धन वह नहीं
जो अंधी तिजोरियों में क़ैद
छटपटा रहा है
वह भी नहीं
जो बैंक पासबुकों में
इठला रहा है
संपत्ति के दस्तावेज़ों में
काले अक्षरों में दर्ज है
वह तो एक ख़ूबसूरत मर्ज़ है
जिसकी कोई दवा नहीं
धन तो लहलहाता है
खेतों में
हरहराता है नदियों में
उगता है पहाड़ों पर
जंगलों वनों बियाबानों में
धन को उगाता है विष्णु
धन को जगाता है विष्णु
धन को जिलाता है विष्णु
विष्णु
जो आठो पहर धधकता है
गगन में
ख़ुद को जलाकर
सब को जिलाता है
पिलाता है अमृत अहर्निश
धरती के समस्त जीवों को
अमृतस्वरूप विराजता है
सृष्टि के कण कण में
वही सिरजता है धन
सबके लिए
किसान के लिए श्रम
व्यवसायी को उद्यम
गुरु को सत्यनिष्ठा
शासक को धर्म
शिष्य को सत्यान्वेषण
सबके अपने अपने धन
धन को साधना पड़ता है
अपने भीतर के विष्णु को
जगाना पड़ता है
जलाना पड़ता है ख़ुद को
धधकते विष्णु की तरह
धूर्तता से उपजे धन
मात्र अंधकार के कण
डूबोते हैं अमावस के गर्त में
दो दिन बाद ही
आपका सार्थक धन
आपको मिले
भीतर का अंधकार जले
समस्त सृष्टि के प्रति
मन में करुणा पले
यह दीपोत्सव
आप सभी को फले!
*-हूबनाथ*
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