मार्क्स ने पूंजीवादी उत्पादन संबंधों का अध्ययन करके क्रांति तथा वैज्ञानिक समाजवाद की रूपरेखा प्रस्तुत की । लेकिन इस गतिशील इतिहास में पूंजी के विकास का भी एक लंबा इतिहास है । सूदखोरी पूंजी , व्यापारिक पूंजी तथा औद्योगिक पूंजी के रूप में पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को जब वित्त पूंजी अपने नियंत्रण में लेने लगा और विकसित देशों में संकेंद्रित पूंजी पिछड़े देशों में निवेश होने लगा तो लेनिन ने 'साम्राज्यवाद पूंजीवाद की चरम अवस्था ' पुस्तक की रचना की । इस पुस्तक में लेनिन ने वित्त पूंजी के अधीन में जा रही पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था की अद्भुत व्याख्या प्रस्तुत की है । लेनिन ने लिखा है कि अब उत्पादन में वह पूंजीपति बाजार और अर्थव्यवस्था का नियंता नहीं रह गया जो अपने व्यापारिक बुद्धि और ज्ञान से किसी नए उत्पाद का उत्पादन करता है और बाजार में लाता है , बल्कि विश्व अर्थव्यवस्था पर उस पूंजीपति का नियंत्रण होता है जो वित्तीय हेरफेर और तोड़ जोड़ का उस्ताद है । बीसवीं सदी के अंतिम दशक तथा 21 वीं सदी में हम देख रहे हैं की पूरी दुनिया तथा भारत में भी ऐसे वर्गों और पूंजीपतियों का तेजी से विकास हुआ है जो वित्तीय हेराफेरी और सट्टेबाजी के द्वारा धन कमा रहे हैं । लेकिन लेनिन स्पष्ट करते हैं कि उत्पादन की प्रक्रिया पूरी तरह से जारी रहती है .लेकिन इस पर नियंत्रण पित्त पूंजी के उस्तादों का रहता है ।पादन के क्षेत्र में ही अतिरिक्त मूल्य तथा मुनाफा का सृजन होता है जिसे वित्त पूंजी के मालिक अपने विभिन्न हथकंडो के द्वारा हड़प लेते हैं।पूंजी के मालिकों के हाथ पूरी दुनिया की का संकेंद्रण हो रहा है । उस धन को उत्पादन के क्षेत्र में छोटे से लेकर एकाधिकार पूंजीपतियों के नियंत्रण में चलने वाले उद्योगों में मजदूर पैदा करते हैं लेकिन उस पर अंततः नियंत्रण होता है विभिन्न वित्तीय हेराफेरी के कारोबार में लगे उस्तादों का । यही कारण रहा है कि पिछले दशकों में उत्पादन के क्षेत्र में लगे पूंजीपति भी तेजी से वित्तीय हेराफेरी यानी सट्टेबाजी , बीमा , हेज फंड बैंक आदि में अपनी अकूत पूंजी का निवेश कर रहे हैं ।
पिछड़े देशों में जब वित्त पूंजी का निवेश होता है और छोटे उत्पादकों को यह अपने प्रसार और फैलाव के लिए सहयोगी बनाती है, तब सामाजिक आधार के रूप में ये तमाम छोटे उत्पादक उसके पीछे हो लेते हैं । भारत में भी पिछले दशकों में वित्त तथा एकाधिकार पूंजी के निवेश से जो पूंजीवाद का फैलाव हुआ है,उसने छोटे उत्पादकों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ।
कृषि के क्षेत्र में भी पूंजीवाद का विकास हुआ और ग्रामीण क्षेत्रों में धनी किसानों की स्थिति अच्छी हुई । लेकिन इसके बाद वित्त पूंजी तथा एकाधिकार पूंजी जब छोटे उत्पादकों का संपत्तिहरण करने की मुहिम चलाती है , तो ये छोटे उत्पादक अपनी रक्षा के लिए सड़क पर आ जाते हैं । यही वह अवस्था है जब लेनिन और सभी लेनिनवादी संगठन छोटे उत्पादकों को वित्त पूंजी के चरित्र को समझाने का अभियान चलाते हैं । इस अभियान में वित्त पूंजी तथा एकाधिकार पूंजी की लूट और हमले के विरोध में हम छोटे उत्पादकों के साथ खड़े होते हैं लेकिन साथ ही राजनीतिक तौर पर उन्हें यह बार-बार बताते हैं कि अब पूंजीवाद में उनका कोई भविष्य नहीं है । यह ऐसी स्थिति है कि जब सुसंगठित मजदूर वर्ग तथा उसकी पार्टी शासन और सत्ता अपने हाथ पर लेने के लिए तैयार हो जाता है । तब वह छोटे उत्पादकों को शोषक वर्ग के रूप में सुरक्षित रहने की गारंटी न देकर एक विकसित सामाजिक उत्पादन व्यवस्था के हिस्सा के रूप में बेहतर जीवन की गारंटी देता है । लेनिन ने रूस में इसी कार्य की रूपरेखा समाजवादी क्रांति के रूप में प्रस्तुत किया जिसे किसानों के खेती के सामूहिकरण के द्वारा आगे बढ़ाया।लेकिन अगर मजदूर राज्य सत्ता लेने की स्थिति में ना हो तो क्या हमें वित्त पूंजी के खिलाफ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं छोटे उत्पादकों के साथ खड़ा नहीं होना चाहिए ?
हम उनके साथ अवश्य खड़ा होंगे । पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोध के बीच हमारी लड़ाई हमेशा वित्त पूंजी के खिलाफ खड़ा होने वाले सभी वर्गों के साथ व्यापक एकता की है ।यह व्यापक उभरता संघर्ष हमें समाजवाद की अनिवार्यता को समझाने में सहयोगी बनता है | भारत का वर्तमान किसान आंदोलन ऐसे ही छोटे उत्पादकों का संघर्ष है । वित पूंजी , साम्राज्यवाद व एकाधिकार पूंजी के खिलाफ यह आंदोलन लगातार ज्यादा स्पष्ट के साथ खड़ा होता जा रहा है |यदि मजदूर वर्ग का आंदोलन और संगठन मजबूत होता , तो हमें निर्णायक लड़ाई की तरफ बढ़ सकते थे और इनका बड़ा हिस्सा हमारे साथ आ भी सकता था । लेकिन जब मजदूर वर्ग खुद संगठित नहीं है, मजदूर आंदोलन खुद बिखरा हुआ है तो किसान आंदोलन तथा ऐसे तमाम छोटे उत्पादकों का आंदोलन एक सीमा के बाद समझौते और सुधारों के संतुलन में ठहराव का शिकार हो जाएगा । तब भी यह आंदोलन जनता को बहुत कुछ सिखा रही है और आगे भी सिखाए सिखाएगी ।
साम्राज्यवाद के युग में वित्त पूंजी तथा उसके अधीन काम करने वाले एकाधिकार पूंजीपति का बोलबाला रहता है। आज छोटे पूंजीपति स्वतंत्र भूमिका अदा करने की स्थिति में नहीं है । वित्त पूंजी डब्ल्यूटीओ के माध्यम से और भूमंडलीकरण की नीतियों के तहत पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर अपना नियंत्रण स्थापित कर चुका है । ऐसी स्थिति में बड़े पैमाने पर छोटे उत्पादक (किसान , दस्तकार तथा छोटी पूंजी के मालिक ) संपत्तिहरण के शिकार होंगे और हो रहे हैं । लेनिन इन तमाम वर्गों को सिखाते हैं कि साम्राज्यवाद और वित्त पूंजी आपको अंततः नष्ट कर देगा , इसलिए आप अपने स्वतंत्र अस्तित्व को के बजाय समाजवाद की लड़ाई में शामिल हों । लेनिन इन वर्गों की तबाही को रोकने के लिए समाजवाद में इन्हें सामाजीकरण की प्रक्रिया में शामिल करने का योजना भी प्रस्तुत करते हैं । इसीलिए रूस में क्रांति के बाद भी छोटे उत्पादक किसान और दूसरे साधनों के मालिक वर्ग को सामूहिककरण तथा बड़े उद्योगों के विकास में हमराही बनाया और उनकी उत्पादन क्षमता और ज्ञान को समाजवाद के निर्माण में हिस्सेदार बनाया । लेकिन उनके बीच के जिन लोगों ने समाजवाद का साथ न चल करके पूंजीवाद स्थापित करने की कोशिश की J उनके साथ सर्वहारा वर्ग की तानाशाही वाले राज्य ने दृढ़ता के साथ मुकाबला किया ।
साम्राज्यवाद के युग में, वित्त पूंजी के अंतरराष्ट्रीय संबंधों, आदतों तथा मालिक होने की आकांक्षा और खास करके बड़े पैमाने पर छोटे उत्पादकों की उपस्थिति के कारण समाजवाद के खिलाफ इन सभी संपत्तिशाली वर्गों के संगठित हमले का खतरा हमेशा बना रहता है । इसीलिए पूरे समाजवाद के दौर में सर्वहारा वर्ग के राज्य की तानाशाही अनिवार्य है ।पेरिस कम्यून तथा फ्रांस की क्रांति के अनुभव के आधार पर मार्क्स ने से इसे मजबूती के साथ स्थापित किया । यूं कहें कि सर्वहारा के राज्य की स्थापना के बगैर मार्क्सवाद मार्क्सवाद नहीं रह जाता है l इसे हटा कर कई लोगों ने मार्क्सवाद को सुधारबाद में बदलने की कोशिश की जिन का विरोध करते हुए लेनिन ने अपनी पुस्तक 'राज्य और क्रांति ' में मजबूती के साथ सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को स्थापित किया । सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सर्वहारा वर्ग के राज्य की सुरक्षा का आधार है । जो लोग भी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का विरोध जनवाद के नाम पर करते हैं , दरअसल मुट्ठी भर पूंजीवादी तथा मध्य वर्ग की तानाशाही की वकालत करते हैं ।
एक कटु सच्चाई है की सर्वहारा वर्ग का पिछड़ा होना , उसकी पिछड़ी संस्कृति पूंजीवाद के पुनर्स्थापना के खतरे को बनाए रखता है । समाजवाद के निर्माण के लिए मजदूरों के समाजवादी संस्कृति के विकास और तमाम दुनिया के ज्ञान - विज्ञान और वैचारिक विश्लेषण करने की क्षमता को प्राप्त करने के लिए लेनिन सर्वहारा वर्ग का आवाहन करते हैं। समाजवाद पराजित हुआ है तो उसका कारण वित्त पूजी के नेतृत्व में पूंजी का हमला तथा सर्वहारा वर्ग का सांस्कृतिक और चेतना के स्तर पर पिछड़ा होना महत्वपूर्ण पक्ष है |आज के कार्यभार के रूप में सभी लेनिनवादी संगठनों को सर्वहारा वर्ग के अंदर जनवाद और समाजवादी संस्कृति के विकास के लिए विशेष तौर पर काम करना चाहिए , ताकि वे सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के अंतर्वस्तु को समझ सके और उसे लागू करते हुए समाजवाद का निर्माण कर सकें ।
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