Wednesday, 3 November 2021

शुभ दीपावली


अंधेरे ने ख़रीदे
बेशुमार दिये मिट्टी के
ख़रीदे तालाब तेल के
रूइयों के गट्ठर के गट्ठर
सजाए दिये की पाँत पर पाँत

बेतहाशा बरसती
रौशनी के ठीक नीचे
जगमगाए दिये मिट्टी के
हज़ारों वॉट बत्तियों तले
कँपकँपाए  दिये अदने से

पहर भर रात के आँचल में
बेहोश लुढ़के दिये
रोशनी की झालरों तले
अपनी बेचारगी में 
असहाय पड़े 

बिलकुल वैसे ही
जैसे इन्हें गढ़नेवाले 
तेल उगानेवाले
रूई बीनने और धुननेवाले
बेबस हाथ 
अपने घुटने मसलकर
उठने की कोशिश कर रहे 

सुबह होते ही
इन्हें बुहारकर 
महरिन फेंक आएगी 
घूरे पर

दियों के दाग़ धब्बे
धो पोंछ दिए जाएँगे
ख़ूबसूरत चौखट से

और ज़िंदगी खो जाएगी
बिजलियों की चकाचौंध में

किंतु कुछ दिये नहीं उठेंगे
उनमें न तेल बची न बाती
बची है तो सिर्फ़ ज़िद
ग़ुस्से की थरथराती
 अदृश्य लौ

अंधेरे के विरुद्ध नहीं
बिकी रौशनी के ख़िलाफ़
उस मशालची के ख़िलाफ़
जिसने तेल की नहरों में
पानी भर दिए

उस मुंसिफ़ के ख़िलाफ़
जिसका घर बंधक है 
अंधेरों की चौखट


रौशनी से महरूम 
ये अदने से दिये
कभी जले न जलें
इन्हें ग़म नहीं
पर ये भी कम नहीं 
कि निर्लज्ज रौशनी के
क्रूर  साम्राज्य में
ये आज भी बिकाऊ नहीं !


*-हूबनाथ*

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