Saturday, 2 January 2021

कवि मार्गरेट वाकर (1915-1998) की कविता : अपने लोगों के लिये

अफ्रीकी-अमेरिकी महिला कवि मार्गरेट वाकर (1915-1998) की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कविता :

अपने लोगों के लिये
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अपने उन लोगों के लिये
जो गाते हैं हर कहीं अपनी दासता के गीत
निरन्तर : अपने शोकगीत और पारंपरिक गीत
अपने विषाद गीत और उत्सव-गीत,
जो दोहराते आ रहे हैं प्रार्थना के गीत हर रात
किसी अज्ञात ईश्वर के प्रति,
घुटनों पर बैठ कर आर्त्त भाव से
किसी अदृश्य शक्ति के सामने;

अपने उन लोगों के लिये
जो देते आ रहे हैं उधार अपनी सामर्थ्य वर्षों से,
बीते वर्षों और हाल के वर्षों और संभावित वर्षों को भी,
धोते इस्तरी करते खाना पकाते झाड़ू-पोंछा करते
सिलाई मरम्मत करते फावड़ा चलाते 
जुताई खुदाई रोपनी छंटाई करते पैबन्द लगाते
बोझा खींचते हुए भी जो न कमा पाते न चैन पाते हैं
न जानते और न ही कुछ समझ पाते हैं;

बचपन में अलबामा की 
मिट्टी और धूल और रेत के अपने जोड़ीदारों के लिये 
आंगन के खेल-कूद बपतिस्मा और धर्मोपदेश और चिकित्सक
और जेल और सैनिक और स्कूल और ममा और खाना
और नाट्यशाला और संगीत समारोह और दूकान और बाल
और मिस चूम्बी एंड कंपनी के लिये;

तनाव और कौतूहल से भरे उन वर्षों के लिये 
जब हम दाखि़ल हुए स्कूल में पढ़ाई के लिये
क्यों के कारणों और उत्तरों और कौन से लोग
और कौन सी जगह और कौन से दिन को 
जानने के लिये, उन कड़वे दिनों को याद करते हुए
जब हमें पहली बार मालूम हुआ कि हम 
अश्वेत और गरीब और तुच्छ और भिन्न हैं 
और कोई भी हमारी परवाह नहीं करता
और किसी को हम पर अचंभा नहीं होता
और कोई भी समझता ही नहीं हमें;

उन लड़कों और लड़कियों के लिये
जो इन सबके बावज़ूद भी पलते रहे बढ़ते रहे
आदमी और औरत बनने के लिये
ताकि हंसें और नाचें और गायें और खेलें और
कर सकें सेवन शराब और धर्म और सफलता का,
कर सकें शादी अपने जोड़ीदारों से और 
पैदा करें बच्चे और मर जायें एक दिन
उपभोग और एनीमिया और लिंचिंग से;

अपने उन लोगों के लिये जो कसमसाते हैं 
भीड़भाड़ में शिकागों की सड़कों पर और 
लेनॉक्स एवेन्यू में और न्यू ओरलीन्स की
परकोटेदार गलियों में, उन गुमशुदा
वंचित बेदख़ल और मगन लोगों के लिये
जिनसे भरे हैं शराबख़ाने और चायख़ाने और
अन्य लोग जो मोहताज़ हैं रोटी और जूतों
और दूध और ज़मीन के टुकड़े और पैसे और 
हर उस चीज़ के लिये जिसे कहा जा सके अपना;

अपने उन लोगों के लिये,
जो बांटते फिरते हैं ख़ुशियां बेपरवाह होकर,
नष्ट कर देते हैं अपना समय क़ाहिली में,
सोते हैं भूखे-प्यासे, बोझा ढोते चिल्लाते हैं,
पीते हैं शराब नाउम्मीदी में,
जो बंधे हुए, जकड़े और उलझे हैं हमारे ही बीच के
उन अदृश्य मनुष्यों की बेड़ियों में
हमारे ही कंधों पर होकर सवार जो
बनते हैं सर्वज्ञानी और हंसते हैं;

अपने उन लोगों के लिये जो
करते हैं गलतियां और टटोलते 
और तड़फड़ाते हैं अंधेरों में
गिरजाघरों और स्कूलों और क्लबों
और समितियों, संस्थाओं और परिषदों
और सभाओं और सम्मेलनों के,
जो हैं दुखी और क्षुब्ध और ठगी के शिकार
और जिन्हें निगल लिया है धनपशुओं
और प्रभुता के भुक्खड़ जोंकों ने,
जिन्हें लूटा जा रहा है
राज्य के हाथों प्रत्यक्ष बल-प्रयोग से
और छला जा रहा है झूठे 
भविष्यवक्ताओं और धार्मिक मतवादियों द्वारा;

अपने उन लोगों के लिये
जो जुटे हैं इकट्ठा हैं प्रयासरत हैं
एक ऐसे बेहतर मार्ग के निर्माण के लिये
जो कि बाहर निकाल सके उन्हें
भ्रमजाल से, पाखंड और ग़लतफ़हमी से,
जो प्रयासरत हैं एक ऐसी दुनिया बनाने के लिये
जो जगह दे सके तमाम लोगों, तमाम शक्लों
तमाम आदमों और ईवों
और उनकी बेहिसाब पीढ़ियों को भी;

एक नयी पृथ्वी का उदय होने दो।
पैदा होने दो एक और दुनिया को।
एक रक्तिम शान्ति को 
अंकित हो जाने दो आसमान पर।
साहस से भरी अगली पीढ़ी को आने दो आगे,
होने दो संवर्द्धन एक ऐसी आज़ादी का 
भरा हो अनुराग जिसमें जन-जन के लिये।
राहत से भरी हुई सुन्दरता को 
और उस शक्ति को जो निर्णयकारी हो
हो जाने दो स्पंदित हमारी आत्माओं में
और ख़ून में हमारे।
आओ कि अब लिखे जायें गीत प्रयाण के,
जिनमें तिरोहित हो जायें शोक के गीत।
अब हो जाना चाहिये उद्भव तत्क्षण
इन्सानों की एक प्रजाति का 
और सम्भाल लेना चाहिये जिम्मा शासन का उसे। 

(अंग्रेज़ी से अनुवाद– राजेश चन्द्र, 26 दिसम्बर, 2018)

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