** वर्गीय समझ की जरूरत**
** लेनिन **
**लोग राजनीति में सदा छल और आत्म प्रवंचना के नादान शिकार हुए है और तब तक होते रहेंगे ,जब तक वे तमाम नैतिक ,धार्मिक ,राजनीतिक और सामाजिक कथनों,घोषणाओं और वायदों के पीछे किसी न किसी वर्ग के हितों का पता लगाना नहीं सीखेंगे। **
( लेनिन,,संकलित रचनाएं,खंड 4, ,,पृष्ठ 199)
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राजनीतिक भंडाफोड़
लेनिन,,123,,
,,,,स्वयं राजनीतिक भंडाफोड़ उस व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने का एक शक्तिशाली साधन है,जिसका हम विरोध करते हैं,वे दुश्मन से उसके आकस्मिक अथवा अस्थाई सहयोगियों को अलग करने का साधन हैं,वे निरंकुश सरकार के स्थाई साझेदारों के बीच दुश्मनी और अविश्वास फैलने का साधन हैं।,,
,,लेनिन ,क्या करें?, पृष्ठ,117,,
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लेनिन,,121,,
,,वह आदमी सामाजिक जनवादी नहीं है,जो यह भूल जाता है कि ,कम्युनिस्ट हर क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन करते हैं,इसलिए हमारा कर्तव्य है कि अपने समाजवादी विश्वासों को एक क्षण के लिए भी न छिपाते हुए ,हम समस्त जनता के सामने आम जनवादी कार्यभारों की व्याख्या करें और उन पर जोर दें।वह आदमी सामाजिक जनवादी नहीं हो सकता ,जो वास्तव में यह भूल जाता है कि सभी आम जनवादी समस्याओं को उठाने ,उन्हें आगे बढ़ाने और हल करने में उसे और सब लोगो से आगे रहना है।,,
,,लेनिन,,क्या करें ? पृष्ठ109,,
* चाहे जिसके लिए हो न्याय की आवाज बनें!*
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जनवादी गणतन्त्र
"…जनवादी गणतन्त्र (नागरिकों के बीच) सम्पत्ति के भेदों का औपचारिक रूप से कोई लिहाज़ नहीं करता। उसमें सम्पदा अपनी शक्ति का परोक्षतः, परन्तु और भी निश्चित रूप से, उपयोग करती है। एक ओर, इस रूप में कि वह अधिकारियों को सीधे भ्रष्ट करती है (जिसका क्लासिकीय उदाहरण अमेरिका पेश करता है), दूसरी ओर, सरकार तथा स्टॉक एक्सचेंज में गठबन्धन के रूप में।"
एंगेल्स (परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति
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"जनवादी गणतन्त्र "तर्क की दृष्टि से" पूँजीवाद का विरोधी है, क्योंकि "औपचारिक रूप से" वह अमीर और ग़रीब को बराबरी का दर्जा देता है। अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक ऊपरी ढाँचे के बीच यह एक अन्तरविरोध है। साम्राज्यवाद तथा गणतन्त्र के बीच भी यही अन्तरविरोध है, जो इस वजह से और भी गहरा और तीखा हो गया है कि स्वतन्त्र प्रतियोगिता से एकाधिकार में रूपान्तरण सभी राजनीतिक स्वातन्त्रयों की प्राप्ति को और भी "दुष्कर" बना देता है।
तब फिर जनवाद के साथ पूँजीवाद की संगति कैसे बैठायी जाती है? पूँजी की सर्वशक्तिमत्ता को परोक्ष रूप से क्रियान्वित करके! इसके दो आर्थिक साधन हैं: 1) सीधे-सीधे रिश्वत देना; 2) सरकार तथा स्टॉक एक्सचेंज का गठबंधन। (यह बात हमारी प्रस्थापनाओं में इस तरह कही गयी हैः पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत वित्तीय पूँजी "किसी भी सरकार को और किसी भी अधिकारी को आज़ादी के साथ रिश्वत दे सकती है और ख़रीद सकती है"।) अगर माल-उत्पादन का, बुर्जुआ वर्ग का, पैसे की शक्ति का बोलबाला है, तो रिश्वतख़ोरी (सीधे-सीधे या स्टॉक एक्सचेंज की मार्प़फ़त) किसी भी तरह की सरकार के अन्तर्गत, किसी भी तरह के जनवाद के अन्तर्गत "सम्भव" है।
लेनिन (मार्क्सवाद का विद्रूप और साम्राज्यवादी अर्थशास्त्र)
लेनिन के दो उद्धहरण
पूँजीवाद और ख़ास तौर से साम्राज्यवाद जनवाद को भ्रम बना देता है, हालाँकि पूँजीवाद उसके साथ ही जन साधारण में जनवादी आकांक्षाएँ पैदा करता है, जनवादी संस्थाओं की सृष्टि करता है, जनवाद को अस्वीकृत करने वाले साम्राज्यवाद तथा जनवाद की आकांक्षा करने वाले जन साधारण के बीच विरोध को संगीन बनाता है। पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का तख़्ता अत्यन्त "आदर्श" जनवादी परिवर्तनों द्वारा भी नहीं, बल्कि केवल आर्थिक क्रान्ति द्वारा उलटा जा सकता है। लेकिन जो सर्वहारा वर्ग जनवाद के संघर्ष में शिक्षित नहीं है, वह आर्थिक क्रान्ति सम्पन्न करने में असमर्थ है।…."
"…जनवाद की समस्या का मार्क्सवादी हल यह है कि अपना वर्ग संघर्ष चलाने वाला सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ वर्ग का तख़्ता उलट देने की तैयारी करने और अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ़ सभी जनवादी संस्थाओं और आकांक्षाओं का इस्तेमाल करे। ऐसा इस्तेमाल कुछ आसान काम नहीं है। "अर्थवादियों", तोलस्तोयपंथियों इत्यादि को यह बात अकसर उसी तरह "बुर्जुआ" और अवसरवादी विचारों के लिए अक्षम्य रियायत प्रतीत होती है जिस तरह "वित्तीय पूँजी के युग में" राष्ट्रीय आत्मनिर्णय की वक़ालत प. कीयेव्स्की को बुर्जुआ विचारों के लिए अक्षम्य रियायत प्रतीत होती है। मार्क्सवाद हमें सिखाता है कि मौजूदा, पूँजीवादी समाज की बुर्जुआ वर्ग द्वारा सृजित और विकृत की जाने वाली जनवादी संस्थाओं के इस्तेमाल को तिलांजलि देकर "अवसरवाद से लड़ने" का अर्थ है अवसरवाद के सामने पूर्णतः घुटने टेक देना!"
('प. कीयेव्स्की (यू.प्याताकोव) को जवाब', 'मज़दूर आन्दोलन में जड़सूत्रवाद और संकीर्णतावाद का विरोध' संकलन)
लेनिन, क्या करें?, 'कठमुल्लावाद और 'आलोचना की स्वतन्त्रता'' (1901)
लेनिन, क्या करें?, 'कठमुल्लावाद और 'आलोचना की स्वतन्त्रता'' (1901)
"हम एक छोटे-से समूह में एक ढलान भरे और मुश्किल रास्ते पर मार्च कर रहे हैं, एक दूसरे का हाथ मज़बूती से पकड़े हुए। हम हर तरफ़ से शत्रुओं से घिरे हैं और हमें लगभग लगातार उनकी गोलाबारी के बीच आगे बढ़ना है। हम शत्रु से लड़ने के मकसद से एक मुक्त रूप से अपनाये गये निर्णय से साथ आये हैं, न कि आस-पास के उस दलदल में जाने के लिए जिसके निवासी शुरू से ही हमें एक अलग समूह में अलग हो जाने के लिए और मेल-मिलाप की बजाय संघर्ष का रास्ता चुनने के लिए धिक्कारते रहे हैं। और अब हममें से ही कुछ लोग चीख-चिल्लाहट मचा रहे हैं: चलो दलदल में चलें! और जब हम उन्हें शर्मसार करना शुरू करते हैं, तो वे कठोरता से प्रत्युत्तर देते हैं: कैसे पिछड़े लोग हो तुम! क्या तुम्हें हमारी इस आज़ादी को छीनने पर शर्म नहीं आती कि हम तुम्हें एक बेहतर रास्ते पर ले जाने का आमन्त्रण दे रहे हैं! ओह, हाँ, भद्रजनो! आप हमें आमन्त्रण देने के लिए ही नहीं बल्कि जहाँ भी आपको जाना है, वहाँ जाने के लिए स्वतन्त्र हैं, यानी दलदल में। दरअसल, हमें लगता है कि दलदल ही आपकी सही जगह है, और हम वहाँ पहुँचने आपको हर मदद देने को तैयार हैं। बस हमारा हाथ छोड़ दीजिये, हमें पकड़ कर मत रखिये और महान शब्द आज़ादी को मैला मत करिये, क्योंकि हम भी जहाँ चाहें जाने को "आज़ाद" हैं, न सिर्फ़ दलदल के विरुद्ध लड़ने के लिए बल्कि उनके ख़िलाफ़ लड़ने के लिए भी जो दलदल की ओर मुड़ रहे हैं!"
सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में चुने हुए उद्धरण
वी.आई. लेनिन
जो लोग केवल वर्ग संघर्ष को मानते हैं, वे अभी मार्क्सवादी नहीं है, वे सम्भवत: अभी बुर्जुआ चिन्तन और बुर्जुआ राजनीतिक के दायरे में ही चक्कर काट रहे हैं। मार्क्सवाद को वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त तक ही सीमित करने के मानी हैं मार्क्सवाद की काट–छाँट करना, उसको तोड़ना–मरोड़ना, उसे एक ऐसी चीज़ बना देना, जो बुर्जुआ वर्ग को मान्य हो। मार्क्सवादी केवल वही है, जो वर्ग संघर्ष की मान्यता को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की मान्यता तक ले जाता है। मार्क्सवादी और एक साधारण छोटे (और बड़े) बुर्जुआ के बीच सबसे गम्भीर अन्तर यही है। यही वह कसौटी है जिस पर मार्क्सवाद की वास्तविक समझ और मान्यता की परीक्षा की जानी चाहिए।
– राज्य और क्रान्ति, (अगस्त–सितम्बर, 1917)
सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व एक अत्यन्त नि:स्वार्थ और निर्मम युद्ध है, जो एक नया वर्ग अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु, बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ चलाता है, जिसकी पराजय से (भले ही वह केवल एक देश में पराजित हुआ हो) उसका प्रतिरोध दस गुना बढ़ जाता है और जिसकी शक्ति न केवल अनतरराष्ट्रीय पूँजी की शक्ति में, बुर्जुआ वर्ग के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों की ताकत और मजबूती में, बल्कि आदत की ताकत में, छोटे पैमाने के उत्पादन की शक्ति में भी निहित है। कारण कि दुर्भाग्य से, छोटे पैमाने का उत्पादन अब भी दुनिया में बहुत, बहुत बचा हुआ है और यह छोटे पैमाने का उत्पादन लगातार हर दिन, हर घण्टे, अपनेआप और बड़े पैमाने पर पूँजीवाद और बुर्जुआ वर्ग को पैदा करता रहता है। इन सभी कारणों से, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व अत्यन्त आवश्यक है, और एक लम्बा, कठोर, और निर्मम युद्ध चलाये बिना जीवन और मरण की लड़ाई लड़े बिना, एक ऐसी लड़ाई लड़े बिना, जिसमें धैर्य, अनुशासन, अदम्य साहस और इच्छा की एकता की आवश्यकता होती है, बुर्जुआ वर्ग पर विजय पाना असम्भव है।
– "वामपन्थी" कम्युनिज्म, एक बचकाना मर्ज़,
(अप्रैल–मई, 1920)
…पूँजीवाद से समाजवाद में हर संक्रमण के दौरान दो मुख्य कारणों से, या दो मुख्य रास्तों से अधिनायकत्व जरूरी होता है। पहला, पूँजीवाद को तब तक हटाया और मिटाया नहीं जा सकता जब तक उन शोषकों के प्रतिरोध का निर्ममतापूर्वक दमन न किया जाये, जिन्हें एकाएक उनकी सम्पत्ति से, संगठन और ज्ञान के उनके लाभों से वंचित नहीं किया जा सकता, और फलत: जो काफी लम्बे समय तक अपरिहार्यत: गरीबों के घृणित राज को उखाड़ फेंकने की कोशिश करते रहेंगे। दूसरे, यदि बाह्य युद्ध न भी तो भी, किसी भी महान क्रान्ति, खासकर समाजवादी क्रान्ति की कल्पना आन्तरिक युद्ध, यानी गृहयुद्ध के बिना नहीं की जा सकती, जो बाह्य युद्ध से भी ज़्यादा विनाशकारी होता है, और जिसमें ढुलमुलपन और एक पक्ष को छोड़कर दूसरे पक्ष में चले जाने के दसियों लाख मामले होते हैं, तथा अत्यधिक अनिश्चितता, सन्तुलन का अभाव और अराजकता अन्तर्निहित होते हैं। और बेशक, पुराने समाज के विघटन से निकले सभी तत्व, जो अपरिहार्यत: असंख्य होते हैं और मुख्यत: निम्न–बुर्जुआ से जुड़े होते हैं (क्योंकि हर युद्ध और हर संकट सबसे पहले निम्न बुर्जुआ को तबाह–बर्बाद करता है) ऐसी किसी व्यापक क्रान्ति के दौरान "मजे लूटे" बिना नहीं रह सके। और विघटन के ये तत्व अपराध, गुण्डागर्दी, भ्रष्टाचार, मुनाफाखोरी और हर किस्म की बदमाशियों के बना "मज़ा" नहीं "लूट" सकते। और उन्हें दबाने में समय लगता है और इसके लिए लोहे के हाथों की जरूरत होती है।
दुनिया में एक भी ऐसी महान क्रान्ति नहीं हुई है जिसमें लोगों ने सहज प्रेरणा से इस बात को जान न लिया हो, और चोरों को फौरन गोली से उड़ाकर शानदार दृढ़ता का परिचय न दिया हो। पिछली क्रान्तियों का यह दुर्भाग्य था कि जनसाधारण का क्रान्तिकारी उत्साह, जो उन्हें तनाव की स्थिति में बनाये रखता था और उन्हें विघटन के तत्वों का निर्ममतापूर्वक दमन करने की शक्ति प्रदान करता था, ज्यादा दिनों तक टिका नहीं रहता था। जनसाधारण के क्रान्तिकारी उत्साह की इस अस्थिरता का सामाजिक, यानी वर्गीय कारण था सर्वहारा वर्ग की कमजोरी, क्योंकि केवल वही (यदि वह पर्याप्त संख्या में, वर्ग सचेत और अनुशासित हो) मेहनतकश तथा शोषित जनता की बहुसंख्या को (और सीधे–सरल तथा लोकप्रिय ढंग से कहें, तो गरीबों की बहुसंख्या को) अपनी ओर खींच सकता है तथा सत्ता को इतने समय तक कायम रख सकता है जो सभी शोषकों तथा विघटन के सभी तत्वों को पूरी तरह दबाने के लिए पर्याप्त हो।
सभी क्रान्तियों के इसी ऐतिहासिक अनुभव, इसी विश्व–ऐतिहासिक–आर्थिक एवं राजनीतिक सबक का समाहार करते हुए मार्क्स ने अपना संक्षिप्त, तीक्ष्ण, और अभिव्यंजनापूर्ण सूत्र दिया : सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व।
– सोवियत सरकार के तात्कालिक कार्यभार (मार्च–अप्रैल 1918)
शोषकों, जमींदारों और पूंजीपतियों का वर्ग सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत न तो लुप्त हुआ है और न तत्काल लुप्त हो सकता है। शोषकों को चकनाचूर तो कर दिया गया है, परन्तु उनका उन्मूलन नहीं हुआ है। उनके पास अन्तर्राष्ट्रीय आधार बचा हुआ है, यह है अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी, जिसकी वे एक शाखा हैं। उनके पास उत्पादन के कुछ साधनों का एक भाग बचा हुआ है, उनके पास धन बचा हुआ है, उनके पास विशाल मात्रा में सामाजिक संबंध हैं। ठीक उनकी पराजय के कारण उनके प्रतिरोध की स्फूर्ति सौगुनी, हजार गुनी बढ़ी है। राजकीय, सैनिक, आर्थिक प्रशासन की ''कला'' उनका पलड़ा बहुत ज्यादा भारी बनाती है, जिसकी वजह से उनका महत्व आबादी की आम संख्या में उनके हिस्से से अतुलनीय रूप से अधिक है। शोषितों के विजयी हरावल के विरुद्ध, याने सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध शोषकों का, जिनका तख्ता उलटा जा चुका है, वर्ग संघर्ष अपरिमित रूप से अधिक कटु बन गया है। अन्यथा हो भी नहीं सकता, बशर्ते क्रांति की अवधारणा के स्थान पर (जैसा कि दूसरे इंटरनेशनल के सारे सूरमा करते हैं) सुधारवादी भ्रम न रख दिये जायें।
– सर्वहारा अधिनायकत्व के युग में अर्थनीति और राजनीति, (अक्टूबर, 1919)
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