19वीं सदी
का
काल्पनिक
समाजवाद
19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में पश्चिमी यूरोप का साहित्य, जैसा कि हमेशा और हर जगह होता है, सामाजिक जीवन की एक अभिव्यक्ति था। चूँकि उस युग के सामाजिक जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका उन घटनाओं ने निभानी शुरू कर दी थीं जिनके योग ने सामाजिक सिद्धांतों के क्षेत्र में तथाकथित सामाजिक प्रश्न को जन्म दिया, इसलिए काल्पनिक समाजवादियों की शिक्षा की एक संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत करके उस दौर के साहित्य की समीक्षा का आरंभ करना उपयुक्त ही दिखाई देता है। साहित्य शब्द के संकीर्ण अर्थ में उसके इतिहास की सीमाओं से बाहर जाकर इस तरह का निरूपण करना सही अर्थों में साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझने में सहायक ही होगा। लेकिन स्थान के अभाव के कारण मुझे अपने आपको 19वीं सदी के काल्पनिक समाजवाद की सबसे महत्त्वपूर्ण धाराओं का संकेत देने तथा उनके विकास का निर्धारण करने वाले प्रमुख प्रभावों को स्पष्ट करने तक ही सीमित रखना होगा।
जैसा कि एंगेल्स ने ड्यूहरिंग के साथ अपने शास्त्रार्थ में कहा था, 19वीं सदी का समाजवाद पहली निगाह में उन्हीं निष्कर्षो का और आगे विकास दिखाई देता है जो 18वीं सदी के प्रबोध (इनलाइटेनमेंट) के दर्शन ने निकाले थे। एक मिसाल के तौर पर मैं इस बात का ज़िक्र करना चाहूँगा कि उस दौर के समाजवादी सिद्धांतकार तत्परता के साथ प्राकृतिक नियम1 का हवाला दिया करते थे जिसको प्रबोध काल के फ्रांसीसी दार्शनिकों के तर्कों में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। अलावा इसके, इसमें भी रत्ती बराबर शक नहीं कि आम तौर पर प्रबोध काल के दार्शनिकों ने तथा खास तौर पर फ्रांस में ला मेत्री, होलबाख, दिदेरो और हेल्थेतियस और इंग्लैंड में हार्टली और प्रिस्टली जैसे भौतिकवादियों ने मानव के बारे में जो विचार सामने रखे थे, समाजवादियों ने उन विचारों को पूरा का पूरा अपना लिया था। मसलन विलियम गाडविन (1756-1836) ने तो बहुत पहले ही भौतिकवादियों की इस प्रस्थापना को अपना आधार बनाया था कि हर व्यक्ति के गुणों और अवगुणों का निर्धारण वे परिस्थितियाँ होती हैं जिनका योग उसके जीवन का इतिहास होता है।2 इससे गाडविन ने यह निष्कर्ष निकाला कि अगर उसकी परिस्थितियों के योग को एक सही चरित्र
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प्रदान किया जाए तो दुनिया से दुगुणों का पूरी तरह उन्मूलन किया जा सकता है। इसके बाद (उनकी राय में - संपादक) उनके लिए बस ठीक-ठीक यह तय करने का काम बचा कि परिस्थितियों के इस योग को कौन से कदम वांछित चरित्र देने में समर्थ थे। उन्होंने इस प्रश्न की छानवीन अपनी प्रमुख रचना इन्क्वायरी कनसर्निंग पॉलिटिकल जस्टिस एंड इट्स इनस्लूएंस आन जनरल वर्क्यू एंड हेपिनेस में की जो 1793 में प्रकाशत हुई थी। इस अध्ययन के निष्कर्ष बहुत कुछ उस चीज़ से मिलते-जुलते थे जिसे आज अराजवादी साम्यवाद कहा जाता है। 19वीं सदी के बहुत से समाजवादी इस बारे में उनसे गहरे मतभेद रखते थे। लेकिन वे गाडविन से इस बात में मिलते-जुलते अवश्य है कि उन्होंने भी अपना प्रस्थानबिंदु मानव-चरित्र के निर्माण के बारे में भौतिकवादियों की ही शिक्षा को बनाया जिसे उन्होंने आत्मसात् कर लिया था।
19वीं सदी की समाजवादी विचारधारा जिन सैद्धांतिक प्रभावों के अंतर्गत विकसित हुई, उनमें सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव यही था। व्यावहारिक प्रभावों में सबसे निर्णायक प्रभाव में 18वीं सदी के अंत में ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति तथा वह राजनीतिक क्रांति जिसे महान फ्रांसीसी क्रांति कहा जाता है- खासकर उसका आतंकवादी काल। कहने की जरूरत नहीं कि औद्योगिक क्रांति के प्रभाव को सबसे गहराई से ब्रिटेन में महसूस किया गया और महाक्रांति के प्रभाव को फ्रांस में।
(अ) ब्रिटिश काल्पनिक समाजवाद
एक
मैं ब्रिटेन को पहला स्थान बस इसलिए दे रहा हूँ कि दूसरे देशों के मुकाबले यही देश उस औद्योगिक क्रांति से सबसे पहले गुजरा जिसने भविष्य के सभ्य समाजों के आंतरिक इतिहास को एक लंबे समय तक निर्धारित किया। इस क्रांति की विशेषता थी मशीनी उत्पादन का तीव्र विकास जिसने उत्पादन के संबंधों को इस अर्थ में प्रभावित किया कि स्वतंत्र उत्पादकों की जगह किराये के मजदूरों ने ले ली; ये मजदूर पूँजीपतियों के कमान में और उन्हीं के लाभ के लिए कमोवेश बड़े पैमाने के उद्यमों में लगे थे। उत्पादन के संबंधों में आए इस परिवन ने ब्रिटेन की कामकाजी जनता पर बहुत ही तीखी और लम्बे समय तक मुसीबतें ढाई। तथाकथित बाड़ों (इनक्लोजर्स) ने जो छोटे से बड़े पैमाने की कृषि में संक्रमण से जुड़े हुए थे, इन हानिकारक परिणामों को और भी तीखा बनाया। पाठक इस बात को समझ सकता है कि बड़े भूस्वामियों द्वारा उन जमीनों पर कब्जा करना जो पहले ग्राम समुदायों की संपत्ति थीं तथा छोटे खेतों की बड़े खेतों में 'चकबंदी' (कंसालिडेशन), इन 'वाड़ों के मुख्य तत्व थे तथा इनबाड़ी के कारण देखती आबादी का एक अच्छा-खासा भाग लाज़मी तौर पर
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औद्योगिक केंद्रों की तरफ़ चला गया। यह बात भी आसानी से समझी जा सकती है कि अपने पुराने घरों से निकाल दिए गए इन ग्रामीणों ने श्रम बाज़ार में 'हाथों' की आपूर्ति में बढ़ोत्तरी की और इस तरह मज़दूरियों में कमी आई। 'औद्योगिक क्रांति' के फ़ौरन बाद के काल में कंगाली ने ब्रिटेन में जितना भयानक रूप ग्रहण किया था, उतना पहले कभी नहीं किया था। 1784 में निर्धन कर (पुअर टैक्स) कोई 5 शिलिंग प्रति व्यक्ति था और 1818 तक यह बढ़कर 13 शिलिंग 3 पेंस हो चुका था। बदहाली से लाचार होकर ब्रिटेन के कामगार व्यक्ति एक स्थायी उथल-पुथल की अवस्था में पहुँच गए। खेत मज़दूरों ने फ़ार्मों को जला दिया; औद्योगिक मज़दूरों ने कारखानों की मशीनों को तोड़-फोड़ डाला। ज़ालिमों के खिलाफ़ मज़लूमों के विरोध ने शुरू-शुरू में ऐसे ही रूप धारण किए जो अभी भी सहजवृत्ति की उपज थे। इस दौर के आरंभ में मज़दूर वर्ग का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा ही बौद्धिक विकास की उस अवस्था तक पहुँच सका था कि एक बेहतर भविष्य के लिए सचेतन संघर्ष आरंभ कर सके। यही हिस्सा मूलगामी राजनीतिक सिद्धांतों की ओर आकर्षित हुआ और यह फ्रांसीसी क्रांतिकारियों का हमदर्द था। लंदन करेस्पांडिंग सोसायटी का गठन 1792 में ही हो चुका था; इसमें बहुत से मज़दूर, दस्तकार और छोटे व्यापारी शामिल थे। फ्रांसीसी क्रांतिकारियों की तर्ज पर चलते हुए इस सोसायटी के सदस्य एक दूसरे को नागरिक कहकर मुखातिब करते थे और उन्होंने बहुत ही क्रांतिकारी भावनाओं का प्रदर्शन किया, खासकर लुई 16वें का सिर काटे जाने के बाद अपने समय के उन्नत विचारों से प्रेरणा पाने वाले जनवादी तत्त्वों की संख्याशक्ति चाहे जितनी कम रही हो, उनकी हमलावर मनोस्थिति ने शासक हलकों को भारी चिंता में डाल दिया जो फ्रांस की उन दिनों की घटनाओं को कँपकँपाते हुए देख रहे थे। ब्रिटिश सरकार ने अपने घरेलू 'जैकोबिनों के खिलाफ़ दमन के बहुत सारे क़दम उठाए जिनका लब्बे-लुवाब भाषण देने, ट्रेड यूनियनों का गठन करने और सभा करने के अधिकारों पर पाबंदियाँ लगाना था। साथ ही उच्च वर्गों के विचारधारात्मक प्रतिनिधियों ने अपने आपको पुलिस के व्यवस्था बनाए रखने के प्रयासों को बल पहुँचाने और आध्यात्मिक अस्त्र' का प्रयोग क्रांतिकारियों के खिलाफ़ करने पर मजबूर पाया। जनसंख्या के नियम की माल्थस द्वारा की गई छानबीन' इसी बौद्धिक प्रतिक्रिया के साहित्यिक स्मारकों में एक थी; 'राजनीतिक न्याय के बारे में गाडविन की उपर्युक्त रचना ने ही इसके लिए माल्थस को उत्तेजित किया। गाडविन ने इंसान की तमाम बदहालियों के लिए सरकारों और सामाजिक संस्थाओं के कार्यकलाप को ज़िम्मेदार ठहराया था जबकि माल्थस ने यह दिखाने की कोशिश की कि उनका जन्म सरकारों या संस्थाओं के कार्यकलाप से नहीं बल्कि प्रकृति के एक असाध्य नियम से होता है जिसके अनुसार जनसंख्या हमेशा जीवन-निर्वाह के साधनों के मुक़ाबले अधिक तेज़ी से बढ़ती है।
वैसे तो ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति ने मजदूर वर्ग की दशा को बुरी तरह बिगाड़ा, मगर उसका मतलब देश की उत्पादक शक्तियों में एक बेपनाह बढ़ोत्तरी
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भी था। यह बात तमाम शोधकर्ताओं के सामने दिन के उजाले की तरह स्पष्ट थी। इसके कारण उनमें से बहुतों को यह ऐलान करने का मौका मिला कि मजदूर वर्ग की तकलीफें बस अस्थायी थीं, वरना आम तौर पर सभी काम शानदार ढंग से चल रहे थे। लेकिन इस आशावादी दृष्टिकोण में सभी लोग साझीदार नहीं थे। ऐसे लोग भी थे जो गुफावासी महात्माओं की तरह शांत रहकर दूसरों को कष्ट उठाते नहीं देख सकते। ब्रिटेन में पिछली सदी के पूर्वार्द्ध का समाजवादी साहित्य इन्हीं लोगों में सबसे साहसी और सोच-विचार करने वालों की देन था।5
'सभ्यता' ने कामकाजी जनता की दशा की किस प्रकार प्रभावित किया था, इस प्रश्न पर अपनी पड़ताल के परिणाम डॉ. चार्ल्स हाल (1745-1825) ने 1805 में प्रकाशित कराए: 'सभ्यता' से उनकी मुराद ठीक-ठीक कहें तो सभ्य देशों में उत्पादक शक्तियों के विकास से थी।6 इसमें हाल ने यह साबित किया कि 'सभ्यता' के कारण जनता गरीब से गरीबतर होती जा रही है। कहते हैं: 'इस तरह कुछेक की दौलत या ताक़त में बढ़ोत्तरी दूसरों की गरीबी और गुलामी में बढ़ोत्तरी का कारण है।'7
सिद्धांतों के इतिहास के लिए यह प्रस्थापना बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह दिखाती है कि चार्ल्स हाल के रूप में ब्रिटिश समाजवाद ने 'अमीर और गरीब वर्गों के हितों के विरोध की कितने साफ तौर पर समझा था। यहाँ यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि 'गरीब' वर्ग से हाल की मुराद उन लोगों के वर्ग से थी जी अपनी 'मेहनत' बेचकर जिंदगी बसर करता है, अर्थात् सर्वहारा से, जबकि 'अमीर' से उनका तात्पर्य पूँजीपतियों और भूस्वामियों से था जिनकी समृद्धि का आधार गरीबों का आर्थिक शोषण था।
चूँकि 'अमीरों' की जिंदगी 'गरीबों' के आर्थिक शोषण पर बसर होती है, इन दो वर्गों के हित एक दूसरे के ठीक उल्टे हैं। हाल की पुस्तक में एक परिच्छेद (पंद्रह) ऐसा भी है जिसका शीर्षक 'अमीरों और गरीबों के भिन्न-भिन्न हितों के बारे में है। हमारे लेखक के तर्कों का निचोड़ इस प्रकार है।
हरेक अमीर व्यक्ति को श्रम का खरीदार और हरेक गरीब व्यक्ति को बेचनेवाला समझना चाहिए। अमीर व्यक्ति का हित इसमें है कि गरीब व्यक्ति का जो श्रम उसने खरीदा है उससे जितना भी संभव हो, फायदा उठाए, और उसका जितना कम मुमकिन हो, दाम दे। दूसरे शब्दों में, मज़दूर श्रम पैदा किया है, अमीर उसका बड़े-से-बड़ा संभव भाग पाना चाहता है। दूसरी तरफ मज़दूर भी अपनी पैदावार का बड़े-से-बड़ा संभव भाग पाने की कोशिश करता है। सो फिर आपस में ठन जाती है। लेकिन यह बराबरी का संघर्ष नहीं होता। जीवन-निर्वाह के साधनों से वंचित मज़दूर आम तौर पर समर्पण के लिए मजबूर हो जाते हैं, जिस तरह रसद से वंचित एक फौजी दस्ता दुश्मन के आगे समर्पण कर देता है। अलावा इसके, हड़ताले अकसर फौजी ताकत के बल पर कुचल दी जाती हैं जबकि कुछ ही राज्य ऐसे हैं जिनमें कानून मालिकान को मज़दूरी गिराने के मकसद से अपना संघ बनाने से मना करता है।
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हाल ने खेत मजदूर की स्थिति की तुलना किसान के बैल या घोड़े से की है। फर्क अगर हो भी तो मज़दूर के हक़ में नहीं होता। इसलिए कि मज़दूर मर जाए तो मालिक का कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन घोड़े या बैल के मरने पर उसका नुकसान होता है।8 मज़दूरों के साथ अपने संघर्ष में मालिकान अपने हितों की रक्षा के लिए भारी संकल्प का परिचय देते हैं। इसके विपरीत मज़दूर मालिकान के खिलाफ़ अपने संघर्ष में उतने दृढ़ नहीं रह पाते; गरीबी उनको प्रतिरोध की आर्थिक और नैतिक शक्तियों से वंचित कर देती है।9 इसके अलावा, कानून मालिकों की तरफ़दारी करता है और संपत्ति के अधिकारों के हनन की तमाम कोशिशों पर सख्त सजाएँ देता है।10 इसे देखते हुए सवाल पैदा होता है: वार्षिक राष्ट्रीय आय का वह भाग कितना बड़ा है जो कुल मिलाकर मजदूर वर्ग को जाता है? हाल में हिसाब लगाया कि यह वर्ग अपने श्रम की पैदावार के मूल्य का बस आठवाँ भाग पाता है; आठ भागों में से बाक़ी सात भाग 'मालिकान को जाते हैं।11
इस निष्कर्ष को निश्चित ही सही नहीं कहा जा सकता। हाल ने राष्ट्रीय आय में मज़दूरों के भाग को कम दिखाते हुए पेश किया है। लेकिन पाठक इस बात को समझ सकता है कि यहाँ अपने लेखक की गलती पर उँगली रखने की कोई जरूरत नहीं है। बजाय इसके, हमें यह देखना चाहिए कि हिसाब की इस गलती के बावजूद उन्होंने पूँजी के हाथों उजरती मज़दूरों के शोषण के आर्थिक सारतत्त्व को बखूबी समझ लिया था।
फिर बुभूक्षितम् किम् करोति न पापम्! हाल मानते थे कि 'जिस चीज़ को मूल पतन या कुचाल कहा जाता है वह पूरा का पूरा, या लगभग पूरा का पूरा, सभ्यता की प्रणाली का और खासकर उसकी सुस्पष्ट विशेषता का अर्थात् संपत्ति की भारी असमानता का परिणाम है।'12 सभ्यता गरीबों को भौतिक वस्तुओं से वंचित रखकर पतित बनाती है लेकिन उनके 'मालिकान' वे तमाम बुराइयाँ अपना लेते हैं जो अमीरों में आम होती हैं। सबसे बढ़कर तो वे तमाम बुराइयों में बदतरीन बुराई को, अपने साथ के प्राणियों को कुचलने की चाहत को अपनाते हैं। यही कारण है कि संपत्ति की असमानता का उन्मूलन कर दिया जाए तो सामाजिक नैतिकता का बहुत बहुत बहुत उत्थान होगा। लेकिन क्या उसका उन्मूलन किया जा सकता है? हाल का खयाल था: हाँ। वे इतिहास से तीन दृष्टांत देते हैं जिनमें संपत्ति की समानता स्थापित की गई थी: एक तो यहूदियों में, एक स्पार्टा में, और तीसरे पैरागुए में जेसुइटों की सरकार के तहत। इन तमाम मिसालों में, जहाँ तक हमें पता है, यह कोशिश एक बड़ी हद तक कामयाब रही।13
संपत्ति की असमानता का उन्मूलन करने के लिए जो क़दम उठाए जा सकते हैं, उनके सवाल पर चर्चा करते हुए हाल जोर देकर भारी सावधानी बरतने की सिफारिश करते हैं, और सिर्फ सावधानी की भी नहीं। कहते हैं: जरूरी है कि सुधार का काम उन लोगों के हाथों में हो जो निःस्वार्थ और निर्विकार हों। ऐसे लोग मजलूमों में
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नहीं मिलने के; वे तो शायद बहुत अधिक हिंसा का सहारा लेने लगें। हमें बल्कि ज़ालिमों से अपील करनी चाहिए। कारण कि जहाँ मुआमले का संबंध निजी तौर पर हमसे न होकर दूसरों से हो, वहाँ इंसाफ़ के तक़ाज़ों को पूरा करने के लिए शायद ही हम कभी जल्दबाज़ी और हिंसा से काम लेते हों, भले ही हम उन तक़ाज़ों को कितनी से अहमियत देते हों। 'इस कारण', हाल कहते हैं, 'बेहतर यही होगा कि ग़रीबों की शिकायतें दूर करने का सिलसिला खुद अमीरों की तरफ़ से शुरू हो।14 दूसरे शब्दों में, सामाजिक शांति के हित में आवश्यक यही है कि संपत्ति की असमानता उन लोगों के हाथों समाप्त हो जो उससे तमाम फ़ायदे उठाते हैं। यह खूबी सिर्फ़ हाल की नहीं है; इस सवाल पर ऐसा ही विचार उस दौर के समाजवादियों के एक विशाल बहुमत का था, और सिर्फ़ ब्रिटेन नहीं बल्कि यूरोपीय महाद्वीप में भी था। ब्रिटेन के काल्पनिक समाजवादियों ने जिनका नाम सबसे ऊपर आता है, वे राबर्ट ओवेन भी इस सिलसिले में हाल के क़रीब ही थे।15
दो
साल 1800 के आरंभ के समय ओवेन न्यू लेनार्क (स्काटलैंड) की एक बड़ी सूती मिल के मैनेजर थे। इस मिल में काम कर रहे 'गरीब' काफ़ी मेहनत करते और थोड़ा पाते थे, शराबखोरी के आदी थे, अकसर चोरी करते पकड़े जाते थे, तथा आम तौर पर उनके बौद्धिक और नैतिक विकास का स्तर बहुत नीचा था। जब ओवेन इस मिल के मैनेजर बने, उन्होंने अपने मज़दूरों की हालत सुधारने के लिए फ़ौरन क़दम उठाए। उन्होंने काम का दिन घटाकर साढ़े दस घंटे कर दिया,16 और जब कच्चे माल की कमी के कारण मिल कुछ महीनों तक ठप्प पड़ी रही तब भी उन्होंने 'गरीबों' को उठाकर सड़क पर नहीं फेंका जैसा कि अकसर होता था, बल्कि जैसा कि 'व्यवधानों' (ब्रेकडाउंस) और संकटों के दौरान आज भी होता है। बजाय इसके, उन्होंने मज़दूरों को पूरी मज़दूरी देना जारी रखा। साथ ही उन्होंने बच्चों के पालन-पोषण और शिक्षा के प्रति भी भारी चिंता दिखाई। वे ब्रिटेन में किंडरगार्टेन शुरू करनेवाले पहले व्यक्ति थे। इन कोशिशों के नतीजे हर एतबार से शानदार रहे। मजदूरों के नैतिक स्तर में सुस्पष्ट सुधार आया। उनमें अपनी मानवीय गरिमा की भावना जाग उठी। साथ ही कारखाने के मुनाफ़े में अच्छी-खासी बढ़ोत्तरी हुई। इन तमाम बातों ने मिलकर न्यू लेनार्क को उन तमाम लोगों के लिए बेहद आकर्षक कोई चीज़ बना दिया जो अपनी नेकदिली के चलते भेड़ों की जान बख्शना बुरा नहीं समझते थे, बशर्ते भेड़िये भूखे न रहें। एक परमार्थ पुरुष के रूप में ओवेन को दूर-दूर तक शोहरत मिली। बेहद ऊँचे पदों पर विराजमान लोग भी लपककर न्यू लेनार्क आने और वहाँ 'गरीबों' की बेहतरी देखकर गश खाने लगे। लेकिन नयू लेनार्क में ओवेन ने जो कुछ कर दिखाया था, उससे वे खुद संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने सही ही यह बात कहीं कि उनके मज़दूर भले ही अपेक्षाकृत खुशहाल हों, वे अभी भी उन्हों के गुलाम थे। इस कारण जिस परमार्थ पुरुष ने मज़दूरों के प्रति अपने परोपकारी
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रवैये के सहारे बेहद कट्टर प्रतिक्रियावादियों तक को द्रवित कर दिया था, अब वही धीरे-धीरे एक समाज सुधारक बन गया और अपने 'चरमपंथ' से यूनाइटेड किंगडम के तमाम 'भद्रजन' के हवास उड़ाने लगा।
हाल की तरह ओवेन भी इस विरोधाभासी स्थिति से हैरान थे कि ब्रिटेन में उत्पादक शक्तियों का विकास ठीक उन्हीं लोगों की गरीबी का कारण बन रहा था जो उन शक्तियों का प्रयोग कर रहे थे। कहते हैं दुनिया आज दौलत से उसे और बढ़ाने के कभी न खत्म होनेवाले साधनों से लबालब भरी है, और फिर भी बदहाली का राज! आज की तारीख में मानव समाज की वास्तविक स्थिति यही है। लोगों को दौलत, ज्ञान और संतुष्टि देने के साधन हैं तो सही मगर फिर भी, जैसा कि उन्होंने कहा, 'दुनिया की एक बड़ी आबादी गरीबी के जहन्नुम में जी रही है; उसे खाने के लाले पड़े हुए हैं। ऐसे हालात तो चलने से रहे; बेहतरी की दिशा में एक तब्दीली जरूरी है। और यह तब्दीली बेहद आसान होगी। दुनिया मौजूदा बुराई को जानती और महसूस करती है; यह प्रस्तावित नयी व्यवस्था पर नज़र डालेगी, उसे मंजूरी देगी, तब्दीली की इच्छा करेगी और तब्दीली आ जाएगी।17
लेकिन दुनिया प्रस्तावित सुधार का अनुमोदन करे, इसे सुनिश्चित करने के लिए पहले उसके सामने यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि मनुष्य अपनी प्रकृति से क्या है, उसके इर्द-गिर्द की परिस्थितियों ने उसे क्या बना दिया है तथा बुद्धि के तक़ाज़ों से मेल खाने वाली नयी परिस्थितियों में वह क्या हो सकता है। ओवेन की राय में मनुष्य बुद्धिमान और सुखी बने, इससे पहले उसके मन का पुनर्जन्म आवश्यक है।18 मानव-मन के पुनर्जन्म को बढ़ावा देने के लिए ही ओवेन ने मानव चरित्र के निर्माण के बारे में अपने सुप्रसिद्ध निबंध लिखे थे। 19
गाडविन की तरह ओवेन का भी पक्का विश्वास था कि मनुष्य की इच्छाओं से स्वतंत्र, उसके चरित्र का निर्धारण उसके सामाजिक वातावरण की परिस्थितियाँ करती हैं। मनुष्य को उसके विचारों और आदतों की प्राप्ति उसके वातावरण से होती है और ये ही उसके आचरण के निर्धारक हैं। इसलिए किसी भी देश की जनता को, और ठीक इसी कारण से पूरे संसार की जनता को समुचित उपायों के द्वारा किसी भी तरह का चरित्र प्रदान किया जा सकता है- बदतरीन से लेकर बेहतरीन तक। इसके लिए आवश्यक साधन सरकार के हाथों में हैं। सरकार इस तरह के क़दम उठा सकती है कि जनता गरीबी, अपराध या दंड का नाम तक सुने बिना जीवन गुजार सके, क्योंकि ये चीजें गलत शिक्षा और गलत शासन के परिणामों के अलावा कुछ भी नहीं हैं। चूंकि सरकार का उद्देश्य शासित और शासक, दोनों को सुखी बनाना है, राजनीतिक सत्ता जिन लोगों के हाथों में है उन्हें फ़ौरन समाज व्यवस्था को सुधारने पर लग जाना चाहिए।20
इस सुधार की दिशा में पहला कदम यह बात आम जानकारी में लाना होगा कि मौजूदा पीढ़ी का कोई भी व्यक्ति अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
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उसके बाद अंतरात्मा की स्वतंत्रता का जनता के आचरण पर गलत प्रभाव डालनेवाली संस्थाओं के उन्मूलन का, निर्धन क़ानून (पुअर ला) की समीक्षा का तथा अंतिम मगर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जनता की शिक्षा और ज्ञान के लिए आवश्यक क़दम उठाए जाने का ऐलान होना चाहिए। सुशासित होने के लिए हर राज्य को चाहिए कि अपना ध्यान मुख्य रूप से चरित्र निर्माण की ओर मोड़े; सबसे अच्छी तरह शासित राज्य यह होगा जिसके पास शिक्षा की सबसे अच्छी राष्ट्रीय व्यवस्था होगी।21 ओवेन कहते हैं: शिक्षा की व्यवस्था पूरे राज्य में यकरस होनी चाहिए।
ओवेन के बाद की लगभग तमाम साहित्यिक और आंदोलन संबंधी गतिविधियाँ ऊपर दर्ज विचारों को और आगे विकसित करने पर तथा जनमत के सामने जोश-खरोश के साथ उनको पुष्ट करने पर केंद्रित रहीं। इसी कारण, मनुष्य के चरित्र का निर्धारण उसके इर्द-गिर्द की परिस्थितियाँ करती हैं, इस सिद्धांत पर कायम रहते हुए ओवेन ने यह सवाल उठाया कि उनके दौर के ब्रिटिश मज़दूरों को बचपन से ही कितनी अनुकूल परिस्थितियों मिलती हैं। न्यू लेनार्क ने जो कुछ उन्होंने देखा-सुना था उसी के आधार पर सही, ओवेन मज़दूरों के जीवन की परिस्थितियों को बखूबी जानते थे। इसलिए उपरोक्त प्रश्न का वे बस यही उत्तर दे सकते थे कि ये परिस्थितियाँ अत्यंत प्रतिकूल हैं। उनकी राय में पूरे देश में कल-कारखानों के प्रसार ने देशवासियों का चरित्र बिगाड़ा है और इस बिगड़े चरित्र ने उन्हें अभागा बना दिया है। यह नैतिक बुराई बेहद अफ़सोसनाक है तथा कानून हस्तक्षेप करे और दिशा दिखाए तभी इसे दूर किया जा सकता है।22 मगर यह काम भी अनिश्चित काल तक के लिए टाला नहीं जा सकता। अगर मज़दूरों की स्थिति आज पहले के मुक़ाबले खराब है तो यह समय के साथ और बिगड़ेगी। कारखाने की वस्तुओं का निर्यात संभवतः अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका है। आज के बाद दूसरे राज्यों की प्रतियोगिता के कारण इसमें कमी ही आएगी और फिर इसके कारण मजदूर वर्ग की दशा पर गंभीर और चिंताजनक प्रभाव पड़ेगा।23
ओवेन ने मांग की कि मशीनों का उपयोग करनेवाले प्रतिष्ठानों में काम के दिन को घटाकर साढ़े दस घंटे करने के लिए संसद एक क़ानून बनाए। इस क़ानून में दस साल से कम उम्र के बच्चों के मज़दूरी करने पर, तथा इससे अधिक उम्र के जो बच्चे लिखने या पढ़ने में असमर्थ हैं उनके भी मजदूरी करने पर प्रतिबंध लिगाया जाए। यह कारखाना क़ानून की एक बहुत ही विशिष्ट मांग थी। ओवेन ने यह माँग 'लाखों उपेक्षित गरीबों के नाम पर सामने रखी। आखिरकार 1818 में संसद द्वारा बनाए गए एक कानून ने बहुत ही काट-छाँट के साथ सही, इस माँग को स्वीकार किया।24 लेकिन बदनसीबी से, ओवेन की माँग पर महज़ एक टुकड़ा फेंकनेवाला यह कानून भी रद्दी कागज़ का टुकड़ा बना रहा क्योंकि इसे लागू करने के लिए संसद ने एक सिरे से कोई कदम नहीं उठाया। बाद में मुख्य कारखाना निरीक्षक ने रिपोर्ट दी कि '1833 के क़ानून से पहले किशोरों और बच्चों से पूरी रात, पूरा
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दिन या इच्छा करे तो रात-दिन भी काम कराया जाता था।25
खुद को कारखाना क़ानून की माँग तक सीमित न रखते हुए ओवेन ने निर्धन कानून की समीक्षा कराने की भी कोशिश की। वे बेरोजगारों के लिए विशेष गाँव स्थापित कराना चाहते थे जहाँ वे खेतिहर और औद्योगिक कामों में लग सकें। ओवेन ने इन गाँवों को, जिनसे उन्होंने भारी आशा लगा रखी थी, एकता और आपसी सहयोग के ग्राम कहा।26 उनका खयाल था कि ये गाँव कामगार जनता को मुनासिब शिक्षा देने और उनमें जीवन के प्रति एक बुद्धिसंगत दृष्टिकोण विकसित करने के लिए विशेष उपाय करने के माध्यम होने चाहिए। ये 'गाँव' आसानी से समृद्ध बन सकते हैं, इस विश्वास के साथ वे उनको ऐसी समाजव्यवस्था की राह में पहला कदम समझते थे जिसमें न तो 'गरीब' हो न 'अमीर', न तो 'गुलाम' हों और न 'मालिक' हों। यह कोई संयोग नहीं कि उन्होंने 'गरीबों के राष्ट्रीयकरण' का प्रस्ताव रखा।27 यह उनके लिए आवश्यक भी था क्योंकि अपनी आरंभिक योजना में, जैसा कि उनके निबंधों की चर्चा करते हुए मैंने कहा, उन्होंने यह प्रस्ताव रखा था कि शिक्षा की व्यवस्था पूरे राज्य में यकरस होनी चाहिए।
बहुत पहले, 1817 में ही, ओवेन ने 'एकता और आपसी सहयोग के ग्रामों की स्थापना पर आ सकने वाले खर्च का एक विस्तृत अनुमान लगाया था। आज यह कहने की शायद ही जरूरत हो कि इस उद्यम के लिए आवश्यक धन देने का सरकार का कोई इरादा नहीं था। आगे चलकर 1834 में सरकार ने निर्धन कानून को बदला ज़रूर, मगर उस दिशा में बिलकुल नहीं जिसका सुझाव हमारे सुधारक ने रखा था। 'एकता और आपसी सहयोग के ग्रामों' की बजाय ऐसे कामघरों में बदहाल गरीबों को ठूंस दिया गया जो कैदखानों से भिन्न थे ही नहीं।
समाज-सुधार करने के लिए गवर्नरों को तैयार करने के प्रयास जब असफल हुए तब तक उनकी सदिच्छा में ओवेन की आस्था टूटी नहीं थी। फिर भी उन्होंने खुद को इसके लिए मजबूर पाया कि अपने खुद के साधनों से और समान विचार वाले लोगों की मदद से अपने हार्दिक विचारों को साकार करने का प्रयास शुरू करें। उन्होंने यूनाइटेड किंगडम में और उत्तरी अमरीका में कम्युनिस्ट कालोनियों बसानी शुरू की। एक अकेली बस्ती की तंग सीमाओं के अंदर कम्युनिस्ट आदर्श को व्यवहार में लाने के ये प्रयास असफल साबित हुए और ओवेन को लगभग पूरी तरह तबाह कर गए। इस असफलता के अनेक कारण थे। ऐसे सबसे महत्वपूर्ण कारणों में एक कारण खुद ओवेन ने स्पष्ट किया था। उन्होंने कहा कि ऐसे उद्यमों की सफलता के लिए आवश्यक यह था कि उनके अंगों में कुछ विशेष नैतिक रुझान हो, लेकिन एक ऐसे समय में जब सामाजिक वातावरण ने मानव चरित्र को इतनी बुरी तरह विकृत कर रखा था, ये रुझान आम तो थे ही नहीं। इस तरह यह बात सामने आई कि जनता को समुचित शिक्षा देने के लिए कम्युनिस्ट बस्तियों की आवश्यकता थी और दूसरी तरफ, यही शिक्षा कम्युनिस्ट बस्तियों को सफलता के लिए एक जरूरी आरंभिक शर्त भी थी। यही वह अंतर्विरोध है जिससे
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पिछली सदी के दौरान अनेक, अनेक नेक इरादे टकराकर चूर हो गए, और इस अंतर्विरोध का समाधान कुल मिलाकर पूरे समाज के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया से ही किया जा सकता है- मनुष्य के अस्तित्व की क्रमिक रूप से जन्म ले रही नयी दशाओं से मनुष्य के चरित्र का क्रमिक रूप से तालमेल बिठाने की प्रक्रिया में। मगर काल्पनिक समाजवाद ने ऐतिहासिक विकास की प्रगति का बहुत कम ध्यान रखा। ओवेन तो यह कहने तक के शौक़ीन थे कि नयी समाज-व्यवस्था यकवयक, 'रात में चोर की तरह' भी आ सकती है।
तीन
1817 में एक आम सभा में ओवेन ने श्रोताओं के सामने ये टिप्पणियाँ की: 'दोस्तो, मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि खुशी सचमुच क्या है, अभी तक इसे तुम जानने तक से वंचित रहे हो; इसका एकमात्र कारण गलतियाँ-भारी ग़लतियाँ-हैं जो हर धर्म की उन बुनियादी धारणाओं से एकमेक हो गई हैं जिनकी अभी तक मानव को शिक्षा दी जाती रही है। और नतीजा यह है कि इन्होंने मनुष्य को जीवन में बेहद असंगत और बेहद अभागा बना रखा है। इन व्यवस्थाओं की गलतियों के चलते वह एक कमज़ोर, मूढ पशु बन चुका है: एक गुस्से से चूर कठमुल्ला और कट्टरवादी या फिर एक निकम्मा पाखंडी।28 ऐसे शब्द ब्रिटेन में पहले कभी नहीं सुने गए थे और ये ओवेन के ख़िलाफ़ 'भद्रलोक' को आग-बगूला करने के लिए पर्याप्त थे। वे खुद भी देख रहे थे कि ये 'भद्र' लोग उनको धर्मद्रोही ठहराकर ऐंढने लगे हैं। लेकिन इससे उनकी स्पष्टवादिता में या सत्ताधारियों की सदिच्छा को लेकर उनकी आस्था में कोई कमी नहीं आई। 1830 में उन्होंने 'सच्चे धर्म के बारे में दो व्याख्यान दिए। मगर इन व्याख्यानों से 'सच्चे' धार्मिक सिद्धांतों की बुनियादी विशेषताओं की एक धुँधली सी तस्वीर ही सामने आती है। 29 लेकिन ये तमाम बातें अपनी जगह, ये अभी तक मौजूद धर्मों के प्रति ओवेन के गहरे अपमान-भाव के प्रमाण अवश्य हैं। पहले व्याख्यान में उन्होंने इन धर्मों को फूट, आपसी नफ़रत और अपराध का एकमात्र स्रोत घोषित किया जिन्होंने मानव जीवन को अँधेरे में धकेल रखा है। दूसरे व्याख्यान में उन्होंने कहा कि उन्होंने दुनिया को एक लंबा-चौड़ा पागलखाना बना रखा है। फिर उन्होंने यह भी दिखाया कि उनके खिलाफ़ लड़ने के लिए फ़ौरी उपाय करने की कितनी आवश्यकता थी। यह बात यूनाइटेड किंगडम के तमाम 'भद्रलोक' को आगबबूला करने के लिए पर्याप्त क्या, उससे भी अधिक थी। हम देख सकते हैं कि उनमें से कोई भी शख्स धर्मों के खिलाफ़ क़दम उठाने की ताईंद नहीं करेगा, यह बात खुद ओवेन को समझ लेनी चाहिए थी। लेकिन ठीक यही बात थी जिसे वे समझना नहीं चाहते थे।
दूसरे व्याख्यान में ओवेन ने कहा कि जिन लोगों ने सत्य का ज्ञान पा लिया है, उसे अमल में लाने में सरकार की मदद करना उनका नैतिक कर्त्तव्य है। फिर उन्होंने अपने श्रोताओं और पाठकों का आह्वान किया कि धर्मों के खिलाफ़ लड़ने के बारे में बादशाह और संसद के दोनों सदनों को याचिकाएँ भेजें। इस याचिका
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के मुसव्विदे में यह बात मान ली गई थी कि बादशाह तो अपनी प्रजा की खुशहाली से अधिक और कुछ नहीं चाहता लेकिन प्रजा की खुशहाली तभी मुमकिन है जबकि सत्य और प्रकृति का एक धर्म मौजूदा अप्राकृतिक धर्म की जगह ले ले जिसकी बदनसीबी से आज भी उन्हें शिक्षा दी जा रही है। आखिरी बात यह धर्म समाज के लिए कोई ख़तरा पैदा किए बिना भी कामयाब हो सकता है; अधिक से अधिक थोड़ी-सी अस्थायी असुविधा होगी। इसलिए बादशाह को अपनी उच्च स्थिति का सहारा लेकर अपने मंत्रियों को प्रेरित करना चाहिए कि वे मानव-चरित्र के निर्माण के सिलसिले में धर्म की भूमिका की छानबीन करें। संसद के दोनों सदनों को दी गई याचिका भी इसी भावना से भरी हुई थी।30 श्रोताओं और पाठकों ने ओवेन की याचिकाओं के मुसव्विदों का अनुमोदन किया। कहने की जरूरत नहीं कि इन याचिकाओं ने ओवेन के ध्येय को रत्ती बराबर भी आगे नहीं बढ़ाया।
किसी विशेष सामाजिक आधार पर विकसित होने वाली धार्मिक धारणाएँ उसी आधार का अनुमोदन करती हैं। जो शख्स धर्म पर हमला करता है, उसके सामाजिक आधार को झकझोरता है। इसलिए सवाल जहाँ धार्मिक आस्थाओं का होता है, व्यवस्था के पहरेदार कभी बरदाश्त का माद्दा नहीं दिखाते। उनमें धर्म के ख़िलाफ़ लड़ने का रुझान तो और भी कम होता है। ओवेन ने इसी बात को अनदेखा किया। मगर उसका मतलब फिर यही निकला कि मानव चरित्र के निर्माण संबंधी अपनी ही शिक्षाओं से जो भी व्यावहारिक निष्कर्ष निकल सकते थे, वे उन्हें निकालने में असमर्थ रहे।
अगर हर व्यक्ति विशेष का चरित्र उसके पालन-पोषण की दशाओं से निर्धारित होता है तो ज़ाहिर है कि हर विशेष सामाजिक वर्ग का चरित्र भी समाज में उसकी स्थिति से निर्धारित होगा। जो भी वर्ग दूसरे वर्गों के शोषण पर जिंदगी बसर करता है, हमेशा सामाजिक अन्याय का समर्थन करने के लिए तैयार मिलेगा, उसके खिलाफ़ विद्रोह करने के लिए नहीं। समाज से वर्गीय भेदों को समाप्त कर सकने वाले सुधारों की दिशा में कुलीनों और पूंजीपतियों को ओवेन जिस सीमा तक प्रेरित करने की आस लगाए हुए थे, उस सीमा तक बिना जाने ही वे उसी अंतर्विरोध से टकराते रहें जिससे टकराकर 18वीं सदी का भौतिकवादी दर्शन चूर-चूर हो चुका था। उस दर्शन की शिक्षा यह थी कि अपने तमाम विचारों और अपनी आदतों के साथ मनुष्य सामाजिक वातावरण की पैदावार है। पर साथ ही उसने यह दोहराना भी बंद नहीं किया कि अपने तमाम गुणों के साथ सामाजिक वातावरण जनमत की पैदावार है। 'जनमत ही विश्व का संचालन करता है-यही बात भौतिकवादी कहते रहे, और उनके साथ 18वीं सदी में प्रबोध-काल के तमाम दार्शनिक भी कमोबेश प्रबुद्ध निरंकुश शासकों से उनकी दुहाइयों का कारण था, क्योंकि वे 'जनम की शक्ति में पूरा-पूरा विश्वास रखते थे। 'जनमत' में उतना ही पक्का विश्वास राबर्ट ओवेन को भी था। 18वीं सदी के भौतिकवादियों का अनुयायी होने के कारण उन्होंने उनका एक-एक शब्द दोहराया कि 'जनमत ही विश्व का संचालन करता है।31 उन्हीं की
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मिसाल पर चलते हुए उन्होंने 'गवर्नरों' को प्रबुद्ध बनाने की कोशिश की। मज़दूर वर्ग के बारे में स्पष्ट रूप से वे एक लंबे समय तक उन्हीं रायों से संचालित होते रहे जो उन्होंने न्यू लेनार्क में क्रायम की थीं। अपनी पूरी बिसात लगाकर उन्होंने 'कामगार गरीबों की मदद करने की कोशिश की, लेकिन उनकी स्वतंत्र कार्रवाई में उन्हें कोई भरोसा नहीं था। पर उनकी स्वतंत्र कार्रवाई में कोई भरोसा न होने के कारण वे उनके लिए बस एक रास्ते की सिफारिश कर सकते थे : अमीरों से कभी कोई टकराव मोल न लेना बल्कि हमेशा इस तरह का व्यवहार करना कि अमीर लोग कभी समाज सुधार की पहल करने से न डरें। अप्रैल 1819 में उन्होंने अख़बारों में 'मज़दूर वर्गों के नाम एक संबोधन'32 प्रकाशित कराया। अपनी हालत को लेकर मज़दूर वर्ग गुस्से से उबल रहे थे, अफ़सोस के साथ इस बात का ज़िक्र करने के बाद उन्होंने अपनी बात दोहराई कि मनुष्य का चरित्र उसके सामाजिक वातावरण से निर्धारित होता है। इस बात को याद रखते हुए, उनकी राय में, मजदूरों को कभी 'अमीरों' को, 'गरीबों' के प्रति उनके रवैये का दोषी नहीं ठहराना चाहिए। अमीर तो बस एक काम करेंगे अपनी विशेषाधिकारों से संपन्न सामाजिक स्थिति को बनाए रखना। मजदूरों को इस इच्छा का सम्मान करना चाहिए। और तो और, अगर विशेषाधिकारों से संपन्न लोग कुछ और दौलत कमाना चाहें तो मजदूरों को उनका विरोध नहीं करना चाहिए। ज़रूरत इसकी है कि व्यक्ति अतीत से नहीं, भविष्य से सरोकार रखे अर्थात्, दूसरे शब्दों में, सारा ध्यान समाज-सुधार पर केंद्रित करे। पाठक चाहे तो पूछ सकता है वह सुधार भला कौन सा नया तत्त्व लेकर आता जो विशेषाधिकारों को सुरक्षित ही नहीं रखता बल्कि विशेषाधिकारों से संपन्न लोगों को और भी संपन्न बनाता? बात मगर यह है कि ओवेन की राय में आज मानवजाति के हाथों में जो विराटकाय उत्पादक शक्तियाँ मौजूद हैं वे मजदूरों द्वारा दी गई तमाम रिआयतों की भरपाई कर देंगी। शर्त बस यह है कि इन उत्पादक शक्तियों का सुनियोजित उपयोग किया जाए। बाद में आनेवाले विचारक रोडबर्टस की तरह ओवेन ने भी इस बात पर ज़ोर नहीं दिया कि मज़दूरों को उनकी मेहनत की पैदावार पूरी-पूरी मिलें; हाँ, इसमें उनका भाग बहुत छोटा नहीं होना चाहिए। जैसा कि हम देख रहे है, उनका कम्युनिज्म एक हद तक सामाजिक असमानता को झेलने के पक्ष में था; बस यह असमानता समाज के नियंत्रण में होनी चाहिए और समाज की क़ायम की हुई सीमाओं से बाहर नहीं जानी चाहिए। ओवेन को पूरा-पूरा विश्वास था कि अमीर और गरीब, शासक और शासित का वास्तव में हित एक ही था।33 अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वे सामाजिक शांति के पक्के पैरोकार बने रहे।
हरेक वर्ग-संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष होता है। जो भी वर्गों के संघर्ष के खिलाफ़ होता है, स्वाभाविक है कि वह उनकी राजनीतिक कार्रवाइयों को कोई महत्त्व नहीं देता। आश्चर्य नहीं कि ओवेन संसदीय सुधार के विरोधी थे। उनकी समझ थी कि सामान्यतः चुनावी अधिकार तब तक 'वांछित नहीं हैं जब तक जनता को
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समुचित शिक्षा नहीं मिलती। वे अपने दौर की लोकतांत्रिक और गणराज्यवादी आकांक्षाओं के समर्थक नहीं थे। सोचते थे कि अगर गणराज्यवादी और लोकतंत्रवादी सरकारों को धमकी देना बंद कर दें तो ऐन मुमकिन है कि दुनिया के संचालन में एक लाभदायी परिवर्तन आ जाए।34
ओवेन कभी चार्टिस्ट आंदोलन35 के सदस्य नहीं रहे जो तब मजदूरों के पूरे पूरे राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ रहा था। लेकिन चूंकि उच्च वर्गों ने उनकी समाज-सुधार की योजनाओं को समर्थन देने की ज़रा सी भी इच्छा नहीं दर्शाई, मन मारकर आखिर उन्हें मज़दूर आंदोलन को ही अपनी उम्मीदों का केंद्र बनाना पड़ा। 1830 के दशक के आरंभिक वर्षों में जब इस आंदोलन का जन-आधार फैला, बल्कि यह खतरे की घंटी बन गया, तब ओवेन ने अपने चिर-संचित विचारों को साकार करने के लिए सर्वहारा की बढ़ती शक्ति का उपयोग करने का प्रयास किया। सितंबर 1832 में उन्होंने लंदन में एक 'समतामूलक श्रम-विनिमय बाजार' की स्थापना की, यह नाम उन्हीं का दिया हुआ है। यह लगभग उन्हीं दिनों की बात है जब ट्रेड यूनियनो से उनके घनिष्ठ संबंध स्थापित हुए। लेकिन यहाँ भी उनकी आशाओं के अनुरूप व्यावहारिक परिणाम नहीं निकले।
समतामूलक विनिमय (इक्विटेबिल एक्सचेंज) का अर्थ वस्तुओं के उत्पादन में लगे अधिकतम श्रम के आधार पर उनका विनिमय है। लेकिन अगर कोई खास उपज सामाजिक माँग के अनुरूप नहीं है तो उसे कोई नहीं खरीदेगा और इसलिए उसके उत्पादन में लगा श्रम बेकार जाएगा। वस्तुओं का विनिमय हमेशा उनमें से हरेक में निहित श्रम की मात्रा के अनुपात में हो, या दूसरे शब्दों में मूल्य (वैल्यू) का नियम दामों (प्राइसेज़) के लगातार उतार-चढ़ाव के माध्यम से कार्यरत न हो, इसके लिए उत्पादन का सुनियोजित संगठन अनिवार्य है। उत्पादन का संगठन इस तरह से होना चाहिए कि हरेक उत्पादक का काम चेतन रूप से सुनिश्चित सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के काम आए। जब तक स्थिति ऐसी नहीं होती, दामों के उतार-चढ़ाव से बचा नहीं जा सकता, जिसका मतलब यह हुआ कि 'समतामूलक विनिमय' भी असंभव है। लेकिन जब यह नियोजित उत्पादन कार्यरत होगा, 'समतामूलक विनिमय' की आवश्यकता भी नहीं रह जाएगी। तब वस्तुओं का एक-दूसरे से विनिमय भी नहीं होगा, इसकी बजाय समाज द्वारा तय की गई दरों पर सदस्यों के बीच उनका वितरण किया जाएगा। ये 'समतामूलक विनिमय बाज़ार' इस बात के प्रमाण थे कि आर्थिक प्रश्नों में ओवेन और उनके अनुयायियों की चाहे जितनी भी दिलचस्पी रही हो, उन्होंने अभी भी एक तरफ माल (असंगठित) उत्पादन और दूसरी तरफ कम्युनिस्ट (संगठित) उत्पादन के अंतर को नहीं समझा था।
ट्रेड यूनियनों के साथ खड़े होकर ओवेन ने आशा की थी कि वे पूरे देश में तेजी के साथ सहकारी समितियों की एक श्रृंखला खड़ी करने में उनकी मदद करेंगी और ये सहकारिताएँ नयी समाज व्यवस्था का आधार होंगी। उनकी स्थायी आस्था
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के ही अनुरूप यह सामाजिक क्रांति भी किसी तरह के संघर्ष के बिना संपन्न होनी थी। इसके लिए प्रयासरत ओवेन ने वर्ग-संघर्ष के एक अस्त्र को- और ट्रेड यूनियनें हमेशा ही कमोबेश इसी तरह के अस्त्र होती हैं-शांतिमय समाज-सुधार का एक अस्त्र बनाना चाहा। पर यह योजना एक सिरे से काल्पनिक थी। ओवेन ने जल्द ही महसूस किया कि उनके और ट्रेड यूनियनों के रास्ते अलग-अलग हो रहे थे। जो ट्रेड यूनियनें सहकारिता के विचार से सबसे आगे बढ़कर सहानुभूति रखती थीं, वे ही तब ख़ास जोश-खरोश के साथ एक आम हड़ताल की तैयारी कर रही थीं। यह एक ऐसी चीज़ थी जो सामाजिक शांति को भंग किए बिना कभी भी और कहीं भी संभव नहीं हुई। 37
ओवेन और उनके अनुयायियों को इससे कहीं बहुत अधिक सफलता उपभोक्ता समितियों के क्षेत्र में मिली। खुद ओवेन इन समितियों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे; इन्हें वे 'व्यापारी कंपनियों' से काफ़ी क़रीब समझते थे।
मैंने ओवेन के कार्यकलाप की विस्तृत रूपरेखा इसीलिए दी है कि यह काल्पनिक समाजवाद के मजबूत और कमज़ोर, दोनों पहलुओं की जीती-जागती तस्वीर पेश करता है। इस प्रस्तुति के बाद अब मैं आगे अपनी बात कहते हुए खुद को इनके कामचलाऊ हवालों तक सीमित रख सकूँगा। कुछ शोधकर्ताओं का विचार है कि ओवेन के प्रभाव ने ब्रिटिश मज़दूर आंदोलन
को कोई लाभ नहीं पहुँचाया। यह एक भयानक, अजीबोगरीब और अक्षम्य गलती है। ओवेन ने अपने विचारों के इस अनथक प्रचारक ने मज़दूर वर्ग के चिंतन को जागृत किया, उसके सामने सामाजिक ढाँचे संबंधी सबसे अहम बुनियादी समस्याएँ रखीं, और कम से कम सिद्धांत के स्तर पर उसे उन समस्याओं के सही हल के लिए आवश्यक बहुत कुछ तथ्य प्रदान किए। अगर आम तौर पर उनके व्यावहारिक कार्यकलाप का चरित्र कल्पनावादी था तो यहाँ यह बात भी स्वीकार की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने समकालीनों को कभी-कभी बेहद उपयोगी पाठ भी पढ़ाए। वे सही अर्थों में ब्रिटिश सहकारिता आंदोलन के बड़े अब्बा थे। उनकी कारखाना कानून बनाए जाने की माँग में कहीं कुछ काल्पनिक नहीं था। न ही कारखानों में काम कर रहे बच्चों और किशोरों को प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने की जो आवश्यकता उन्होंने सुझाई, उसमें कहीं कुछ काल्पनिक था। राजनीति की ओर से मुँह फेरकर और वर्ग संघर्ष की निंदा करके बेशक उन्होंने भारी गलती की। फिर भी यह बात ज़िक्र के क़ाबिल है कि जो मज़दूर उनके संदेश की ओर आकर्षित हुए, वे उनकी गलतियों को सुधारने में समर्थ रहे। ओवेन के सहकारिता संबंधी विचारों को, और कुछ हद तक कम्युनिस्ट विचारों को भी, आत्मसात् करके मजदूर साथ ही साथ उस दौर के ब्रिटिश सर्वहारा के राजनीतिक आंदोलन में सक्रिय भाग लेते रहे। उनमें जो सबसे प्रतिभाशाली थे, जैसे लवेट, हेथरिंगटन, वाटसन और दूसरे कुछ लोग, कम से कम उन्होंने तो यही किया। 38
इन तमाम बातों में यह भी जोड़ देना चाहिए कि निडरता के साथ 'सच्चे धर्म की तथा स्त्री पुरुष के बीच बुद्धिसंगत संबंधों की पैरवी करके ओवेन ने सिर्फ़
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सामाजिक क्षेत्र में ही मजदूरों को चेतना के विकास को प्रभावित नहीं किया।39
फौरी तौर पर उनका प्रभाव सिर्फ ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड में ही नहीं बल्कि संयुक्त राज्य अमरीका तक में महसूस किया गया।40
चार
कैंब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर फाक्सवेल समाजवाद के एक उत्साही विरोधी हैं। कहते हैं कि ब्रिटिश समाजवाद को उसका सबसे सच्चा वैचारिक अस्त्र ओबेन ने नहीं रिकार्डो ने प्रदान किया।41 बात ऐसी नहीं है। यह सच है कि एंगेल्स ने यही कहा था कि समकालीन समाजवादी सिद्धांत जिस हद तक पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की उपज है, उस हद तक वे लगभग सभी रिकाड़ों के मूल्य सिद्धांत पर निर्भर रहे। ऐसा करने का एक अच्छा-खासा कारण भी था। फिर भी इसमें शक नहीं कि जिन ब्रिटिश समाजवादियों की शिक्षाएं रिकाड़ों के मूल्य-सिद्धांत पर आधारित थी, कम से कम उनमें से अनेक समाजवादी ओवेन के ही शिष्य थे तथा उन्होंने पुँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की ओर ठीक इसीलिए रुख किया कि उसके निष्कर्षो का उपयोग करके वे अपने गुरु के बताए रास्ते पर और आगे बढ़ना चाहते थे। जिन लोगों को ओवेनवादी कहना साफ तौर पर गलत होगा, ये बौद्धिक स्तर पर कम्युनिस्ट अराजकवादी गाडविन से घनिष्ट रूप से जुड़े हुए मिलेंगे। उन्होंने रिकाडों की ओर रुख किया तो सिर्फ इसलिए कि उनकी मदद से वे राजनीतिक अर्थशास्त्र को हो बेनकाब कर सकें कि इसका तो अपने खुद के, और ऊपर से बुनियादी, राजनीतिक सिद्धांतों के साथ अंतर्विरोध है। ओवेन के शिष्यों में में सबसे पहले विलियम थाम्पसन42 का जिक्र करूंगा। अभी-अभी मैंने जिस रचना का हवाला दिया है (टिप्पणी 41 देखें-संपादक), उसकी प्रस्तावना में थाम्पसन पूछते हैं: यह भला कैसे हुआ कि जिस राष्ट्र के पास किसी भी दूसरे राष्ट्र के मुकाबले बहुत अधिक कच्चे माल, मशीन, इमारतें, भोजन सामग्रियों, बुद्धिमान और मेहनती उत्पादक हैं, वही राष्ट्र आज भी अभावों में जी रहा है?43 यह ठीक वही सवाल है जिससे ओवेन 19वीं सदी के लगभग आरंभ से ही जूझते रहे और जिसे उन्होंने अपनी कुछ प्रकाशित रचनाओं में बड़े सटीक ढंग से निरूपित किया था। अलावा इसके, थाम्पसन को इस बात की भी हैरानी है कि मज़दूरों का कोई दोष नहीं होता तो भी उनकी मेहनत के फल क्यों उनसे छीन लिये जाते हैं। ओवेन की लगभग सभी रचनाओं में हमारा इस सवाल से साबका पड़ता है। फिर भी थाम्पसन इस बात को स्वीकार करते हैं कि ठीक ऐसे ही सवाल हैं जो हमें दौलत के वितरण में दिलचस्पी लेने के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए अगर थाम्पसन ने रिकार्डो की ओर रुख किया- जो उन्होंने सचमुच किया और रिकार्डोों से उन्होंने सचमुच बहुत कुछ लिया - तो यह उनके ऊपर ओवेन के पहले से मौजूद प्रभाव का ही परिणाम था। बेशक रिकार्डो राजनीतिक अर्थशास्त्र के मुआमलों में ओवेन से कहीं बहुत अधिक मज़बूत थे। लेकिन थाम्पसन राजनीतिक
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अर्थशास्त्र की समस्याओं की तरफ़ रिकार्डो को बिलकुल भिन्न दिशा से बढ़े। रिकार्डो ने कहा था और दिखाया था कि श्रम वस्तुओं में मूल्य का एकमात्र स्रोत है। लेकिन वे इस सच्चाई के आदी बन चुके थे कि पूँजीवादी समाज ने मज़दूरों को अधीनता और दुख के घेरों में बाँध रखा था। दूसरी ओर थाम्पसन थे कि इस स्थिति को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि वस्तुओं के वितरण की व्यवस्था का उनके उत्पादन के बुनियादी नियम से अंतर्विरोध न रहे। दूसरे शब्दों में, उनकी माँग यह थी कि श्रम का पैदा किया हुआ मूल्य मज़दूरों को ही मिलना चाहिए। इस माँग को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने ओवेन के पदचिह्नों का ही सहारा लिया।
रिकार्डो के आर्थिक सिद्धांत का सहारा लेने वाले दूसरे तमाम ब्रिटिश समाजवादियों ने पूँजीवादी समाज की आलोचना करते हुए ठीक यही माँग उठाई। रिकार्डो की प्रमुख रचना 1817 में प्रकाशित हुई थी।44 1821 में ही लाई जान रसेल के नाम खुले पत्र के रूप में एक छोटा सा गुमनाम किताबचा प्रकाशित हुआ था जिसमें पूँजीवादी समाज को बेनक़ाब किया गया था कि यह मज़दूरों के शोषण पर आधारित है।45 इसके बाद दूसरे प्रकाशनों की एक श्रृंखला सामने आई जो अपने-अपने ढंग से उल्लेखनीय थे। उनमें सबके सब राबर्ट ओवेन के अनुयायियों के कारनामे नहीं थे; कुछ तो ऐसे लोगों के क़लम की उपज थे जिनका अराजकवाद की ओर कमोबेश तगड़ा झुकाव था। ओवेन के शिष्यों में मैं थाम्पसन के अलावा जान ग्रे और जान ब्रे को शामिल करूंगा जबकि कमोबेश अराजकवाद की ओर आकर्षित लेखकों में मैं पियर्सी रेवेनस्टोन और टामस हारिस्कन की गिनती करना चाहूँगा। 46
अरसा हुआ कि ये लेखक पूरी तरह भुलाए जा चुके। जब उनको याद किया गया- जिसके आंशिक कारण मार्क्स थे जिन्होंने प्रदों के खिलाफ़ अपने शास्त्रार्थ में उनके हवाले दिए थे47- तब उनकी रचनाओं का हवाला उन स्रोतों के रूप में दिया गया जिनसे मार्क्स ने अतिरिक्त उपज और अतिरिक्त मूल्य के बारे में अपनी शिक्षाएँ उधार लीं। यह सिलसिला तो यहाँ तक बढ़ा कि वेब्स ने मार्क्स को 'हाग्स्किन का यशस्वी शिष्य' तक कह डाला। इस दावे में एक सिरे से कोई सच्चाई नहीं है। फिर भी ब्रिटिश समाजवादियों की रचनाओं में हमें सिर्फ़ पूँजी के हाथों श्रम के शोषण के सिद्धांत नहीं मिलते बल्कि 'अतिरिक्त उपज,' 'अतिरिक्त मूल्य' और 'अपर (ऐडीशनल) मूल्य' जैसी अभिव्यक्तियाँ भी मिलती हैं। लेकिन सवाल शब्दों का नहीं, वैज्ञानिक धारणाओं का है। जहाँ तक वैज्ञानिक धारणाओं का सवाल है, हरेक जानकार और पूर्वाग्रहों से मुक्त व्यक्ति इस बात को स्वीकार करेगा कि, मिसाल के लिए, हाग्स्किन, कुछ अधिक न कहा जाए तो भी, मार्क्स से उतने ही दूर थे जितने रोडबर्टस से। अब कोई रोडबर्टस का शिष्य नहीं कहता; आशा है कि जल्दी ही अब उन्हें 1820 की दहाई के ब्रिटिश समाजवादियों के शिष्य ठहराने की बातें भी बंद हो जाएँगी।" जो भी हो, अब बहुत हो चुका। हालाँकि मार्क्स हाग्स्किन, थाम्पसन या ग्रे के 'शिष्य' नहीं थे, फिर भी समाजवादी विचारधारा के इतिहास में यह बात
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अभी भी सबसे अधिक अहमियत रखती है कि इन ब्रिटिश समाजवादियों ने राजनीतिक और आर्थिक धारणाओं को इतने स्पष्ट रूप से समझा था जितना उस काल के लिए दुर्लभ था या, जैसा कि खुद मार्क्स ने कहा था, उन्होंने रिकार्डों की तुलना में आगे की दिशा में इतना बड़ा कदम उठाया था जिसकी कुछ कम अहमियत नहीं है। 56 इस बारे में वे फ्रांस और जर्मनी के काल्पनिक समाजवादियों से कोसों आगे थे। अगर हमारे निकोलाई चेर्नीशेव्स्की उनके बारे में परिचित होते तो उन्होंने जान स्टुअर्ट मिल की बजाय शायद उन्हीं की किसी रचना का अनुवाद किया होता।
(ब) फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद
एक
18वीं सदी के उत्तरार्ध में, जबकि इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति जारी थी, फ्रांस में तीसरे जनवर्ग और पुराने निज़ाम के बीच एक जानलेवा संघर्ष चल रहा था। उन दिनों तीसरे जनवर्ग में, एक जानी-पहचानी उक्ति का प्रयोग करें तो, 'विशेषाधिकार वालों को छोड़कर फ्रांस की पूरी जनता शामिल थी। 'विशेषाधिकार वालों के खिलाफ़ यह संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष था। जब तीसरे जनवर्ग ने 'विशेषाधिकार वालों के हाथों से राजनीतिक सत्ता छीन ली तो उसने स्वाभाविक रूप से सत्ता का प्रयोग उन तमाम आर्थिक और सामाजिक संस्थाओं का उन्मूलन करने के लिए किया जो मिलकर पुरानी राजनीतिक व्यवस्था के आधार का काम करती थीं। तीसरे जनवर्ग में शामिल पूरी जनता के बेहद भिन्न-भिन्न तत्त्वों में सबकी दिलचस्पी इन संस्थाओं के ख़िलाफ़ लड़ने में थी। फलस्वरूप 18वीं सदी के सभी प्रगतिशील फ्रांसीसी लेखक पुरानी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की निंदा में एकमत थे। पर बात इतनी भी नहीं थी। वे जिस नयी सामाजिक व्यवस्था की कामना करते थे, उसे लेकर भी उनके विचारों में बहुत कम मतभेद थे। ज़ाहिर है कि प्रगतिशीलों के खेमे में मतों की छायाओं का होना अपरिहार्य था। लेकिन मतों की इन तमाम छायाओं के बावजूद यह खैमा उस समाज व्यवस्था की स्थापना के प्रयास में एकमत था जिसे हम आज पूँजीवादी कहते हैं। इस एकमत प्रयास की शक्ति इतनी अधिक थी कि ये लोग भी उसके साथ हो लिये जिनको पूँजीवादी आदर्श से कोई सहानुभूति नहीं थी। एक मिसाल पेश है।
प्रकृतितंत्रवादियों (फिजियोक्रेट्स)51 के खिलाफ़ बहस करते हुए उन दिनों बहुत ही मशहूर एवे दे मेवली ने निजी संपत्ति के और उससे पैदा होने वाली सामाजिक असमानता का खुला विरोध किया। उनके अपने शब्दों में वे 'संपत्ति के समुदाय के प्रसन्नतादायी विचार को त्याग नहीं सके। दूसरे शब्दों में, उन्होंने साम्यवाद का समर्थन किया। लेकिन इस घोर कम्युनिस्ट को विश्वास था कि संपत्ति के समुदाय का विचार उन्हें अव्यावहारिक मालूम होता है, इसे सामने रखना उनका कर्तव्य है। उन्होंने लिखा:
काल्पनिक समाजवाद की धाराएं / 95
"कोई भी मानवीय शक्ति जिन अव्यवस्थाओं को समाप्त करना चाहती है उनसे कहीं बहुत अधिक अव्यवस्थाओं को जन्म दिए बगैर आज समानता की पुनर्स्थापना का प्रयास नहीं कर सकेंगी।52 हालात की धार तब यही थी। सिद्धांत के स्तर पर साम्यवाद के लाभों को स्वीकार करते हुए भी व्यक्ति को इस विचार से संतोष करना पड़ता था कि चलो, पुरानी व्यवस्था विस्थापित तो हुई कम्युनिस्ट नहीं तो पूँजीवादी व्यवस्था से सही।
क्रांति जब पूँजीवादी व्यवस्था के लिए विजय लेकर आई तो फ़ौरन उन बेमेल तत्त्वों के बीच एक संघर्ष शुरू हो गया जो तीसरे जनवर्ग में शामिल थे। उन दिनों जो सामाजिक समूह आज के सर्वहारा का भ्रूण था, 'अमीरों' के ख़िलाफ़ एक जंग छेड़ बैठा जिसे उसने कुलीनों के साथ एक ही श्रेणी में रखा। हालाँकि इस समूह के प्रमुख राजनीतिक प्रतिनिधि, जैसे रोब्सपियरे और सेंत जस्त, साम्यवादी विचारों से कोसों दूर थे, मगर फिर भी उस क्रांतिकारी महानाटक के आखिरी अंक में साम्यवाद 'ग्रैक्चस' बैब्यूफ़ के रूप में इतिहास के रंगमंच पर ज़रूर सामने आया। वैब्यूफ़ और उनके साथियों ने जो 'बराबरवालों का षड्यंत्र' (कांस्पिरेसी आफ़ इक्वल्स) रचा, वह गोया सर्वहारा और पूंजीपति वर्गों के बीच आज तक जारी उस संघर्ष का एक तरह का प्राक्कथन था जो 19वीं सदी के दौरान फ्रांस के आंतरिक इतिहास की सबसे बुनियादी विशेषताओं में एक था। लेकिन नहीं, यह भी सच नहीं है। 'बराबरवालों के षड्यंत्र को उस संघर्ष के प्राक्कथन का प्राक्कथन कहना अधिक सटीक होगा। बेब्यूफ़ और उनके साथियों ने जिस नयी सामाजिक व्यवस्था को नष्ट करने का प्रयास किया, उनके तर्कों में उस व्यवस्था के ऐतिहासिक सारतत्त्व की समझ के सिर्फ़ धुंधले से, अस्पष्ट इशारे ही हमें दिखाई देते हैं। वे बस एक ही बात जानते थे और इसी को उन्होंने तरह-तरह से दोहराया 'एक सच्चे समाज में न तो अमीर होने चाहिए न गरीब।' चूँकि क्रांति के पैदा किए हुए समाज में अमीर और ग़रीब, दोनों थे, उस क्रांति को तब तक पूरी हो चुकी नहीं माना जा सकता था जब तक यह समाज एक सच्चे समाज के लिए जगह खाली नहीं कर देती।53 ब्रिटिश काल्पनिक समाजवाद की छानबीन करते हुए जिन लोगों से हमारी मुलाक़ात हो चुकी है, उनके विचारों से वैव्यूफ़वादियों के विचार किस क़दर भिन्न थे, इसे हम नीचे की विवेचना से साफ़-साफ़ समझ सकते हैं।
ब्रिटिश समाजवादियों ने इस तथ्य को बेपनाह ऐतिहासिक महत्त्व का तथ्य बतलाया कि आधुनिक समाज के हाथों में उत्पादन की बहुत अधिक शक्तियाँ मौजूद हैं। उनकी राय में इन उत्पादक शक्तियों की मौजूदगी ने समाज के रूपांतरण की पहली बार व्यावहारिक संभावना पैदा की थी ताकि उसमें न अमीर रहें न गरीब। इसके विपरीत कुछ वैव्यूफ़वादी इस मान्यता से काफ़ी कुछ समझौता किए बैठे थे कि उनके कम्युनिस्ट आदर्श साकार होंगे तो सभी कलाओं का विनाश हो जाएगा, इनमें निश्चित ही तकनीकी कलाएँ भी शामिल होंगी। 'बराबरवालों' का घोषणापत्र
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दो टूक ढंग से कहता है: 'ज़रूरी हो तो तमाम कलाओं को नष्ट कर दो, बशर्ते हमारे पास सच्ची समानता बची रहे। यह बात सच है कि इस घोषणापत्र से, जिसे एस मारेशल ने लिखा था, बहुत से वैव्यूफ़वादी खुश नहीं थे और उन्होंने इसे बाँटने तक में योगदान नहीं दिया। लेकिन खुद ब्यूनारोती हमसे बतलाते हैं कि कम्युनिस्ट क्रांति की योजना का समर्थन करते हुए देवों, दार्थे और लेपेलेतिए के साथ वे भी इस प्रकार के तर्क देते थे: 'अलावा इसके, हमसे यह कहा गया था कि अगर यह बात सही है कि असमानता ने सचमुच में उपयोगी कलाओं की प्रगति की रफ़्तार तेज़ की तो आज ऐसा नहीं होना चाहिए कि और आगे उनकी प्रगति सभी की सच्ची खुशी में कोई इज़ाफ़ा नहीं करेगी। इसका मतलब यह था कि मानवजाति को अब आगे तकनालोजी के विकास की कोई सार्थक आवश्यकता नहीं थी। प्रसंगवश, मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में जब यह लिखा कि आरंभिक सर्वहारा आंदोलनों के साथ जन्म लेनेवाला क्रांतिकारी आंदोलन प्रतिक्रियावादी था क्योंकि वह चौतरफ़ा संन्यासवृत्ति को और आदिम समानता की स्थापना के उपदेश देता था,56 तब उनके मन में शायद वैसे ही तर्क थे जैसे बैब्यूफ़वादी दे रहे थे।
19वीं सदी के फ्रांसीसी समाजवादियों की रचनाओं में यह संन्यासवादी विशेषता नहीं है। उलटे, यहाँ हमें तकनीकी प्रगति के प्रति एक भारी हमदर्दी का दृष्टिकोण नजर आता है।
यह बात शायद कही जाए कि प्रति सिंहों, प्रति-शार्को, प्रति दरियाई घोड़ों और ऐसे ही रहमदिल जानवरों के बारे में, जो जानवर आगे चलकर मनुष्य की सेवा करेंगे और उसके सुख-आराम में वृद्धि करेंगे, उनके बारे में फूरिये ने जो अजीबोगरीब और सच तो सच है, कहा ही जाएगा-हास्यास्पद सपने देखे थे, वे भी बेहद कपोलकल्पित ढंग से सही, भावी तकनीकी प्रगति के महत्त्व और असीम परिमाण की मान्यता से अधिक कुछ भी नहीं थे। लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद - और यह बात सिद्धांत के इतिहास के लिए भारी महत्त्व रखती है- अधिकांश दृष्टांतों में फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवादी अपने दौर की तकनीकी प्रगति के प्रत्यक्ष सामाजिक और राजनीतिक परिणामों की सच्ची प्रगति को समझने में अपने ब्रिटिश समकक्षों से बहुत पीछे थे।
दो
जैसा कि हमें पता है, ब्रिटिश समाजवादी मानते थे कि उत्पादक शक्तियों के विकास ने दो वर्गों-'अमीर' और 'गरीब' में समाज के विभाजन को और पुख्ता बनाया था। साथ ही उन्होंने इन दोनों वर्गों के विरोध को मालिकों और उजरती मज़दूरों के विरोध के रूप में देखा। मालिकान मज़दूरों के श्रम से पैदा होनेवाले मूल्य का एक बड़ा भाग हड़प कर लेते हैं। यह बात चार्ल्स हाल तक को स्पष्ट थी। लेकिन फ्रांसीसी समाजवादी लेखकों ने इसे रफ़्ता-रफ़्ता ही समझा। साथ ही जिन फ्रांसीसी समाजवादियों ने
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यह महसूस किया कि पूंजी और उजरती मज़दूरी के हितों का अंतर्विरोध समकालीन समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण अंतर्विरोध है, उन्होंने कभी इसे इतनी स्पष्टता से नहीं समझा जितनी स्पष्टता हमें थाम्पसन, ग्रे और हारिस्कन की रचनाओं में दिखाई देती है।
सेंत-साइमन57 ने 18वीं सदी में तीसरे जनवर्ग के विचारधारात्मक प्रतिनिधियों के कार्यों को सीधे-सीधे जारी रखा। उन्होंने मालिकों के हाथों मज़दूरों के शोषण की बात नहीं कहीं, सिर्फ यह कहा कि मालिक और मज़दूर एक ही साथ उस 'निठल्ले' वर्ग के शोषण के शिकार हो रहे हैं जो मुख्यतः कुलीनों और नौकरशाहों पर आधारित था। सेंत-साइमन मालिकों को मज़दूरों के हितों के स्वाभाविक प्रतिनिधि और रक्षक मानते थे। उनके शिष्य उनसे भी आगे निकल गए। 'निठल्ला वर्ग' (आइडिल क्लास) की धारणा का विश्लेषण करते हुए उन्होंने इसमें न सिर्फ़ भूस्वामियों को शामिल किया जो लगान वसूल करके 'कामगार वर्ग' का शोषण करता था, बल्कि पूँजीपतियों को भी शामिल किया। लेकिन यह बात कह दी जाए कि पूँजीपति शब्द से उनकी मुराद सिर्फ उन लोगों से थी जिनकी आय पूँजी पर मिलने वाले ब्याज पर आधारित थी। उनका कहना था कि मालिकों के मुनाफ़े मज़दूरों की मजदूरियों के संगत हैं।58 विचारों की ऐसी ही अस्पष्टता हमें प्रूदों59 की रचनाओं में दिखाई देती है- और वह भी चौथाई सदी बाद! मार्च 1850 में उन्होंने (प्रूदों ने) लिखा था: 'पूँजीपति और सर्वहारा की एकता आज, पहले की ही तरह भूदास (सर्फ़) की मुक्ति की, पूंजीपति और कुलीन के ख़िलाफ़ मज़दूरों के साथ उद्योगपतियों के प्रतिरक्षात्मक और आक्रामक गठबंधन की सूचक है।' लुई ब्लांक60 ने स्थिति को कुछ और स्पष्ट समझा। उनकी राय में हम जिस सामाजिक विरोध की चर्चा कर रहे हैं उसने पूँजीपति वर्ग और जनता के विरोध का रूप ले लिया है। लेकिन पूँजीपति वर्ग से उनकी मुराद उन नागरिकों के योग से हैं जो या तो श्रम के उपकरणों या पूँजी के स्वामी होने के कारण, ऐसे साधनों से काम लेते हैं जो उनके अपने हैं तथा दूसरों पर बस कुछ ही हद तक निर्भर रहते हैं। यहाँ 'बस' से मतलब क्या है? और हम लुई ब्लांक के इस विचार को कैसे समझें कि जो नागरिक मिलकर पूँजीपति वर्ग बनाते हैं वे अपने खुद के साधनों से काम करते हैं? क्या यहाँ ये सिर्फ़ निम्न दस्तकार-पूँजीपति वर्ग की बात सोच रहे हैं? या हम इसे इस रूप में समझें कि सेंत-साइमनवादियों की तरह लुई ब्लांक भी मालिकों के मुनाफे को उनकी मेहनत का भुगतान मानते थे? इसका कोई जवाब नहीं मिलता। लुई ब्लांक ने जनता की परिभाषा उन 'नागरिकों के योग' के रूप में की 'जो पूँजी न होने के कारण जीवन की प्रमुख आवश्यकताओं के बारे में पूरी तरह दूसरों पर निर्भर हैं।61 इसमें अपने आपमें आपत्ति की कोई बात नहीं है। लेकिन व्यक्ति अनेक प्रकार से दूसरों पर निर्भर हो सकता है। इसलिए लुई ब्लॉक की जनता की धारणा किराये के मज़दूर की कहीं बहुत अधिक सटीक धारणा से मेल नहीं खाती जिसे अपने अनुसंधानों में ब्रिटिश समाजवादियों ने प्रयोग किया था। जो भी हो, सामान्यतः, आर्थिक धारणाओं में लुई ब्लांक की शायद ही
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कोई दिलचस्पी थी। इन पर उनसे कहीं बहुत अधिक ध्यान तो ज्याँ रेनो62 और पियरे लेरो63 ने दिया। ये दोनों पहले संत-साइमन के संप्रदाय में हुआ करते थे मगर उनकी शिक्षाओं से जल्द ही असंतुष्ट हो गए थे। रेनो ने जोर देकर कहा कि जनता दो वर्गों पर आधारित है जिनके हित परस्पर विरोधी हैं-सर्वहारा और पूँजीपति वर्ग पर। वे सर्वहाराओं को ऐसे लोग कहते हैं 'जो राष्ट्र की सारी संपत्ति उत्पन्न करते हैं, जिनके पास अपनी मेहनत की दिहाड़ी के अलावा कुछ भी नहीं है। पूँजीपति वर्ग की परिभाषा उन्होंने ऐसे लोगों के रूप में की 'जिनके पास पूँजी है और जो उसकी आय पर जिंदगी बसर करते हैं। इन परिभाषाओं को सही मानकर पियरे लेरो ने तो सर्वहाराओं की गिनती करने तक की कोशिश की। उनका अनुमान था कि फ्रांस में उनकी संख्या तीन करोड़ तक है। यह संख्या बेशक बहुत अधिक थी। आज की तारीख तक में फ्रांस में सर्वहाराओं की संख्या इसके आसपास नहीं है। यह बढ़ी चढ़ी संख्या इसलिए है कि लेरो ने सर्वहारा में न सिर्फ किसानों को बल्कि फ्रांस के भिखारियों तक को शामिल कर लिया जो उनके हिसाब से 40 लाख तक थे। 'सर्वहारा' की अपनी खुद की धारणा के बावजूद सर्वहाराओं में 'गाँवों के किसान वर्ग' को शामिल करके रेनो ने ऐसी ही गलती की। इस सवाल पर रेनो और लेरो के विचार हमारे त्रुदोविकों के विचारों से बहुत मेल खाते हैं।
पाठक यह बात समझ सकता है कि कल्पनावादी काल के फ्रांसीसी समाजवादियों के अर्थशास्त्रीय विचारों में क्यों इतनी स्पष्टता नहीं थी जो ब्रिटिश काल्पनिक समाजवादियों की धारणाओं की विशेषता थी। उत्पादन के पूँजीवादी संबंधों की लाक्षणिक विशेषताएं फ्रांस की अपेक्षा ब्रिटेन में अधिक स्पष्ट रूप से सामने आ रही थीं।
अर्थशास्त्रीय विषयों पर ब्रिटिश समाजवादियों के यहाँ मौजूद अस्पष्टता भी उन्हें यह विश्वास पालने से नहीं रोक सकी कि सर्वहारा और पूँजीपति- अर्थात् आर्थिक हितों के एतबार से एक-दूसरे के ठीक विरोधी दो वर्ग-पूरी तरह मिलकर समाज-सुधार कर सकते हैं। ब्रिटिश समाजवादियों ने तब मौजूद समाज में वर्ग संघर्ष के अस्तित्व को देखा ज़रूर, मगर उन्होंने इसकी निर्णायक रूप से निंदा की, और उसे अपनी सुधार संबंधी योजनाओं की सिद्धि से जोड़ना तो वे किसी भी सूरत में नहीं चाहते थे। यहां उनके और अधिकांश फ्रांसीसी समाजवादियों के बीच कोई अंतर नहीं था। संत-साइमन और संत-साइमनबादी, फूरिये और फूरियेवादी, काबे, प्रूदों और लुई ब्लॉक के बीच अनेक समस्याओं पर आपस में चाहे जितने मतभेद रहे हों, वे सभी इस बात पर पूरी तरह एकमत थे कि समाज सुधार के लिए संघर्ष की नहीं, वर्गों के बीच मुकम्मल तालमेल को आवश्यकता थी।
आगे चलकर हम देखेंगे कि वर्ग-संघर्ष को सभी फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवादियों ने रद्द नहीं किया। हमें फ़िलहाल तो बस यह याद रखना चाहिए कि उनमें से अधिकांश इसके विरोधी थे और इसी विरोध से यह बात भी स्पष्ट होती है कि राजनीति से उनको क्यों कुछ लेना-देना नहीं था।
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1835 के आसपास से ही फूरिये के सबसे यशस्वी शिष्य विक्तर कोसिदेरों ने इस बात पर संतोष व्यक्त किया था कि राजनीति में फ्रांसीसी जनता की रुचि कम हो चुकी है। उन्होंने राजनीतिज्ञों की 'सैद्धांतिक' गलतियों को इसका कारण बताया: हितों में तालमेल बिठाने के उपाय पता लगाने की बजाय राजनीतिज्ञ लोग इस आपसी संघर्ष का समर्थन करने लगे थे, जो उनके शब्दों में, 'उन्हीं के लिए फ़ायदेमंद है जो उसकी तिजारत करते हैं। 67.
फ्रांस के अधिकांश काल्पनिक समाजवादियों की शांतिप्रेमी भावनाएँ पहली निगाह में एक ऐसे देश के लिए अजीबोगरीब लगती हैं जहाँ अभी बहुत समय नहीं हुआ था कि महाक्रांति का तूफ़ान उठा था और जहाँ लगता है कि उन्नत विचारों वाले लोगों को तो क्रांतिकारी परंपरा को खास तौर पर दिल से लगाकर रखना चाहिए था। लेकिन और गहराई से परखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हाल की क्रांति की यादें ही ठीक वह चीज़ थी जो कोसिदेरों जैसे उन्नत विचारकों को ऐसे उपाय तलाश करने पर उकसा रही थी कि वर्ग संघर्ष को समाप्त किया जा सके। उनकी ये शांतिप्रेमी भावनाएँ 1793 के क्रांतिकारी जोश-खरोश की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया थीं। फ्रांस के काल्पनिक समाजवादियों का विशाल बहुमत इस विचार से डरा हुआ था कि हितों का आपसी संघर्ष फिर एक बार उतना ही तीखा हो सकता है जैसा उस न भुलाए जा सकने वाले साल में था। अपनी 1808 में प्रकाशित पहली रचना Theorie des quatre mouvements et des destinels sociales में फूरिये ने क्षोभ के साथ उस '1798 के महासंकट' की बात कही थी जिसने, उनके शब्दों में, सभ्य समाज को बर्बरता की अवस्था तक पहुंचा दिया था। रहे सेंत-साइमन तो फूरिये से पहले ही वे फ्रांसीसी क्रांति को अत्यन्त भयानक विस्फोट तथा सभी लानतों में सबसे बड़ी लानत क़रार दे चुके थे।68 1793 के महासंकट' के प्रति इस रवैये में फूरिये को तो 18वीं सदी के प्रबोध (इनलाइटेनमेंट) के दर्शन तक के प्रति एक नकारात्मक रवैया अपनाने पर मजबूर कर दिया जबकि अपनी खुद की विचारधारा के बुनियादी सिद्धांतों के लिए वे इसी दर्शन के ऋणी थे। उस दर्शन की ताईद तो संत-साइमन ने भी नहीं की, कम से कम उस सीमा तक तो नहीं ही की जहाँ तक वह उन्हें विध्वंसक और 1793 की घटनाओं के लिए जिम्मेदार नजर आता था। संत-साइमन मानते थे कि 19वीं सदी में सामाजिक चिंतन का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य उन उपायों का अध्ययन करना है जो 'क्रांति का अंत करने के लिए' आवश्यक हैं।69 1830 और 1840 की दहाइयों में उनके अनुयायियों ने इसी समस्या को हल करने की कोशिश की। फ़र्क सिर्फ इतना था कि ये लोग 18वीं सदी के अंतिम भागों की क्रांति नहीं बल्कि 1830 की क्रांति को लेकर चिंतित थे। समाज सुधार के पक्ष में जो प्रमुख तर्क उन्होंने पेश किए उनमें एक तर्क यह भी था कि यह ('साहचर्य' या 'संगठन') क्रांति को ठप्प कर देगा। उन्होंने क्रांति का हव्वा दिखाकर अपने विरोधियों को धमकाया। 1840 में इनफैतिन ने संत-साइमनवादियों की इसलिए तारीफ़ की
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कि 1830 की दहाई में जब सर्वहारा ने तख़्त के ख़िलाफ़ एक कामयाब बग़ावत के लिए जोर आजमाया था, तभी उन्होंने चीखकर कहा था 'लो, आ गए ये बर्बर!' और फिर गर्व के साथ उन्होंने आगे यह भी कहा कि दस साल बाद भी उन्होंने 'लो, आ गए ये बर्बर!' की वही गुहार लगाना बंद नहीं किया है। 70
तीन
इतिहास के रंगमंच पर सर्वहारा के उदय को इनफैतिन ने 'बर्बरों' की आमद के समान ठहराया, और यही काम फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवादियों के बहुमत ने किया।71 यह बात आमतौर पर उनकी पूरी चिंतन-प्रणाली की और ख़ास तौर पर राजनीतिक संघर्ष के प्रति उनके रवैये की एक मिसाली विशेषता है। उन्होंने गर्मजोशी से मज़दूर वर्ग के हितों का बचाव किया; उन्होंने पूँजीवादी समाज के अनेक अंतर्विरोधों को बेरहमी से बेनकाब किया। अपने जीवन के अंतिम दिनों में सेंत-साइमन ने यही शिक्षा दी कि 'सबसे अधिक संख्या वाले और सबसे गरीब वर्ग का नैतिक, बौद्धिक और शारीरिक सुधार सभी सामाजिक संस्थाओं का उद्देश्य होना चाहिए।' फूरिये ने सात्विक क्रोध के साथ ज़ोर देकर कहा कि सभ्य समाज में मज़दूरों की स्थिति जंगली जानवरों से भी बदतर है। लेकिन मज़दूर वर्ग की दुखद स्थिति का सोग करते हुए और हर तरह से उस वर्ग की मदद की कोशिश करते हुए भी काल्पनिक समाजवादी मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र कार्रवाई में विश्वास नहीं रखते थे, और जब विश्वास किया भी तो उससे डरते रहे। जैसा कि हमने अभी-अभी देखा, इनफ़ैतिन सर्वहारा के प्रकट होने को बर्बर जातियों के हमले के बराबर मानते थे। बहुत पहले, 1802 में ही, 'संपत्तिहीन वर्ग को संबोधित करते हुए संत-साइमन ने कहा था 'आओ देखो कि फ्रांस में जब तुम्हारे कामरेडों का बोलबाला था तो वहाँ क्या हुआ वहाँ उन्होंने अकाल पैदा कर दिया। 73
एक दिलचस्प उलटफेर : 1848 की फ़रवरी क्रांति तक पूँजीवादी विचारक किसी भी तरह वर्गों के राजनीतिक संघर्ष के प्रति दुश्मनी का भाव नहीं रखते थे। 1820 में गीज़ो ने लिखा था कि मध्य वर्ग अगर प्रतिक्रियावादियों के ख़िलाफ़ संघर्ष में अपने हितों की रक्षा करना चाहता है तो उसे राजनीतिक सत्ता जीतनी ही होगी, और उधर ये प्रतिक्रियावादी भी सत्ता पाने और उसे अपने हित में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे थे। और जब प्रतिक्रियावादियों ने उनको ताना दिया कि वर्ग-संघर्ष का उपदेश देकर वे निकृष्ट भावनाएँ भड़का रहे थे तो गीज़ो ने उनसे कहा कि फ्रांस का पूरा इतिहास वर्गों के युद्ध से 'बना' है और उस इतिहास को सिर्फ इसलिए भुला देना शर्म की बात है कि 'उसके निष्कर्ष' उनके लिए प्रतिकूल साबित हुए हैं।
गीज़ो 'मध्य वर्ग' की, मतलब पूँजीपति वर्ग की, स्वतंत्र कार्रवाई में विश्वास रखते थे और इससे जरा-सा भी भयभीत नहीं थे। यही कारण है कि उन्होंने वर्गों के राजनीतिक संघर्ष की आवश्यकता साबित की। बेशक '1793 के महासंकट' की
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ताईंद उन्होंने भी नहीं की; बात बल्कि कुछ और ही है। लेकिन एक समय तक वे यहीं मानते रहे कि उसके दोहराए जाने का सवाल ही नहीं है। 1848 में उन्होंने अपनी राय बदल दी और अब की बार सामाजिक शांति के पैरोकार बन गए। इस तरह सामाजिक चिंतन के विकास का क्रम सामाजिक जीवन के विकास के क्रम के साथ चलता और बदलता रहा।
अब पाठक को यह याद दिलाने का समय आ गया है कि उस काल के फ्रांस में समाजवादियों का एक छोटा सा भाग किसी भी तरह न तो राजनीति का विरोधी था और न वर्ग संघर्ष का। इस अल्पमत की चिंतनधारा उस बहुमत की चिंतनधारा से बहुत कुछ अलग थी जिससे अभी तक हमारा सरोकार रहा है। यह अल्पमत सीधे तौर पर वैव्यूफ़ और उनके विचारों से सहमत व्यक्तियों का उत्तराधिकारी था। 'बराबरवालों के षड्यंत्र' के सक्रिय भागीदारों में एक थे फिलिप ब्यूनारोती76 जो मिशेलैंजली के वंशज थे। वे मूलतः तस्कनी के रहनेवाले थे और कनवेंशन77 की एक विज्ञप्ति के चलते फ्रांस के नागरिक बन गए थे। 19वीं सदी के काल्पनिक समाजवाद में यही ब्यूनोराती वैब्यूफ़वादियों की क्रांतिकारी परंपरा के वाहक बनकर उभरे। उनकी रचना बराबर वस्त्रों के षड्यंत्र का इतिहास,78 जिसका ज़िक्र में ऊपर कर चुका हूँ, ब्रसेल्स से 1828 में प्रकाशित हुई तथा फ्रांसीसी समाजवादियों के क्रांतिकारी अल्पमत के विचारों को रूपरेखा देने में इसकी बेपनाह भूमिका रही। यह अल्पमत अतीत में चले 'बराबरवालों के षड्यंत्र के एक सदस्य के प्रभाव में रहा, बस यही तथ्य यह दिखाने के लिए काफ़ी है कि बहुमत के विपरीत, यह अल्पमत '1793 के महासंकट' के यादों से परेशान नहीं था। इस अल्पमत के सबसे मशहूर प्रतिनिधि थे आगस्त ब्लांकी जो अपने लंबे जीवन के अंत तक एक अपराजेय क्रांतिकारी रहे।
जहाँ सेंत-साइमन ने ऐसे उपायों का आग्रह किया जो क्रांति को समाप्त करें और फ्रांसीसी समाजवादियों का बहुमत इस बारे में उनसे बड़ी हद तक सहमत था, वहीं बैव्यूफवाद के प्रभाव में अल्पमत ने 'बराबरवालों के इस विचार को पूरी तरह अपनाया कि क्रांति अभी पूरी नहीं हुई है क्योंकि जीवन की तमाम अच्छी वस्तुओं पर अमीरों ने क़ब्ज़ा कर लिया है। फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद को इन दो प्रवृत्तियों के बीच बुनियादी अंतर यही है एक प्रवृत्ति का उद्देश्य क्रांति को समाप्त करना था; दूसरी उसे जारी रखना चाहती थी।
जो लोग क्रांति को समाप्त देखना चाहते थे, स्वाभाविक रूप से परस्पर टकरा रहे सामाजिक हितों के बीच समझौते के लिए प्रयासरत थे। कोसिदेश ने लिखा: 'हरेक वर्ग के लिए अपने विशेष हितों को सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि वह उसे दूसरे वर्गों के हितों से जोड़ दे। तमाम शांतिप्रेमी काल्पनिक समाजवादियों की सोच इसी तरह की थी। उनके बीच मतभेद सिर्फ़ समाज में वर्गों के हितों के बीच तालमेल बिठाने के उपायों को लेकर थे। समाजवादी प्रणालियों
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के शांतिप्रेमी संस्थापकों में लगभग हरेक ने संपत्तिधारी वर्ग के हितों की रक्षा के लिए अपनी एक विशेष योजना तैयार की। मिसाल के लिए फूरिये की सिफ़ारिश थी कि भविष्य के समाज में श्रम की पैदावार का वितरण इस तरह से हो कि मजदूरों को कुल पैदावार के बारह हिस्सों में पाँच, पूँजीपतियों को चार और प्रतिभा के प्रतिनिधियों को तीन हिस्से मिलें। वितरण की तमाम दूसरी शांतिकामी कल्पनावादी योजनाओं ने भी बिना अपवाद पूँजीपतियों को कोई न कोई रिआयत दी: अगर ऐसा न होता ती संपत्तिधारी वर्ग के हित सुनिश्चित नहीं होते और फलस्वरूप सामाजिक समस्या के एक शांतिपूर्ण हल की सारी उम्मीद जाती रहती। पूँजीपतियों के और आम तौर पर 'अमीरों' के हितों को अनदेखा करने में समर्थ बस ये समाजवादी रहे जो इस परिणाम से भयभीत नहीं थे अर्थात् जो क्रांतिकारी कार्रवाई के पक्ष में थे। ऐसी कार्रवाई की तरफ़दारी 18वीं सदी के अंत में बैब्यूफ़वादियों ने की और 19वीं सदी में उन फ्रांसीसी समाजवादियों ने जो वैब्यूफ़वादियों से प्रभावित थे। चूँकि इस मानसिकता वाले लोगों ने 'अमीरों' के हितों को बनाने की कोई जरूरत नहीं समझी, उन्होंने खुल्लमखुल्ला ऐलान किया कि वे क्रांतिकारी ही नहीं थे बल्कि कम्युनिस्ट भी थे। उन दिनों फ्रांस में 'समाजवाद' की धारणा आम तौर पर साम्यवाद की धारणा से इस आधार पर अलग मानी जाती थी कि अपनी भावी समाज व्यवस्था संबंधी योजनाओं के खाकों में समाजवादियों ने अगर संपत्ति की असमानता की कुछ अकसर काफ़ी सार्थक संभावना छोड़ी तो वहीं साम्यवादियों ने इसे अस्वीकार किया।
जैसाकि हमने अभी-अभी देखा, मन के एक क्रांतिकारी रुझान के चलते फ्रांसीसी सुधारकों के लिए एक साम्यवादी कार्यक्रम अपनाना और भी आसान हो गया। वास्तव में थियोदोर देजामी82 और आगस्त ब्लांकी जैसे क्रांतिकारियों ने साम्यवादी विचार ही अपनाए। लेकिन उन दिनों के सारे साम्यवादी क्रांतिकारी नहीं थे; शांतिप्रेमी साम्यवाद के सबसे उल्लेखनीय प्रतिनिधि एतिएन कावे83 थे। उन्होंने अधिकांश फ्रांसीसी समाजवादियों की शांतिप्रेमी प्रवृत्ति को ही बड़े जीवंत ढंग से यह कहकर उजागर किया कि अगर क्रांति मेरी मुट्ठी में होती तो मैं हरगिज अपनी मुट्ठी नहीं खोलता, भले ही मुझे इसके लिए जलावतन होकर परदेस में मरना पड़ता। प्रबोध के 18वीं सदी के दार्शनिकों की तरह कावे भी बुद्धि की सार्वभीम शक्ति में विश्वास रखते थे। उनकी राय यह थी कि संपत्तिधारी वर्ग भी साम्यवाद के लाभों को समझ और सराह सकते हैं। कम्युनिस्ट क्रांतिकारी इसको नहीं मानते थे और इसलिए, वर्ग संघर्ष की शिक्षा देते थे।
फिर भी हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि उनकी कार्यनीतियों आज के अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक जनवाद की कार्यनीतियों से मेल खाती हैं जो बेशक वर्ग-संघर्ष या राजनीति को अस्वीकार नहीं करता। वे लोग मुख्यतः षड्यंत्रकारी थे। अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद के इतिहास में आगस्त ब्लांकी जैसा षड्यंत्रकारी कोई और शायद ही मिले। षड्यंत्र की कार्यनीतियाँ जनता की स्वतंत्र कार्रवाई के लिए बहुत कम गुंजाइश छोड़ती हैं।
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हालांकि फ्रांस के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी अपने समकालीन शांतिप्रेमी समाजवादियों की अपेक्षा जनता पर अधिक भरोसा करते थे, फिर भी उनकी समाज के भावी रूपांतरण की धारणा में जनता की भूमिका सिर्फ षड्यंत्रकारियों का समर्थन करने तक सीमित है जो मुख्य मुख्य कार्रवाइयाँ खुद पूरी करेंगे। षड्यंत्र की कार्यनीतियाँ हमेशा मज़दूर वर्ग की अपरिपक्वता की एक असंदिग्ध निशानी होती हैं। मज़दूर वर्ग जैसे ही परिपक्वता के एक निश्चित चरण तक पहुँच जाता है, ये कार्यनीतियाँ गुज़रे ज़मानों की बात बन जाती हैं।
चार
सभी रंगों के काल्पनिक समाजवादी मानवजाति की प्रगति में पूरा-पूरा विश्वास रखते थे। हमें पता है युवा मिखाइल साल्तिकोव (सुप्रसिद्ध रूसी व्यंग्यकार सात्तिकोव-शेद्रिन, 1826-1889-संपादक) को सेंत-साइमन के इस विचार से कितना हौसला मिला था कि स्वर्णयुग हमारे पीछे नहीं, हमारे आगे है। 18वीं सदी में प्रबोध के दार्शनिक भी प्रगति में अगाध विश्वास रखते थे। स्वनामधन्य कोंदोरसेत को याद कर लेना ही यहाँ काफ़ी होगा। लेकिन ठीक-ठीक कहें तो प्रगति में विश्वास उस हद तक समाजवाद की बुनियादी विशेषता नहीं है जिस हद तक यह आस्था है कि प्रगति हमें 'मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण' की समाप्ति की ओर ले जाती है। सेंत-साइमनवादियों के भाषणों और लेखों में यही विषय बार-बार हमें दिखाई देता है। उन्होंने कहा : 'अतीत में समाज व्यवस्था हमेशा किसी न किसी सीमा तक मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर आधारित रही है; आज सबसे महत्वपूर्ण प्रगति उस शोषण को समाप्त करना होगी, चाहे उसकी कल्पना किसी भी रूप में की जाए। दूसरे सभी संप्रदायों के समाजवादी भी इसी उद्देश्य के लिए प्रयासरत थे। मगर अनेक दृष्टांतों में उनकी सामाजिक संगठन की योजनाएँ इस उद्देश्य से पीछे ही रहीं। जैसा कि हमें पता इन योजनाओं में एक हद तक सामाजिक असमानता की गुंजाइश रखी गई थी जो, अंतिम विश्लेषण में, 'मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण' पर ही आधारित हो सकता था। सिर्फ़ साम्यवादियों ने इस असंगति को पनाह नहीं दी जिसकी व्याख्या एक ओर वर्ग-संघर्ष से बचने के लिए सभी वर्गों के हितों में तालमेल बिठाने के प्रयासों से होती है तो दूसरी ओर इस बारे में समझ की अस्पष्टता से होती है कि ठीक-ठीक क्या चीज़ इस शोषण का आर्थिक सारतत्त्व है। कम्युनिस्ट देज़ामी ने सेंत-साइमनवादियों को अकारण ही नहीं लताड़ा कि उनका 'क्षमताओं का कुलीनतंत्र' (एरिस्टोक्रेसी आफ कैपेसिटीज़) और 'राजनीतिक धर्मशास्त्र' (पोलिटिकल थियोक्रेसी) व्यवहार में समाज में जो स्थिति प्रचलित है, लगभग वैसी ही स्थिति की ओर ले जाएँगे। लेकिन सवाल भावी सामाजिक संगठन की योजनाओं का नहीं है, क्योंकि ऐसी योजनाएँ तो बहरहाल
104 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएं
कभी साकार नहीं होती। अहम बात यह है कि काल्पनिक समाजवादियों ने एक महान विचार को सामाजिक प्रचलन में धकेल दिया और मजदूरों के मन में पैठ जाने के बाद यही विचार 19वीं सदी की सबसे ज़ोरदार सांस्कृतिक शक्ति बन गया। इस विचार का प्रचार-प्रसार काल्पनिक समाजवाद द्वारा की गई संभवतः सबसे बड़ी सेवा है। मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण समाप्त किए जाने की आवश्यकता को तरह-तरह से साबित करने की कोशिशों के दौरान काल्पनिक समाजवाद सामाजिक नैतिकता पर उस शोषण के प्रभाव को उठाए बिना भला कैसे रह सकता था। ब्रिटिश समाजवादियों ने, और खासकर ओवेन और थाम्पसन ने पहले ही इस विषय का चर्चा किया था कि मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण शोषक और शोषित, दोनों को पतित करता है। फ्रांसीसी समाजवादियों ने भी अपनी रचनाओं में इस विषय को काफ़ी स्थान दिया। बात समझ में आने वाली है। अगर मनुष्य का चरित्र उसके विकास की दशाओं से निर्धारित होता है और इस विचार को बार-बार सभी काल्पनिक समाजवादियों ने, बिना अपवाद, दोहराया तो ज़ाहिर है कि मनुष्य का चरित्र सुंदर तभी होगा जब उसे सुंदर दशाओं में विकास की इजाज़त दी जाएगी। इन दशाओं को सुंदर बनाने के लिए मौजूदा सामाजिक ढाँचे के दोषों से मुक्त होना होगा। 19वीं सदी के काल्पनिक समाजवादियों ने संन्यासवाद को अस्वीकार कर दिया और किसी न किसी रूप में 'इंद्रिय-सुख' का ऐलान किया। इन कारणों से उन्हें 'कुमार्गी भावनाओं को बेलगाम करने की, मुनष्य की उदात्त आवश्यकताओं पर उसकी निकृष्ट आवश्यकताओं की विजय सुनिश्चित करने की कोशिशें करने का दोषी ठहराया गया। ऐसी गालियाँ सिर्फ़ मूर्ख दे सकते हैं। काल्पनिक समाजवादियों ने कभी मनुष्य के आत्मिक विकास को अनदेखा नहीं किया। उनमें से कुछ ने तो साफ़-साफ़ कहा कि समाज-सुधार ही ऐन वह चीज़ है जो मनुष्य के आत्मिक विकास के हित में है, बल्कि उसकी बुनियादी शर्त है। सेंत-साइमनवादियों की रचनाओं में इस बात के अनेक, आँखें खोलनेवाले दृष्टांत दिखाई देते हैं कि आधुनिक समाज में गरीब व्यक्ति किस तरह नैतिकता से वंचित होते हैं। उन्होंने कहा : 'यह समाज अपराधों की रोकथाम में असमर्थ है; यह उनकी सिर्फ़ सज़ा दे सकता है और इसलिए आज 'जल्लाद' नैतिकता का एकमात्र प्रामाणिक प्रवक्ता है। मजे की बात यह है कि 'जल्लाद' की आवश्यकता का निषेध करते हुए संत-साइमनवादियों ने हर तरह की हिंसा को मानव-नैतिकता में सुधार का साधन मानने से इनकार कर दिया। सभी दूसरे संप्रदायों के समाजवादी इस बारे में भी एकराय थे। यहाँ तक कि साम्यवादी क्रांतिकारियों ने भी हिंसा को सिर्फ़ सामाजिक परिवर्तन के रास्ते की बाधाओं को दूर करने का साधन माना 'जल्लाद' सामाजिक नैतिकता का 'प्रवक्ता' हो सकता है, इसका उन्होंने भी संत-साइमनवादियों जितने उत्साह से ही खंडन किया। वे भी पूरी तरह इस बात को समझ रहे थे कि अपराधों की रोकथाम दंड से नहीं होती बल्कि इन सामाजिक कारणों को मिटाने
काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 105
से होती है जो मनुष्य की इच्छा को बुराई की ओर प्रवृत्त करते हैं। इस अर्थ में घोर क्रांतिकारी भी, अत्यंत अनथक षड्यंत्रकारी भी बुराई का सामना बल से न करो' के पक्के समर्थक थे।
पाँच
शिक्षा के बारे में काल्पनिक समाजवादियों के विचार भी बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। नयी पीढ़ी के पालन-पोषण के बारे में ओवेन के सरोकार और मानव चरित्र के निर्माण के बारे में उनके सिद्धांत के बीच मौजूद गहरे संबंध के बारे में हमें पता ही है। इस सिद्धांत के समर्थक सभी देशों के समाजवादी थे, इसलिए वह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि सबने शिक्षा को बेपनाह महत्त्व दिया। फ्रांस के काल्पनिक समाजवादियों में शिक्षा के बारे में सबसे ठोस विचार फूरिये ने व्यक्त किए थे।
मनुष्य पतित पैदा नहीं होता; परिस्थितियाँ उसे पतित बनाती हैं। भ्रूणावस्था में ही शिशु में वे सभी भावनाएं होती हैं जो वयस्क में होती हैं। उनको कुचला नहीं जाना चाहिए बल्कि उपयुक्त दिशा दी जानी चाहिए। फ़रिये कहते हैं अगर ऐसा किया जाए तो ये भावनाएँ उन सभी चीजों की स्रोत बन जाएँगी जो शुभ, महान, उपयोगी और उदात्त हैं। लेकिन मौजूदा समाजव्यवस्था में उनको उपयुक्त दिशा नहीं दी जा सकती। उसके अंतर्विरोध शिक्षाशास्त्री को एक अंधी गली में फंसा देते हैं जिसके फलस्वरूप आज शिक्षा एक खोखला शब्द बनकर रह गई है। गरीबों के बच्चों को उसी तरह से शिक्षित नहीं किया जा सकता जिस तरह अमीरों और सुविधाभोगियों के बच्चों को किया जा सकता है। गरीब का बेटा जीवनवृत्ति का चुनाव जरूरत से मजबूर होकर करता है; वह अपने स्वाभाविक रुझान को परवान नहीं चढ़ा सकता। यह सही है कि अमीर के बेटे के पास अपने रुझान को परवान चढ़ाने के भौतिक साधन होते हैं, मगर विशेषाधिकार संपन्न वर्ग को समाज में जो विशिष्ट स्थान प्राप्त है उसके भ्रष्टकारी प्रभाव के कारण उसकी आदतें बिगड़कर रह जाती हैं। शिक्षा एक खोखला शब्द तभी नहीं रहेगी जब 'सभ्यता'। फूरिये पूँजीवादी व्यवस्था को यही नाम देते हैं एक बुद्धिसंगत समाज-व्यवस्था के लिए जगह खाली कर दे। आज काम मजदूरों के लिए एक भारी बोझ और एक अभिशाप बनकर रह गया है। बुद्धि के तक़ाज़ों के अनुसार संगठित एक समुदाय में, एक फैलेस्तरी में काम एक आकर्षक वस्तु होगा। वयस्कों के समूह उत्साह के साथ जब कोई काम पूरा कर रहे होंगे तब यह दृश्य ही उभरती पीढ़ी पर एक बहुत लाभकारी प्रभाव डालेगा। अपने एकदम आरंभिक दिनों से ही यह पीढ़ी काम से मुहब्बत करना सीखेगी। यह सब इसलिए और भी आसान होगा क्योंकि बच्चे आम तौर पर काम करना पसंद करते हैं और हमेशा बड़ों के काम की नकल करने के लिए बेचैन रहते हैं। इस रुझान का सही-सही उपयोग सिर्फ फेलॅस्टरी में संभव होगा। वहीं सभी बच्चों के खिलौने साथ ही साथ
106/कल्पनिक समाजवाद की धाराएँ
श्रम के उपकरण होगे और हर खेल एक उत्पादक कार्य होगा। इस तरह बिना किसी मजबूरी के खेल-खेल में और नकल-नकल में बच्चे की उन सभी प्रकार के कामों की शिक्षा मिल जाएगी जिनके प्रति उसमें एक रुझान पाया जाता है। पर यह नहीं है। श्रम को उसका अर्थ ज्ञान में मिलना चाहिए और युवा पीढ़ी को उस ज्ञान की प्राप्ति समाज के लिए उपयोगी श्रम की प्रक्रिया में होनी चाहिए। इसक अर्थ यह है कि फूरिये की राय में शिक्षा का रूप यह होना चाहिए जिसे आधुनिक शिक्षाशास्त्र में प्रयोगशाला प्रणाली कहा जाता है। और यह शिक्षा यथासंभव घर से बाहर होगी तथा इसमें कुछ भी अनिवार्य नहीं होगा। बच्चे और किशोर खुद ही स्वतंत्र रूप से इसका चुनाव करेंगे कि उन्हें क्या पढ़ना है और उन्हें कौन पढ़ाएगा।
फूरिय की राय में सिर्फ इसी तरह की शिक्षा प्रणाली शिशु की स्वाभाविक योग्यताओं का अधिकतम विकास संभव बनाएगी। उसके शुभ प्रभावों का पूरक यह तथ्य होगा कि मौजूदा सामाजिक अंतर्विरोधों का उन्मूलन मनुष्य की सामाजिक वृत्तियों के विकास की संभावना और बढ़ाएगा। श्रम की उत्पादकता अपनी चरम सीमा तक तभी पहुंचेगी जब मनुष्य अपने अनुकूल सहयोगियों के समाज में अपने पसंदीदा काम में लगने में समर्थ होगा।
पाठक इस बात से सहमत होगा कि शिक्षा संबंधी ये विचार बहुत भारी महत्त्व के हैं। अब एक और बेहद दिलचस्प नुक्ता यह रहा। फूरिये मानते थे कि बच्चे जब तीन या चार साल के हो जाएँ तभी से विभिन्न प्रकार के संयुक्त अभ्यासों की सहायता से उन्हें संतुलित क्रियाओं पर अधिकार पाना सिखाया जाना चाहिए। यह नात जाक्र दालक्रोज के लयदार व्यायाम से मेल खाती है जिसे आजकल हर जगह स्वीकार किया जा रहा है। रिय नाम के इस प्रतिभाशाली फ्रांसीसी कल्पनावादी की प्रणाली में यह 'लयदार या भौतिक सामंजस्य' भावनाओं में संतुलन के लिए आवश्यक दशाओं में एक था।92
छः
फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद ने कला के बारे में भी अपने विचार व्यक्त किए थे। संत-साइमनवादियों ने कला के बारे में बहुत अधिक लिखा है और उन्होंने शायर की नयी सामाजिक सच्चाइयों का ऐलान करनेवाला एक पैगंबर बनाने की पूरी कोशिश की। लेकिन कला के प्रश्नों पर तमाम काल्पनिक समाजवादियों में सबसे गंभीर चिंतन संभवतः पियरे लेरो का है।
लेरो ने लिखा कि, उद्योग से भिन्न जिसका मकसद बाहरी दुनिया को प्रभावित करना होता है, कला मनुष्य के अपने जीवन की अभिव्यक्ति है। दूसरे शब्दों में, यह स्वयं ही जीवन है, स्वयं की दूसरे मनुष्य के आगे व्यक्त करती है, स्वयं को साकार करती है, स्वयं को स्थायी बनाने के प्रभाव करती है।93 इस विचार से आगे
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बढ़ते हुए लेरो ने कहा कि कला न तो प्रकृति का पुनरुत्पादन है न उसकी नक़ल है। न ही कला कला की नक़ल कर सकती है, अर्थात् एक काल विशेष की कला किसी और काल की कला का पुनरुत्पादन नहीं कर सकती। हरेक विशेष ऐतिहासिक काल की कला बस उसी काल की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करती है, किसी और काल की आकांक्षाओं की नहीं। 'कला पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती रहती है, एक ऊँचे पेड़ की तरह जो हर साल अपनी ऊँचाई बढ़ा लेता है, अपनी चोटी को आकाश की तरफ़ उठाता रहता है, और साथ ही धरती में अपनी जड़ों को और गहरे धँसाता रहता है। सुंदर को कला का तत्त्व कहा गया है। लेकिन यह गलत है क्योंकि कलाकार अकसर बेशतर ऐसे विषयों का चित्रण करते हैं जो भद्दे, घिनावने, बल्कि सीधे-सीधे भयानक तक होते हैं। 'कला का दायरा सुंदर के दायरे से कहीं बहुत अधिक लंबा-चौड़ा होता है क्योंकि कला जीवन की कलात्मक अभिव्यक्ति होती है। और जीवन हमेशा सुंदर नहीं होता। लेकिन फिर जीवन को कलात्मक ढंग से व्यक्त करने का मतलब क्या लगाया जाए? लेरो का विश्वास था कि इसका मतलब जीवन को प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करना है। इस बारे में उनके विचार बिलकुल दोटूक हैं। कहते हैं: 'कला का एकमात्र तत्त्व प्रतीक हैं। लेकिन प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति से सामान्यतः उनका अभिप्राय बिंबों में जीवन को व्यक्त करने से था। जब वी जी बेलिस्की (रूसी जनवादी विचारक और भौतिकवादी दार्शनिक, 1811-1848-संपादक) ने कहा कि विचारक अपने विचारों को तकों में और कलाकार बिंबों में व्यक्त करता है तो वे लेरो से पूरी तरह सहमत दिखाई देते हैं। इसी विचार का सूत्र पकड़े हुए 'लाल बालों वाले प्योत्र' इस नतीजे पर पहुँचे कि कलाकार स्वतंत्र (फ्री) तो होता है पर उतना मुक्त (इनडिपेंडेंट) नहीं होता जितना कुछ लोग समझते हैं। 'कला जीवन है, जो खुद को जीवन से संबोधित करती है। कलाकार अपने इर्द-गिर्द के जीवन की अनदेखी करता तो गलती करता है। लेरो के नज़दीक कला के लिए कला का सिद्धांत 'एक विशेष प्रकार का अहं-भाव है। फिर भी उन्हें लगता है कि 'कला के लिए कला का सिद्धांत अपने सामाजिक वातावरण से कलाकार के असंतोष का परिणाम है। फलस्वरूप जो निकम्मी कला पूँजीवादी समाज की निकृष्ट, या लेरो के शब्दों में 'घटिया भौतिकवादी,' प्रवृत्तियों को व्यक्त करती है उसके मुक़ाबले वे 'कला के लिए कला को भी वरीयता देने को तैयार हैं। जो भी हो उस 'रुग्ण' कविता को लेरो ने कहीं बहुत अधिक महत्त्व दिया है जिसने गेटे की वर्थर्स लाइडेन (वर्धर का और फ़ाउस्ट को जन्म दिया है। पुकार-पुकारकर कहते हैं : 'हमें वैसे ही फ़न से भरे, वैसे ही आज़ाद दिलों के दर्शन कराओ, ऐ शायरी, जिनकी तस्वीरें गेटे ने पेश की है! बस इतना करना कि इस आज़ादी को एक मक़सद दे दो और इस तरह इसे शूरवीरता का रूप ले लेने दो...संक्षेप में, हमें अपनी सभी रचनाओं में सबके मुक़द्दर से जुड़े हुए इनसान के मुक़द्दर की मुक्ति के दर्शन कराओ...गेटे और बायरन
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के विशाल दानवों से मनुष्यों की रचना करो मगर उन्हें उनके उत्तम चरित्र से वंचित मत करना।99 उनके काल में फ्रांस के साहित्यिक विकास के इतिहास में इन विचारों ने बहुत अहम भूमिका निभाई। हरेक को पता है कि उन्होंने जार्ज (साँ फ्रांसीसी लेखक आरोरे दुदवाँ (1804-1876) का छद्म नाम-संपादक) के साहित्यिक कार्यकलापों पर भारी प्रभाव डाला। आम तौर पर, अगर फ्रांसीसी रोमानवादियों में ऐसे लोग थे (मसलन जार्ज सौ के अलावा विक्तोर ह्यूगो) जिन्होंने 'कला के लिए कला' के सिद्धांत को अस्वीकार किया तो यह मानना बिलकुल मुनासिव ही होगा कि उनके साहित्यिक विचारों को उस दौर के समाजवादी साहित्य की मदद से ही एक रूपरेखा मिली।
(स) जर्मन काल्पनिक समाजवाद
एक
फ्रांस में और ब्रिटेन में सैद्धांतिक स्तर पर फ्रांस के 18वीं सदी के प्रबोध-दर्शन से काल्पनिक समाजवाद का गहरा संबंध था। जर्मन काल्पनिक समाजवाद के बारे में यह बात बस आंशिक रूप से सही है। जर्मन समाजवादियों में कुछ तो ऐसे थे जिनके विचार फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद के तात्कालिक प्रभाव के अंतर्गत और इसलिए फ्रांसीसी प्रबोधवादियों के अप्रत्यक्ष प्रभाव के अंतर्गत विकसित हुए। लेकिन उनमें कुछ दूसरे लोग भी थे जिनके विचार फ्रांसीसी नहीं बल्कि जर्मन दर्शन से उपजे। जर्मनी में समाजवादी सिद्धांत के विकास क्रम को किसी भी दूसरे जर्मन दार्शनिक से अधिक लूडविग फ्रायरवाख (18041872) ने प्रभावित किया। जर्मन समाजवाद में एक पूरा संप्रदाय ऐसा है (तथाकथित सच्चा या दार्शनिक समाजवाद) जिसके सैद्धांतिक तामझाम को ईसाइयत का सारतत्व के लेखक के दर्शन का पहले से अध्ययन किए बिना नहीं समझा जा सकता। (यहाँ उद्धृत पुस्तक लुडविग फायरवाख की ही एक प्रमुख रचना है-संपादक। यही कारण है कि मैं हेगेल से फायरबाख तक जर्मन दार्शनिक चिंतन की प्रगति पर लिखे गए एक लेख में ही इस समाजवादी संप्रदाय की चर्चा करूँगा।100 यहाँ में सिर्फ जर्मन समाजवाद की उस धारा का जिक्र करूँगा जिसने खुद को जर्मन दर्शन से अलग रखा तथा जो जर्मनों के मन पर फ्रांसीसी समाजवादी साहित्य के प्रभाव की उपज था।
अगर उन दिनों फ्रांस आर्थिक विकास में ब्रिटेन से बहुत पीछे या तो जर्मनी भी फ्रांस से कोसों पीछे था। प्रशा में तीन-चौथाई से अधिक आबादी देहातों में रहती थी। सभी जर्मन नगरों में दस्तकारी उत्पादन का सबसे प्रमुख रूप थी। आधुनिक औद्योगिक पूँजीवाद की कुछेक प्रांतों में ही, मसलान राइनिश प्रशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई थी। जर्मन जनमैन (दस्तकार संघों का एक अर्धदास जैसा सदस्य–संपादक)
काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 109
की क़ानूनी स्थिति को इन थोड़े से शब्दों में रखा जा सकता है: पुलिस की मनमानी कार्रवाई के सामने पूरी तरह असुरक्षित वायलैंड लिखते हैं : 'जो भी सुबह के समय एक बार भी वियना के पुलिस मुख्यालय में गया है, उसे उन सैकड़ों जर्नीमैनों की याद होगी जिनको एक तंग गलियारे में अपनी मार्ग पुस्तिकओं (रोड-बुक्स) के लिए इंतज़ार करते हुए, कंधे से कंधा टकराते घंटों तक खड़े रहना पड़ता था, जबकि हाथ में बरछी या डंडा लिये एक पुलिसिया उन पर नज़र रखता था, जैसे एक मेट गुलामों पर नज़र रखे हुए हो। ऐसा लगता था जैसे पुलिस और इंसाफ़ ने इन गरीब लोगों को मायूसी की गोद में धकेलने के लिए आपस में साज़िश कर रखी हो । यही वे मायूस गरीब लोग थे जिनके साथ हाकिम लोग, वायलैंड के शब्दों में, जानवरों जैसा व्यवहार करते थे, मगर यही लोग 1830 और 1840 की दहाइयों में जर्मनी में फ्रांसीसी समाजवाद के विचारों के प्रमुख प्रचारक थे। यशस्वी कम्युनिस्ट लेखक विल्हेल्म वाइटलिंग 102 (पेशे से दर्ज़ी) इन्हीं लोगों में से निकलकर सामने आए। यहाँ उनके विचारों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। लेकिन उनकी विवेचना करने से पहले मैं प्रतिभासंपन्न ग्यार्ग व्यूखनर103 की एक रचना पर कुछ शब्द कहना चाहूँगा जिनकी भरी जवानी में मौत हो गई।
गैरकानूनी ढंग से प्रकाशित इस रचना का शीर्षक Der hessische landbote (ग्रामीण हेसेन मुखपत्र) है। इसे आफ़ेनबाख के एक गुप्त छापेखाने में जुलाई 1894 में छापा गया था और यह मुख्यतः किसान वर्ग को सम्बोधित था। यह एक उल्लेखनीय तथ्य हैं। न तो अंग्रेज़ और न ही फ्रांसीसी समाजवादी साहित्य में हमें किसान वर्ग के नाम कोई सीधी अपील नज़र आती है। जर्मनी तक में यह रचना अपने ढंग की अकेली रचना रही। वाइटलिंग और उनके सहयोगियों ने मज़दूर वर्ग के लिए या सटीक कहें तो दस्तकारों के लिए लिखा। सिर्फ़ 1870 की दहाई के रूसी समाजवादियों की अपीलें 'मुख्यतः किसानों के नाम थीं। 104
ग्रामीण हेसेन मुखपत्र की विषय-वस्तु भी यूँ कह लीजिए कि नरोदनिक ही है। इसमें (अगर उस शब्दावली का प्रयोग करें जिसका नरोदनिकों ने अकसर सहारा लिया है तो) 'जनता की तात्कालिक आवश्यकताओं की बात की गई है। इसमें व्यूखनर अमीर व्यक्ति के स्वतंत्र और स्वच्छंद जीवन को एक अंतहीन छुट्टी कहते हैं और उसका मुकाबला गरीब व्यक्ति के कड़वे जीवन से करते हैं जिसे वे मशक्कत का अंतहीन काल कहते हैं। फिर वे करों के बोझ की बात करते हैं जो जनता को कुचल रहे हैं, और मौजूदा शासन व्यवस्था की तीखी आलोचना करते हैं। अंतिम बात । वे - जनता को जालिमों के खिलाफ़ उठ खड़े होने की राय देते हैं और इतिहास से इसके उदाहरण मुख्यतः 1789 और 1830 की फ्रांसीसी क्रांतियों के उदाहरण देते हैं जो जन-उभार की विजय की संभावना साबित करते हैं।
उन दिनों किसानों के नाम इस क्रांतिकारी आह्वान की सफलता की कोई
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संभावना नहीं थी। किसानों ने उपर्युक्त पुस्तिका की प्रतियाँ हाकिमों के हवाले कर दो जिनको रात में उनके झोंपड़ों के आसपास बिखरा दिया गया था। इस संस्करण की बाक़ी प्रतियाँ पुलिस ने जब्त कर लीं और व्यूखनर को फ़रार होना पड़ा। लेकिन उन्होंने एक क्रांतिकारी की भाषा में किसान वर्ग से अपनी बात कही, यही तथ्य 1830 की दहाई में जर्मन समाजवादी चिंतन के लिए अजीबोगरीब था। पुस्तिका में ब्यूखनर का ऐलान था 'झोपड़ों में शांति! महलों के खिलाफ़ युद्ध!" यह तो वर्ग संघर्ष का ही आह्वान था। वाइटलिंग ने भी अपने पाठकों के नाम इसी तरह की अपीलें जारी कीं। जो जर्मन समाजवादी लेखक फ़ायरबाख के दर्शन की पाठशाला में पढ़ चुके थे, सिर्फ़ उन्हीं की रचनाओं में शांतिप्रेमी मनोस्थिति सामने आई और कुछ समय तक बनी रही।
लेकिन वर्ग संघर्ष का उपदेश देते हुए भी व्यूखनर ने उस संघर्ष में राजनीति के महत्व को महसूस नहीं किया। उन्होंने एक साविधानिक व्यवस्था के लाभों से कोई उम्मीद नहीं लगाई। हमारे नरोदनिकों की तरह उन्हें भी सता रहा था कि एक संविधान पूँजीपति वर्ग का प्रभुत्व स्थापित करके जनता की स्थिति को और भी बदतर बनाएगा। अगर हमारे संविधानवादी जर्मन सरकारों को उखाड़ने में और एक संयुक्त राजतंत्र या एक गणतंत्र स्थापित करने में सफल हुए, तो इससे फ्रांस की तरह ही यहाँ भी एक वित्तीय कुलीनतंत्र ही पैदा होगा।' बेहतर है कि हालात वैसे ही रहें जैसे हैं।' एक संविधान के प्रति ब्यूखनर का यह दृष्टिकोण उन्हें हमारे नरोदनिकों की श्रेणी में भी ला देता है। एक क्रांतिकारी होने के नाते निश्चित ही वे उस घिनावनी राजनीतिक व्यवस्था के समर्थक नहीं थे जो तब मौजूद थी। उन्होंने एक गणराज्य की तरफ़दारी भी की, मगर ऐसे गणराज्य की नहीं जो वित्तीय कुलीनों का शासन स्थापित करे। वे चाहते थे कि क्रांति सबसे पहले जनता के भौतिक हितों की ज़मानत दे। दूसरी ओर वे यह भी मानते थे कि जर्मन उदारवाद ठीक इसी कारण से नामर्दाना है कि कामकाजी जनता के हितों को अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं का आधार बनाने की न तो उसकी इच्छा थी न ऐसी उसकी सामर्थ्य थी।
ब्यूखनर के नज़दीक आज़ादी का सवाल ताक़त का सवाल है। यह ठीक वही विचार है जिसे वर्षों बाद संविधान के सारतत्त्व पर अपने भाषण में (फर्डिनांड) लासाल) ने बहुत अच्छी तरह विकसित किया।
ब्यूखनर ने डांटस टोड (डांटन की मौत) शीर्षक से एक नाटक भी लिखा था, में इस नाटक का साहित्यिक मूल्यांकन नहीं बल्कि सिर्फ़ यह कहूंगा कि इसका 'करुण रस' इतिहास की महागतियों के दौरान नियमों से सामंजस्य की अफलदायी और इसलिए पीड़ादायी खोज में निहित है। अपनी मंगेतर के नाम लिखे गए पत्रों में से एक में, जो साफ़ तौर पर उसी काल का है जब वे अपने नाटक पर लगे हुए थे, व्यूखनर ने लिखा था: 'पहले ही कई दिनों से में एक-एक मिनट पर अपना
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क़लम उठाता हूँ, पर एक भी शब्द नहीं लिख सकता। मैं क्रांति के इतिहास का अध्ययन करता रहा हूँ; मैंने खुद को गोया कि इतिहास के भयानक भाग्यवाद के नीचे कुचले जाते महसूस किया है। मुझे मानव-स्वभाव में अत्यंत घृणित साधारणपन के और मानव-संबंधों में एक ऐसी अजेय शक्ति के दर्शन होते हैं जो सामान्यतः सभी को बख़्शी गई है और विशेष रूप से किसी को भी नहीं। व्यक्ति का व्यक्तित्व लहर के ऊपर का झाग मात्र है, महानता मात्र एक संयोग है, प्रतिभा की शक्ति बस कठपुतलियों का तमाशा है, एक ऐसे लौह-नियम से लड़ने का हास्यास्पद प्रयास है जिसका अधिक से अधिक सिर्फ़ पता लगाया जा सकता है लेकिन जिसे अपने बस में करना असंभव है।' फ्रांस में 18वीं सदी के प्रबोध के दार्शनिकों की ही तरह 19वीं सदी का काल्पनिक समाजवाद भी मानवजाति के ऐतिहासिक विकास में नियमों से अनुरूपता की समस्या को हल नहीं कर सका। मैं तो बल्कि कुछ और भी कहूँगा : उस काल का समाज ठीक इसी कारण से काल्पनिक था कि वह इस प्रश्न को हल करने में असमर्थ रहा। फिर भी इस दिशा में ब्यूखनर के निरंतर प्रयास दर्शाते हैं कि वे काल्पनिक समाजवाद के दृष्टिकोण से संतुष्ट नहीं रहे। जब अलेक्सांद्र हर्ज़ेन अपनी पुस्तक सागर के दूसरे किनारे से लिख रहे थे, तब वे भी ठीक उसी समस्या से जूझ रहे थे जिसने बहुत पहले ब्यूखनर को परेशान कर रखा था।
दो
मैंने कहा कि दस्तकार जर्नीमैन जर्मनी में फ्रांसीसी समाजवादी विचारों के वाहक थे। ऐसा कैसे हुआ, यह भी देखिए। जैसा कि हम जानते हैं, अपना प्रशिक्षण पूरा करने के बाद कई साल तक वे यात्राएँ करते रहते थे। उनकी यात्राएँ अकसर उन्हें जर्मनी से बाहर ले जाती थीं और वे जब अधिक उन्नत देशों में रहते थे तो वहाँ के प्रगतिशील सामाजिक आंदोलनों के संपर्क में आते थे। फ्रांस में उनका परिचय समाजवाद से हुआ और उनको सबसे अधिक हमदर्दी उसके अतिवादी रूप से, अर्थात् साम्यवाद से, थी। उस समय जर्मन समाजवाद के सबसे उल्लेखनीय सिद्धांतकार दर्ज़ी वाइटलिंग थे, जिनका ज़िक्र में पहले ही कर चुका हूँ। उन्होंने भी फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवादियों के प्रभाव को महसूस किया और वे भी साम्यवादी बन गए।
काल्पनिक समाजवाद ऐतिहासिक विकास के वस्तुगत मार्ग पर नहीं बल्कि मानव जाति की श्रेष्ठतर भावनाओं पर भरोसा करता था। जैसा कि आजकल के जर्मन लेखक कहते हैं, यह जज़्बात का समाजवाद था। वाइटलिंग इस सामान्य नियम के अपवाद नहीं थे। उन्होंने भी भावनाओं की दुहाई दी और अपने आह्वानों को बाइबिल के हवालों से पुष्ट किया। उनकी पहली रचना Die Menschheit wie sie ist und wie ste sein sollte (मानव जाति जैसी है और जैसी होनी चाहिए), जो 1838 में प्रकाशित हुई थी, गास्पेल के इन शब्दों से आरंभ होती है: लेकिन जब उसने
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(ईसा ने - संपादक) देखा लोगों को तो भर उठा उनके प्रति करुणा से..तब उसने कहा अपने शिष्यों से (कि) फसल तो सच है बहुत अधिक हुई है मगर मज़दूर हैं थोड़े। इसलिए करो दुआ फसलों के मालिक से कि वह भेजे मज़दूर अपनी फ़सलों के लिए।
वाइटलिंग ने इस उद्धरण की व्याख्या इस तरह से की है कि मानवजाति तो यह फ़सल है जो पककर पूर्णता पानेवाली है और उसका फल धरती पर संपत्ति का समुदाय है। वे अपने पाठकों से कहते हैं: 'प्रेम का आदेश बुलाता है तुम्हें उस फ़सल की ओर और काटने के लिए खुशियों की फसल। तो अगर चाहते हो तुम फसल को काटना और खुशियों को पाना तो पालन करो प्रेम के इस आदेश का। 106
मानव-चरित्र के निर्माण संबंधी शिक्षा, अर्थात् मानव स्वभाव की एक जानी-पहचानी धारणा, ओवेन का प्रस्थानबिंदु थी। फ्रांस के काल्पनिक समाजवादियों ने भी इसी धारणा को अपना आधार बनाया। इसमें बस यहाँ वहाँ उन्होंने अपनी ज़रूरत के मुताबिक संशोधन किए। वाइटलिंग भी कोई अपवाद नहीं थे। फूरिये की मिसाल पर चलते हुए उन्होंने अपनी बात मनुष्य की भावनाओं और आवश्यकताओं के विश्लेषण से आरंभ की तथा उस विश्लेषण के परिणामों के आधार पर अपनी भावी समाज की रूपरेखा तैयार की।107 फिर भी उन्होंने अपनी योजना को कोई निरपेक्ष महत्त्व नहीं दिया। उन्होंने खुद कहा इस तरह की योजनाएँ इस अर्थ में बहुत अच्छी होती हैं कि वे समाज-सुधार की संभावना और आवश्यकता को साबित करती हैं। "ऐसी कृतियाँ जितनी ही अधिक होंगी, जनता को उसका उतना ही अधिक प्रमाण मिलेगा। लेकिन इस विषय पर सबसे अच्छी रचना तो हमें अपने खून से लिखनी होगी।108 यहाँ हमें इस तथ्य की एक कमोवेश धुंधली चेतना दिखाई देती है कि भावी समाज की प्रकृति का निर्धारण सामाजिक विकास का वस्तुगत मार्ग करेगा जिसकी अभिव्यक्ति, प्रसंगवश, वर्गों के क्रांतिकारी संघर्ष में होती है। वाइटलिंग ने 'अमीरों को संबोधित नहीं किया, उन्होंने तो पद और प्रतिष्ठा का भेद किए बिना पूरी मानवजाति को भी संबोधित नहीं किया। उन्होंने सिर्फ 'बम और कष्टयाले लोगों' को संबोधित किया। उन्होंने फूरिये की जमकर खिचाई की कि वस्तुओं के वितरण की योजना में उन्होंने पूँजी को रिआयतें दी है। वाइटलिंग की राय में ऐसी रिआयतें देने का मतलब मानवता के नये मखमली कुर्ते पर टाट के पैबंद लगाना तथा मौजूदा पीढ़ी और तमाम आइंदा पीढ़ियों का मजाक उड़ाना है।109 उन्होंने कहा कि नये के द्वारा पुराने का हरेक विस्थापन क्रांति है। नतीजा यह कि कम्युनिस्ट क्रांतिकारी के अलावा कुछ और हो भी नहीं सकते। लेकिन क्रांतिया हमेशा खून में डूबी हुई नहीं होंगी।110 कम्युनिस्ट खून-खराबेवाली क्रांति के मुकाबले एक शांतिपूर्ण क्रांति को वरीयता देते हैं। लेकिन परिवर्तन का रास्ता उनके ऊपर निर्भर नहीं है; यह बल्कि उच्च वर्गों और सरकारों के आचरण पर निर्भर है। इटलंग ने लिखा: 'आओ,
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हम शांति के कालों में शिक्षा दें; तूफ़ानी कालों में कर्म करें।111 लेकिन इस सूत्रवाक्य से उन्होंने कुछ शर्तें भी जोड़ीं जिनसे पता चलता है कि सर्वहारा की कार्रवाई के चरित्र के बारे में या मज़दूरों को क्या शिक्षा दी जानी चाहिए, इसके बारे में उनके मन में कोई पूरी तरह स्पष्ट धारणा नहीं थी। उनकी राय में मानवता आज इतनी परिपक्व अवश्य हो चुकी है कि उसके गले पर जो खंजर रखा हुआ है उसे हटाने में क्या-क्या चीजें सहायक हैं, इसे समझ सके। वाइटलिंग ने मार्क्स के इस विचार की निंदा की कि साम्यवाद की ओर अपनी ऐतिहासिक प्रगति के दौरान जर्मनी पूँजीवादी शासन के मध्यवर्ती चरण से कतराकर निकल नहीं सकता। उनकी इच्छा थी कि जर्मनी इस चरण से कतराकर निकल जाए, जैसे बाद में चलकर हमारे नरोदनिक यह इच्छा करने लगे थे कि रूस इससे कतराकर निकल जाए। उन्होंने 1848 में इस प्रस्थापना से सहमत होने से इनकार कर दिया कि सामंतवाद के अवशेषों और पूर्ण राजतंत्र के ख़िलाफ़ संघर्ष में सर्वहारा को पूँजीपति वर्ग का समर्थन करना चाहिए। अपने गले पर रखे हुए खंजर को हटाने की इच्छा करने की बुद्धिमानी हरेक व्यक्ति में मौजूद है, इसका पक्का विचार रखकर वाइटलिंग ने अपना एक सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसे अकसर इन शब्दों में व्यक्त किया जाता है : 'जितना बदतर, उतना ही बेहतर।' उनका विश्वास था कि कामकाजी जनता की स्थिति जितनी ही बिगड़ेगी, मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ़ उसके विद्रोह करने की संभावना भी उतनी ही बढ़ेगी। यूरोपीय सर्वहारा के बाद के विकासक्रम ने दिखा दिया कि वास्तव में स्थिति ऐसी नहीं थी। फिर भी एम ए बाकुनिन के तर्कों में इसी सिद्धांत को हर्फ़-ब-हर्फ़ दोहराया गया। सामाजिक पुनर्निर्माण के संघर्ष की कुछेक विशेष परिस्थितियों में जो क़दम बाइटलिंग की राय में आवश्यक साबित होंगे, उनमें एक क़दम वह भी था जो आज बहुत अजीब दिखाई देता है। उनकी राय में (माना कि सशर्त सही, कुछ विशेष दशाओं में ही सही) कम्युनिस्टों के लिए इस बात की सिफ़ारिश ज़रूर की जा सकती है कि वे शहरी आबादी के झुग्गी-झोंपड़ी वाले तत्वों को आकर्षित करें तथा इन तत्त्वों के हीन नैतिक स्तर के अनुरूप 'नयी कार्यनीतियाँ' अपनाएँ। अपनी प्रमुख रचना में इस विचार को उन्होंने बस इशारतन रखा है हालांकि ये इशारे भी अच्छे-खासे स्पष्ट . हैं।112 आगे चलकर उन्होंने इसी बात को और स्पष्ट ढंग से व्यक्त किया तथा 'चोरी करनेवाले सर्वहारा' का एक सिद्धांत तैयार किया। वाइटलिंग के सहयोगियों ने इस सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया।113 लेकिन बाद में चलकर एम ए बाकुनिन ने बाइटलिंग से मिलता-जुलता एक सिद्धांत गढ़ा-क्रांतिकारी आंदोलन की ढाल के रूप में 'राहजन' का सिद्धांत। जो लोग ऐसे सिद्धांतों पर कुछ अधिक ही चिढ़ के साथ आश्चर्यचकित हो सकते हैं, उन्हें मैं यह याद दिलाना चाहूँगा कि इस विशाल हृदय और दिलेर सूरमा राहजन के बिंब को रोमानी साहित्य में काफ़ी सम्मानित स्थान प्राप्त रहा है।114 और सिर्फ़ रोमानी साहित्य में ही क्या, शिलर का कार्ल मूर भी
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तो डाकू था। आम तौर पर काल्पनिक समाजवाद ने फंतासी में बहुत भारी श्रद्धा दिखाई है।
तीन
फ़ायरबाख और मार्क्स ने वाइटलिंग की प्रमुख रचना की बहुत गर्मजोशी से तारीफ़ की थीं। इसमें इस बात के काफ़ी प्रमाण मौजूद हैं कि पूँजीवादी समाज में वर्गों के आपसी संबंधों की वस्तुगत गति को अनेक फ्रांसीसी कल्पनावादियों के मुक़ाबले उन्होंने अधिक स्पष्ट ढंग से समझा था। उनकी रचना Garantiesn (ज़मानत) के जो-आरंभिक - अध्याय वर्गों और वर्गीय शासन के उद्गम की विवेचना करते हैं उनमें पाठक को अनेक दिलचस्प टिप्पणियाँ मिलेंगी। सवाल जहाँ सामाजिक विकास की चालक शक्तियों की धारणा का है, वाइटलिंग बिना शुबहा एक विचारवादी थे। फिर भी ऐसा महसूस होता है गोया वे ऐतिहासिक विचारवाद से अब और आगे संतुष्ट नहीं रहे, और वे मज़े ले-लेकर उन अनुमानों की विवेचना करते हैं जो कभी-कभी उनके मन में आते हैं और जो सामाजिक जीवन के कम से कम कुछ पक्षों की एक और भी ठोस व्याख्या की संभावना का संकेत देते हैं। मुझे विश्वास है उनकी प्रमुख रचना की यही ख़ास विशेषता उन कारणों में एक थी जिनके चलते उनके प्रति मार्क्स का रवैया सहानुभूति और समझदारी का रहा। लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद वाइटलिंग की ज़मानत ऐसा कोई संकेत नहीं देती कि उसके लेखक ने अर्थशास्त्रीय सिद्धांत में अपने आपमें कोई भारी दिलचस्पी ली हो। वे भी अपने दौर की ही पैदावार थे, और उनके दौर के जर्मन समाजवादी अर्थशास्त्र का अध्ययन तो नहीं ही कर रहे थे। मार्क्सवाद से पहले के काल की जर्मन कम्युनिस्ट लीग के संस्मरण लिखते हुए एंगेल्स ने लिखा है : 'उन दिनों पूरी लीग में एक भी ऐसा शख़्स रहा हो जिसने राजनीतिक अर्थशास्त्र पर कभी कोई किताब पढ़ी हो, मुझे ऐसा नहीं लगता। लेकिन उससे भला क्या फर्क पड़ता था; फ़िलहाल तो 'समानता', 'भाईचारा' और 'न्याय' ही हरेक सैद्धांतिक बाधा को पार करने में उनके मददगार साबित होते थे।115 ज़ाहिर है ब्रिटिश समाजवादियों से इस बारे में जर्मन कम्युनिस्टों की कोई समानता नहीं थी। फिर भी यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि बहुत पहले, पिछली सदी में 1830 की दहाई में, जर्मनी में एक समाजवादी ऐसा भी था जो अर्थशास्त्रीय प्रश्नों में गहरी दिलचस्पी लेता था और राजनीतिक अर्थशास्त्र संबंधी साहित्य पर जिसकी बेहद गहरी पकड़ थी। सच है, वह दूसरों से बिलकुल अलग था। उसका नाम योहान्न कार्ल रोडबर्टस यागेत्जोव था।116
अपने बारे में रोडबर्टस ने कहा कि उनका सिद्धांत मात्र उस प्रस्थापना का सुसंगत विस्तार है जिसे स्मिथ ने विज्ञान में दाखिल किया और जिसको रिकार्डो के संप्रदाय ने और भी ठोस ढंग से पुष्ट किया- यह प्रस्थापना कि उपयोग की सभी
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वस्तुओं को, आर्थिक दृष्टि से, मात्र श्रम की पैदावर मानना चाहिए, जिनकी श्रम से अलग कोई लागत न हो। श्रम उपभोग की वस्तुओं के मूल्य का एकमात्र स्रोत है, उनका यह विचार उनकी 1842 में प्रकाशित पहली पुस्तक में प्रतिपादित किया गया था जिसका शीर्षक Zur Erkenntnis unserer staatswirtschaftiches Zustyande था। इसका शाब्दिक अनुवाद होगा: अपनी राष्ट्रीय आर्थिक दशाओं के ज्ञान में योगदान। लेकिन सही बात यह है कि शब्द के सटीक अर्थ में राष्ट्रीय अर्थशास्त्र के प्रश्नों से रोडबर्टस का सरोकार नहीं रहा। उन्होंने पूँजीवादी समाज में मजदूर की स्थिति का अध्ययन किया और ऐसे उपाय निकालने की कोशिश की जो इस स्थिति में सुधार लाने में सहायक हों। लिखते हैं: 'राष्ट्रीय उत्पादन में मज़दूर वर्गों के भाग में वृद्धि करना मेरे अनुसंधानों का उद्देश्य होगा, और वह भी एक ऐसे ठोस आधार पर जो बाज़ार के उतार-चढ़ाव के प्रभावों से मुक्त हो। मैं इस वर्ग को उत्पादकता में प्रगति में भाग लेने का अवसर भी देना चाहता हूँ। मैं उस नियम का उन्मूलन करना चाहता हूँ जो हमारी दशा के लिए अन्यथा घातक हो सकता है, अर्थात् यह नियम कि उत्पादकता चाहे जितनी ही बढ़ जाए, बाज़ार की कृपा से मज़दूर हमेशा घटकर मज़दूरी के उस स्तर पर पहुँचते रहेंगे जो जीवननिर्वाह के लिए आवश्यक स्तर से ऊपर न हो, मजदूरी के उस स्तर पर जो मज़दूरों को हमारे युग की शिक्षा पाने से वंचित रखता है...मज़दूरी के उस स्तर पर जो उनकी मौजूदा कानूनी स्थिति से, हमारी सबसे महत्वपूर्ण संस्थाओं ने दूसरे जनवर्गों के साथ उन्हें औपचारिक समानता का जो दर्जा दिया है उससे, बेहद स्पष्ट अंतर्विरोध से ग्रस्त है। 118
आज की परिस्थितियों में मजदूरियां हमेशा घटकर मज़दूरों के जीवननिर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताओं के स्तर तक पहुँचती रहती हैं। साथ ही, श्रम की उत्पादकता लगातार बढ़ रही है। इसलिए मजदूर वर्ग अपने श्रम से जो माल पैदा करता है उसमें उसका भाग लगातार घटता रहता है। रोडवर्टस कहते हैं: 'मुझे विश्वास है कि उत्पाद के भाग के रूप में देखें तो श्रमिकों की मज़दूरियों में अधिक नहीं तो कम से कम उतने अनुपात में अवश्य कमी आती है जिस अनुपात में श्रम की उत्पादकता बढ़ती है। और अगर यह साबित किया जा सके कि श्रमिकों के श्रम से पैदा राष्ट्रीय उत्पाद के भाग के रूप में उनकी मज़दूरियाँ लगातार कम हो रही हैं, तो औद्योगिक संकट जैसी डरावनी प्रवृत्तियों पूरी तरह समझ में आने लगती हैं। मज़दूरियों में सापेक्ष कमी के कारण मजदूरों की क्रयशक्ति समाज की उत्पादक शक्तियों के विकास के संगत नहीं रह जाती। यह क्रयशक्ति बढ़ती नहीं है बल्कि घटती ही है, जबकि उत्पादन बढ़ता है और बाज़ार मालों से पट जाते हैं। इससे मालों को बेचने में कठिनाई आती है, कारोबार में मंदी आती है, और आखिर में औद्योगिक संकट आते हैं। रोडबर्टस इस आपत्ति के रोब में नहीं आते कि उच्च वर्गों के हाथों में क्रयशक्ति बनी रहती
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है और वह बाज़ार को प्रभावित करती रहती है। कहते हैं: 'मूल्य एक माल में निहित होता है मगर माँग से ऊपर नहीं जाता। एक मजदूर के हाथों में जो कुछ मूल्यवान होता है, वही दूसरों के हाथों में फ़ालतू अर्थात् न बिकने वाला माल बन जाता है। संचित ढेर का वितरण संभव हो, इसके लिए राष्ट्रीय उत्पादन में एक लंबा ठहराव आना चाहिए, और तभी जाकर राष्ट्रीय उत्पादन के एक बड़े भाग का पुनर्गठन किया जाना चाहिए ताकि एक मज़दूर से जो कुछ ले लिया जाता है वह किसी दूसरे के हाथों में पहुँचकर बाज़ार में क्रयशक्ति में वृद्धि का रूप ले सके 120
राष्ट्रीय उत्पाद में मज़दूर वर्ग के भाग में कमी उसके दरिद्र होने का सूचक है। रोडबर्टस यहाँ एडम स्मिथ से सहमत नहीं हैं जिनका कहना था कि एक व्यक्ति उसी सीमा तक अमीर या गरीब होता है जहाँ तक उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित होती है। अगर यह बात सही होती तो आज का जर्मन धन्नासेठ पुराने ज़मानों के राजाओं से भी अमीर होता 'हमें (किसी व्यक्ति या किसी वर्ग की) दौलत को एक जनगण के सांस्कृतिक विकास की मौजूदा अवस्था से निर्धारित वस्तु-समूह में (उस व्यक्ति या वर्ग के) सापेक्ष भाग के रूप में समझना होगा। 121.
इस तरह सामाजिक समृद्धि में वृद्धि के साथ ही वह वर्ग सापेक्षतः दरिद्र होता जाता है जिसके श्रम ने वह समृद्धि पैदा की है। राष्ट्र का ⅚ भाग संस्कृति के तमाम लाभों से वंचित ही नहीं दिखाई देता उसे कभी-कभी बदहाली की वे भयानक मारें भी झेलनी पड़ती हैं जिसका साया उसके ऊपर लगातार मँडरा रहा है। पिछले ऐतिहासिक युगों में, चलिए हम माने लेते हैं कि, कामगार जनता का वंचित रहना सभ्यता की प्रगति के लिए आवश्यक था। आज उत्पादक शक्तियों की वृद्धि ने इन अभावों को समाप्त करने की पूरी-पूरी संभावना पैदा की है। जैसा कि किर्चमान के नाम अपने पहले पत्र में रोडबर्टस ने सवाल उठाया है: 'क्या इससे भी बढ़कर कोई न्यायोचित माँग हो सकती है...कि पुरानी और नयी दीलत के सर्जकों को भी इस बढ़ोत्तरी से भी कुछ लाभ मिलना चाहिए, कि उनकी आय बढ़नी चाहिए या श्रम का समय कम होना चाहिए या यह कि लगातार बढ़ती संख्या में ये लोग उन सुखी लोगों की श्रेणी में पहुँचने चाहिए जिनको श्रम की फ़सल काटने के बारे में विशेष अधिकार मिले हुए हैं?' इस माँग से बढ़कर न्यायोचित माँग और कोई नहीं, इस बारे का पूरा-पूरा विश्वास होने के कारण रोडबर्टस मज़दूरों की हालत सुधारने के लिए उपायों की एक श्रृंखला पेश करते हैं।
इन सभी उपायों का मूलतत्त्व एक ही है: क़ानून द्वारा मज़दूरियों का निर्धारण। राज्य को चाहिए कि उत्पादन की हर शाखा के लिए मज़दूरियों का स्तर तय करे और फिर राष्ट्रीय श्रम की उत्पादकता में वृद्धि के आधार पर उनमें फेरबदल करे। मज़दूरियों का इस प्रकार निर्धारण तार्किक रूप से हमें एक नये 'मूल्य-मान' (स्केल) आफ़ वैल्यू) के निश्चय की ओर ले जाएगा।
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चूँकि राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से उपभोग की सभी वस्तुओं को सिर्फ़ श्रम के उत्पाद मानना चाहिए जिनकी लागत श्रम से अलग और कुछ न हो, इसलिए सिर्फ़ श्रम ही सच्चा 'मूल्य-मान' हो सकता है। आज के समाज में बाज़ार में दामों के उतार-चढ़ाव के कारण मालों का विनिमय हमेशा उनके उत्पादन में लगे श्रम की मात्रा के अनुपात में नहीं होता। यह बुराई राज्य के हस्तक्षेप के द्वारा दूर की जानी चाहिए। राज्य को चाहिए कि 'श्रम-मुद्रा' (लेबर मनी) चलाए; इससे मतलब ऐसे प्रमाणपत्रों से है जो संकेत देते हों कि किस वस्तु के उत्पादन में श्रम की कितनी मात्रा लगी है। संक्षेप में, रोडबर्टस विनिमय की उसी व्यवस्था पर पहुँचते हैं जो ब्रिटेन में 1820 की दहाई में पहले-पहल पैदा हुआ और फिर फ्रांस (प्रूदों) तक पहुँचा। इस पर विस्तार से बात करना व्यर्थ ही होगा।
तो भी यह बात कही जानी चाहिए कि रोडबर्टस के नज़दीक इन सभी उपायों का बस अस्थायी महत्त्व था। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्ट समाज आगे चलकर, कोई 500 वर्षों में स्थापित होगा और तब मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण एक सिरे से ख़त्म हो जाएगा।
'सामाजिक प्रश्न' के इस हल का प्रस्ताव रखते हुए रोडबर्टस कभी यह दोहराते नहीं थकते थे कि यह हल पूरी तरह शांतिपूर्ण होना चाहिए। वे न 'बैरिकेडों' में विश्वास रखते थे और न ' किरोसिन' में और न ही सर्वहारा की स्वतंत्र राजनीतिक कार्रवाई में उन्हें आशा थी कि सब कुछ ऊपर से होगा, शाही सत्ता द्वारा किया जाएगा जो उनकी राय में 'सामाजिक' बननी चाहिए और जो 'सामाजिक' बन सकती है।
मैंने 1842 में प्रकाशित Zur Erkenntnis से शुरू करके रोडबर्टस की विभिन्न रचनाओं के आधार पर यहाँ उनके विचारों को प्रस्तुत किया है। मगर यह बात ध्यान देने की है कि बहुत पहले, 1830 की दहाई के अंतिम भाग तक वे अपने सभी विचारों को सुगठित ढंग से एक लेख में प्रस्तुत कर चुके थे। इस लेख को उन्होंने Augsburger Allgemeine Zeitung को भेजा था मगर पत्र ने उनका यह लेख स्वीकार नहीं किया था। यह लेख डॉ. रोडबर्टस यागेल्ज़ोव कृत Briefe and Sozialpolitische Aufsyatz में मौजूद है जिसे रुडोल्फ़ मेयर ने बर्लिन से 1882 में प्रकाशित किया था। (दूसरी जिल्द में पृ. 575-86, एक पुरानी पांडुलिपि के अंश, देखें।) यह लेख अनेक अर्थों में दिलचस्प है। लेकिन निम्नलिखित बातें सबसे अधिक ध्यान देने योग्य हैं। एक, उनकी यह धारणा कि मज़दूर वर्ग बर्बरों का ('आत्मा और नैतिकता की दृष्टि से बर्बरों का') वर्ग है। 122 दूसरे, यह भय कि सभ्य समाज की क़तारों में रह रहे बर्बर उसके शासक हो सकते हैं, ठीक उसी तरह जैसे प्राचीनकाल के बर्बर रोम के शासक बन बैठे। सब कुछ तब तक ठीक-ठाक चला जब तक सवाल पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष में राज्य द्वारा आज के बर्बरों के इस्तेमाल का था। लेकिन इन बर्बरों
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के ख़िलाफ़ संघर्ष में राज्य फिर किस पर भरोसा करेगा? क्या ये बर्बर अपने ही ख़िलाफ़ लंबे समय तक लड़ेंगे ? समाज को अपनी आत्मरक्षा के लिए समाज-सुधार करने ही होंगे। 123
रोडबर्टस मज़दूर वर्ग से भयभीत थे। अगर वे इस वर्ग से कुछ कम भयभीत होते तो अपने प्रमुख कल्पनालोक (एक 'सामाजिक' राजतंत्र) और उससे गहराई जुड़े गौण कल्पनालोकों (जैसे 'श्रम-मुद्रा'), दोनों की ओर उनका झुकाव कम होता।
आज के पूँजीवादी अर्थशास्त्री यह दोहराने के शौक़ीन हैं कि मार्क्स ने अपना अर्थशास्त्रीय सिद्धांत ब्रिटिश समाजवादियों से लिया। कोई 20 या 25 साल पहले जब ब्रिटिश समाजवादी साहित्य से शायद ही वे परिचित रहे होंगे, यह 'खोज' उन्होंने की कि अपनी अर्थशास्त्री वाली हैसियत के लिए मार्क्स पूरी तरह रोडबर्टस के ऋणी हैं। यह तर्क भी दूसरे जितना ही बेबुनियाद है। अलावा इसके, रोडबर्टस की रचनाओं का एक बड़ा भाग तब प्रकाशित हुआ जब मार्क्स के अर्थशास्त्रीय विचारों की प्रमुख विशेषताएँ पूरी तरह एक रूप ले चुकी थीं। तो भी रोडबर्टस को जर्मन अर्थशास्त्रियों के बीच सम्मान का स्थान प्राप्त है जिनके प्रति प्रसंगवश कह दिया जाए कि वे घोर अपमान भाव रखते थे।124
टिप्पणियाँ
1. प्राकृतिक नियम के 18वीं सदी में प्रचलित सिद्धांत के अनुसार विधिशास्त्र का जन्म मानव की बुद्धि और धारणा से होता है तथा उसकी भूमिका राजसत्ता से स्वतंत्र होती है-संपादक।
2. लेसली स्टीफेन का विचार था कि बौद्धिक रुझान के एतबार से किसी भी दूसरे अंग्रेज़ विचारक के मुक़ाबले गाडविन क्रांति पूर्व काल के फ्रांसीसी सिद्धांतकारों से अधिक मेल खाते थे। (हिस्ट्री आफ़ इंग्लिश घाट इन द एटीय सेंचुरी बाई लेसली स्टीफेन, दूसरा संस्करण, लंदन, 188, जिल्द दो, पृ. 264 देखें।) चलिए, हम इसे सही माने लेते हैं। फिर भी गाडविन की सैद्धांतिक मान्यता ठीक वही थी जो, मिसाल के तौर पर, ओबेन, फूरिये तथा यूरोपीय महाद्वीप के दूसरे प्रमुख समाजवादियों की थी।
3. लंदन करेस्पांडिंग सोयायटी (लंदन पत्राचार समिति) को इंग्लैंड में मज़दूर वर्ग का पहला राजनीतिक संगठन कहा जा सकता है। इस संगठन के सदस्य एक-दूसरे से पत्रव्यवहार करते रहते थे और इसी कारण इसे यह नाम प्राप्त हुआ। 1792 में गठित इस संगठन के सदस्यों को माँगें सार्वभौम मताधिकार तथा हर साल संसद के चुनाव तक सीमित थीं। इसके अधिकांश सदस्य ब्रिटेन को एक गणराज्य बनाए जाने के पक्ष में थे जोकि उनका मुल्क आज, 211 साल बाद भी नहीं है-संपादक।
4. यहाँ इशारा माल्थस के इस सिद्धांत की ओर है कि जीवन निर्वाह के साधन जहाँ गणितीय श्रेढी (1, 2, 3, 4, 5.) में बढ़ते हैं वहीं जनसंख्या ज्यामितीय बेड़ी (1, 2, 4, 5, 16...) में बढ़ती है और इस कारण एक अवस्था के बाद जीवन निर्वाह के उपलब्ध साधन जनसंख्या की जरूरते पूरी करने में असमर्थ हो जाते हैं। फिर लाज़मी तौर पर युद्ध, महामारी आदि जैसी विपत्तियों आती हैं जो अतिरिक्त जनसंख्या का सफाया करके असंतुलन को दूर करती हैं। पादरी माल्यास ने इस तथाकथित नियम का प्रतिपादन अपनी रचना ऐन एस्से जान द प्रिंसिपुत आफ़ पापुलेशन में किया
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था जो 1798 में प्रकाशित हुई थी। एंगेल्स ने अपने एक आरंभिक लेख 'राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना' (1844) में माल्यस के इस सिद्धांत की आलोचना की थी। प्रसंगवश इंग्लैंड की जनगणना के पहले प्रयास का श्रेय विलियम गाडविन को ही दिया जा सकता है जिनकी यहाँ प्लेखानोव ने चर्चा की है-संपादक।
5. 'बाड़ों' ने खेतिहर सुधार के विषय पर एक भरे-पूरे साहित्य को जन्म दिया। यह साहित्य, मसलन टामस स्पेंस, विलियम ओजिल्बी और टामस पेज की रचनाएँ, अपने आपमें बहुत ही उल्लेखनीय हैं तथा इसने ब्रिटेन में समाजवादी साहित्य के विकास को बढ़ावा देने में एक खासी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन मैं यहाँ इस साहित्य की विवेचना नहीं कर सकूँगा और कुछ नहीं तो बस इसी कारण से कि 18वीं सदी से संबंधित होने के कारण कालक्रम की दृष्टि से भी मेरे विषयक्षेत्र से बाहर है।
6. हाल की रचना का शीर्षक इफ़ेक्ट्स आफ़ सिबिलाइज़ेशन आन द पीपुल इन यूरोपियन स्टेट्स था-संपादक।
7. ब्रिटेन की 19वीं सदी के पूर्वार्ध की समाजवादी रचनाएँ आज बहुत दुर्लभ हैं। फलस्वरूप मुझे मजबूर होकर कुछेक के कथन हाल में प्रकाशित जर्मन अनुवादों से उद्धृत करने पड़ रहे हैं। बी ओल्डेनबर्ग ने हाल की पुस्तक का जर्मन अनुवाद डी विकुगेन डेर ज़िविलाइजेशन आफ डी मासेन (जनता) पर सभ्यता के प्रभाव-संपादक) (लाइपज़िंग 1905) शीर्षक से किया है। स्वर्गीय प्रोफ़ेसर जी एडलर ने हाप्टवेर्के डेस सोल्जियलुज्मुस उंड डेर सोल्जियलपोलिटिक के सामान्य शीर्षक से जो पुस्तक-श्रृंखला प्रकाशित की थी, उपर्युक्त रचना उस शृंखला की चौथी पुस्तक है। हाल का उद्धरण ओल्डेनबर्ग के अनुवाद में पृ. 29 पर मिलता है।
8. उपर्युक्त, पृ. 38
9. उपर्युक्त, पृ. 38-991
10. उपर्युक्त, पृ. 47 देखें। यहाँ कह दिया जाए कि ब्रिटिश क़ानून तब हड़ताल की एक संगीन जुर्म मानता था।
11. उपर्युक्त, पृ. 401
12. उपर्युक्त, पृ. 76
13. उपर्युक्त, पृ. 82
14. उपर्युक्त, पृ. 49
15. जन्म 14 मार्च 1771 को न्यूटाउन, नार्थ वेल्स में; 17 नवंबर 1858 को देहावसान।
16. इंग्लैंड में 1840 की दहाई तक भी अनेक कारखानों में मज़दूरों से 14 से 16 घंटे तक और कहीं-कहीं तो इससे भी अधिक समय तक काम लिया जाता था। ब्रिटिश संसद ने 1833 में इस बारे में एक क़ानून अवश्य बनाया मगर वह सिर्फ़ 13 से 18 साल तक के किशोरों के लिए या जिनके लिए 12 घंटों का काम का दिन निश्चित किया गया। काम का दिन घटाकर 10 घंटे करने की माँग चार्टिस्ट आंदोलन की प्रमुख माँगों में एक थी-संपादक।
17. उनका वह पत्र देखें जो 9 अगस्त 1817 के रोज़ लंदन के अनेक समाचारपत्रों में छपा था। द लाइफ़ ऑफ़ राबर्ट ओवेन रिटेन बाई हिमसेल्फ़ (लंदन, 1857) में इसे उनकी आत्मकथा के पूरक रूप में फिर से प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक को आई ए कहा जाता रहा है। मैं आगे अभी कई बार इसके हवाले दूंगा।
18. उपर्युक्त, पृ. 84 और 86
19. इस रचना का पूरा शीर्षक ए न्यू व्यू आफ सोसायटी; आर एस्सेज़ आन द प्रिंसिपुल्स आफ़ द फार्मेशन आफ द ह्यूमन कैरेक्टर, एंड एल्पिकेशन ऑफ़ द प्रिंसिपुल टू द प्रेक्टिस है। इसमें चार
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निबंध संकलित हैं जिनमें से दो तो 1812 के अंतिम दिनों में और दो 1813 के आरंभिक दिनों में प्रकाशित हुए थे।
20. यहाँ और दूसरी जगहों पर भी मैंने एस्सेज़ के दूसरे संस्करण (1816) से उद्धरण दिए हैं। पृ. 19, 90 और 91 देखें।
21. उपर्युक्त, पृ. 1491
22. देखें आब्जर्वेशंस आन द इफ़ेक्ट्स ऑफ़ द मैन्यूफेक्चरिंग सिस्टम, विव हिंट्स फार द इम्प्रूवमेंट आफ़ दोज़ पार्ट्स आफ़ इट व्हिच आर मोस्ट इनजूरियस टू हेल्थ एंड मारल्स डेडिकेटेड गोस्ट रिस्पेक्टफुली टू द ब्रिटिश लेजिस्लेचर (1815), द लाइफ़ ऑफ़ राबर्ट ओवेन, आई ए में पुनर्मुद्रित उपर्युक्त बातें पृ. 38 पर कही गई हैं, पृ. 39 भी देखें।
23. उपर्युक्त, पृ. 39 देखें। यह बात आसानी से साबित की जा सकती है कि 1815 में ब्रिटेन के निर्यात अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुके थे, ओवेन का यह निष्कर्ष गलत था। फिर भी यह बात ध्यान देने की है कि ओवेन के विचारों में बाज़ारों का सिद्धांत तब भी एक भूमिका निभा रहा था और यह भूमिका उस भूमिका से बहुत भिन्न नहीं थी जो हमारे 1880 के दशक के नरोदनिकों की शिक्षाओं में बतलाई गई है।
24. ब्रिटेन में 1819 के क़ानून ने सूती मिलों में 9 साल से कम उम्र के बच्चों के काम करने पर पाबंदी लगाई। दूसरी ओर 9 से 16 वर्ष तक के बच्चों और किशोरों के लिए काम का दिन घटाकर साढ़े तेरह घंटे कर दिया गया संपादक।
25. कार्ल मार्क्स, पूंजी (रूसी संस्करण), ओ एन पोपोवा द्वारा प्रकाशित, जिल्द एक, पृ. 215 देखें। (पूँजी, जिल्द एक, 1974 का अंग्रेजी संस्करण, पृ. 261 देखें।)
26. आब्ज़र्वेशंस... पूर्वोक्त, पृ. 781
27. द लाइफ़... आई ए. पूर्वोक्त, पृ. 60 और आगे।
28. उपर्युक्त, पृ. 115।
29. स्पष्ट है कि यह धर्म प्रकृति संबंधी एक भौतिकवादी दृष्टिकोण पर आधारित था जिसमें देववाद (डीज़्म) की प्रचलित शब्दावली का जरा-सा पुट था और समाजवादी नैतिकता जिसकी पूरक थी।
30. ये दोनों व्याख्यान ओवेन की रचना ऐन इंटायर न्यू स्टेट ऑफ़ सोसायटी के पूरक रूप में प्रकाशित किए गए।
31. उपर्युक्त, पृ. 151 ।
32. ब्रिटेन में आज भी लोग 'मजदूर वर्ग' (वर्किंग क्लास) की जगह 'मज़दूर वर्गों' (वर्किंग क्लासेज़) की बात करते हैं।
33. व लाइफ़... आई ए, पूर्वोक्त, पृ. 229-30।
34. उपर्युक्त प्रस्तावना तीन ।
35. चार्टिस्ट आंदोलन 1830 और 1810 की दहाइयों में ब्रिटेन में मजदूरों का, एक व्यापक जन-आधार वाला आंदोलन था। उसने जनता का एक ऐलाननामा (पीपुल्स चार्टर) तैयार किया था और इसी से उसे 'चार्टिस्ट' नाम मिला यह आंदोलन चुनाव कानून में सुधारों और परिवर्तनों की माँग करता या ताकि मज़दूरों की संसद में एक आवाज़ हो; उन दिनों मज़दूर मतदान तक के अधिकार से वचित थे। एक समय ऐसा भी आया जब बड़ी-बड़ी सभाओं और प्रदर्शनों के बल पर इस आंदोलन ने ब्रिटेन को हिलाकर रख दिया और सत्ताधारी उससे भयभीत रहने लगे, उसे कुचलने के उपाय सोचने लगे। मजदूरों आर्थिक और राजनीतिक माँगों के बारे में बार्टिस्टों ने संसद को तीन-तीन याचिकाएं दीं मगर वे तीनों खारिज कर दी गई। 1848 की असफल यूरोपीय क्रांति के बाद जब अस्थायी रूप से पूँजीपति वर्ग का सितारा ऊपर चढ़ा, तब चार्टिस्ट आंदोलन का भी ह्रास आरंभ
काल्पनिक समाजवाद की धाराएं / 121
हो गया और अंततः यह आंदोलन समाप्त ही हो गया।
36. लंदन के अलावा ऐसा ही एक बाज़ार बरमिंगम में खोला गया था।
37. प्रस्तुत निबंध में मैं किसी सामाजिक आंदोलन के इतिहास की नहीं बल्कि केवल कुछ विचारों के इतिहास की ही विवेचना करता आया हूँ। लेकिन चलते-चलते में यह कहना चाहूँगा कि ट्रेड यूनियनों के साथ ओवेन के संबंध का काल वही था जब ब्रिटिश मज़दूर वर्ग संघर्ष के व्यावहारिक तरीकों की ओर अपेक्षाकृत अधिक आकर्षित थे। यह बात उन तरीक़ों की बेहद याद दिलाती है जो हमारे आज के 'क्रांतिकारी' संघवादियों को दिली तौर पर पसंद हैं।
(संघवाद के बारे में पिछले लेख के पृ 71 पर टिप्पणी 51 देखें- संपादक)
38. अपनी हाल में प्रकाशित पुस्तक इंग्लैंड में समाजवाद का इतिहास (जर्मन) में एम बीर ने (पृ. 280) पर और उससे आगे) इन लोगों के बारे में और भी बहुत कुछ कहा है। हेयरिंगटन की वसीयत (पृ. 282-83) खास ध्यान दिए जाने योग्य है। लवेट और हेथरिंगटन चार्टिस्ट आंदोलन के सक्रिय सदस्य थे। लवेट की आत्मकथा भी छपी है जिसका शीर्षक द लाइफ एंड स्ट्रगल्स आफ़ विलियम लवेट, इन हिज़ परसूट आफ ब्रेड, नालेज, एंड फ्रीडम (लंदन, 1876 ) है।
39. ओवेन के 'सच्चे धर्म' को सबसे प्रतिभाशाली मज़दूरों ने किस रूप में समझा था, इसका पता हेथरिंगटन की वसीयत से चलता है 'मनुष्य के लिए उपयोगी एकमात्र धर्म पूरी तरह नैतिकता के व्यवहार में और दया व प्रेम के कार्यों के पसी लेनदेन में पाया जाता है।
40. मारिस हिलक्विट की पुस्तक हिस्टरी आफ़ सोशलिज़्म इन द यूनाइटेड स्टेट्स (न्यूयार्क, 1903). में अध्याय दो देखें जो 'ओवेनवादी काल' के बारे में है। इसके जर्मन और रूसी, दोनों भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध हैं।
41. उनके जर्मन निबंध 'इंग्लैंड में समाजवादी विचारों का इतिहास का पृ. इकहत्तर और आगे देखें। यह निबंध विलियम वाम्पसन की आज काफ़ी कुछ मशहूर हो चुकी रचना इनक्वारी इन टू द प्रिंसिपल्स आफ द डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ़ वेल्थ मोस्ट कंड्यूसिव टू ह्यूमन हैपिनेस के जर्मन अनुवाद की प्रस्तावना है। इस रचना के जो हवाले में दूँगा, वे ओस्वाल्ड कोलमान द्वारा किए गए जर्मन अनुवाद से होंगे जी बर्लिन से 1903 में छपा था।
42. जन्म 1785 में, 1833 में देहावसान
43. जर्मन अनुवाद का पृ. 16 देखें।
44. इसका शीर्षक प्रिंसिपुल्स आफ़ पोलिटिकल इकानमी एंड टैक्सेशन है।
45. इसका शीर्षक द सोर्स एंड रेमेडी ऑफ़ द नेशनल डिफिकल्टीज़ : ए लेटर टू लाई जान रसेल है। मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत (जर्मन), जिल्द 3, स्टुटगार्ट, 1910 में पृ. 281-306 पर इसका जिक्र किया है। (मास्को से प्रकाशित अंग्रेज़ी संस्करण, 1975, पृ. 238-57 देखें-संपादक)
46. वितरण के बारे में थाम्पसन का अध्ययन 1824 में सामने आया; अगले साल उनकी रचना लेबर रिबाडेंड प्रकाशित हुई। उसी साल ग्रे ने ए लेक्चर आन ह्यूमन हैपिनेस और 1831 में सोशल सिस्टम का प्रकाश कराया जान ने की पुस्तक लेबर्स रांग एंड लेबर्स रेमेडी, आर द एज आफ़ माइट एंड द एज ऑफ़ राइट आर्थिक सिद्धांतों के इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण है। (यह बीड्स से 1839 में प्रकाशित हुई थी।) प्रसंगवश यह इस कारण से उल्लेखनीय है कि इसमें ब्रे में इतिहास की विचारवादी धारणा को त्यागने की प्रवृत्ति का एहसास होता है जो तमाम काल्पनिक समाजवादियों की साझी विशेषता रही है, और लगता है वे इतिहास की भौतिकवादी धारणा की ओर बढ़ रहे. हैं। (पृ. 26 पर उनका यह तर्क देखें कि समाज अपनी इच्छा से अपने विचारों की दिशा को नहीं बदल सकता ।) यह सच है कि इस प्रवृत्ति ने ब्रे को सामाजिक विकास के बुनियादी कारणों का गंभीर विश्लेषण करने के लिए प्रेरित नहीं किया। में यहाँ टी आर एडमंड्स की पुस्तक प्रेक्टिकल
122 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ
मारल एंड प्रैक्टिकल इकॉनमी (लंदन, 1828) का भी जिक्र करूँगा एडमंड्स की राय में मज़दूर वर्ग जितने मूल्य का उत्पादन करता है उसका बस एक तिहाई पाता है, बाक़ी दो-तिहाई मालिकान को जाता है। (पृ. 107, 116 और 288 देखें।) ब्रिटेन के बारे में यह बात आज भी सच्चाई के काफी करीब है। कंगाली (पापरिज़्म) के सामाजिक कारणों के बारे में उनके विचार भी ध्यान देने योग्य हैं 1821 में रेवेनस्टोन ने पुस्तिका ए. फ्यू डाउट्स ऐज़ टू द करेक्टनेस ऑफ़ सम ओपिनियन्स जनरली इंटरटेंड आन द सब्जेक्ट्स आफ़ पापुलेशन एंड पोलिटिकल इकानमी हास्किन की रचनाओं में यहाँ हमारे लिए (1) लेबर डिफ्रेडेड अगेस्ट द क्लेम्स आफ़ कैपिटल (लंदन, 1825); (2) पापुलर पोलिटिकल इकानमी, (3) द नेचुरल एंड आर्टिफिशियल राइट ऑफ़ प्रापर्टी कंट्रास्टेड (लंदन, 1832) सबसे महत्वपूर्ण हैं। रेवेनस्टोन और हांस्किन के बारे में मार्क्स की उपर्युक्त रचना (पृ. 30680) देखें (अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत, मास्को, 1975, जिल्द 3, पृ. 257-319 देखें-संपादक)) एली हालवी ने टामस हारिसकन (1787-1869) शीर्षक से हास्किन पर एक पुस्तक (पेरिस, 1903) भी लिखी है।
47. यहाँ मायर्स की रचना दर्शन की निर्धनता की ओर इशारा है जो प्रूदों की पुस्तक निर्धनता का दर्शन का जवाब थी। मार्क्स की रचना 1847 में प्रकाशित हुई थी-संपादक
48. द हिस्ट्री ऑफ़ ट्रेड यूनियनिज्म, लंदन, 1894, पृ. 147
49. हारिस्कन से मार्क्स के वास्तविक संबंध को, मिसाल के लिए, उस रचना में जिसका हवाला में दे चुका हूँ उसकी, अर्थात् अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की, तीसरी जिल्द में हास्किन के विचारों की ध्यान दें, बहुत ही हमददी भरी-आलोचना में देखा जा सकता है। राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ब्रिटिश समाजवादियों से मार्क्स का वही संबंध या जो इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या के क्षेत्र में आगस्त वियेरी, गीज़ो या मिग्ने से था। इन दोनों क्षेत्रों में ये लोग मार्क्स के गुरु नहीं, बस अग्रगामी हैं जिन्होंने आगे चलकर मार्क्स द्वारा खड़े किए गए वैज्ञानिक ढाँचे के लिए कुछ सामग्री और यह सच है कि बहुत मूल्यवान सामग्री तैयार की थी। जहाँ तक मार्क्स के अग्रगामियों का सवाल है, पूँजी द्वारा उजरती श्रम के शोषण के सवाल के वैज्ञानिक समाधान के इतिहास पर विचार करते समय हमें खुद को 19वीं सदी के पूर्वार्थ के ब्रिटिश समाजवादियों तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। 17वीं सदी के कुछ अंग्रेज़ लेखक पहले ही इस शोषण के चरित्र और उद्गम की एक ख़ासी साफ़ समझ का परिचय दे चुके थे। मिसाल के लिए गेरार्ड विंस्टैनली की रचना दला आफ़ फ्रीडम इन ए प्लेटफार्म आर टू मैजिस्ट्रेसी रिस्टोर्ड हंबली प्रेजेंटेड टू ओलिवर कामयेल (लंदन, 1651, पृ. 12) देखें। प्रोपोजल्स फ़ार रेज़िंग ए कालेज आफ़ इंडस्ट्री आफ आल यूजफुल ट्रेड्स एंड हस्बैंड्री विद प्राफ़िट फ़ार द रिच, ए लेटीफुल लीविंग फ़ार द पुअर एंड द गुड एजुकेशन फ़ार यूथ (लंदन, 1695, पृ. 21), और अंत में जान बेलर्स की रचना एस्सेज़ अबाउट द पुअर, मेन्यूफ़क्चर्स, ट्रेड, प्लांटेशंस एंड इम्माटेलिटी एटसेट्रा (लंदन, 1699, पृ. 5-6) देखें। मार्क्स ने अपना आर्थिक सिद्धांत उपर्युक्त रचनाओं के लेखकों से उधार लिया था ऐसी महान 'खोज' करने की अभी तक किसी ने ज़हमत नहीं उठाई है जो अजीब बात है।
50. मार्क्स, पूर्वोक्त, पृ. 238 देखें।
51. प्रकृतितंत्रवाद पूँजीवादी शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की एक प्रकृति था जिसका जन्म फ्रांस पैरवी की, संरक्षणवाद में 1750 की दहाई में हुआ। मुक्त व्यापार और मुक्त आवागमन के विचार के पहले प्रतिपादक यही लोग थे। इस प्रवृत्ति के प्रतिनिधियों ने निजी स्वामित्व के अबाध शासन का विरोध किया तथा व्यापार और प्रतियोगिता की स्वतंत्रता की माँग को। इनका विरोध करनेवाले काब्रिएल बोनो दे मैबली (1709-1785) फ्रांसीसी काल्पनिक साम्यवाद के एक प्रतिनिधि थे-संपादक।
52. एवे दे मैबली की रचना Doutes proposes aux philosophes economistes sur Forrenaturel
काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 123
et essential dex societes politiques. 1768 पृ. 15 देखे।
53. बैचूफ के सिद्धांत का विश्लेषण : जनता की श्रद्धांजलि (फ्रांसीसी) देखें जो एफ ब्योनारोती की सुप्रसिद्ध पुस्तक प्रेक्स और बराबरवालों का षड्यंत्र (फ्रांसीसी) के परिशिष्ट रूप में प्रकाशित हुई थी। मेरे पास 1869 का पेरिस संस्करण है जो थोड़ा सा संक्षिप्त है।
54. ग्रैक्चस बक्यूफ उपर्युक्त पु. 70
55. उपर्युक्त, पृ. 48 और 501
56. कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र (हिंदी), देखें।
57. जन्म 17 अक्टूबर 1700 को 19 मई 1825 को देहावसान
58. सेक्योर जल्द एक, पृ. 245 देखें।
59 जन्म 1809 में 1866 में देहावसान
60: जन्म 1811 में 1882 में देहावसान
61. Histoire de disans, 1830-1840 चोदा संस्करण, जिल्ट , पृ. 4 की टिप्पणी
62. जन्म 1806 में, 1863 में देहावसान
63: जन्म 1797 में 1871 में देहावसान
64, कुबेर तंत्र (फांसीसी), बोलक, 1848, पृ. 25 देखें इस पुस्तक का पहला संस्करण 1815 में प्रकाशित हुआ था।
65 रूस की संसद (यू) में निम्न-पूँजीवादी जनवादियों का एक समूह दोविक कहलाता था। इसमें मुख्यतः कुछ ऐसे किसान और बुद्धिजीबी शामिल थे जिनका झुकाय नरोदनिक विचारों की ओर था। ये दाविक तमाम जागीरों और राष्ट्रीय प्रतिबंधों के उन्मूलन की माँग करते थे। उनकी खेतिहर सुधार की माँग भूमि के समतामूलक बंदोबस्त तथा हरजाना देकर निजी भूस्वामियों की भूमि पाने जैसे नरोदैनिक विचारों पर आधारित थी। स्थानीय स्वशासन का लोकतंत्रीकरण बुदोविकों की एक और महत्वपूर्ण मांग था-संपादक।
66 जन्म 1908 में 1895 में देहावसान
67. फ्रांस में राजनीति का पतन (फ्रांसीसी), पेरिस, 1886, पृ. 161
68 सेत-साइमन की चुनी हुई रचनाएँ (फ्रांसीसी) सेल्स 1859 जिल्द 1. पृ. 20-21
69. जोर हमारा
70. राजनीतिक पत्राचार 1885-1840 (फ्रांसीसी), पेरिस, 1949, पृ. 6
71. सर्वहारा के ऐसे विचारों की गूँज अलेक्सांद्र हर्जुन की कुछ रचनाओं में सुनी जा सकती है।
72. शाल फुरिये की संपूर्ण रचनाएँ (फांसीसी), पेरिस, 1841, जिल्द 4, पृ. 191-921
73. सेत-साइमन की चुनी हुई रचनाएँ पूर्वोक्त, जिल्द एक, पृ. 271
74. फ्रांस में शासन और वास्तविक संचालन (फांसीसी), पेरिस, 1820, पृ. 297
75. उपर्युक्त पुस्तक की प्रस्तावना देखें।
76 जन्म पोसा में 1761 में, पेरिस में वर्ष 1837 में देहावसान
77. फ्रांसीसी क्रांति के दौरान तीसरी राष्ट्रीय सभा (नेशनल असेंबली) की कनवेंशन कहा जाता था। यह सितंबर 1792 में स्थापित हुई और 26 अक्तूबर 1795 तक कायम रही। फ्रांस में जनता के प्रतिनिधित्व की एक उच्चतर संस्था कही जाने वाली इस कनवेंशन ने ही पहले फ्रांसीसी गणराज्य की घोषणा की थी। निर्ममता के साथ सामंतवाद का उन्मूलन तथा हर तरह के प्रतिक्रांतिकारी और समझौतावादी तत्वों का खात्मा कनवेंशन के प्रमुख कार्य थे। वास्तव में कनवेंशन के इन्हीं कदमों के बाद फ्रांस की बुर्जुवा क्रांति इंग्लैंड की बुवा क्रांति के मुकाबले अधिक मूलगामी नज़र आने सी-संपादक।
124 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ
78. इस पुस्तक का पूरा शीर्षक Histoire de la conspiration pour egalite, dite de Babeaf. sulivie du proces aaquel elle a donne lieu है--संपादक।
79. इसके बारे में चेनॉव की फ्रांसीस पुस्तक फ्रांस का गणराज्यवादी पक्ष, पैरिस, 1901, पृ. 80-89, 281-92 देखें। मगर ध्यान रहे कि श्री बेनॉव ने यूवाद और संत-साइमनबाद के प्रति उनकी के रवैये का गलत वर्णन किया है।
80. जन्म 1805 में, जनवरी 1881 को नन
81. फ्रांस में राजनीति का पतन (फ्रांसीसी), पूर्वोक्त, पृ. 63; ज़ोर कॉसिदेरी का।
82. फ्रांसीसी समाजवाद के इतिहासकारों ने देज़ामी के बारे में बहुत कम बातें कही है हालांकि कुछ मुआमलों में उनके विचार गहराई से ध्यान देने योग्य हैं। मुझे अफसोस है कि स्थान की कमी मुझे उनकी शिक्षाएँ प्रस्तुत करने से रोक रही है। मैं बस इतनी बात कहूँगा किसी और के मुकाबले उनको शिक्षाएँ कहीं अधिक स्पष्ट रूप से यह दिखाती हैं कि फ्रांस के काल्पनिक समाजवादियों के विचारों का, और खासकर उनके बामपंथ अर्थात् साम्यवादियों के विचारों का 18वीं सदी के फ्रांसीसी भौतिकवादियों से कितना गहरा संबंध था देजामी ने मुख्यतः हेल्थेतियस को अपना आधार बनाया जिन्हें ये एक दिलेर प्रवर्तनकर्ता और अमर चिंतक मानते थे। देज़ामी की प्रमुख रचना साम्यवाद का कोड (फ्रांसीसी) पेरिस से 1845 में प्रकाशित हुई थी। उन्होंने 1841 में समाचारपत्र L Humanitaire का प्रकाशन शुरू किया था। दिलचस्प बात यह है कि बाबर भाइयों के साथ अपने शास्त्रार्य में मायर्स ने देज़ामी की विचार प्रवृत्ति को वैज्ञानिक करार दिया था। (यहाँ प्लेखानोव का इशारा नो बाधेर और एडगर बार की ओर है जो 'युवा हेगेलवाद' के प्रमुख प्रतिनिधि थे और उनके खिलाफ मार्क्स और एंगेल्स ने पवित्र परिवार लिखकर मोर्चा लिया था-संपादक)
83. जन्म 1788 में 1856 में देहावसान
84. इकारियों की यात्रा (फ्रांसीसी), 1855, पृ. 565 देखें शब्दों पर जोर खुद कावे का है। यह पुस्तक पहली बार मार्च 1842 में प्रकाशित हुई थी। काबे की रचनाओं में सबसे मशहूर रचना यही है; इसमें एक काल्पनिक समाजवादी समाज की जीवन शैली का वर्णन किया गया है। (यहाँ यह बात याद रखने की है कि काबे ने अमरीका में अपनी कल्पनाओं की कम्युनिस्ट वस्तियों बसाने की कोशिश की थी मगर नाकाम रहे संपादक )
85. जनता की स्वतंत्र कार्रवाई के बारे में ब्यूनारोती के दृष्टिकोण के बारे में पाल रादिवये की रचना Buonarroti et la sects des Egone d' apres les documents inedits (पॅरिस, 1910) में पृ. 282 पर लेखक की दिलचस्प टिप्पणी देखें।
86. 'अंधी परंपरा ने अभी तक जिसे अतीत में रख छोड़ा है, वह स्वर्णयुग हमारे आगे है। यह वाक्य संत-साइमन की दार्शनिक-ऐतिहासिक विचार प्रणाली की एक प्रमुख स्थापना को व्यक्त करता है। उनकी रचना साहित्य दर्शन और उद्योग संबंधी विचार में यही बाक्य आरंभ में ही दर्ज मिलता है। संत-साइमनवादी पत्रिका से प्रोदक्तियोर (उत्पादक) के मुखपृष्ठ पर भी यही बाक्य छपा सेता था। सात्तिकोय-शेंद्रिन ने अपने एक निबंध में इसी वाक्य का जिक्र करते हुए कहा था कि संत-साइमन, कावे और फूरिये आदि के फ्रांस ने ही 'हमारे अंदर मानवता में आस्था की भावना जगाई, यहाँ से हमें यह आस्था प्राप्त हुई कि 'स्वर्ण युग' हमारे पीछे नहीं, बल्कि हमारे आगे हैं. ...संक्षेप में, जो कुछ अच्छा है, जो कुछ इच्छा करने योग्य है और जो कुछ प्रेम से भरपूर है, यह सब यहीं से आया संपादक।
87. संत-साइमन की रचनाओं में इसके बस इशारे ही मिलते हैं, हम पहले ही कह चुके हैं कि कुछ मुआमलों में संत-साइमन के अनुयायी अपने गुरु से बहुत आगे निकल गए थे।
88. संत-साइमन का सिद्धांत प्रस्तुति (फ्रांसीसी), पेरिस, 1854, पृ. 207 देखें।
काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 135
89. साम्यवाद का कोड, पूर्वोक्त, पृ. 491
90. कभी-कभी इस इंद्रिय-सुख को ही कल्पनावादी ढंग से पेश किया जाता था, मिसाल के लिए स्त्री-पुरुष संबंधों में इनफैतिन की कुछ फंतासियों में लेकिन बुनियादी तौर पर इससे अभिप्राय "यहीं इसी परती पर रहकर स्वर्ग के साम्राज्य की ओर आरोहण करना था ये शब्द हाइने के हैं जिन्होंने थोड़ा आगे चलकर इनका प्रयोग किया था। प्रसंगवश पियरे लेरो की रचना मानवता (फ्रांसीसी), 1845 का संस्करण, जिल्द 1, पृ. 176 और आगे देखें (यहाँ प्लेखानोव का इशारा हाइनरिख हाइने की कविता 'जर्मनी शरद-कथा' की ओर है-संपादक )
91. संत-साइमन का सिद्धांत, पूर्वोक्त, पृ. 255
92. शाल फूरिये की संपूर्ण रचनाएँ जिल्द 5, पृ. 1-84 आन रिदम, पृ. 75-80
93. उनको रचना कलाकारों के बारे में प्रबंध (फ्रांसीसी) देखें जो पहली बार रिव्यू इनसाइक्लोपेडिक के नवंबर-दिसंबर 1831 के अंकों में छपा था तथा उनकी रचनाओं की पहली जिल्द (पेरिस, 1850) में पुनप्रकाशित हुआ था। यहाँ दिया गया उद्धरण पृ. 66 पर मिलता है।
94. उपर्युक्त, पृ. 671
95. ऐसे ही विचार आगे चलकर एन जी चेनशेरकी और काउंट लेव तालस्ताय ने व्यक्त किए थे।
96. उपर्युक्त, पृ. 65-67
97. हमें पता है कि 1840 की दहाई में प्रमुख रूसी पश्चिमवादी' (वेस्टर्नर्स) पियरे तेरो के प्रति अत्यंत श्रद्धा भाव रखते थे जिसे उन्होंने (ज़ारशाही सेंसर को धता बताने के लिए संपादक) सावधानी बरतते हुए 'लाल वालोंवाले प्योत्र' का छद्मनाम दे रखा था। निश्चित ही उनकी हमदर्दियों सिर्फ़ उनके साहित्यिक विचारों तक सीमित नहीं थी। लेकिन यह बता देने में कोई नुकसान नहीं कि वे सौंदर्यशास्त्र के बुनियादी प्रश्नों को लेकर भी लेरो के विचारों से सहमत थे। (पश्चिमवादी रूस के उन बुद्धिजीवियों को कहा जाता था जो यह समझते थे कि रूस के विकास का रास्ता वही होगा जो पश्चिमी यूरोप का रहा है तथा रूस भी पूँजीवाद की अवस्था से गुज़रेगा। इस तरह पश्चिमवादी बाद के नरोदनिकों के ठीक मुकाबले में खड़े नज़र आते हैं। रूसी सामाजिक चिंतन में पश्चिमवाद की प्रवृत्ति मध्य-19वीं सदी में अपने चरम सीमा पर थी तथा बेलिस्की इसके प्रमुख प्रतिनिधियों में गिने जाते हैं। रूस में प्रचलित भूदास प्रथा की तुलना में पश्चिमवादी पूँजीवादी व्यवस्था के प्रगतिशील चरित्र पर जोर देते थे। भूदास प्रथा के ये कट्टर आलोचक थे तथा इस प्रथा के उन्मूलन के लिए उन्होंने जबरदस्त प्रचार कार्य किया। निकोलाई गोगोल (1809-1852) का अमर उपन्यास मुर्दा रूहें इसी प्रथा की असंगतियों पर एक तीखी चोट की हैसियत रखती है। पश्चिमी यूरोप में प्रचलित राजनीतिक व्यवस्थाएं संभव हो तो फ्रांस जैसी पूंजीवादी संसदीय, अन्यथा ब्रिटेन जैसी संविधानिक राजतांत्रिक व्यवस्था पश्चिमवादियों का राजनीतिक आदर्श यो संपादक)
98. Considerations sur Werther et en general sur la poesie de notre epoque , पहले 1839 में और फिर लेरो की रचनाओं की पहली जिल्द में पृ. 131-51 पर प्रकाशित हुआ था। 'कता के लिए कला के अह-माय संबंधी टिप्पणी पृ. 497 पर मिलती है।
99) उपर्युक्त पृ. 450
100. यहाँ खानी अपने लेख विचारकवाद से भौतिकवाद तक का हवाला दे रहे हैं जिसे उन्होंने मिर प्रकाशन के लिए 1915 में लिखा और जो 1917 में प्रकाशित हुआ। लेकिन इस लेख में 'सच्चे समाजवादियों का जिक्र नहीं मिलता। समाजवादियों के इस संप्रदाय का एक संक्षिप्त उल्लेख मार्क्स और गेस ने कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र (1848) में किया है-संपादक।
101. बर्नहार्ड बेकर, जर्मनी में 1888 की क्रांति की प्रतिक्रिया (जर्मन), ब्राउनश्याइग, 1873, पृ. 68 देखें।
102. जन्म 1908 में, 1849 में अमरीका चले गए. 1871 में देहावसान
126 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ
103. जन्म 1813 में, 1837 में देहावसान; ये आगे चलकर शोहरत पानेवाले लुडविग ब्यूखनर के भाई थे। 104. यहाँ प्लेखानोव का इशारा मूलतः रूसी नरोदनिकों की ओर है-संपादक। 105. संविधानवादी जर्मनी के राजनीतिक एकीकरण के लिए प्रयासरत थे। (उन दिनों जर्मनभाषी जनता
कोई चार दर्जन छोटे-छोटे राज्यों में बंटी हुई थी हालांकि कुछेक राज्यों ने आपस में एक महासंघ बना रखा था। इन जर्मन राज्यों में प्रशा सबसे बड़ा और सबसे शक्तिशाली था तथा प्रशा के राजनीतिज्ञ ओटो फ़ान बिस्मार्क (1815-1898) ने ही, जिसका सूत्रवाक्य 'लोहा और खून था, इन तमाम राज्यों का बलात् एकीकरण किया। यही बिस्मार्क 1871 से 1890 तक जर्मन साम्राज्य का चांसलर रहा संपादक )
106. उपर्युक्त पुस्तक के न्यूयार्क संस्करण (1851) का पृ. 7 देखें।
107. दस किसानों से एक 'लुग' (Zug) बनेगा, और वे एक जुग का नेता (Zugfuher) नियुक्त करेंगे; ऐसे दस 'जुगफ्यूहरर' मिलकर एक 'आर्केरमान' (Ackermann) नियुक्त करेंगे: सी आकरमान मिलकर एक 'लादविर्टशाफ्ट्सराठ' नियुक्त करेंगे, वगैरह-वगैरह। (वाइटलिंग, उपर्युक्त पृ. 32 देखें ।) बाइटलिंग के भावी समाज में खेतिहर कामों का संगठन इसी प्रकार का होगा। वे जीवन के दूसरे पक्षों का भी इसी तरह विस्तार से वर्णन करते हैं। मुझे इन सबका उद्धरण देने की कोई तुक दिखाई नहीं देती।
108. उपर्युक्त, पृ. 301
109. उनकी प्रमुख रचना Garanties der Harmonic and Freiheit (सामंजस्य और स्वतंत्रता की ज़मानत) देखें जो 1812 के अंतिम दिनों में प्रकाशित हुई थी। बाइटलिंग की जन्म शताब्दी के अवसर पर 1908 में यह बर्लिन से पुनप्रकाशित हुई जिसमें (फ्रांज़) मेहरिंग द्वारा लिखा गया जीवन परिचय भी था और उन्हीं की जोड़ी हुई टिप्पणियाँ भी थीं। वस्तुओं के वितरण के बारे में फ़रिये की योजना का हवाला इस संस्करण के पृ. 224-25 पर मिलता है।
110. उपर्युक्त, पृ. 226-271
111. उपयुक्त, पृ. 2351
112. उपर्युक्त, पृ. 255-361
113. इस विषय पर तथा इसके बारे में दूसरे कम्युनिस्टों के दृष्टिकोण पर जी एडलर की रचना Die Geschichte der ersten sozialpolitischen Arbeiterbewegung in Deutschland mit beson deren Ryucksicht any die cinwirkenden Theorien, ग्रेसलाव, 1885, पृ. 43-44 देखें में यहाँ यह भी जोड़ दूं कि खुद बाइटलिंग ने जल्द ही अपनी 'नयी कार्यनीतियों की पैरवी करना बंद कर दिया।
114. इस विषय पर बायरन की The Corsair के रूसी अनुबाद में आई इवानोव की भूमिका देखें। एफ्रोन ब्रोकहाउस द्वारा रूसी में प्रकाशित वायरन की संपूर्ण रचनाएँ संत पीतसंवर्ग, 1904, पृ. 274-76 देखें।
115. मार्क्स और एंगेल्स, संकलित रचनाएँ (अंग्रेज़ी), मास्को, 1973 पृ. 178 देखें
116. जन्म 1805 में; 1875 में देहावसान।
117. जोर रोडवर्टस का।
118. Zur Erkenninis पृ. 28-29 की टिप्पणी।
119, Zur Beleuchtung dev sozialen Frage, बर्लिन, 1875, पृ. 25 देखें। यह पुस्तक 1850-51 में प्रकाशित फ़ान फिचमान के नाम सामाजिक पत्र (जर्मन) का पुनर्मुद्रण है। इसमें दूसरे और तीसरे पत्र शामिल हैं। मूलतः इसमें तीन पत्र थे। रोडबर्टस की मृत्यु के बाद Das Kapital (पूँजी) बर्लिन, 1884 के शीर्षक से एक चौथा पत्र भी प्रकाशित हुआ।
काल्पनिक समाजवाद की धाराएं / 127
120. Zeitschrift fur die gesammte Staorwissenschafi, 1878 पहला और दूसरा खंड, पृ. 345 देखें रोडबर्टस की पुस्तिका Der normal Arbeitstag (काम का सामान्य दिन) भी इसमें पुनप्रकाशित किया गया है।
121. Zur Erkenninis पृ. 38-391
122. इनफैतिन के पहले दर्ज किए गए विचारों से तुलना करें।
123. रुडोल्फ मेयर, पूर्वोक्त, जिल्द 2, पृ. 579 देखें।
124. रोडबर्टस के बारे में मार्क्स की रचना दर्शन की निर्धनता के जर्मन अनुवाद में एंगेल्स की भूमिका देखें। इस पुस्तक का रूसी अनुवाद बी आई जासुलिच ने किया है जिसे मैंने संपादित किया है। (उपर्युक्त पुस्तक के मास्कों से 1975 में प्रकाशित अंग्रेजी संस्करण में पृ. 9-24 देखें-संपादक) साथ ही मार्क्स की रचना अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत, जिल्द 2, पहले भाग का दूसरा परिच्छेद (तहज़ांनी यानी ग्राउंड रेट) देखें (ब्योरीज़ आफ़ सरप्लस वैल्यू, जिल्द 2, मास्को, 1975, पृ. 15-113 देखें-संपादक) रूसी भाषा में स्वर्गीय एन आई सिबेर ने (यूरिदिवेस्की वैस्तनिक में) और मैंने (ओवेस्तयेन्निये जापिस्की में) 1880 की दहाई में रोडवर्टस के विचारों को सबसे पहले प्रस्तुत किया था। (यूरिदिधेस्की वैस्तनिक एक उदारवादी पूँजीवादी मासिक पत्रिका थी जो मास्को से 1867 से 1892 तक प्रकाशित होती रही। ओस्तवेन्निये जापिस्की सेंत पीतर्सवर्ग से 1820. से 1884 तक प्रकाशित होने वाली पत्रिका थी। 1839 और 1846 के बीच यह अर्थ- साहित्यिक और अर्थ राजनीतिक पत्रिका अपने दौर की बेहतरीन प्रगतिशील पत्रिकाओं में गिनी जाती थी। इसके संपादकों में विस्सारियों बेलिस्की और अलेक्सांद्र हर्जुन जैसे दिग्गज भी रह चुके थे। 1563 में इसका संपादन संभालने के बाद मिखाइल सात्तीको शैद्रिन और निकोलाई नेक्रासोब ने इसे एक जनवादी क्रांतिकारी पत्रिका बना दिया-संपादक) मेरे लेख संग्रह बीस वर्ष में (जो बेतीव के छद्मनाम से प्रकाशित हुए थे), पृ. 503-647 पर मेरे रोडवर्टस संबंधी लेख भी शामिल है। इनके अलावा टी कोजूक, Rodbertus sozialokonomische Ansichten (बेना, 1882) स्यागं एडलर, Rodbertus der Begiunder des wissenschafilichen Socialismaes (लाइपज़िंग, 1883); frue, Karl Rodbertus, Darstellung seines Lebens and seiner Lehre (, 1886-87, दो जिल्दों में) बैंक, Rodbertuns (स्टुटगार्ट, 1899), गोनर, Social Philosophy of Rodbertus (लंदन, 1899) भी देखें।
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