_*तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर,*_
_*अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!*_
_*ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,*_
_*ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन,*_
_*कभी तो होगी इस चमन पर भी बहार की नज़र!*_
_*अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!*_
_बहुत कम लोगों को यह बात पता है कि इन पंक्तियों के लेखक प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र का बिहार से खास रिश्ता है। बिहार के आरा जिले के धुसपुर गांव से ताल्लुक रखने वाले शैलेन्द्र का असली नाम शंकरदास केसरीलाल था और वे चमार जाति से थे। उनका जन्म 30 अगस्त, 1921 को रावलपिंडी (जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है) में हुआ था।_
_वहां उनके पिता केसरीलाल राव ब्रिटिश मिलिटरी हॉस्पिटल(जो मूरी केंटोनमेंट एरिया में था) में ठेकेदार थे। शैलेन्द्र का अपने गांव से कोई ख़ास जुडाव नहीं रहा क्योंकि वे बचपन से अपने पिता के साथ पहले रावलपिंडी और फिर मथुरा में रहे। उनके गांव में ज्यादातर लोग खेतिहर मजदूर थे।_
_पिता की बीमारी और आर्थिक तंगी के चलते पूरा परिवार रावलपिंडी से मथुरा आ गया, जहां शैलेन्द्र के पिता के बड़े भाई रेलवे में नौकरी करते थे। मथुरा में परिवार की आर्थिक समस्याएं इतनी बढ़ गयीं कि उन्हें और उनके भाईयों को बीड़ी पीने पर मजबूर किया जाता था ताकि उनकी भूख मर जाये। इन सभी आर्थिक परेशानियों के बावजूद, शैलेन्द्र ने मथुरा से इंटर तक की पढ़ाई पूरी की।_
_किसी तरह पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने बम्बई जाने का फैसला किया। यह फैसला तब और कठोर हो गया जब उन्हें हॉकी खेलते हुए देख कर कुछ छात्रों ने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा कि 'अब ये चमार लोग भी हॉकी खेलेंगे।' इससे खिन्न होकर उन्होंने अपनी हॉकी स्टिक तोड़ दी। शैलेन्द्र को यह जातिवादी टिपण्णी गहरे तक चुभी।_
_बम्बई में उन्हें माटुंगा रेलवे के मेकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में अपरेंटिस के तौर पर काम मिल गया। लेकिन वर्कशॉप के मशीनों के शोर और महानगरी की चकाचौंध के बीच भी उनके अन्दर का कवि मरा नहीं और उन्हें अक्सर कागज-कलम लिए अपने में गुम अकेले बैठे देखा जाता था।_
_दफ्तर का काम खत्म कर शैलेंद्र 'प्रगतिशील लेखक संघ' के कार्यालय में अपना समय बिताते थे, जो पृथ्वीराज कपूर के रॉयल ओपेरा हाउस के ठीक सामने हुआ करता था। हर शाम वहां कवि जुटते थे। यहीं उनका परिचय राजकपूर से हुआ। राजकपूर ने इन्हें अपनी फिल्मों के लिए गीत लिखने का प्रस्ताव दिया था लेकिन शैलेंद्र उन दिनों फिल्मों में गीत लिखने को सही नहीं मानते थे उन्होंने राजकूपर को मना कर दिया था, लेकिन कुछ महीनों बाद आर्थिक तंगी की वजह से वो राजकपूर के पास गये और उनसे पैसे मांगे और कहा कि वो उनके लिये काम करने को तैयार हैं। इसके बाद राजकपूर ने शैलेंद्र से सबसे पहले बरसात फिल्म के लिए दो गीत लिखवाए इनमें एक हमसे मिले तुम सजन बरसात में और पतली कमर है तिरछी नजर है। मुकेश के गाये ये दोनों गाने खूब चले।_
_इसके बाद वे राजकपूर की फिल्मों के लिये गीत लिखने लगे। उनके गीत इस कदर लोकप्रिय हुये कि राजकपूर की चार-सदस्यीय टीम में उन्होंने सदा के लिए अपना स्थान बना लिया। इस टीम में थे शंकर-जयकिशन, हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र। इस टीम ने कई फिल्मों आवारा, श्री. 420, तीसरी कसम और संगम में बेहतरीन गीतों की सौगात दी है।_
_उन्होंने कुल मिलाकर करीब 800 गीत लिखे और उनके लिखे ज्यादातर गीत लोकप्रिय हुए। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से समतामूलक भारतीय समाज के निर्माण के अपने सपने और अपनी मानवतावादी विचारधारा को अभिव्यक्त किया और भारत को विदेशों की धरती तक पहुँचाया।_
_उन्होंने दबे-कुचले लोगों की आवाज को बुलंद करने के लिये नारा दिया -"हर जोर-जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है।" यह नारा आज भी हर मजदूर के लिए मशाल के समान है।
_*अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!*_
_*ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,*_
_*ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन,*_
_*कभी तो होगी इस चमन पर भी बहार की नज़र!*_
_*अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!*_
_बहुत कम लोगों को यह बात पता है कि इन पंक्तियों के लेखक प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र का बिहार से खास रिश्ता है। बिहार के आरा जिले के धुसपुर गांव से ताल्लुक रखने वाले शैलेन्द्र का असली नाम शंकरदास केसरीलाल था और वे चमार जाति से थे। उनका जन्म 30 अगस्त, 1921 को रावलपिंडी (जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है) में हुआ था।_
_वहां उनके पिता केसरीलाल राव ब्रिटिश मिलिटरी हॉस्पिटल(जो मूरी केंटोनमेंट एरिया में था) में ठेकेदार थे। शैलेन्द्र का अपने गांव से कोई ख़ास जुडाव नहीं रहा क्योंकि वे बचपन से अपने पिता के साथ पहले रावलपिंडी और फिर मथुरा में रहे। उनके गांव में ज्यादातर लोग खेतिहर मजदूर थे।_
_पिता की बीमारी और आर्थिक तंगी के चलते पूरा परिवार रावलपिंडी से मथुरा आ गया, जहां शैलेन्द्र के पिता के बड़े भाई रेलवे में नौकरी करते थे। मथुरा में परिवार की आर्थिक समस्याएं इतनी बढ़ गयीं कि उन्हें और उनके भाईयों को बीड़ी पीने पर मजबूर किया जाता था ताकि उनकी भूख मर जाये। इन सभी आर्थिक परेशानियों के बावजूद, शैलेन्द्र ने मथुरा से इंटर तक की पढ़ाई पूरी की।_
_किसी तरह पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने बम्बई जाने का फैसला किया। यह फैसला तब और कठोर हो गया जब उन्हें हॉकी खेलते हुए देख कर कुछ छात्रों ने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा कि 'अब ये चमार लोग भी हॉकी खेलेंगे।' इससे खिन्न होकर उन्होंने अपनी हॉकी स्टिक तोड़ दी। शैलेन्द्र को यह जातिवादी टिपण्णी गहरे तक चुभी।_
_बम्बई में उन्हें माटुंगा रेलवे के मेकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में अपरेंटिस के तौर पर काम मिल गया। लेकिन वर्कशॉप के मशीनों के शोर और महानगरी की चकाचौंध के बीच भी उनके अन्दर का कवि मरा नहीं और उन्हें अक्सर कागज-कलम लिए अपने में गुम अकेले बैठे देखा जाता था।_
_दफ्तर का काम खत्म कर शैलेंद्र 'प्रगतिशील लेखक संघ' के कार्यालय में अपना समय बिताते थे, जो पृथ्वीराज कपूर के रॉयल ओपेरा हाउस के ठीक सामने हुआ करता था। हर शाम वहां कवि जुटते थे। यहीं उनका परिचय राजकपूर से हुआ। राजकपूर ने इन्हें अपनी फिल्मों के लिए गीत लिखने का प्रस्ताव दिया था लेकिन शैलेंद्र उन दिनों फिल्मों में गीत लिखने को सही नहीं मानते थे उन्होंने राजकूपर को मना कर दिया था, लेकिन कुछ महीनों बाद आर्थिक तंगी की वजह से वो राजकपूर के पास गये और उनसे पैसे मांगे और कहा कि वो उनके लिये काम करने को तैयार हैं। इसके बाद राजकपूर ने शैलेंद्र से सबसे पहले बरसात फिल्म के लिए दो गीत लिखवाए इनमें एक हमसे मिले तुम सजन बरसात में और पतली कमर है तिरछी नजर है। मुकेश के गाये ये दोनों गाने खूब चले।_
_इसके बाद वे राजकपूर की फिल्मों के लिये गीत लिखने लगे। उनके गीत इस कदर लोकप्रिय हुये कि राजकपूर की चार-सदस्यीय टीम में उन्होंने सदा के लिए अपना स्थान बना लिया। इस टीम में थे शंकर-जयकिशन, हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र। इस टीम ने कई फिल्मों आवारा, श्री. 420, तीसरी कसम और संगम में बेहतरीन गीतों की सौगात दी है।_
_उन्होंने कुल मिलाकर करीब 800 गीत लिखे और उनके लिखे ज्यादातर गीत लोकप्रिय हुए। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से समतामूलक भारतीय समाज के निर्माण के अपने सपने और अपनी मानवतावादी विचारधारा को अभिव्यक्त किया और भारत को विदेशों की धरती तक पहुँचाया।_
_उन्होंने दबे-कुचले लोगों की आवाज को बुलंद करने के लिये नारा दिया -"हर जोर-जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है।" यह नारा आज भी हर मजदूर के लिए मशाल के समान है।
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