5 अगस्त 2020 को लिखी इस कविता की आज याद हो आई।
6 दिसम्बर को जो हुआ, जो हो रहा था
एक सरकार दिल्ली में हाथ बांधे बैठी
देख रही थी टुकुर टुकुर
दूसरी शामिल थी उस यज्ञ में
अपनी आहुति डाल रही थी
विरोध मुट्ठी में बन्द पानी की तरह बह चुका था
कोई पूछने वाला नहीं था कि देश का संविधान कहां है?
उसकी जगह स्ट्रांग रुम के कक्ष मेें
बस किताब में रहने की है?
फौज-फांटा, पुलिस-प्रशासन,
अदालत-कचहरी किस दिन के लिए?
हैसियत क्या?
दिसम्बर (6) की वह या अगस्त (5) की यह
कैलेण्डर की क्या महज कुछ तारीखें हैं ?
शोर में सन्नाटा
लाखों दीयों के जलने के बाद भी अंधेरा
रात काली, सावन में दिवाली
मौत नाच रही हो सिर पर
कैसा लगता है जश्न में डूबा देश?
महामारी नें जकड़ ली है गर्दन
मदारी नचा रहा है और नाच रहा है देश
नई संस्कृति के गोले दागे जा रहे हैं
यह जो छोड़ा गया है, वह रॉकेट नहीं रॉफेल है
अपने टारगेट की ओर
तैयारी मुक्कमल है
विरोधियों के लिए गढ़े गये हैं नये-नये शब्द
बुद्धिजीवी हैं तो बोलने का ठेका नहीं मिल गया आपको
संस्थानों में ठेकेदार नियुक्त हो चुके हैं
वे ही बतायेंगे क्या बोलना है, कैसे बोलना है, कितना बोलना है
और सबसे अच्छा तो यह है कि बोले ही नहीं
चुप रहना भी तो कला है
मंच सज चुका है
कलाकार मंच पर हैं
कोई पर्दादारी नहीं
दर्शक दीर्घा में भेड़-म-भीड़ है
आप भी शामिल हों, देखें
दीया जलायें, ताली-थाली बजायें
पसन्द नहीं तो एक्जिट का दरवाजा खुला है |
5 अगस्त 2020
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KAUSHAL KISHOR
राम
लबरेज़ है शराब-ए-हक़ीक़त से जाम-ए-हिंद
सब फ़लसफ़ी हैं ख़ित्ता-ए-मग़रिब के राम-ए-हिंद
ये हिन्दियों की फ़िक्र-ए-फ़लक-रस का है असर
रिफ़अत में आसमाँ से भी ऊँचा है बाम-ए-हिंद
इस देस में हुए हैं हज़ारों मलक-सरिश्त
मशहूर जिन के दम से है दुनिया में नाम-ए-हिंद
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़
अहल-ए-नज़र समझते हैं इस को इमाम-ए-हिंद
एजाज़ इस चराग़-ए-हिदायत का है यही
रौशन-तर-अज़-सहर है ज़माने में शाम-ए-हिंद
तलवार का धनी था शुजाअ'त में फ़र्द था
पाकीज़गी में जोश-ए-मोहब्बत में फ़र्द था
अल्लामा इक़बाल
निर्गुण राम निरंजनराया
जिन वह सकल सृष्टि उपजाया !
निगुण सगुण दोउ से न्यारा
कहै कबीर सो राम हमारा !!
संत कबीर !!
कृष्ण राम
मैं अपने ख़ुद के बनाए हुए उसूलों में !
कभी मैं कृष्ण,कभी राम होना चाहता हूँ !!
मुंतज़िर क़ाएमी !!
क़दम क़दम हैं रावन लेकिन
निर्बल के बस राम बहुत हैं
सब बिलग्रामी
राम
आईना-ए-ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत यहाँ थे राम
अम्न और शांति की ज़मानत यहाँ थे राम
सच्चाइयों की एक अलामत यहाँ थे राम
या'नी दिल-ओ-निगाह की चाहत यहाँ थे राम
क़दमों से राम के ये ज़मीं सरफ़राज़ है
हिन्दोस्ताँ को उन की शुजाअ'त पे नाज़ है
उन के लिए गुनाह था ये ज़ुल्म-ओ-इंतिशार
ईसार उन का सारे जहाँ पर है आश्कार
दामन नहीं था उन का तअ'स्सुब से दाग़-दार
हिर्स-ओ-हवस से दूर थे वो साहब-ए-वक़ार
बे-शक उन्हीं के नाम से रौशन है नाम-ए-हिंद
इक़बाल ने भी उन को कहा है इमाम-ए-हिंद
लाल-ओ-गुहर की कोई नहीं थी तलब उन्हें
इज़्ज़त के साथ दिल में बसाते थे सब उन्हें
बचपन से ना-पसंद थे ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब उन्हें
लोगों का दिल दुखाना गवारा था कब उन्हें
वो ज़ालिमों पे क़हर ग़रीबों की ढाल थे
किरदार-ओ-ए'तिबार की रौशन मिसाल थे
उन को था अपनी रस्म-ए-उख़ुव्वत पे ए'तिमाद
ख़ुद खा के जूठे बेर दिया दर्स-ए-इत्तिहाद
फ़र्ज़-आश्ना थे फ़र्ज़ को रक्खा हमेशा याद
कहने पे अपनी माँ के कहा घर को ख़ैर-बाद
रुख़्सत हुए तो लब पे न थे शिकवा-ओ-फ़ुग़ाँ
ये हौसला नसीब हुआ है किसे यहाँ
बन-बास पर भी लब पे न था उन का एहतिजाज
भाई के हक़ में छोड़ दिया अपना तख़्त-ओ-ताज
करते रहे वो चौदह बरस तक दिलों पे राज
हिन्दोस्ताँ में है कोई उन की मिसाल आज
राह-ए-वफ़ा पे चल के दिखाया है राम ने
कहते हैं किस को त्याग बताया है राम ने
रहबर ये शर-पसंद कहाँ और कहाँ वो राम
वो बे-नियाज़-ए-ऐश-ओ-तरब ज़र के ये ग़ुलाम
वो पैकर-ए-वफ़ा ये रिया-कार-ओ-बद-कलाम
वो अम्न के नक़ीब ये शमशीर-ए-बे-नियाम
रस्म-ओ-रिवाज-ए-राम से आरी हैं शर-पसंद
रावन की नीतियों के पुजारी हैं शर-पसंद
रहबर जौनपुरी
नहीं कृष्ण की,नहीं राम की,
नहीं भीम ,सहदेव ,नकुल की
नहीं पार्थ की ,नहीं राव की,नहीं रंक की
नहीं तेग,तलवार,धर्म की
नहीं किसी की,नहीं किसी की
धरती है केवल किसान की ।।
- केदारनाथ अग्रवाल
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