Tuesday, 10 August 2021

कामकाजी औरतें

कामकाजी औरतें हड़बड़ी में निकलती हैं रोज सुबह घर से
आधे रास्ते में याद आता है सिलेंडर नीचे से बंद किया ही नहीं
उलझन में पड़ जाता है दिमाग
कहीं गीजर खुला तो नहीं रह गया
जल्दी में आधा सैंडविच छूटा रह जाता है टेबल पर

कितनी ही जल्दी उठें और तेजी से निपटायें काम
ऑफिस पहुँचने में देर हो ही जाती है
खिसियाई हंसी के साथ बैठती हैं अपनी सीट पर
बॉस के बुलावे पर सिहर जाती हैं
सिहरन को मुस्कुराहट में छुपाकर
नाखूनों में फंसे आटे को निकालते हुए
अटेंड करती हैं मीटिंग
काम करती हैं पूरी लगन से

पूछना नहीं भूलतीं बच्चों का हाल
सास की दवाई के बारे में
उनके पास नहीं होता वक्त पान, सिगरेट या चाय के लिए
बाहर जाने का
उस वक्त में वे जल्दी-जल्दी निपटाती हैं काम
ताकि समय से काम खत्म करके घर के लिए निकल सकें.
दिमाग में चल रही होती सामान की लिस्ट
जो लेते हुए जाना है घर
दवाइयां, दूध, फल, राशन

ऑफिस से निकलने को होती ही हैं कि
तय हो जाती है कोई मीटिंग
जैसे देह से निचुड़ जाती है ऊर्जा
बच्चे की मनुहार जल्दी आने की
रुलाई बन फूटती है वाशरूम में
मुंह धोकर, लेकर गहरी सांस
शामिल होती है मीटिंग में
नजर लगातार होती है घड़ी पर
और ज़ेहन में होती है बच्चे की गुस्से वाली सूरत
साइलेंट मोड में पड़े फोन पर आती रहती हैं ढेर सारी कॉल्स
दिल कड़ा करके वो ध्यान लगाती हैं मीटिंग में

घर पहुंचती हैं सामान से लदी-फंदी
देर होने के संकोच और अपराधबोध के साथ
शिकायतों का अम्बार खड़ा मिलता है घर पर
जल्दी-जल्दी फैले हुए घर को समेटते हुए
सबकी जरूरत का सामान देते हुए
करती हैं डैमेज कंट्रोल

मन घबराया हुआ होता है कि कैसे बतायेंगी घर पर
टूर पर जाने की बात
कैसे मनायेंगी सबको
कैसे मैनेज होगा उनके बिना घर

ऑफिस में सोचती हैं कैसे मना करेंगी कि नहीं जा सकेंगी इस बार
कितनी बार कहेंगी घर की समस्या की बात

कामकाजी औरतें सुबह ढेर सा काम करके जाती हैं घर से
कि शाम को आराम मिलेगा
रात को ढेर सारा काम करती हैं सोने से पहले
कि सुबह हड़बड़ी न हो

ऑफिस में तेजी से काम करती हैं कि घर समय पर पहुंचे
घर पर तेजी से काम करती हैं कि ऑफिस समय से पहुंचे

हर जगह सिर्फ काम को जल्दी से निपटाने की हड़बड़ी में
एक रोज मुस्कुरा देती हैं आईने में झांकते सफ़ेद बालों को देख

किसी मशीन में तब्दील हो चुकी कामकाजी औरतों से
कहीं कोई खुश नहीं न घर में, न दफ्तर में न मोहल्ले में
वो खुद भी खुश नहीं होतीं खुद से

'मुझसे कुछ ठीक से नहीं होता' के अपराध बोध से भरी कामकाजी औरतें
भरभराकर गिर पड़ती हैं किसी रोज
और तब उनके साथी कहते हैं
'ऐसा भी क्या खास करती हो जो इतना ड्रामा कर रही हो.'

मशीन में बदल चुकी कामकाजी औरतें
एक रोज तमाम तोहमतों से बेजार होकर 
जीना शुरू कर देती हैं 
थोड़ा सा अपने लिए भी
और तब लड़खड़ाने लगते हैं तमाम 
सामाजिक समीकरण.

--   Pratibha Katiyar

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