जिस स्कूली शिक्षा के साथ जोड़कर फुले दम्पति को नाहक ही प्रचारित किया जा रहा है, वह उपक्रम उनका था ही नहीं। यह ब्रिटिश सरकार का उपक्रम था जिसके लिए फुले दम्पति, ब्रिटिश सरकार से पैसा पाते थे, जिसमें बाक़ायदा उनके वेतन, भत्ते भी शामिल थे।
इसके पीछे, ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य, किसी सामाजिक सरोकार से अनुप्रेरित नहीं था बल्कि दलित जातियों के हिस्सों को, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पीछे बांधना था।
1857 के ग़दर ने दिखा दिया कि उनके ये तमाम उपक्रम विद्रोह को रोक पाने में असफल रहे और उन्होंने इनसे हाथ वापस खींच लिया। यहीं पर फुले दम्पति के इन प्रोजेक्ट का अंत हो जाता है।
फुले, पेरियार, अम्बेडकर और उसके बाद अम्बेडकरियों की एक पूरी कतार, हमेशा, उत्पीड़क शासकों की गोद में ही बैठी रही। उसने दलितों-उत्पीड़ितों को भ्रमित कर, सत्ता के विरुद्ध विद्रोह से विरत किया और शोषकों के ख़िलाफ़, शोषितों की वर्ग एकता को पलीता लगाया। उन्होंने साम्राज्यवादियों, भूस्वामियों और फिर देशी पूंजीपतियों से गठजोड़ किए रखे, और उनके लूट-शोषण पर परदा डालते हुए, दलित-मेहनतकश जनता का ध्यान, अतीत के मिथकों में भटकाए रखा। न सिर्फ फुले और अम्बेडकर, बल्कि उनके बाद भी जगजीवन राम से लेकर, ढसाल, अठावले, पासवान, मायावती, उदित राज जैसे सैंकड़ों अम्बेडकरियों ने, दलितवाद के नाम पर दोनों हाथ से सत्ता-सुख लूटा है। इन अम्बेडकरियों ने पूंजीवाद, पूंजीपतियों और उनकी सत्ता और शासन की दलाली के सिवा कुछ नहीं किया। ये सभी, क्रान्ति, समाजवाद और सर्वहारा का खुलकर विरोध करते रहे।
Rameshwar Dutta
No comments:
Post a Comment