Saturday, 2 October 2021

इन महोदय को देखिये। इन महाशय का नाम एम के आज़ाद है। यह अपने आप को मार्क्सवादी-लेनिनवादी कहते हैं लेकिन अब यह जैसी बातें कर रहे हैं उससे तो यही लगता है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद का क ख ग भी इन्हें समझ में नहीं आता है। और इनकी बहकी-बहकी बातों से ऐसा भी प्रतीत होता है कि इनका मानसिक संतुलन भी शायद गड़बड़ा गया है!    

आइये स्क्रीनशॉट में इनकी पोस्ट देखें और विचार करें!

इन महोदय का मानना है कि एक जनवादी क्रांति होती है जो सिर्फ़ जनवादी क्रांति होती है और इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि इसका नेतृत्व कौन कर रहा है! इनका कहना है कि चीन में नवजनवादी क्रान्ति हुई थी, यूरोप में जनता की जनवादी क्रांति और रूस में सिर्फ़ जनवादी क्रांति हुई थी! अब इससे बड़ी अज्ञानता और शर्म की बात और क्या हो सकती है, ख़ासकर उस व्यक्ति के लिए जो अपने आप को मार्क्सवादी-लेनिनवादी कहता है! 

पहली बात, यूरोप में इतिहास की पहली जनवादी क्रान्तियाँ बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में हुई थीं और बुर्जुआ जनवादी क्रांतियां थीं। इसका पूरा चक्र 1789 से फ्रांसीसी क्रांति से शुरू होकर 19वीं सदी के मध्य तक पश्चिमी यूरोप में हुई बुर्जुआ जनवादी क्रांतियों का था। 19वीं सदी के उत्तरार्थ में उन देशों में पूंजीवाद सुदृढ़ हो चुका था। 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के शुरुआत के आते-आते पूंजीवाद साम्राज्यवाद की मंज़िल में प्रवेश कर चुका था और अब बुर्जुआ वर्ग जनवादी कार्यभार को पूरा करने के लिए जनवादी क्रांति का नेतृत्व करने की क्षमता खो चुका था। लेनिन और मेंशेविकों के बीच ठीक इसी बात पर बहस थी, मेंशेविकों का मानना था कि रूस में पहले बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में बुर्जुआ जनवादी  क्रान्ति होगी और फिर हम समाजवादी क्रांति की ओर आगे कदम बढ़ा सकते हैं। लेनिन ने इस बात कर खंडन करते हुए कहा कि आज के ऐतिहासिक युग में आम तौर पर हर जगह और विशिष्ट रूप में रूस में बुर्जुआ वर्ग सामंतवाद-विरोधी जनवादी क्रांति के कार्यभार को पूरा करने के लिए नेतृत्व करने की सम्भावना खो चुका है। इसलिए रूस में जनवादी क्रांति का कार्यभार भी सर्वहारा वर्ग समूची किसानी के साथ मिल कर अपने नेतृत्व में पूरा करेगा और उसका नेतृत्व बुर्जुआ वर्ग नहीं कर सकता है। जनवादी क्रांति के दौर में मज़दूर-किसान संश्रय की लेनिन की यही अवधारणा जनता की जनवादी क्रान्ति के लेनिन के सिद्धांत का आधार थी। अपने आप में 'जनवादी क्रांति' शब्द सिर्फ यह बतलाता है कि यह सामंतवाद विरोधी और/या साम्राजयवाद विरोधी जनवादी कार्यभारों को पूरा करने की मंज़िल है। अपने आप में यह शब्द 'जनवादी क्रांति' कुछ और नहीं बतलाता है। इस क्रांति का नेतृत्व कौन करेगा, इसका सशक्त मित्र वर्ग कौन होंगे, इसके ढुलमुल मित्र वर्ग कौन होंगे और इसके शत्रु वर्गों का मोर्चा कौन सा होगा, इस आधार पर यह तय होता है कि  यह बुर्जुआ जनवादी क्रांति है या जनता की जनवादी क्रांति है या इसका ही एक विशिष्ट रूप नवजनवादी क्रांति जो चीन जैसे अर्द्धसामंती-अर्ध औपनिवेशिक देशों के लिए माओ ने पेश किया था।

दूसरी बात, इस व्यक्ति को यह भी नहीं पता कि रणनीतिक वर्ग संश्रय का अर्थ क्या होता है? जनवादी क्रांति चाहे किसी भी किस्म की हो लेकिन रणनीतिक वर्ग संश्रय हमेशा चार वर्गों का ही बनता है, क्योंकि यह समाज के प्रधान अंतर्विरोध से तय होता है कि शत्रु वर्ग कौन से हैं और मित्र वर्ग कौन हैं! रणनीति और रणकौशल में यह महोदय इसलिए गड्डमड्ड कर रहे हैं क्योंकि इनको मार्क्सवाद की बुनियादी समझदारी भी नहीं है! रणनीतिक वर्ग संश्रय एक पूरे चरण के लिए समाज में क्रांति के मित्र वर्गों और शत्रु वर्गों का व्यापक सूत्रीकरण प्रस्तुत करता है। वर्ग संघर्ष के दौरान किसी विशिष्ट रणकौशल के तौर पर किसी एक खास मुद्दे पर सर्वहारा वर्ग और उसके मित्र शक्तियाँ रणकौशलात्मक तौर पर किसी भी शक्ति से मोर्चा बना सकते हैं। मिसाल के तौर पर, अगर कोई बुर्जुआ संसदीय सरकार संसद और चुनाव को भंग कर खुली तानाशाही लागू करता है तो इस विशिष्ट मुद्दे पर तात्कालिक विशिष्ट रणकौशलात्मक मोर्चा हर उस शक्ति के साथ बनाया जा सकता है जो कि इन जनवादी अधिकारों को बहाल करने के लिए किसी भी रूप में लड़ने को तैयार हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि शासक वर्गों की आपसी कुत्ताघसीटी में सर्वहारा वर्ग बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बन जाए! रणनीति और रणकौशल के बीच अंतर और आपसी सम्बन्ध पर स्टालिन ने बताया है कि आम और विशिष्ट दोनों ही रणकौशल रणनीति के मातहत होते हैं और रणनीति की सेवा करते हैं। ऐसा कोई भी कदम उठाना जो रणकौशल में नाम पर मज़दूर वर्ग को शासक वर्गों की आपसी कुत्ताघसीटी में शासक वर्ग के इस या उस धड़े का पुछल्ला बनाये, अवसरवाद और व्यवहारवाद कहलाता है! इसलिए हमने शुरू में ही कहा है कि इन महोदय को न रणनीति की समझ है, न रणकौशल की औऱ न ही इनके आपसी सम्बन्ध की। यह इस प्रकार की बहकी-बहकी बातें इसलिए कर रहे हैं क्योंकि जनाब रणनीतिक वर्ग संश्रय और रणकौशल के बीच अंतर नहीं  समझ पा रहे हैं। अगर व्यापक रणनीतिक वर्ग संश्रय की अवधारणा को ही नकार दिया जाय तो समाजवादी क्रांति और जनवादी क्रांति के बीच की विभाजक रेखा ही समाप्त हो जाएगी। यह मोटी से बात जो दुनिया भर के मार्क्सवादी-लेनिनवादी और यहाँ तक कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद का कोई शुरुआती विद्यार्थी भी समझ सकता है, वह इन महाशय को समझ नहीं आ रहा।

लाज़िमी सी बात है कि न तो इनका क्रांतिकारी व्यवहार से कोई रिश्ता है न ही क्रांतिकारी सिद्धांत से!

तीसरी बात पर आते हैं। जनवादी क्रांति की मंज़िल में तीन ही मुख्य शत्रु हो सकते हैं- सामंतवाद और उपनिवेश/अर्द्धउपनिवेश की सूरत में साम्राज्यवाद और/या दलाल पूंजीपति वर्ग। इन तीनों में से कोई भी प्रधान हो तो भी रणनीतिक वर्ग संश्रय पर कोई फर्क नहीं पड़ता है, तब भी चार वर्गों का मोर्चा ही बनता है क्योंकि प्रधान अंतर्विरोध साम्राज्यवाद-सामंतवाद-दलाल पूंजीपति वर्ग बनाम जनता के बीच होता है और इस चरण में जनता में पूंजीपति वर्ग का कोई न कोई हिस्सा (औद्योगिक पूंजीपति वर्ग और/या धनी किसान) जनता में शामिल होता है। यह भी मार्क्सवाद-लेनिनवाद का क ख ग है जो इस पैसिव रैडिकल आर्मचेयर "सिद्धांतकार" को पता नहीं है।

"यथार्थवादी" मूर्ख मण्डली के विषाक्त लेकिन मज़ाकिया दुष्प्रभावों की एक बार फिर श्रीमान एम के आज़ाद ने नंगी नुमाइश की है।




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