साहित्य अपने-आप सबकुछ ठीक कर देगी यह मानना खामख्याली ही होगी। लेकिन बदलाव की लड़ाई में साहित्य की भागीदारी को सिरे से खारिज करना भी सरासर बेवकूफी होगी। लिखते समय हम इस व्यवस्था से तय होती हमारी सीमाओं से अच्छी तरह वाकिफ होते हैं। सच कहें तो यही सीमायें समाज की सच्चाइयों को हमारे सामने खोलती भी हैं। हम अपनी इन्हीं सीमाओं के साथ हताशा और निराशा से भरे इस दौर में व्यवस्था से भिड़ते हुए अंततः इन सीमाओं को भी ध्वस्त कर सकते हैं। ऐसे में, पढ़े-लिखे और बदलाव की जरूरत समझने वालों की 'क्रांति' का पाठ पढ़ाने वाला साहित्य परिवर्तन-विरोधी और 'जो है अच्छा है' दोहराते रहने वाले साहित्य की तरह ही कोई खास मकसद पूरा नहीं करता। कुछ लोगों के लिखे में ज्यादा से ज्यादा 'रैडिकल' दिखने और 'सब जला-मिटा देने की बातें कभी खत्म नहीं होती। उनका साहित्य एक ऐसे तबके लिए होता है जो बदलाव के लिए पहले से ही तैयार है। खुद को बढ़-चढ़कर क्रांतिकारी बताने वाले और अपनी ही तरह सोचने-महसूस करने वाले और दिन-रात ऐसे नारों-वादों से घिरे रहने वाले गिनती के कुछ लोगों के लिए लिखने वाले क्या जोखिम उठा रहे हैं? यह तो है कि उनके लिखे की मांग कभी कम नहीं होगी और वे सुर्खियों में बने रहेंगे। लेकिन सिर्फ इतने से ही बदलाव की लड़ाई नहीं जीती जा सकती। अगर व्यवस्था द्वारा हमारे सोचने-समझने की आजादी पर लगी बंदिशें ही न खत्म कर पाएं तो फिर लिखना कैसा? हमारे लिखने की सार्थकता तभी है जब हम अपनी बात बिना डरे, पक्के इरादे के साथ और बेबाकी से रख पाएं और एक बेहतर दुनिया का सपना देकर लोगों को लड़ने का हौसला दे पाएं। हमारी ख्वाहिश ऐसी भाषा गढ़ने की है जो जनसंघर्षों से डरी और पराजित हो रही व्यवस्था की चाकरी करने वाले लेखकों की वाह-वाह और जय-जयकार के उलट कहीं ज्यादा बेखौफ और खूबसूरत हो।
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