Tuesday, 10 December 2024

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 



*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.*

Joseph Stalin, the Soviet Union's feared and revered leader, had died on March 5, 1953, leaving behind a nation in mourning. The funeral procession, held on March 9, was a grand spectacle, with millions gathering to bid farewell to the man who had shaped the Soviet Union's destiny for nearly three decades.

The streets of Moscow were packed with people from all walks of life, from high-ranking officials to ordinary citizens. The atmosphere was somber, with many visibly grief-stricken. The procession began at the Kremlin, where Stalin's body lay in state, and wound its way through the city's main streets.

The sheer scale of the gathering was staggering. Estimates suggest that over 1 million people attended the funeral, with many more lining the streets to catch a glimpse of the procession. The crowd was so dense that it took hours for the procession to make its way through the city.

The funeral procession was a testament to Stalin's enduring impact on the Soviet Union. Stalin had left an indelible mark on the nation's history. 

As the procession made its way through the city, the mood was tense. Many feared that Stalin's death would lead to a power struggle, and the future of the Soviet Union hung in the balance. Yet, for now, the nation was united in its grief, paying tribute to a leader who had shaped their lives for so long.

The funeral procession was a fitting tribute to Stalin's larger-than-life persona. It was a spectacle that would be remembered for years to come, a testament to the enduring power of the Soviet Union's greatest personality.

Friday, 15 November 2024

पंडितों से वैदिक रीति से शादी करवाना अपराध है

*🔥पंडितों से वैदिक रीति से शादी करवाना अपराध है🔥*

   *In 1819, by the Act 7, the Brahmins prohibited the purification of the women.  (On the marriage of the Shudras, the bride had to give her physical service at the house of Brahmin for at least three nights without going to her mother's house.)*
    *ब्रिटिश सरकार ने 1819 में अधिनियम 7 से, ब्राह्मणों द्वारा शूद्र स्त्रियों के शुद्धिकरण पर रोक लगाई। (शूद्रों की शादी होने पर दुल्हन को अपने पति यानि दूल्हे के घर न जाकर कम से कम तीन रात ब्राह्मण के घर शारीरिक सेवा देनी पड़ती थी।)*
    इस विषय पर एक फिल्म बन चुकी है। कुछ लोगों ने प्रतिक्रिया स्वरूप मुझे यह भी कहा कि आप शूद्रों को कलंकित करने वाली छिपी बुराइयों से पर्दा हटाकर और भी कलंकित कर रहे हैं। कुछ हद तक आपका सोचना सही भी हो सकता है। लेकिन मेरा मक़सद केवल यह बताना है कि एक पीढ़ी का अत्याचार दूसरी-तीसरी पीढ़ी के लिए आस्था और परम्परा बनती चली आ रही है। यह परंपरा इतनी खतरनाक है कि अत्याचार एक कहानी मात्र बनकर रह जाती है और जहां अत्याचार करने वाला देवता सिद्ध कर दिया जाता है और वहीं अत्याचार सहनेवाला नीच-दुष्ट पापी मान लिया जाता है। भारत में ब्राह्मणों द्वारा कहे जाने वाले विवाह के सारे मंत्र स्त्री विरोधी हैं। सप्तपदी और चौथी की परम्पराएँ स्त्रियों के लिए न केवल कलंक हैं बल्कि शूद्रों के लिए जीवित अपमान भी हैं। दुर्भाग्य यह है कि अपमानित होनेवाला, इन परम्पराओं को ओढ़कर ही गौरव महसूस कर रहा है। ब्राह्मण इसलिए मेरी बात से बौखलाता है, क्योंकि मैं उसके द्वारा प्रचारित और थोपी गई गुलामी से लोगों को मुक्त करने का अभियान चला रहा हूँ, जिसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि, ब्राह्मणों की परजीवी अर्थव्यवस्था मिटेगी। जब शूद्र उसके मंत्रों और पोथी-पत्रों को अपने जीवन में निषेध कर देगा, तब या तो पुरोहित ब्राह्मण भूखे मरेगा या फिर मेहनत-मशक्कत कर जीविका चलाने की कोशिश करेगा। वह असल में मुझसे इसीलिए खौफ खाता है कि, मैं शूद्र होने में, ब्राह्मण से नींच होने की नीचता का अनुभव नहीं करता, लेकिन इस मिशन के माध्यम से, सदियों से बहिष्कृत, वंचित और अपमानित अपने भाई-बंधुओं से जुड़ रहा हूँ। इस जुडने से ब्राह्मण का धर्म खतरे में पड़ रहा है। उसका चातुर्वर्ण खतरे में पड़ रहा है।
गौर कीजिये कि जब तक ब्राह्मण हम लोगों को शूद्र कहकर अपमानित करता रहा, तब तक उसका धर्म खतरे में नहीं था, क्योंकि उसके अपमान से बचने के लिए हम सभी अपनी - अपनी जातीय पवित्रता तलाश रहे थे। यह जातीय पवित्रता ही दरअसल ब्राह्मणवाद  का सबसे बड़ा हथियार रहा है। वह क्षत्रियों की एकता से खतरे में कभी नहीं पड़ेगा, क्योंकि जो भी अपने को क्षत्रिय साबित करेगा, वह ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बनाए बिना संभव नहीं है। आज तक सभी शूद्रों से घृणा करते रहे हैं। यहाँ तक कि शूद्र भी शूद्रों से घृणा करते रहे हैं। यह घृणा ही ब्राह्मणवाद का सबसे मजबूत आधार है। लेकिन जब मैंने अपने नाम के आगे शूद्र लिखा तो मेरे अंदर शूद्रों के लिए गहरी संवेदना, प्रेम और भ्रातृत्व पैदा हुआ। अचानक लगा कि मेरा परिवार करोड़ों लोगों का है। मेरा ही परिवार सबके पेट के लिए अन्न पैदा कर रहा है। वही सबके लिए कपास और रहने के लिए घर बना रहा है। मैं अपने परिवार के योगदान पर जितना गौरवान्वित हूँ, उसकी वंचना, पीड़ा और बहिष्कार से उतना ही आहत हूँ।
लेकिन पिछले कुछ सालों से, मैं देख रहा हूँ कि ब्राह्मण मेरी पोस्ट पर कूद-कूद कर आते हैं और बहस करने की कोशिश करते हैं । हारते हैं तो गाली देकर भाग जाते हैं। फिर वे किसी क्षत्रिय बनने वाले शूद्र को मेरे पीछे लगाते हैं, लेकिन मैं यह साफ-साफ देख रहा हूँ कि मेरे आंदोलन से ब्राह्मणों में घबराहट है। उन्हें उम्मीद भी नहीं थी कि, यह शूद्र एकता का इतना बड़ा आधार है, जो एक न एक दिन ब्राह्मणवाद को उखाड़़ फेंकेगी। इसलिए जिनको शूद्रवाद का भूत सता रहा है, उनको भी मैं कहना चाहूँगा कि अपने अपमानों को पहचानें और अपने बिछड़े हुए भाइयों से जुड़ जाएँ।
      मैं अपनी उम्र के लोगों को इस बात की याद दिलाना चाहता हूँ। साथ ही साथ यह भी कहना चाहता हूँ कि, आज की पीढ़ी के लोग अपने दादा-परदादा या अपने आसपास के बुजुर्गों से इस बात की जानकारी ले सकते हैं और उनसे पूछ भी सकते हैं।
40-50 साल पहले या उसके आसपास के समय में शादी के बाद विदाई के समय बेटियाँ या लड़कियां राग अलापते हुए जो दर्दनाक, हृदयविह्वल रुलाई रोती थीं कि, पूरा माहौल रोने लगता था। मैं खुद ऐसी परिस्थितियों से गुजर चुका हूँ। इस बात को सोचकर बुरा भी लगता था कि बेटी के सुखी दाम्पत्य के लिए एक अच्छा दूल्हा और परिवार खोजने में जिस बाप के जूते-चप्पल घिस जाते थे। घर-द्वार तक बिक जाते थे। ऐसी खुशहाली के समय यह मातम भरी रूलाई क्यों? यह प्रश्न अक्सर मेरे जेहन में आता था। अक्सर लड़की नीचे लिखी पंक्तियाँ रोते हुये कहती थी। रुलाई के समय गाई जाने या कही जाने वाली बातें अपने बुजुर्ग माता या दादी से सुन सकते हैं..
  *माई-रे-माई.., काहें कोखिया में जन्मवली रे माई…*
  *जन्मवते काहें न गलवा दबाई देहली रे माई…*
 *..काहे न जहरवा देई देहली रे माई…*
 *इ दिन काहें के देखे देहली रे माई…*
  *माई-रे-माई, कांंहे कोखिया में जन्मवली रे माई…*
.*.काहे न कुंववा में फेक देहली रे माई..*
.*.कांहे कोखिया में जन्मवली रे माई... आदि*।
   हमें एक भी विद्वान ब्राह्मण कोई एक मंत्र बता दें, जो शादी के समय, आंधी-तूफान, आग, बारिश या किसी भी अन्य अनहोनी घटना से बचा सके। या फिर शादी के बाद तलाक की नौबत न आने पाए।
      धीरे-धीरे लड़कियों के शिक्षित होते जाने और समय के बदलाव के साथ ऐसी परंपरावादी रुलाइयां कम या कहें तो लगभग बंद होती जा रही हैं।
    आपको जानकर आश्चर्य होगा कि ऐसी पारम्परिक रुलाई के पीछे, सदियों से चली आ रही ब्राह्मणवादी अय्याशी औरअत्याचार था।
पहले की शादियाँ हिंदू वैदिक रीति से  12-13 की उम्र में ही हो जाया करती थी। शुद्धिकरण के लिए दुल्हन पहले दूल्हे के घर न जाकर, ब्राह्मण पुरोहित के यहां तीन दिन तक के लिए जाती थी। चाहे पुरोहितों की उम्र 70 की हो या वजन 80 किलो की। दुल्हन जो 12-13 वर्ष की 30-35 किलोग्राम से ज्यादा की नहीं होती रही होगी। भाग्य और भगवान द्वारा निर्धारित, धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं के कारण उसकी सेवा करना उस नयी नवेली दुल्हन की मजबूरी होती थी। इस सेवा के उपरांत कुछ कमजोर लड़कियों की मौत भी हो जाती थी।
    विदाई के समय हृदयविह्वल रुलाई का कारण यही था कि वह भाग्य और भगवान द्वारा बनाई गई परम्परा के अनुसार किसी जल्लाद के यहां जा रही होती थी। तीन दिन बाद जब दुल्हन अपने ससुराल पति के यहां जाती थी, तभी दुल्हन का भाई या पिता चौथे दिन उसकी तबीयत या दयनीय हालात जानने के लिए साथ में कुछ मिठाई या साज-समान के साथ उसके ससुराल जाता था। फिर उनको देखते ही वही दिल को दहला देने वाली रुलाई का सामना बाप या भाई को करना पड़ता था।
*द अर्ल आफ मोइरा ने 1819 में एक्ट 7 कानून बनाकर इस प्रथा को बन्द कराया था*। 
   यह परम्परा आज भी परम्परागत चौथी के नाम पर चल रही है। परम्परा को मानने वाले कभी इस परम्परा के कारणों को जानना नहीं चाहते, बल्कि चौथी की यह परम्परा आज तो बहुत ही विस्तार, दिखावे और उत्साह के साथ निभाई जा रही है।
   यह भी एक मुख्य कारण था कि शूद्रों के पहले पुत्र को गंगा-दान रीति रिवाज के अनुसार गंगा, जमुना या किसी अन्य नदी में जिन्दा फिंकवा दिया जाता था।
   *लार्ड बिलियन बैंटिक ने इस हत्या को 1835 में कानून बनाकर बन्द करवाया।*
     कलेक्टेड वर्क्स ऑफ डा० अम्बेडकर वोल्यूम-17 में लिखा है कि,
   *ऐसी प्रथा को हिंदू लोग अपनी इज्जत और भाग्य समझते थे। यहां तक कि राजा लोग भी अपनी रानियों का कौमार्य भंग कराने या शुद्धिकरण के लिए ब्राह्मण को अपने महलों में निमंत्रण देकर गाजे-बाजे के साथ बुलाते थे।*
   शादी के समय पढ़ा जानें वाला मंत्र भी देख लीजिए।
   *ॐ श्री गणदिपत गणपति गुंगवा महे, गणतुआ गुंगवा महे, वर कन्यायाम गुंगवा महे!*
   *पणतुआ वसहु मम जान, गर्भधम्रांतु इदम कन्यादेव अर्पण सक्षमेव, गर्भाधिम इति वरं समर्पयामि।।*
    सामान्य हिन्दी भाषा में अर्थ –
*ओम् श्री गणेश जी, घर का मुखिया गूंगा-बहरा है, इसके रिश्तेदार गूंगे-बहरे हैं। वर-कन्या भी गूंगी-बहरी है। प्राणों से प्रिय, तुम मेरे मन में बसी हो, मुझे जानो। मैं कन्या को गर्भवती करने में सक्षम हूं। इस कन्या को मुझे अर्पण कर दो। मैं इसे गर्भवती कर के वर को समर्पित कर दूंगा।*
पुरोहित बोलो- स्वाहा (स्व-आ-हा) यानि लड़की  के माता-पिता से जो मांगा गया है, वह दो।
 कन्या का पिता कहता है- स्वहा (स्व-हा), मेरी-हां यानि जो ब्राह्मण द्वारा मांगा गया उसे दे दिया।
   यही नहीं, आज भी शादी के वक्त वधु से सातों वचन जो दिलाए जाते हैं, उसमें सबसे पहला और मुख्य वचन यह होता है।
 पहला वचन-
   *मैं अपने पुरोहित की, उनकी इच्छा अनुसार दान-दक्षिणा, सेवा सत्कार करती रहूंगी, उसमें पतिदेव का कोई हस्तक्षेप नहीं  होगा।*
   इस वचन को लेकर शादी के समय कई बुद्धिजीवियों द्वारा विरोध जताने पर अब इस वचन को समझदार पंडितों ने निकाल दिया है।
    मैंने कई बार शादी के समय ऐसे वचनों और नियमों का विरोध किया है। कई बार माहौल खराब होने के डर से मैं खुद शादी के समय मंडप में आग्रह करने के बाद भी नहीं जाता हूं।
     *इसी पहले वचन के कारण आज भी पत्नियां, पति से ज्यादा अपने पंडित, पुरोहित की बातों  को तवज्जो देती हैं। इसलिए पाखंडी व्रत, पूजा -पाठ, सत्संग और त्योहारों को लेकर कई बार पतियों से मनमुटाव भी हो जाता है। कभी-कभी तो सामाजिक प्रतिष्ठा को देखते हुए और पत्नी की जिद के आगे, पति बेचारे को मजबूरी में झुकना पड़ जाता है। इसलिए पाखंड और अंधविश्वास को बढ़ावा देने में घर की महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान रहता है।*
    पंडितों द्वारा वैदिक मंत्रों से शादी का जो 4-5 घंटे तक कार्यक्रम चलाया जाता है, वह सिर्फ अपनी पेट-पूजा के उद्देश्य से, लोगों को बेवकूफ, अंधविश्वासी, पाखंडी बनाने और सभी से अपना पैर पूजवाकर, अपने से सभी को नीच बनाने का एक षड्यंत्र मात्र है। यहां तक कि नीचता का ऐसा घिनौना अपराध जो शादी के समय मधुपर्क विधान के अनुसार, लड़की के बुजुर्ग बाप से दामाद का पैर धुलवाए जाते हैं, जिसे चरणामृत या पादोदक भी कहा जाता है।
  *अकाल मृत्यु हरणं सर्व व्याधि विनाशनम्*।
*विप्रो पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न लिहयते।।*
   अर्थात पादोदक पीने से अकाल मृत्यु नहीं होती, सभी रोगों का विनाश हो जाता है और पुनर्जन्म भी नहीं होता है।
    मान्यता है कि इस चरणामृत को पीकर कन्यादान करने वाला, अपना दिन भर का व्रत उपवास खत्म करता है। कहीं-कहीं यह भी प्रथा है कि दुल्हन की मां, अपनी बेटी का पैर पखारकर, उसी पानी को पीकर अपना दिन भर का उपवास व्रत तोड़ती थी। अब इस चरणामृत को कोई पीता नहीं है, पंडित कहता है मुंह से सटाकर, सर पर छिड़क लो। जब कि शास्त्रों के अनुसार चरणामृत कहीं और छिड़कना अधर्म व पाप है।
      यह विधान सिर्फ लड़की के बाप के आत्मसम्मान को नीचा दिखाने का षड्यंत्र है। हमें विद्वान ब्राह्मण कोई एक मंत्र बता दें, जो शादी के समय, आंधी-तूफान, आग, बारिश  या किसी भी अन्य अनहोनी घटना से बचा सके। या फिर शादी के बाद तलाक की नौबत न आने पाए।
    सिन्दूरदान से पहले, सबसे महत्वपूर्ण सप्तपदी और अवदान विधि होती है। पंडितों की वैदिक रीति से यह दावा होता है कि शूद्रों की सभी कुंवारी लड़कियां ब्राह्मण की सम्पत्ति होती हैं। लड़की का भाई मंत्रोच्चार से देवता पुरोहित से कहता है कि मेरी बहन को मुक्त कर दो, उसकी शादी के लिए मैंने बहुत ही अच्छा दूल्हा ढूंढ़ लिया है। उसी मौके पर पंडित लड़की को मुक्त करने के लिए लड़की वालों से 101, 501, 1001–10001 आदि हैसियत के अनुसार डिमांड करता है। मांगी गई राशि देने के बाद ही वह उसे मुक्त करता है। तभी देवी-देवताओं द्वारा  आसमान से फूलों की बारिश होती है। जिसे दोनों तरफ से लावा फेंकने के रूप में दिखाया जाता है। इसी को वैदिक मंत्रोच्चार कहा जाता है।
   *शादी के समय मंत्रोच्चार कर कन्या-दान भी अपराध है*।
*सांलकारां च भोग्या च सर्वस्त्रां सुन्दरी प्रियांम्।*
*यो ददाति च विप्राय चंद्रलोके महीवते।।*   (देवी भागवत 9/30)
अर्थात  भोग करने योग्य सुन्दर कुंवारी कन्या को वस्त्र आभूषणों सहित, जो ब्राह्मण को कन्या- दान करेगा, वह चंद्रलोक पहुंच जाएगा।
   इसी कन्यादान के कारण ही देवदासी प्रथा चालू हुई और देश भर में लाखों देवदासियां नारकीय जिन्दगी जीने को आज भी मजबूर हैं। यही नहीं, आज भी कुछ अंधभक्त अपनी बहन-बेटियों को साधु-संतों को दान देते और पुण्य कमाते हैं। इसी परम्परा से आशाराम बापू जैसे लोग पैदा होते रहते हैं।
    इसी ब्राह्मण दान के रूप में शादी के समय बाप से बेटी का दान भी कराया जाता है। 
   *क्या आपकी बेटी कोई वस्तु है जो आप दान में देते हैं? दान का मतलब ही होता है, दिया और भुला दिया, फिर कभी उसे वापस लेने या उसके बारे में सोचने या पूछताछ करने का भी अधिकार आपने खो दिया है। जब ससुराल वाले आपकी बेटी को मारते हैं, पीटते हैं, जिन्दा जलाते हैं, तब आपको घड़ियाली आंसू  बहाने का कोई औचित्य नहीं बनता है।*
     *पंडितों से शादी करवाना भी मानसिक गुलामी का सबसे बड़ा कारण है।* यही नहीं, आज के इस भगवा शासनकाल में  पंडित कभी भी शूद्रों को अच्छा आशीर्वाद या शुभकामनाएं दे ही नहीं सकता है। यदि आपने उसकी डिमांड के मनमाफिक दक्षिणा दे दिया, तब तो कुछ गनीमत  है, अन्यथा वर-वधू और पूरे परिवार को बद्ददुआएं ही देता रहता है। साथ ही साथ पाखंड, अंधविश्वास और ऊंच-नीच की भावना भी समाज में पैदा कर चला जाता है। इसलिए पंडितों से शादी-विवाह करवाना अपराध है। यही अपराध आपको ज़िन्दगी भर वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं होने देता है।
    कुछ लोग विकल्प की बात करते हैं। विकल्प के रूप में स्वतंत्रता के बाद संविधान लागू होते ही आर्टिकल 13 के अनुसार ऊंच-नीच की भावना से ग्रसित ब्राह्मण से शादी कराने पर प्रतिबंध लगाते हुए कोर्ट-मैरिज का प्रावधान किया गया है। जिसे आजतक संवैधानिक रूप से लागू ही नहीं किया गया है। संवैधानिक वचनबद्धता के साथ यह सबसे शुभ और अच्छा भी है। आपको इतना ज्ञान तो है कि शादी किसी से भी कराएं, लेकिन तलाक के लिए कोर्ट में ही जाना पड़ता है। देखने में भी आया है कि कोर्ट मैरिज का तलाक दूसरों की तुलना में बहुत ही कम होता है।आजकल बौद्ध रीति से शूद्रों में शादियों का प्रचलन खूब चल रहा है।
   यदि आप हिन्दू रीति-रिवाज से ही शादी करना या करवाना चाहते हैं तो ब्राह्मण से तो कत्तई मत करवाइये। जैसे आप रिंग सेरेमनी, बरच्छा जैसे काम बिना पंडित से करते-करवाते हैं, ठीक वैसे ही घर की औरतों से ही शादी गीत के साथ, बाराती स्वागत, मिलनी, द्वारपूजा, फिर शादी की सभी मुख्य रस्में वरमाला, सिन्दूर लगाना, सात फेरे और अन्त में वर-वधू से प्रतिज्ञा लिखित या जुबानी बुलवा दीजिए। वर-वधु के साथ पारिवारिक फोटो खिंचवाते हुए, आशीर्वाद समारोह सम्पन्न करवाते हुए शादी कीजिये।
पंडितों द्वारा बताए गए अन्य सभी ढकोसलों को बन्द कर दीजिए।   
    ब्राह्मण संस्कृत के मन्त्रों में आपको सिर्फ गाली देता है। आप हिन्दी अर्थ के साथ शादी करने का आग्रह करिए तब वह तैयार नहीं होगा। यदि पंडितों से हिंदी बताने का आग्रह करेंगे तो वे या तो गलत अर्थ बताएँगे या बताने से बचेंगे। कभी तैयार नहीं होंगे। यदि आप सही में पूरी शादी हिन्दी में समझ लिए तो यकीन मानिए, आप तुरंत ही शादी रुकवा कर पंडित को भला-बुरा कहते हुए वहां से भगा देंगे।
     इतना जानने के बाद भी कुछ मूर्ख हमें ही अपशब्द बोलते हुए अपने बाप-दादा की चली आ रही परंपरा की दुहाई देते मिल जाएंगे। कहावत भी है कि एक पीढ़ी का शोषण या अत्याचार दूसरी-तीसरी पीढ़ी के लिए श्रद्धा या परंपरा बन जाती है। इसलिए अपनी तर्कसंगत बुद्धि और पैनी नजरों से ब्राह्मणों द्वारा पैदा किए गए ऐसे सभी तरह के आडम्बर, पाखंड, अंधविश्वास, श्राद्ध के रूप में, तेरहवीं, दसवां, मृत्युभोज, पिंडदान और ऐसी अन्य परंपराओं को लात मारने में ही शूद्रों की भलाई है।
  आप के समान दर्द का हमदर्द साथी!
गूगल @ *गर्व से कहो हम शूद्र हैं*
गूगल @ *शूद्र शिवशंकर सिंह यादव*

*(निवेदन - यह लेख हम सभी लोगों से संबंधित है। लेखक ने अपना फर्ज निभाया है, अब आप की और हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि, यह मैसेज सभी लोगों तक पहुंचाया जाए। आगे भेजने के लिए धन्यवाद।*

Monday, 4 November 2024

दूरदर्शी फिल्म निर्माता: ऋत्विक घटक की स्थायी विरासत

*"दूरदर्शी फिल्म निर्माता: ऋत्विक घटक की स्थायी विरासत"*

(4 नवंबर 1925 - 6 फरवरी 1976)

एक कुशल भारतीय फिल्म निर्माता ऋत्विक घटक ने सिनेमा की दुनिया पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। उनकी रचनात्मक यात्रा एक कवि और कथा लेखक के रूप में शुरू हुई, जो बाद में एक नाटककार और निबंधकार के रूप में विकसित हुई। घटक का गणनत्य संघ और इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन जैसे प्रतिष्ठित थिएटर समूहों के साथ जुड़ाव ने फिल्म निर्देशन में उनके अंतिम बदलाव की नींव रखी।

घटक का उल्लेखनीय कार्य उनकी फिल्मों से परे है। उन्होंने सिनेमा पर 50 से अधिक निबंध लिखे, जिसमें माध्यम के हर कल्पनीय पहलू को शामिल किया गया। प्रसिद्ध फिल्म निर्माता सत्यजीत रे ने घटक के निबंधों की उनके व्यापक दायरे के लिए प्रशंसा की, जो शिल्प की उनकी गहन समझ का प्रमाण है।

अपने बहुमुखी रचनात्मक प्रयासों के माध्यम से, घटक ने कहानी कहने के लिए एक असीम जुनून और मानवीय स्थिति की खोज करने की प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया।  उनकी फ़िल्में अपनी भावनात्मक गहराई और सामाजिक वास्तविकताओं की सूक्ष्म खोज के साथ दर्शकों को आकर्षित करती रहती हैं।

भारतीय सिनेमा के इतिहास में अंकित नाम ऋत्विक घटक सिर्फ़ एक फ़िल्म निर्माता से कहीं बढ़कर थे। वे एक दूरदर्शी, विद्रोही कलाकार थे जिन्होंने यथास्थिति को चुनौती देने का साहस किया। जैसा कि हम इस सिनेमाई दिग्गज की 99वीं जयंती मना रहे हैं, उनकी विरासत को फिर से देखना ज़रूरी है, एक ऐसी विरासत जो आज भी गूंजती रहती है, ख़ासकर आज के अशांत समय में।

घटक की फ़िल्में सिर्फ़ मनोरंजन नहीं थीं; वे अपने समय की सामाजिक बुराइयों को दर्शाती हुई आईना थीं। बंगाल का विभाजन, हाशिए पर पड़े लोगों की दुर्दशा, युवाओं का मोहभंग - ये ऐसे विषय थे जो उनके काम को प्रभावित करते थे। उन्होंने मानवीय मानस में गहराई से उतरकर अतीत और वर्तमान से जूझ रहे राष्ट्र के कच्चे घावों को उजागर किया।

लेकिन घटक सिर्फ़ दुखों के इतिहासकार से कहीं बढ़कर थे।  वे सिनेमाई भाषा के साथ प्रयोग करने वाले, यथार्थवाद को अतियथार्थवाद के साथ मिलाने वाले और अपनी फिल्मों में कच्ची, गहरी ऊर्जा भरने वाले अग्रणी व्यक्ति थे। उनकी फिल्में सिर्फ़ देखी नहीं जाती थीं; उन्हें अनुभव किया जाता था।

हालाँकि, घटक की यात्रा चुनौतियों से भरी हुई थी। उनकी अडिग कलात्मक दृष्टि अक्सर उद्योग की व्यावसायिक माँगों से टकराती थी। उन्हें गरीबी, उपेक्षा और प्रतिष्ठान की उदासीनता का सामना करना पड़ा। फिर भी, वे समाज को बदलने की सिनेमा की शक्ति में अटूट विश्वास से प्रेरित होकर डटे रहे।
आज, जब फिल्म उद्योग में नासमझी भरे तमाशे और व्यावसायिक विचारों का बोलबाला है, घटक की विरासत समाज में कला की भूमिका की एक कठोर याद दिलाती है। उनकी फ़िल्में इस बात का प्रमाण हैं कि सिनेमा सामाजिक परिवर्तन के लिए एक शक्तिशाली उपकरण हो सकता है, अन्याय और उत्पीड़न को चुनौती देने का एक हथियार हो सकता है।

 घटक के शब्दों में, "कलाकार को वास्तविक दुनिया द्वारा उसे दिए जा रहे प्रभावों के प्रति मानसिक दृष्टिकोण रखना चाहिए। वह तटस्थ नहीं रह सकता। जिस क्षण वह दुनिया के साथ होगा, वह अच्छे का साथ देगा और बुरे से घृणा करेगा।" घटक की स्मृति का सम्मान करते हुए, आइए हम उनकी विरासत को आगे बढ़ाने के लिए खुद को प्रतिबद्ध करें। आइए हम ऐसी कला बनाने का प्रयास करें जो न केवल सुंदर हो बल्कि सार्थक भी हो, ऐसी कला जो यथास्थिति को चुनौती दे और सामाजिक परिवर्तन को प्रेरित करे। आइए हम सिनेमा को कॉर्पोरेट लालच के चंगुल से छुड़ाएँ और उसकी आत्मा को पुनर्स्थापित करें। एक अन्य महान कलाकार के शब्दों में, "कलाकार कोई विशेष प्रकार का व्यक्ति नहीं होता; बल्कि, एक विशेष प्रकार का व्यक्ति ही कलाकार होता है।" ऋत्विक घटक वास्तव में एक विशेष प्रकार के व्यक्ति थे, एक कलाकार जिसने सपने देखने और चुनौती देने का साहस किया। उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।  ऋत्विक घटक की कुछ सबसे उल्लेखनीय फ़िल्में इस प्रकार हैं:

- *अजांत्रिक* (1958) - जिसे "द अनमेकेनिकल" या "द पैथेटिक फ़ालसी" के नाम से भी जाना जाता है, यह फ़िल्म एक टैक्सी ड्राइवर के बारे में है जो अपनी कार के साथ एक बंधन बना लेता है।

- *बारी ठेके पालिये* (1959) - जिसे "द रनअवे" के नाम से भी जाना जाता है, यह फ़िल्म एक ऐसे युवा लड़के के बारे में है जो अपने दमनकारी परिवार से बचने के लिए कोलकाता में अपने घर से भाग जाता है।

- *मेघे ढाका तारा* (1960) - जिसे "द क्लाउड-कैप्ड स्टार" के नाम से भी जाना जाता है, यह फ़िल्म एक युवा महिला के बारे में है जो अपने परिवार की खातिर अपनी खुशी का त्याग कर देती है।

- *कोमल गांधार* (1961) - जिसे "ई-फ़्लैट" के नाम से भी जाना जाता है, यह फ़िल्म एक संगीतकार के बारे में है जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो जाता है।

 - *सुवर्णरेखा* (1965) - जिसे "गोल्डन लाइन" के नाम से भी जाना जाता है, यह फिल्म एक भाई और बहन के बारे में है जो भारत के विभाजन के दौरान अलग हो जाते हैं।

- *तिताश एकती नदीर नाम* (1973) - जिसे "ए रिवर कॉल्ड तिताश" के नाम से भी जाना जाता है, यह फिल्म एक मछुआरे के बारे में है जो बांग्लादेश में स्वतंत्रता के संघर्ष में शामिल हो जाता है।

- *नागरिक* (1977) - जिसे "द सिटिजन" के नाम से भी जाना जाता है, यह फिल्म एक ऐसे युवक के बारे में है जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो जाता है।

- *जुक्ति तक्को आर गप्पो* (1977) - जिसे "रीज़न, डिबेट एंड ए स्टोरी" के नाम से भी जाना जाता है, यह फिल्म एक ऐसे युवक के बारे में है जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो जाता है।

ये फ़िल्में घटक की अनूठी शैली और मानवीय स्थिति के बारे में शक्तिशाली कहानियाँ कहने की उनकी क्षमता को दर्शाती हैं।

*"The Visionary Filmmaker: Ritwik Ghatak's Enduring Legacy"*

(4 November 1925 - 6 February 1976)

Ritwik Ghatak, a master Indian filmmaker, left an indelible mark on the world of cinema. His creative journey began as a poet and fiction writer, later evolving into a playwright and essayist. Ghatak's involvement with esteemed theatre groups, such as Gananatya Sangha and Indian People's Theatre Association, laid the groundwork for his eventual transition to film direction.

Ghatak's remarkable body of work extends beyond his films. He penned over 50 essays on cinema, covering every conceivable aspect of the medium. Renowned filmmaker Satyajit Ray praised Ghatak's essays for their comprehensive scope, a testament to his profound understanding of the craft.

Through his multifaceted creative pursuits, Ghatak demonstrated a boundless passion for storytelling and a commitment to exploring the human condition. His films continue to captivate audiences with their emotional depth and nuanced exploration of social realities.


Ritwik Ghatak, a name etched in the annals of Indian cinema, was more than just a filmmaker. He was a  visionary, a rebel artist who dared to challenge the status quo. As we commemorate the 99th birth anniversary of this cinematic maverick, it's imperative to revisit his legacy, a legacy that continues to resonate, especially in today's turbulent times.

Ghatak's films were not mere entertainment; they were mirrors reflecting the societal ills of his time. The Partition of Bengal, the plight of the marginalised, the disillusionment of the youth – these were the themes that haunted his work. He delved deep into the human psyche, exposing the raw wounds of a nation grappling with its past and present.

But Ghatak was more than just a chronicler of suffering. He was a pioneer, experimenting with cinematic language, blending realism with surrealism, and infusing his films with a raw, visceral energy. His films were not just watched; they were experienced.

However, Ghatak's journey was fraught with challenges. His uncompromising artistic vision often clashed with the commercial demands of the industry. He faced poverty, neglect, and the indifference of the establishment. Yet, he persisted, driven by an unwavering belief in the power of cinema to transform society.
Today, as the film industry is increasingly dominated by mindless spectacle and commercial considerations, Ghatak's legacy serves as a stark reminder of the role of art in society. His films are a testament to the fact that cinema can be a powerful tool for social change, a weapon to challenge injustice and oppression.

In the words of Ghatak himself, "The artist has to have a mental attitude towards the impressions being provided to him by the actual world. He cannot remain neutral. The moment he is with the world, he will side with the good and detest the bad."
As we honor Ghatak's memory, let us commit ourselves to carrying forward his legacy. Let us strive to create art that is not just beautiful but also meaningful, art that challenges the status quo and inspires social change. Let us reclaim cinema from the clutches of corporate greed and restore its soul.
In the words of another great artist, "The artist is not a special kind of person; rather, a special kind of person is an artist." Ritwik Ghatak was indeed a special kind of person, an artist who dared to dream and dared to challenge. His legacy will continue to inspire generations to come.
 
Here are some of the most notable films by Ritwik Ghatak:

- *Ajantrik* (1958) - Also known as "The Unmechanical" or "The Pathetic Fallacy," this film is about a taxi driver who forms a bond with his car.
- *Bari Theke Paliye* (1959) - Also known as "The Runaway," this film is about a young boy who runs away from his home in Kolkata to escape his oppressive family.
- *Meghe Dhaka Tara* (1960) - Also known as "The Cloud-Capped Star," this film is about a young woman who sacrifices her own happiness for the sake of her family.
- *Komal Gandhar* (1961) - Also known as "E-Flat," this film is about a musician who becomes involved in the Indian independence movement.
- *Subarnarekha* (1965) - Also known as "Golden Line," this film is about a brother and sister who become separated during the Partition of India.
- *Titash Ekti Nadir Naam* (1973) - Also known as "A River Called Titash," this film is about a fisherman who becomes involved in the struggle for independence in Bangladesh.
- *Nagarik* (1977) - Also known as "The Citizen," this film is about a young man who becomes involved in the Indian independence movement.
- *Jukti Takko Aar Gappo* (1977) - Also known as "Reason, Debate and a Story," this film is about a young man who becomes involved in the Indian independence movement.

These films showcase Ghatak's unique style and his ability to tell powerful stories about the human condition.

Sunday, 3 November 2024

अलविदा दीपावली 2024

ज़रा अदब से उठाना इन बुझे दियों को

बीती रात इन्होंने सबको  रोशनी दी थी

किसी को जला कर खुश होना अलग बात है

इन्होंने खुद को जला कर रोशनी की थी

कितनों ने खरीदा सोना
मैने एक 'सुई' खरीद ली

सपनों को बुन सकूं
उतनी 'डोरी' खरीद ली

सबने बदले नोट
मैंने अपनी ख्वाहिशे बदल ली

शौक- ए- जिन्दगी' कम करके
सुकून-ए-जिन्दगी' खरीद ली...

माँ लक्ष्मी से एक ही प्रार्थना है..

धन बरसे या न बरसे..
पर कोई गरीब..
दो रोटी के लिए न तरसे..

🙏🏻अलविदा दीपावली 2024🙏🏻

Thursday, 31 October 2024

दीपावली और मजदूर वर्ग


दीपावली, रोशनी का त्यौहार, जहाँ हम अपने घरों को सजाने और प्रदर्शनी में पड़ोसी से आगे बढ़ने के उत्साह से भर देते हैं। यह त्यौहार हिंदू परंपरा, मिथकों और मौसमी चक्रों का मिश्रण है—भगवान राम के अयोध्या आगमन से लेकर देवी लक्ष्मी की पूजा तक के मिथकों से भरा हुआ। यह त्यौहार अंधकार पर प्रकाश की जीत का प्रतीक है, लेकिन मौजूदा समय में दिखावे और प्रशंसा का अवसर बन गया है।  वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि बताती है कि त्यौहार का समय प्राचीन कृषि चक्रों,  और कीटों को दूर रखने की पर्यावरणीय आवश्यकता के साथ मेल खाता है। 

आज दीपावली त्योहार को मुख्यतः मिथकों से जोड़कर देखा जाता है, जबकि इसके वैज्ञानिक और कृषि संबंध लगभग विस्मृत कर दिए गए हैं। 

दीपावली, जिसे कभी आस्था, परंपरा, और सामाजिक बंधन के रूप में मनाया जाता था, पूंजीवादी परिवेश में यह आज व्यावसायीकरण का शिकार हो गया है। अब यह त्योहार आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बन गया है, जहां बाजार की चकाचौंध और उपभोक्तावाद ने इसके मूल भाव को धूमिल कर मुनाफा कमाने का अवसर बना दिया है। इस व्यावसायिकरण में पारंपरिक मिट्टी के दीयों की जगह अब इलेक्ट्रॉनिक लाइट्स, लक्जरी गिफ्ट्स, और महंगे उपहारों ने ले ली है। यह बदलाव न केवल दीपावली के पारंपरिक मूल्यों से हमें दूर कर रहा है, बल्कि त्योहारी उत्सव को आर्थिक सामर्थ्य के प्रदर्शन का प्रतीक बना दिया है।

ऑनलाइन शॉपिंग, ई-कॉमर्स सेल्स, और ब्रांडेड उत्पादों के विशेष ऑफर्स ने उपभोक्तावाद को और बढ़ावा दिया है। छोटे व्यापारियों और कारीगरों की जगह बड़े-बड़े ब्रांड्स ने ले ली है, जिससे इस त्योहार की लोकल इकोनॉमी को नुकसान हुआ है। ग्रीन पटाखों की बात हो या पर्यावरणीय जागरूकता, सब कुछ अब व्यावसायिक लाभों में लिपटा हुआ प्रतीत होता है।

दीपावली का यह व्यावसायीकरण एक ऐसे समाज की ओर इशारा करता है जो सांस्कृतिक जड़ों से दूर और बाजार की चमक में उलझा हुआ है।

दीपावली का राजनीतिकरण और उसके साथ "भगवाकरण" भारतीय समाज में त्योहारों के सांप्रदायिकरण का चिंताजनक संकेत है। जो त्योहार कभी भारतीय संस्कृति और एकता का प्रतीक थे, वे अब राजनीतिक एजेंडे के विस्तार का साधन बनते जा रहे हैं। दीपावली, जो ऐतिहासिक रूप से एक सांस्कृतिक और धार्मिक त्योहार के रूप में मनाई जाती रही है, अब कुछ शक्तियों द्वारा हिन्दू पहचान के प्रतीक के रूप में उपयोग की जा रही है। इसने त्योहारों को धार्मिक और सांप्रदायिक मुद्दों में उलझा दिया है, जिससे उनमें विभाजनकारी राजनीति घुलती जा रही है।

इस राजनीतिकरण का एक गहरा प्रभाव मुस्लिम व्यापारियों के बहिष्कार के रूप में भी सामने आया है। जहाँ त्योहार कभी सभी समुदायों के व्यापारियों के लिए लाभ का अवसर होते थे, अब कुछ संगठन बहिष्कार की अपील कर रहे हैं, जो गहरे सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा दे रहा है। यह न केवल भारत की विविधता और सहिष्णुता के आदर्शों के खिलाफ है, बल्कि अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है।

 दीपावली, जो भारत में धन, समृद्धि और खुशी का प्रतीक मानी जाती रही है, अक्सर मजदूर वर्ग के लिए एक विपरीत परिप्रेक्ष्य में भी प्रस्तुत होती है। जहाँ उच्च और मध्यम वर्ग दीपावली को उत्सव, सजावट और उपहारों के साथ मनाते हैं, वहीं मजदूर वर्ग के लिए यह पर्व कठिन श्रम और आर्थिक चुनौतियों का प्रतीक बन जाता है। दीपावली की तैयारियों में सबसे अधिक श्रम और योगदान इन्हीं मजदूरों का होता है—चाहे वो पटाखे बनाने वाले मजदूर हों, सजावट और मिट्टी के दीये बनाने वाले कारीगर हों, या घरों और दुकानों की साफ-सफाई करने वाले लोग हों।

यहाँ एक विरोधाभास उभरता है—दीपावली जो रोशनी और खुशहाली का पर्व है, उन्हीं के लिए अक्सर आर्थिक और सामाजिक अंधकार का कारण बनती है। मजदूर वर्ग कई बार इस उत्सव के दौरान भी न्यूनतम मजदूरी में अधिक काम करने को विवश होता है, ताकि उनके परिवार के लिए आजीविका चल सके। दूसरी ओर, पटाखा और सजावट के निर्माण में लगे मजदूरों के लिए यह पर्व खतरनाक स्वास्थ्य जोखिम भी लाता है, क्योंकि वे अत्यंत खतरनाक और असुरक्षित परिस्थितियों में काम करते हैं।

मजदूर वर्ग के लिए दीपावली का पर्व आर्थिक असमानता और श्रम की अवहेलना को भी उजागर करता है। जब उच्च वर्ग इस पर्व में समृद्धि का जश्न मनाता है, वहीं मजदूर वर्ग के लिए यह पर्व एक कठिन परिस्थिति बन जाता है। उनके लिए वास्तविक दीपावली तब होगी, जब समाज में उनके श्रम का सम्मान होगा, उन्हें आर्थिक सुरक्षा मिलेगी। और यह पूंजीवादी समाज मे नही, समाजवादी समाज मे ही, सर्वहारा के राज्य में ही सम्भव हो सकता है।

 

Wednesday, 28 August 2024

संस्कृत

धूर्तता

         जोन्स जानते थे कि संस्कृत ब्राह्मणों की भाषा नहीं है, अन्यथा अशिक्षित ब्राह्मण भी संस्कृत बोलते। यदि ब्राह्मण संस्कृत भाषा को लेकर आए थे तो क्षत्रिय और वैश्य कौन थे, और कहां से आए थे। यदि वर्ण विभाजन ईरान में ही हो गया था तो भी यह केवल ब्राह्मणों की नहीं समस्त वर्ण विभाजित हिंदू समाज की भाषा सिद्ध होती थी। यह सोचना तो उस समय दुष्कर था कि बोलियां संस्कृत से अधिक पुरानी हैं और उन्हीं में से किसी एक का उत्कर्ष किसी विशेष कारण से क्रमशः अन्य बोलियों में अधिकाधिक लोगों के बीच संपर्क भाषा बनने के क्रम में हुआ था जिसकी अनगढ़ताओं को दूर करते हुए एक मानक और परिष्कृत रूप देकर इसे संस्कृत बनाया गया था, यद्यपि ईरान के संदर्भ में उन्हें सुशिक्षितों और सामान्य बोलचाल की भाषा के अंतर का ज्ञान है: ''ऐसा प्रतीत होता है कि ईरान के महान साम्राज्य में दो भाषाएँ आम तौर पर प्रचलित थीं; एक दरबार की, जिसे तब दरी नाम दिया गया था, जो पारसी की एक परिष्कृत और सुरुचिपूर्ण बोली थी।''

 [ two languages appear to have been generally prevalent in the great empire of Irān; that of the Court, thence named Deri, which was only a refined and elegant dialect of the Pārsi. ]

     जिन लोगों ने स्थान और काल भेद से बोलचाल की संस्कृत में  प्रचलित अनियमितताओं को नियमित व्यवस्थित किया था (पाणिनि इनमें अंतिम थे ) उन्होंने इस भाषा को और इसमें लिखित ज्ञान साहित्य पर एकाधिकार कर लिया था और शेष लोग उस अनगढ़ संपर्क भाषा का व्यवहार करते रहे जिनके विविध बोली क्षेत्रों में अपने विशिष्ट रूप बन गए। इनमें परिवर्तन होता रहा  इसलिए इनके प्राचीनतम रूप का आज हम अनुमान भी नहीं कर सकते। संस्कृत के विद्वान भी सामाजिक व्यवहार के लिए उन्हीं का व्यवहार करने के बाध्य थे, इसलिए बोलियों और संस्कृत के बीच लेन-देन भी चलता रहा। 

      संस्कृत  ब्राह्मणों की नहीं शिक्षितों की भाषा थी। फारसी की तरह इसके दो रूप थे - दरबारी  और साहित्यिक (संस्कृत) और सामान्य बोलचाल की प्राकृत। प्राकृतों का प्रयोग नाटकों में अशिक्षितों - सेवकों और स्त्रियों की भाषा में हुआ और इसमें कुछ मौलिक लेखन भी हुआ, इसलिए इनका पता हमें है, पर तत्समय बोलियों का क्या रूप था यह जानने का कोई उपाय नहीं । पर नई तकनीकी शब्दावली (जो किसी चीज को गढ़ता है वही उसके लिए शब्द भी गढ़ता है, पजंजलि) ही नहीं इसका साहित्य भी संस्कृत में ग्रहण किया जाता रहा, अतः  बोलियो ने संस्कृत को उससे अधिक प्रभावित किया है, जितना संस्कृत ने बोलियों को।  शिक्षा और शास्त्रीय ज्ञान पर ब्राह्मणों ने एकाधिकार करके और भाषा को अधिक दुरूह बना कर सामान्य जीवन जीने वालों को ज्ञान के मामले में अपना उपजीवी बना लिया और आर्थिक दृष्टि से उनके उपजीवी बने रहे।

       जोन्स को पक्का पता था कि संस्कृत भाषा ईरान से भारत में नहीं आई, अपितु भारत से ईरान पहुंची है और संस्कृत से निकटता रखने वाली ईरान की भाषाओं की स्थिति संस्कृत (वैदिक) की तुलना में वही है जो भारत में प्राकृतों और बोलियों की। 
''[जब मैंने ज़ेंद की शब्दावली का उपयोग किया, तो मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि दस में से छह या सात शब्द शुद्ध संस्कृत के थे, और यहां तक ​​कि उनकी कुछ विभक्तियां व्याकरण के नियमों से बनी थीं... कि अवेस्ता की भाषा कम से कम संस्कृत की एक बोली थी, जो शायद उसके लगभग उतनी ही करीब पड़ती थी जितनी प्राकृत, या अन्य भाषाएं जिनके बारे में हम जानते हैं कि वे दो हज़ार साल पहले भारत में बोली जाती थीं।  इन सभी तथ्यों का अनिवार्य निष्कर्ष यह है कि फ़ारस की जिन सबसे पुरानी भाषाओं की खोज की जा सकती हे वे चाल्डिक और संस्कृत थीं, और जब वे बोलचाल की भाषा नहीं रह गईं, तो क्रमशः पहलवी और ज़ेंद उत्पन्न हुईं, फारसी या तो सीधे संस्कृत से निकली या ब्राह्मणों की बोली जेंद से। 
[when I perused the Zend Glossary, I was inexpressibly surprised to find that six or seven words in ten were pure Sanscrit, and even some of their inflexions formed by rules of vyākaran… that the language Avesta was al least a dialect of Sanskrit,  approaching perhaps as nearly  to it as Prācrit, or other popular idioms that we know to have been spoken in India two thousand years ago.  From all these facts it is a necessary consequence that the oldest discoverable languages of Persia were Chāldaic and Sanskrit, and when they ceased to be vernacular, the Pahlavi and Zend were deduced from them respectively, and the Pārsi either from Zend or immediately from the dialect of the Brahmans.]

        ''मैं आपको पूरे विश्वास से आश्वस्त कर सकता हूं कि सैकड़ों पारसी संज्ञाएं शुद्ध संस्कृत हैं, जिनमें कोई अन्य परिवर्तन नहीं है, जैसा कि भारत की कई भाषाओं या स्थानीय बोलियों में देखा जा सकता है; फ़ारसी की बहुत सी आदेशपरक क्रियाएं संस्कृत धातुएं हैं; और यहां तक ​​कि फ़ारसी क्रिया के मूड और काल भी, जो बाकी सभी का मॉडल है, एक आसान और स्पष्ट सादृश्य द्वारा संस्कृत से घटित किए जा सकते है: इसलिए हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि पारसी को विभिन्न भारतीय बोलियों की तरह, ब्राह्मणों की भाषा से व्युत्पन्न किया गया था।''
[I can assure you with confidence, that hundreds of Pārsī nouns are pure Sanskrit with no other change than such as may be observed in the numerous bhāshās or vernacular dialects, of India; that very many Persian imperatives are the roots of Sanskrit verbs; and that even the moods and tenses of the Persian verb substantive, which is the model of all the rest, are deducible from the Sanskrit by an easy and clear analogy : we may hence conclude, that the Pārsl was derived, like the various Indian dialects, from the language of the Brāhmans];  
जोन्स द्वारा जुटाए गए प्रमाणों की एक दूसरी कड़ी है,  जातीय परंपरा की है:
''इस प्रकार स्पष्ट प्रमाणों और सीधे तर्कों से यह सिद्ध हो गया है कि ईरान में असीरियन, या पिशदादी, सरकार से बहुत पहले एक शक्तिशाली राजवंश स्थापित हो चुका था; यह सच है कि यह वास्तव में एक हिंदू राजवंश था, परंतु यदि कोई इसे कुषाण, कश या सीथियन कहना चाहता है, तो हम उनके नामों पर बहस में नहीं पड़ेंगे; यह कई शताब्दियों तक अस्तित्व में रहा, और इसका इतिहास उन हिंदुओं पर आधारित है, जिन्होंने अयोध्या और इंद्रप्रस्थ के राजवंशों की स्थापना की थी।''
[Thus has it been proved by clear evidence and plain reasoning, that a powerful monarchy was established in Iran long before the Assyrian, or Pishdādī, government; that it was in truth a Hindu monarchy, though, if any choose to call it Custan, Casdean, or Scythian, we shall not enter into a debate on mere names ; that it subsisted many centuries, and that its history has been ingrafted on that of the Hindus, who founded the monarchies of Ayddhyā and Indraprestha;]

         सीधे तर्क और स्पष्ट प्रमाणों से जो सिद्ध होता है उसे जोंस अपने कयास से बिना किसी तर्क या प्रमाण के उलट देते हैं, क्योंकि यह उनकी जरूरत थी, ''पहले फ़ारसी साम्राज्य की भाषा संस्कृत की जननी थी, और परिणामस्वरूप ज़ेंद, और फ़ारसी, साथ ही ग्रीक, लैटिन और गाॅथिक की भी; कि असीरियनों की भाषा चाल्डिक और पहलवी की जनक थी, और प्राथमिक तातारी भाषा भी उसी साम्राज्य में प्रचलित थी। छठां वार्षिक  व्याख्यान).
 that the language of the first Persian empire was the mother of the Sanskrit, and consequently of the Zend, and Parsi, as well as of Greek, Latin, and Gothic; that the language of the Assyrians was the parent of Chaldaic and Pahlavi, and that the primary Tartarian language also had been current in the same  empire . sixth An. Disc.

         जो तथ्य उनकी जानकारी में था वह यह कि फारस में इस प्राचीन प्रतापी वंश की स्थापना करने वाले वहां मीदिया से पहुंचे थे यद्यपि जोन्स को इस बात का पता नहीं रहा हो सकता कि वे यह दावा भी करते थे कि उनके पूर्वज वहां भारत से पहुंचे थे।
   we have no trace in history of their departure from their plains and forests till the invasion of the Medes, who, according to etymologists, were the sons of Madai.

       वह तर्क देते हैं,  ''ब्राह्मण कभी भी भारत से ईरान नहीं जा सकते थे, क्योंकि उनके सबसे पुराने और संप्रति प्रचलित कानूनों द्वारा उन्हें उस क्षेत्र को छोड़ने से स्पष्ट रूप से मना किया गया है, जिसमें वे आज भी निवास करते हैं; ...इसलिए, वे तीन नस्लें, जिनका हम पहले ही उल्लेख कर चुके हैं, (और तीन से अधिक हमें अभी तक नहीं मिले हैं) ईरान के अपने साझे देश से चले थे; और इस प्रकार मैं पूरे अधिकार से मानता हूं, कि सैक्सन क्रॉनिकल के अनुसार, ब्रिटेन के पहले निवासी आर्मेनिया से आए थे; जबकि एक बहुत ही विद्वान लेखक ने अपने सभी श्रमसाध्य शोधों के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि गॉथ या सीथियन फारस से आए थे; और एक अन्य पूरे दम-खम से दावा करता है कि आयरिश और पुराने ब्रितानी दोनों कैस्पियन तट से अलग-अलग आगे बढ़े। 
[the Brāhnans could never have migrated from India to Irān, because they are expressly forbidden by their oldest existing laws to leave the region, which they inhabit at this day; …Tho three races, therefore, whom we have already mentioned, (and more 'than three we have not yet found) migrated from Iran, as from their common country; and thus the Saxon chronicle, I presume from good authority, brings the first inhabitants of Britain from Armenia ; while a late very learned writer concludes, after all his laborious researches, that the Goths or Scythians came from Persia; and another contends with great force, that both the Irish and old Britons proceeded severally from the borders of the Caspian]

          यहां विलियम जॉन्स जानबूझकर घालमेल करते हैं, क्योंकि वह जानते हैं कि ईरान में ब्राह्मण नहीं गए थे, बल्कि उस पर एक प्रतापी राजा ने अधिकार किया था।  वह संपर्कभाषा उन कुरुओं के माध्यम से गई थी जिन्होंने वहां अपना आधिपत्य स्थापित किया था। यदि पारंपरिक विश्वास को पूरक प्रमाण बनाना था तो विलियम जोन्स इस तथ्य से परिचित थे कि विश्वामित्र की नालायक संतानें शापवश निर्वासित होकर मध्यदेश से शेष भारतीय भूभाग और पश्चिम के दर्द, हूण, पारद, पल्लव आदि में पहुंच कर धर्मभ्रष्ट हो गई थीं। ये कथाएं अपने परिरक्षित रूप में विश्वसनीय नहीं हैं, पर इनके पीछे ठोस ऐतिहासिक सत्य है। हम इसकी विस्तृत व्याख्या यहां नहीं कर सकते, क्योंकि हम विलियम जोन्स की ज्ञान सीमा में वस्तुस्थिति की जांच कर रहे हैं।  उन्हें इस भारतीय परंपरा का ज्ञान था। इसलिए वह यह छूट नहीं ले सकते थे कि जिस तरह यूरोप के घुमक्कड़ चारण जीवी हिमयुग के बाद उन क्षेत्रों से उत्तरी यूरोप में पहुंचे थे और इसलिए उनकी मौखिक परंपरा अविश्वसनीय नहीं है, पर उसी तर्क से भारत से उनका निष्कासन मध्येशिया की ओर हुआ था जो कश्यप ऋषि और कसों/शकों और कैस्पियन सागर के नामकरण में बचा रहा है। परंतु फारस पर संस्कृत भाषियों का प्रवेश मीदिया से बहुत बाद में भारत पर आई महान आपदा का परिणाम था जिसमें कुरू पांचाल प्रचंड प्राकृतिक प्रकोप के शिकार हुए थे और यहां के निवासियों को अपने क्षेत्र से पलायन करना पड़ा था। पूर्व की दिशा में गोतम राहूगण के नेतृत्व में विदेघ माधव के पलायन से हम परिचित है। उत्तर की दिशा में उनके प्रवास के विषय में हमें केवल इस बात से पता चलता है कि इसके बाद उदीच्य का उच्चारण आदर्श माना जाने लगता है। मधई या मीदिया पर और वहां से पास के देश फारस पर विस्तास्प के अधिकार की कहानी बहुत बाद की है। दक्षिण की ओर तटीय क्षेत्रों की ओर उनके प्रवास को समझाना कठिन है क्योंकि इन पर पहले से उनका अधिकार था और विदेश व्यापार के अड्डे बने थे।  यहां हम केवल यह संकेत करना चाहेंगे कि लातिन ग्रीक आदि क्षेत्रों में संस्कृत का प्रवेश फारस से आगे जाने वाले उन जत्थों के माध्यम से नहीं हुआ था न उसका तंत्र इतना सीधा था। हम उस पर अपना समय गंवाना नहीं चाहेंगे, खासकर इसलिए कि इनमें से कुछ बातों का ज्ञान विलियम जोन्स को हो ही नहीं सकता था। 

''अगर वे ठोस सिद्धांतों पर आधारित नहीं होते, तो एक दूसरे से अनभिज्ञ और अलग-अलग तरीकों  से निकाले गए निष्कर्षों का ऐसा संयोग  दुर्लभ माना था। इसलिए हम इस प्रस्ताव को दृढ़ता से स्थापित कर सकते हैं, कि ईरान, या फारस अपने व्यापकतम अर्थ में, जनसंख्या, ज्ञान, भाषाओं और कला का सच्चा केंद्र था; जो, केवल पश्चिम की ओर यात्रा करने वालों तक सीमित न था जैसा कि समान कारणों से दावा किया गया है यह पूर्व की ओर, और दुनिया के सभी क्षेत्रों में सभी दिशाओं में फैला था, जिसमें हिंदू जाति विभिन्न संप्रदायों के रूप में बस गई थी
[ a coincidence of conclusions from different media by persons wholly unconnected, which  could scarce have happened, if they were not grounded on solid principles. We may therefore hold this proposition firmly established, that Irān, or Persia in its largest sense, was the true centre of population, of knowledge, of languages, and of arts ; which, instead of travelling westward only, as it has been fancifully supposed, or eastward, as might with equal reason have been asserted^ were expanded in all directions to all the regions of the world, in which the Hindu race had settled under various denominations: but, whether Asia has not produced other races of men, distinct from the Hindus, the Arabs, or the Tartars, or whether any apparent diversity may not have sprung from an intermixture of those three in different poportions, must be the subject of a future inquiry. 

एक दूसरे से असंबद्ध विविध विद्वानों का कथन केवल यूरोप के विषय में हैं और इस सीमा तक ही अकाट्य हैं। हिम युग में उत्तरी यूरोप मनुष्य ही नहीं अन्य प्राणियों के लिए भी रहने योग्य न था। यूरोपीय जातियों के अपने अपने क्षेत्रोंं में पहुंचने की ये कथाएं उसी से संबंधित हैं। इसका भाषाओं पर लादा नहीं जा सकता। भारत उस समय स्वयं सबसे आकर्षक शरणस्थल बना हुआ था। इसलिए ऊष्म युग आने के बाद यहां शरण लेने वालों का बहिर्गमन हुआ। इसलिए यहां उन्होंने कई तरह के घालमेल किए, कुछ अज्ञानवश, कुछ जानबूझकर।
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Wednesday, 29 May 2024

साहिर लुधियानवी के 20 मशहूर शेर



1.कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया

2.ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहां
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया

3.अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं
तुम ने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी

4.ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
क्यूं देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम

5.अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत ऐ मुतरिब
अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं

6.हम ग़म-ज़दा हैं लाएं कहां से ख़ुशी के गीत
देंगे वही जो पाएंगे इस ज़िंदगी से हम

7.बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया

8.माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम

9.संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
इक धुंद से आना है इक धुंद में जाना है

10.जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी

11.अरे ओ आसमां वाले बता इस में बुरा क्या है
ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएं

12.इस तरफ़ से गुज़रे थे क़ाफ़िले बहारों के
आज तक सुलगते हैं ज़ख़्म रहगुज़ारों के

13.वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बरबाद किया है
इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा

14.तिरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएं
वही आंसू वही आहें वही ग़म है जिधर जाएं

15.पेड़ों के बाज़ुओं में महकती है चांदनी
बेचैन हो रहे हैं ख़यालात क्या करें

16.राह कहां से है ये राह कहां तक है
ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है

17.ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो
अपमान रचियता का होगा रचना को अगर ठुकराओगे

18.ज़मीं सख़्त है आसमां दूर है
बसर हो सके तो बसर कीजिए

19.किस दर्जा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम ज़िंदगी में फिर कोई अरमां न कर सके

20.यूं ही दिल ने चाहा था रोना-रुलाना
तिरी याद तो बन गई इक बहाना

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...