महावीर मंदिर ट्रस्ट के पास अकूत पैसा जमा है,जो श्रद्धालु जनता द्वारा दान स्वरूप इन्हें प्राप्त होता है। इनके सारे पैसे एफडी में जमा है। कोरोना काल मे मुसीबत की मार झेल रहे विशाल आबादी को इन पैसों से ये कितना मदद किये है, किसी को पता नही है।
अब ये रोना रो रहे है कि कोरोना काल मे चढ़ावे के रूप में होने वाली आय में भारी कमी हुई है। लोग लचर सरकारी चिकित्सा व्यवस्था, दवाओं, आक्सीजन के आभाव के चलते और निजी हॉस्पिटल में महंगी चिकित्सा के चलते आज मारने को मजबूर है, और ये आय में हुई कमी का रोना रो रहे है।
यही पूंजीवादी दुनिया है, यहाँ मुनाफा कमाना धर्म बन जाता है और धर्म मुनाफा कमाने का व्यवसाय।
मन्दिरों में आने वाले चढ़ावों से लेकर मन्दिरों के ट्रस्टों और महन्तों की सम्पत्ति स्पष्ट कर देती है कि ये मन्दिर भारी मुनाफा कमाने वाले किसी उद्योग से कम नहीं हैं। वैसे तो धर्म हमेशा से ही शासक वर्ग के हाथ में एक महत्वपूर्ण औज़ार रहा है लेकिन पूँजीवाद ने धर्म का न सिर्फ उपयोग किया बल्कि उसे एक पूँजीवादी उपक्रम बना दिया है। पूँजीवादी धर्म आज सिर्फ जनता की चेतना को कुन्द करने का ही काम नहीं करता है बल्कि भारी मुनाफे का धन्धा बन गया है। मज़े की बात है कि हर पूँजीवादी उद्योग की तरह धर्म के धन्धे में भी गलाकाटू होड़ है। मार्क्स ने कहा था कि पूँजीवाद अब तक की सबसे गतिमान उत्पादन पद्धति है और यह अपनी छवि के अनुरूप एक विश्व रचना कर डालता है। पूँजीवाद ने धर्म के साथ ऐसा ही किया है। इसने इसे पूँजीवादी धर्म में इस क़दर तब्दील कर दिया है कि धर्म स्वयं एक धन्धा बन गया है, और इससे अलग और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है।
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