है और यही उसके मुनाफे का आधार है, न कि पूंजीपति की पूंजी।

दुनिया में हर पूंजी का आधार श्रम ही है और कुछ नहीं। इस रूप में दुनिया की मुख्य पूंजी प्रकृति के बाद श्रम है, एक पर कब्जा कर और दूसरे की चोरी कर पूंजीपति अपना मुनाफा बढ़ाता जाता है। इसे ही 'अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत' कहते हैं।"

सीमा आज़ाद को असल में अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त की सामान्य जानकारी नहीं है। जिसको सीमा आज़ाद अतिरिक्त मूल्य कह रही हैं, वह असल में सापेक्षिक अतिरिक्त मूल्य है जो कि नयी मशीनरी के लगाने से पैदा होता है। जबकि सीमा आज़ाद के हिसाब से अतिरिक्त मूल्य नयी मशीन लगाने से पैदा होता है। सीमा आज़ाद के इस अनोखे मार्क्सवाद से यह बात निकलती है कि अगर पूँजीपति नयी मशीन न लगाये तो कोई अतिरिक्त मूल्य पैदा ही नहीं होगा। जबकि मार्क्स बताते हैं कि पूँजीवादी उत्पादन का मतलब ही यही होता है कि उसमें अतिरिक्त मूल्य पैदा हो रहा है। मार्क्स ने माल उत्पादन के दो रूपों की चर्चा की है। पहला : साधारण माल उत्पादन, जिसमें उत्पादन का मकसद उपभोग होता है, और दूसरा: विस्तारित माल उत्पादन, जो कि पूँजीवादी उत्पादन है। किसी भी पूँजीवादी उत्पादन में अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन अनिवार्यतः होता ही है क्योंकि कोई भी पूँजीपति इसके बग़ैर पूँजी लगायेगा ही नहीं। अतिरिक्त मूल्य नयी या पुरानी मशीन से नहीं पैदा होता बल्कि मज़दूर की श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल और कुल श्रमकाल के अन्तर से पैदा होता है। नयी मशीन वास्तव में पूँजीवादी होड़ को बताती है, जिसमें पूँजीपति कुल श्रमकाल में से मज़दूर की श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल के हिस्से को कम कर देता है, जिससे किसी माल के उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल, सामाजिक रूप से आवश्यक औसत श्रमकाल से कम हो जाता है और उसे सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य प्राप्त होता है।

दूसरे शब्दों में, पूँजीपति नयी मशीनरी लगाकर श्रम की उत्पादकता में वृद्धि कर देता है। इसके परिणामस्वरूप वह अतिरिक्त श्रमकाल जिसमें वह अतिरिक्त मूल्य उत्पादित करता था, वह पहले से बढ़ जाता और पूँजीपति को बढ़ा हुआ अतिरिक्त मूल्य मिलता है, जिसे मार्क्स सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य (अतिरिक्त अतिरिक्त मूल्य) कहते हैं। पूँजीवादी होड़ इस अतिरिक्त अतिरिक्त मूल्य को बहुत अवधि तक बने नहीं रहने देता क्योंकि अन्य पूँजीपति भी नयी मशीनरी लगाकर अपने माल के उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल को उस पूँजीपति के माल के उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल के स्तर पर ले आते हैं, जिससे उस माल के उत्पादन के लिए सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल की मात्रा ही कम हो जाती है, जिससे अतिरिक्त अतिरिक्त मूल्य ग़ायब हो जाता है लेकिन अतिरिक्त मूल्य फ़िर भी पूँजीपतियों को मिलता रहता है।

आइये देखते हैं कि मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्य के बारे में क्या लिखा है – "यदि मज़दूर को अपना सारा समय अपने तथा अपने बाल बच्चों के जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक साधन पैदा करने में लगाना पड़े, तो दूसरों के वास्ते मुफ्त में काम करने के लिए उसके पास कोई समय नहीं बचेगा। जब तक उसके श्रम में एक खास दर्जे की उत्पादकता नहीं होती, तब तक उसके पास ऐसा कोई फालतू समय नहीं हो सकता : और जब तक उसके पास ऐसा फालतू समय नहीं होता, तब तक वह कोई अतिरिक्त श्रम नहीं कर सकता और इसलिए तब तक न पूँजीपति हो सकते हैं, न गुलामों के मालिक और न सामन्ती प्रभु। कहा जा सकता है कि फालतू समय के अभाव में बड़े मालिकों का कोई भी वर्ग नहीं हो सकता।" (पूँजी खण्ड 1 अध्याय 16)

 
"काम के दिन को उस बिन्दु के आगे खींच ले जाना जहाँ तक मजदूर केवल अपनी श्रम शक्ति के मूल्य का समतुल्य ही पैदा कर पाता है, और पूँजी का इस अतिरिक्त श्रम पर अधिकार कर लेना यह निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन है। इस प्रकार का उत्पादन पूँजीवादी व्यवस्था का सामान्य आधार है..." (अध्याय 16, पृ. 559)

 

"काम के दिन को लम्बा करके जो अतिरिक्त मूल्य पैदा किया जाता है, उसे मैंने निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य का नाम दिया है। दूसरी ओर, जो अतिरिक्त मूल्य आवश्यक श्रम-काल के घटा देने और काम के दिन के दो हिस्सों में तदनुरूप परिवर्तन हो जाने के फलस्वरूप पैदा होता है, उसे मैं सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य की संज्ञा देता हूँ।" (पूॅंजी, खण्ड 1. पृ. 345)

स्पष्ट है कि सीमा आज़ाद की व्याख्या में सापेक्ष और निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य के भेद को मिटा दिया गया है और उनकी समझ यह है कि नयी विकसित मशीनों के आ जाने पर अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है।

 

यदि कार्ल मार्क्स की व्याख्या को सूत्रबद्ध करें तो निम्न समीकरण बनेगा:

स्थिर पूँजी (मशीनरी, कच्चा माल आदि) + परिवर्तनशील पूँजी (मज़दूरी) = उत्पाद + मज़दूरी + अतिरिक्त मूल्य

 

जबकि सीमा आज़ाद के "मार्क्सवाद" को सूत्रबद्ध करें तो –

पहली स्थिति में –

स्थिर पूँजी + परिवर्तनशील पूँजी  = उत्पाद + मज़दूरी

दूसरी स्थिति में जब नयी मशीन आ जाती है, यानि स्थिर पूँजी में वृद्धि हो जाती है तो –

स्थिर पूँजी + स्थिर पूँजी (नयी मशीन) + परिवर्तनशील पूँजी  = उत्पाद + मज़दूरी + अतिरिक्त मूल्य

ज़ाहिर है कि ऊपर के समीकरणों से सीमा आज़ाद के "मार्क्सवाद" को समझा जा सकता है कि जो कि मार्क्स की शिक्षा के एकदम विपरीत है।

सीमा आज़ाद की एक बात बिल्कुल सही है जब वह कार्ल मार्क्स से इस कथन को दुहराती हैं कि "दार्शनिकों ने समाज की व्याख्या की है, लेकिन सवाल इसे बदलने का है"। लेकिन एक मार्क्सवादी के लिए दुनिया को बदलने के लिए कम से कम मार्क्सवाद का ज्ञान ज़रूरी है। मार्क्स ने यूं ही नहीं लिखा था कि "अज्ञान एक राक्षसी शक्ति है और हमें भय है कि यह कई त्रासदियों का कारण बनेगी।" दूसरे मार्क्सवादी विचारधारा की हिफ़ाजत करना एक जमीनी काम है। मार्क्स ने ये भी लिखा था कि "किसी ग़लत विचार का खण्डन न करना बौद्धिक बेईमानी है।"

शेष अगली पोस्ट में ...

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