"यदि पूंजीवाद कृषि का विकास कर सकता, जो आज हर जगह उद्योग से बेहद पिछड़ी हुई है, यदि वह जनसाधारण के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठा सकता, जिन्हें आज भी आश्चर्यजनक तकनीकी उन्नति के बावजूद हर जगह भरपेट भोजन नहीं मिलता और जो दरिद्रता का शिकार है, तो पूंजी के अतिरेक का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता। ..... परंतु यदि पूंजीवाद वह सब कुछ करता तो वह पूंजीवाद न होता, क्योंकि आसमान विकास और जनसाधारण के जीवन का अर्धभूखमरी का स्तर इस उत्पादन प्रणाली की आधारभूत तथा अनिवार्य शर्त तथा पूर्ववस्थाए है। जब तक पूंजीवाद रहेगा, पूंजी का किसी देश-विशेष के जनसाधारण के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए इस्तेमाल नही किया जाएगा, क्योकि उसका मतलब होगा पूंजीपतियों के मुनाफे में कमी, बल्कि उस्काइस्तेमाल पिछड़े हुए देशों में पूंजी का निर्यात करके मुनाफा बढ़ाने के लिये किया जाए गा। इन पिछड़े हुए देशो में मुनाफे आम तौर पर उनके होते है, क्योंकि वहां पूंजी का आभाव रहता है, जमीन की कीमत अपेक्षाकृत कम होती है, मजदूरी बहुत कम होती है, कच्चा माल सस्ता होता है।" लेनिन (साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था)
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