Saturday, 6 August 2022

(फादर स्टेन की मूल कविता 'प्रिज़न लाइफ -- अ ग्रेट लेवलर' का अनुवाद )



ज़िंदाँनों में सब बराबर हैं
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कैदखानों के अंदर
चंद रोज़मर्रा की 
जरूरियातों के अलावा
हर छोटी से छोटी 
चीज से महरूम
कर दिया जाता है

"तुम" को तरजीह दी जाने लगती है
और
"मैं" पसमंजर में 
चला जाता है
सभी जन 
"हम" की 
खुली फ़िज़ा में 
सांस लेने लगते हैं

ना कुछ मेरा
ना कुछ तेरा 
सब कुछ 
हमारा हो जाता है

जूठन  का एक कौर तक
ज़ाया नही जाता
बल्कि
हवा में तैरते
पंछियों के साथ 
साझा होता है
वे पंख फैलाए आते हैं
और 
अपने पेट की आग
बुझाकर सुदूर गगन में 
उड़ जाते हैं

कैदखाने में
इतने नौजवान चेहरों को 
देखकर दिल अफसुर्दा होता है
मैं  पूछता हूँ
"तुम्हारा कसूर?"
और
वे शब्दों का आडंबर रचाए बिना कहते हैं:
हरेक से
उसकी गुंजाईश
हरेक को 
उसकी जरूरत
के मुताबिक
ही तो समाजवाद है

यूँ समझो कि विवशता ने
इस समानता को गढ़ दिया है

वो मंज़र 
कितना खुशगवार होगा 
जब इंसान 
अपनी खुशी और मर्जी से
बराबरी को गले लगा पाएंगे
उस पल 
हम 
सही मायनों में 
धरती के 
लाल कहलायेंगे

***

Monday, 1 August 2022

प्रेमचंद का यह उद्धरण

प्रेमचंद का यह उद्धरण बहुत महत्वपूर्ण है आप भी पढ़ें

प्रेमचंद ने 1932 में 'सदगति' कहानी लिखी थी, जिस पर सत्यजीत राय ने फिल्म भी बनाई थी. जब यह कहानी छपी तब उन्हें 'ब्राह्मण द्वेषी' और 'घृणा का प्रचारक' तक कहा गया. अमृत राय के शब्दों में प्रेमचंद के
 "इस लिखने में क्रोध था, कालकूट घृणा --क्योंकि वह रवींद्र नाथ (टैगोर) की तरह चाण्डालों के लिए बुद्ध की करुणा की याचना नहीं कर रहे थे, सामाजिक न्याय मांग रहे थे जो कि बिलकुल दूसरी चीज है. और सवर्ण हिन्दू अगर इस चीज को नहीं झेल या पचा सका तो उसका भी दोष नहीं है. मुंशी जी इस हमले से सिटपिटा जानेवाले आदमी नहीं थे, उसी महीने उन्होंने 'हंस' में जवाब दिया 'जीवन में घृणा का स्थान'."  

उस जवाब का एक अंश निम्नवत है--

"निंदा ,क्रोध और घृणा यह सभी दुर्गुण है लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकाल दीजिये तो संसार नरक हो जायेगा .यह निंदा का ही भय है जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है ,यह क्रोध ही है जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है ....घृणा स्वाभाविक मनोवृत्ति है और प्रकृति द्वारा आत्मरक्षा के लिए सिरजी गयी है .जिस वस्तु का जीवन में इतना मूल्य है उसे शिथिल होने देना अपने पाँव में कुल्हाडी  मारना है .जरूरत इस बात की है कि हम घृणा का परित्याग करके उसे विवेक बना दें .इसका अर्थ यही है कि हम व्यक्तियों से घृणा न करके उनके बुरे आचरण से घृणा करें ...पाखंड ,धूर्तता ,अन्याय,  बलात्कार और ऐसी ही अन्य दुष्प्रवृतियों के प्रति हमारे अन्दर जितनी ही प्रचंड घृणा हो उतनी ही कल्याणकारी होगी ..
जीवन में जब घृणा का इतना महत्व है तो साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है ."----प्रेमचंद 
(१९३२ में लिखित 'जीवन में घृणा का स्थान 'लेख से .)
वरिष्ठ आलोचक और समीक्षक वीरेंद्र यादव के फेसबुक वॉल से


प्रेमचंद और अंबेडकरवादी

(इस पोस्ट का आशय सिर्फ इतना है कि ऐतिहासिक तथ्यों का वस्तुगत तरीके से निरिक्षण होना चाहिए।) 

प्रेमचंद के ख़िलाफ़ पंडों पुरोहितों की दुश्मनी जग ज़ाहिर है। ऐसा प्रेमचंद के काल से ही होता चला आ रहा है। फिर  बहुत बाद के दिनों में एक और दुश्मन सामने आया। वह है अंबेडकरवादी। यह बाद के दिनों में इसलिए आया क्योंकि उन दिनों उनकी शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति इतनी विकसित नहीं थी कि वह अपनी कोई राय रख पाता। हालांकि सावित्रीबाई फुले 1852 में ही दलित बालिकाओं के लिए स्कूल खोल चुकी थीं। 
बहरहाल बात हो रही है प्रेमचंद के नये दुश्मन बने अंबेडकरवादियों की। वे हर साल 31 जुलाई को प्रेमचंद की एक चिट्ठी (जिसका स्त्रोत संदिग्ध है) फेसबुक पर वायरल करते हैं और जताना चाहते हैं कि स्त्रियों को लेकर प्रेमचंद दकियानूसी विचार रखते थे। बताया जाता है कि वह चिट्ठी प्रेमचंद ने अपनी बेटी की शादी को लेकर लिखी थी। उसमें एक गरीब पिता की स्वभाविक चिंता दिखाई देती है। लिखनेवाला जानता है कि जिसे वह पत्र लिख रहा है वह प्रेमचंद नहीं है बल्कि समय और समाज के हिसाब से लड़कियों को लेकर विचार रखनेवाला एक लड़के का पिता है जिसकी सोच सामान्य मान्यताओं से अलग नहीं है। ऐसे अवसरों पर क्रांतिकारी सोच के लिए बहुत ज़गह नहीं होती है। फिर भी उस पत्र में लीक को तोड़कर बहुत बातें सामने आ गयी हैं जैसे कि बेटी को दान नहीं करने या दामाद के पाँव न धोने की बात आदि। 
दूसरी ओर अब यह जानना ज़रूरी है कि प्रेमचंद के समकालीन और विदेश से उच्च शिक्षा प्राप्त कर भारत लौटे अंबेडकर स्त्री को लेकर क्या विचार रखते थे। 'हम बौद्ध क्यों बने' भाषण को युगांतकारी भाषण माना जाता है। अपने उस भाषण में अंबेडकर ने उन दिनों का उल्लेख किया है जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को सरकार द्वारा तीन तीन लाख रुपये आवंटित किये जाते थे। अपने उस भाषण में वे कहते हैं कि उन्होंने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो से मुलाकात की और दलितों की शिक्षा के लिए भी समान धनराशि मुहैया करने की अपील की। वायसराय ने दलित बालिकाओं की शिक्षा के लिए तीन लाख रुपये आवंटित कर दिये लेकिन वह राशि अंबेडकर ने निकाली नहीं। उनका मानना था कि अगर लड़कियों को शिक्षित किया गया तो उनके लिए अच्छा खाना, अच्छा पहनना, अच्छा घर, अच्छा सामान चाहिए। यह सब कहाँ से आएगा? हमारी जाति तो अत्यंत गरीब है। हमलोग अपनी शिक्षित लड़कियों की इच्छा पूरी करने के लिए पैसे कहाँ से लाएंगे और शिक्षा का परिणाम क्या होगा। उनके लायक दलित समुदाय में वर ढूँढना मुश्किल हो जाएगा। 
अत: उन्होंने लॉर्ड लिनलिथगो से अनुरोध किया कि वे इस आवंटित राशि की ज़गह एक दूसरी व्यवस्था करें जिसके तहत दलित युवकों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजा जा सके। उनका तर्क था कि विदेश में शिक्षा प्राप्त करने की वज़ह से ही उन्होंने यह योग्यता पायी है। उन्होंने वायसराय से सवाल किया - " लॉर्ड लिनलिथगो क्या मैं पाँच सौ ग्रेजुएट से बेहतर नहीं हूँ?" उन्होंने कहा - " मुझे मालूम है, आप हैं।" फिर अंबेडकर ने कहा -" मैंने इतनी योग्यता प्राप्त कर ली है कि मैं शासन के किसी भी पद पर बैठ सकता हूँ। हमारी जनता की भलाई के लिए ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो शासन के क़िले में निशाना मारने की ज़गह बैठकर शत्रु को परास्त कर सके।" मेरे इस कथन को लॉर्ड लिनलिथगो ने माना और उसी साल 16 दलित विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विलायत भेजा। 
स्त्री शिक्षा और स्त्री स्वतंत्रता को लेकर दलित चेतना का भीषण उदाहरण है यह। हज़ारों लाखों दलित बालिकाओं को शिक्षित करने की व्यवस्था खड़ी करने की ज़गह सोलह दलित पुरुषों को विदेश भेजने की व्यवस्था करने के पीछे आख़िर कौन सी दलित दृष्टि काम कर रही थी? लिंग के आधार पर ऐसा भेदभाव करना और यह मानना कि स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में कम शिक्षित, कम आत्मनिर्भर और हमेशा पुरुषों के पीछे चलनेवाली होना चाहिए, क्या किसी भी धार्मिक कट्टरता से उपजे विचार से अलग है? यह सोचना कि सामाजिक परिवर्तन स्त्रियों की शिक्षा से नहीं बल्कि पुरुषों का शासन में उँचे स्थान पर पहुँचने से ही संभव है आख़िर किस मानसिकता को दर्शाता है? और सबसे भयानक बात तो यह कि शिक्षा को वे यहाँ दिखावटी ज़िंदगी से जोड़ रहे हैं। और चुंकि उन्हें वैभवपूर्ण जीवन हम गरीब लोग दे नहीं सकते इसलिए उन्हें शिक्षा से दूर रखो। यह विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि वे शिक्षा को रहन-सहन की सादगी और उच्च विचार से जोड़कर नहीं देख पा रहे थे। कहीं यही वज़ह तो नहीं कि वे हमेशा सूट-बूट और टाई में दिखते हैं फोटो में। दूसरी ओर प्रेमचंद के फोटो में उनका फटा जूता दिखता है। यह भी देख सकते हैं कि जहाँ एक ओर प्रेमचंद को मामूली स्कूल इंसपेक्टर घुड़क सकता था वहीं दूसरी ओर अंबेडकर वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो की एक्सक्यूटिव के काउंसिलर थे और वे जब चाहें तब लिनलिथगो से मिल भी सकते थे और अपनी बात मनवा भी सकते थे। 
हर साल 31 जुलाई को संदिग्ध स्त्रोतों से प्राप्त प्रेमचंद की चिट्ठी को फेसबुक पर वायरल करनेवाले दलित भाई सोचें इस पर। वे पंडे पुरोहित और महाजनी सभ्यता वाले सेठ साहुकार और उनके दलाल लोग भी सोचें जो हुँआ हुँआ करते दौड़ पड़ते हैं फेसबुक पर हरकारे की तरह वही फर्जी चिट्ठी लेकर। सत्ता की मलाई जीमने को ऐसे ही नहीं मिलती।


१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...