Monday, 22 January 2024

कविता

5 अगस्त 2020 को लिखी इस कविता की आज याद हो आई। 

6 दिसम्बर को जो हुआ, जो हो रहा था
एक सरकार दिल्ली में हाथ बांधे बैठी
देख रही  थी टुकुर टुकुर
दूसरी शामिल थी उस यज्ञ में
अपनी आहुति डाल रही थी

विरोध मुट्ठी में बन्द पानी की तरह बह चुका था
कोई पूछने वाला नहीं था कि देश का संविधान कहां है?
उसकी जगह स्ट्रांग रुम के कक्ष मेें
बस किताब में रहने की है?
फौज-फांटा, पुलिस-प्रशासन, 
अदालत-कचहरी किस दिन के लिए?
हैसियत क्या?

दिसम्बर (6) की वह या अगस्त (5) की यह
कैलेण्डर की क्या महज कुछ तारीखें हैं ?

शोर में सन्नाटा
लाखों दीयों के जलने के बाद भी अंधेरा
रात काली, सावन में दिवाली
मौत नाच रही हो सिर पर
कैसा लगता है जश्न में डूबा देश?
महामारी नें जकड़ ली है गर्दन
मदारी नचा रहा है और नाच रहा है देश
नई संस्कृति के गोले दागे जा रहे हैं
यह जो छोड़ा गया है, वह रॉकेट नहीं रॉफेल है
अपने टारगेट की ओर

तैयारी मुक्कमल है
विरोधियों के लिए गढ़े गये हैं नये-नये शब्द
बुद्धिजीवी हैं तो बोलने का ठेका नहीं मिल गया आपको
संस्थानों में ठेकेदार नियुक्त हो चुके हैं
वे ही बतायेंगे क्या बोलना है, कैसे बोलना है, कितना बोलना है
और सबसे अच्छा तो यह है कि बोले ही नहीं
चुप रहना भी तो कला है

मंच सज चुका है
कलाकार मंच पर हैं
कोई पर्दादारी नहीं
दर्शक दीर्घा में भेड़-म-भीड़ है
आप भी शामिल हों, देखें
दीया जलायें, ताली-थाली बजायें
पसन्द नहीं तो एक्जिट का दरवाजा खुला है |

5 अगस्त 2020

--
KAUSHAL KISHOR

राम

लबरेज़ है शराब-ए-हक़ीक़त से जाम-ए-हिंद 
सब फ़लसफ़ी हैं ख़ित्ता-ए-मग़रिब के राम-ए-हिंद 

ये हिन्दियों की फ़िक्र-ए-फ़लक-रस का है असर 
रिफ़अत में आसमाँ से भी ऊँचा है बाम-ए-हिंद 

इस देस में हुए हैं हज़ारों मलक-सरिश्त 
मशहूर जिन के दम से है दुनिया में नाम-ए-हिंद 

है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़ 
अहल-ए-नज़र समझते हैं इस को इमाम-ए-हिंद 

एजाज़ इस चराग़-ए-हिदायत का है यही 
रौशन-तर-अज़-सहर है ज़माने में शाम-ए-हिंद 

तलवार का धनी था शुजाअ'त में फ़र्द था 
पाकीज़गी में जोश-ए-मोहब्बत में फ़र्द था

अल्लामा इक़बाल

निर्गुण राम निरंजनराया
जिन वह सकल सृष्टि उपजाया !
निगुण सगुण दोउ से न्यारा
कहै कबीर सो राम हमारा !!
संत कबीर !!

कृष्ण राम
मैं अपने ख़ुद के बनाए हुए उसूलों में !
कभी मैं कृष्ण,कभी राम होना चाहता हूँ !!
मुंतज़िर क़ाएमी !!

क़दम क़दम हैं रावन लेकिन
निर्बल के बस राम बहुत हैं
सब बिलग्रामी

राम

आईना-ए-ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत यहाँ थे राम 
अम्न और शांति की ज़मानत यहाँ थे राम 

सच्चाइयों की एक अलामत यहाँ थे राम 
या'नी दिल-ओ-निगाह की चाहत यहाँ थे राम 

क़दमों से राम के ये ज़मीं सरफ़राज़ है 
हिन्दोस्ताँ को उन की शुजाअ'त पे नाज़ है 

उन के लिए गुनाह था ये ज़ुल्म-ओ-इंतिशार 
ईसार उन का सारे जहाँ पर है आश्कार 

दामन नहीं था उन का तअ'स्सुब से दाग़-दार 
हिर्स-ओ-हवस से दूर थे वो साहब-ए-वक़ार 

बे-शक उन्हीं के नाम से रौशन है नाम-ए-हिंद 
इक़बाल ने भी उन को कहा है इमाम-ए-हिंद 

लाल-ओ-गुहर की कोई नहीं थी तलब उन्हें 
इज़्ज़त के साथ दिल में बसाते थे सब उन्हें 

बचपन से ना-पसंद थे ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब उन्हें 
लोगों का दिल दुखाना गवारा था कब उन्हें 

वो ज़ालिमों पे क़हर ग़रीबों की ढाल थे 
किरदार-ओ-ए'तिबार की रौशन मिसाल थे 

उन को था अपनी रस्म-ए-उख़ुव्वत पे ए'तिमाद 
ख़ुद खा के जूठे बेर दिया दर्स-ए-इत्तिहाद 

फ़र्ज़-आश्ना थे फ़र्ज़ को रक्खा हमेशा याद 
कहने पे अपनी माँ के कहा घर को ख़ैर-बाद 

रुख़्सत हुए तो लब पे न थे शिकवा-ओ-फ़ुग़ाँ 
ये हौसला नसीब हुआ है किसे यहाँ 

बन-बास पर भी लब पे न था उन का एहतिजाज 
भाई के हक़ में छोड़ दिया अपना तख़्त-ओ-ताज 

करते रहे वो चौदह बरस तक दिलों पे राज 
हिन्दोस्ताँ में है कोई उन की मिसाल आज 

राह-ए-वफ़ा पे चल के दिखाया है राम ने 
कहते हैं किस को त्याग बताया है राम ने 

रहबर ये शर-पसंद कहाँ और कहाँ वो राम 
वो बे-नियाज़-ए-ऐश-ओ-तरब ज़र के ये ग़ुलाम 

वो पैकर-ए-वफ़ा ये रिया-कार-ओ-बद-कलाम 
वो अम्न के नक़ीब ये शमशीर-ए-बे-नियाम 

रस्म-ओ-रिवाज-ए-राम से आरी हैं शर-पसंद 
रावन की नीतियों के पुजारी हैं शर-पसंद 

रहबर जौनपुरी

नहीं कृष्ण की,नहीं राम की,
नहीं भीम ,सहदेव ,नकुल की
नहीं पार्थ की ,नहीं राव की,नहीं रंक की
नहीं तेग,तलवार,धर्म की
नहीं किसी की,नहीं किसी की
धरती है केवल किसान की ।। 

- केदारनाथ अग्रवाल




Sunday, 7 January 2024

दाभोलकर की वैचारिक दुनिया: भारतीय समाज को विवेकपूर्ण बनाने का संघर्ष


मैं उम्मीद करता हूं आप डॉ नरेंद्र दाभोलकर को भूले नहीं होंगे। आज से दस साल पहले, तारीख 20 अगस्त 2013 को, उनकी निर्मम हत्या कर दी गई थी। वह महाराष्ट्र के पुणे शहर के थे। पेशे से फिजिशियन और 'साधना' पत्रिका के यशस्वी संपादक। उनकी खास पहचान सामाजिक अन्धविश्वास के खिलाफ उनके द्वारा चलाए गए अभियान को लेकर था। वह विद्वान और निर्भीक लेखक के साथ समाजवैज्ञानिक भी थे, जिनकी राय थी कि वैज्ञानिक परिदृष्टि के साथ ही लोकतान्त्रिक समाज और राष्ट्र का निर्माण संभव है।
आस्था और अन्धविश्वास समाज में कई तरह के अवगुंठन पैदा करते हैं, जिससे समाज की विवेक-शक्ति मारी जाती है और फिर पूरा समाज पतनशील होता है। उनके विचारों से एक तबका इतना भयभीत हुआ कि उन्हें उनकी हत्या से कम कोई दंड वाजिब नहीं लगा। यह कोई संयोग नहीं था कि उनकी हत्या के बाद गोविन्द पनसारे, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या हुई।

पिछले अगस्त 2023 में डॉ दाभोलकर की बेटी मुक्ता दाभोलकर ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि ये तमाम हत्याएं एक ही कड़ी में की गई हैं। इनका अन्तर्सम्बन्ध है। वर्ष 2020 में कोल्हापुर सेशन कोर्ट में स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर हर्षद नीलाम्बर ने बताया कि ये तमाम हत्याएं 'सनातन' नामक एक संस्था से जुड़े लोगों द्वारा की गई है। इसे लेकर भारतीय समाज में जो चिंता होनी चाहिए थी, वह नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
मैं डॉ दाभोलकर पर अपनी बात केंद्रित करना चाहूंगा। 1945 में पुणे शहर में जन्मे नरेंद्र अच्युत दाभोलकर ने मेडिकल साइंस की पढाई की। वह सामाजिक सुधारों के समर्थक भी थे, जिसकी महाराष्ट्र में सुदीर्घ परम्परा रही है। समाज सुधार के ख्याल से प्रसिद्ध समाजवादी लेखक-चिन्तक साने गुरूजी (सदाशिव पांडुरंग साने, 1899 -1950 ) 'साधना' नाम से एक पत्रिका निकालते थे। यह पत्रिका 1948 में आरम्भ हुई थी। 1998 में इस पत्रिका के पचास साल होने के अवसर पर डॉ नरेंद्र दाभोलकर और जयदेव डोले को इस पत्रिका का संपादक बनाया गया। डोले तो छह महीने बाद ही इस पत्रिका से अलग हो गए, लेकिन दाभोलकर ने मृत्युपर्यन्त सम्पादकीय जिम्मेदारी निभाई। उनके सम्पादकीय लेखों के संकलन पुस्तक रूप में प्रकाशित और मराठी में खूब प्रशंसित भी हुए। मुझे प्रसन्नता है कि राजकमल प्रकाशन के सार्थक उपक्रम ने इनका हिंदी अनुवाद एक त्रयी में खूबसूरत जिल्दों में प्रकाशित किया है। ये किताबें हैं-
1- अंधश्रद्धा की गुत्थी

2 – सोचिये तो सही

3 – विचार से विवेक

ये किताबें जब मेरे पास आई हैं, तब हमारे उत्तर भारतीय हिंदी समाज में रामलला के प्राण-प्रतिष्ठा-उत्सव का शोर व्याप्त है। इस पर कोई टिप्पणी बेमानी है। एक तबके द्वारा कोशिश यही हो रही है कि आस्था और अन्धविश्वास का ऐसा तूफ़ान खड़ा कर दिया जाय कि लोकतंत्र का चिराग बुझ जाय। आस्था के नाम पर अन्धविश्वास की प्रतियोगिता चल रही है, जिस में विवेक और विमर्श की कोई संभावना नहीं बनती।

विवेक बुद्धि ने धार्मिक आस्थाओं का भी परिमार्जन किया है और उसकी आंच पर पग कर उसने आध्यात्मिकता का स्वरूप ले लिया है। बुद्ध, कबीर से लेकर इस ज़माने तक के अनेक आध्यात्मिक संतों ने धर्म को अंधविश्वासों से मुक्त कर मानवीय और लौकिक बनाने का वंदनीय प्रयास किया है। लेकिन यह हक़ीक़त है कि हमारे देश में हाल के दिनों में पाखण्ड और मिथ्याचार का जोर बढ़ा है।
कभी इसी भारतीय समाज में जवाहरलाल नेहरू ने साइंटिफिक टेम्पर की वकालत की थी। आज उस परिवार से जुड़े राहुल गांधी भी जनेऊ चमकाने की कवायद में शामिल होते हैं। कोई यह समझता है कि विकलांग श्रद्धा का दौर केवल बजरंगियों में होता है तो वह गलती पर हैं। समाजवादियों में भी यह व्याधि व्याप गई है। आम्बेडकर से लेकर कांशीराम, लालू, मुलायम सब के भक्तों की एक अंध-किरतनिया मन्डली है, जो दूसरों के अवगुण तो देखते हैं, अपने नहीं देखते।

हां, इस मामले में बजरंगियों का पलड़ा बहुत भारी होता है। उन्होंने ताकत मिलते ही मुल्क के इतिहास, दर्शन-परंपरा और संस्कृति को उलट-पुलट कर रख दिया है। वे मिथक को इतिहास और इतिहास का परिहास करने पर तुले हैं। अब देखिए मंदिर मामले में उन्होने बुद्धकालीन प्रसेनजित के कोसल नगर को पूरी तरह राममय बना दिया है। क्या कोई अब यह कह सकता है कि इस नगर में कभी बुद्ध का भी डेरा लगता था। कभी-कभी अपने धुर-विरोधी से लड़ते-लड़ते हम उसी के रंग में रंग जाते हैं। अपने हिंदुत्व का विस्तार करते-करते हम कुछ और ही बनते जा रहे हैं। ऐसे में दाभोलकर प्रणीत इन किताबों से गुजरना एक अलग अनुभव से गुजरना है।
'सोचिए तो सही' शीर्षक पुस्तक मुझे कुछ कारणों से बेहद पसंद आई। इसे लेखक ने अपने बच्चों मुक्ता और हमीद को समर्पित किया है। पुस्तक दो खण्डों में विभाजित है। पहले खंड में दो लेख हैं- वैज्ञानिक दृष्टिकोण और धर्म-चिकित्सा एवं विवेकवाद। दूसरे खंड में कुल अट्ठाइस लेख संकलित हैं। लेकिन पहले खंड के दोनों लेख कुछ अधिक महत्व के हैं। इन्हें तो किशोर बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए।
'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' शीर्षक लेख में दाभोलकर उन स्थितियों पर प्रकाश डालते हैं, जिनके कारण उन्हें अंधविश्वासों के विरुद्ध एक आंदोलन चलाना पड़ा। एक समय इन्हीं अंधविश्वासों के विरुद्ध जोतिबा फुले ने 'सत्यशोधक' संस्था बनाई थी। उनका पूरा लेखन पुरोहिती पाखण्ड के विरुद्ध वैचारिक युद्ध की घोषणा है। इन पाखंडों-अंधविश्वासों के कारण किसान-मजदूर वर्ग पुरोहित-वर्ग द्वारा लगातार छले जा रहे हैं।

दाभोलकर बताते है कि यूरोप के देशों में लम्बे समय तक तर्क और विवेक के साथ ज्ञान की वकालत वहां के प्रबुद्धजनों ने की थी। आज का यूरोप पादरियों की बदौलत नहीं, इन पादरियों के विचारों का विरोध करने वाले विद्वानों और वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित है। पादरियों ने यूरोपीय देशों में भी कम दमन नहीं किया था। कोपरनिकस ने जब कहा कि सूर्य नहीं, पृथ्वी ही सूर्य का चक्कर लगाती है, तब उसका यह विचार बाइबिल के विचार से मेल नहीं खाता था।
कोपरनिकस के विचारों के समर्थन के लिए कोर्ट के आदेश से ब्रूनो को जिन्दा जला दिया गया। गैलीलियो को नाक रगड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया और एकांतवास की सजा दी गई। वह अंधा बना दिया गया, और इसी अंधेपन में लगभग पचीस साल जीकर यातनाओं के बीच वह मरा। आज पूरी दुनिया उसके विचारों के साथ है। क्योंकि उसने सत्य का संधान किया था। यह ठीक है कि बहुत सारे लोग वहां दण्डित-प्रताड़ित किए गए, किन्तु ज्ञान की आंधी वहां आई और समाज भी बदला। यह सब इस कारण हुआ की वहां रेनेसां और प्रबोधन युग आया। फिर इसके कारण औद्योगिक क्रांति हुई। उत्पादन के तरीके बदले, समाज गतिशील हुआ और लोकतंत्र की चादर पूरे यूरोप पर बिछ गई। रजवाड़ी -सामंती समाज हमेशा के लिए समाप्त हो गया।

हमारे देश-समाज में भी यूरोप की तरह ही रजवाड़ी- सामंती प्रवृत्तियों को पुरोहितवाद बल देता है। उसकी कोशिश होती है कि जनता के दिमाग में ज्ञान-विज्ञान की रौशनी प्रवेश न करे। आप कह सकते हैं पूरे एशियाई समाज को इस्लाम, बौद्ध और हिन्दू मत ने आच्छादित किया हुआ है। इन धर्मों में पुरोहितवाद और अन्धविश्वास के विरुद्ध अपेक्षित आंदोलन नहीं हुआ। इसका नतीजा हुआ इन देशों में ज्ञान-विज्ञान का अपेक्षित विकास नहीं हुआ। इस कारण समाज में वैज्ञानिक-परिदृष्टि भी विकसित नहीं हुई।

बौद्ध अपनी वैचारिकता में एक विवेकवान धर्म-विचार है, लेकिन बौद्धों के बीच भी लामावाद के रूप में पाखण्ड बहुत है। जापान में झेन मत प्रभावी है। इसलिए अपेक्षाकृत वहां पाखण्ड कम है। इस्लाम की वैचारिकता समतावादी तो है, लेकिन उसका अल्ला (ईश्वर) इतना ताकतवर है कि विवेक के लिए वहां जगह बहुत कम रह जाती है। इसलिए इस्लाम बहुल देशों में सामाजिक पिछड़ापन कुछ ज्यादा ही है।

विवेकहीन समत्व का कोई अर्थ नहीं होता। क्योंकि समतावादी आचरण तो सबसे अधिक चोर-डाकुओं में होते हैं। लूट के धन चोरों में बराबरी के आदर्श पर बंटते हैं। भारतीय समाज में धर्म का वह रूप नहीं था, जो इसाई और इस्लाम धर्म में था। यहां सनातन धर्म से जैन, बौद्ध, लोकायत और सिख विचारों का विकास हुआ। और इन धर्मों ने मूल सनातनी विचारों को भी बहुत कुछ बदल दिया।

सनातन अपने मूल में वैष्णव या भागवत धर्म हो गया, जिसकी विनम्रता का कोई सानी नहीं रहा। लेकिन पुरोहितवाद अपने ब्राह्मणवादी-मनुवादी स्थापनाओं को होशियारी से थोपने की जुगत में रहता है। मध्यकाल में इस्लाम और हिन्दू धर्म एक दूसरे के निकट आए। इस्लाम ने हिन्दुओं से जाति-वर्ण का सामाजिक विभाजन स्वीकारा और हिन्दुओं ने खलीफा का आदर्श।

यह अकारण नहीं था कि वेदांत की अवधारणा, जिसमें निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा है, को दरकिनार कर मूर्त राम की अवधारणा मजबूत की गई, जो राजा भी है और ईश्वर भी। सगुण राम मध्यकाल में अकारण ही मजबूत होते नहीं चले गए। निरगुण ब्रह्म पुरोहितवाद को अधिक खाद-पानी नहीं दे सकता, यह सगुण राम ही दे सकता है। अंधविश्वासों की गुंजाइश यहां अधिक होती है। इन अंधविश्वासों के बल पर ही बेलगाम पुरोहितवाद का विकास संभव है। पुरोहितवाद की यह प्राण-प्रतिष्ठा हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन को पीछे ले जाएगा।
लोकतान्त्रिक समाज का धर्म-केंद्रित होना खतरनाक संकेत है। इसे ज्ञान-केंद्रित बनना ही चाहिए। जो देश-समाज ज्ञान-केंद्रित नहीं होगा, वह अंततः मिट जाएगा। आज पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान जैसे देशों की स्थिति हम देख रहे हैं। नेपाल ने कायांतरण किया है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत धर्म-केंद्रित होता जा रहा है। यह विकट स्थिति है।

भारतीय समाज को अभियान चला कर विवेकपूर्ण बनाना होगा। दाभोलकर, कलबुर्गी, पनसारे, गौरी लंकेश और उनके जैसे लेखकों-विचारकों की चिंता और संघर्ष इसीलिए है कि हमारा देश-समाज आगे बढ़ने की जगह पीछे अतीत में चलने न लगे। यह बड़ी जिम्मेदारी थी, जिसे उन लोगों ने अपनी जान देकर निभाई। दाभोलकर की ये तीन किताबें हमारे हिंदी भाषी समाज का जरूरी पाठ्य होना चाहिए, क्योंकि हमारा समाज कुछ अधिक पिछड़ा हुआ है।

(प्रेमकुमार मणि लेखक-साहित्यकार हैं।)

Tuesday, 2 January 2024

क्रांति की अलख जगाता अद्भुत नाट्यकर्मी : सफ़दर हाशमी



पूछो, मज़दूरी की खातिर लोग भटकते क्यों हैं?
पढ़ो, तुम्हारी सूखी रोटी गिद्ध लपकते क्यों हैं?
पूछो, माँ-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं?
पढ़ो, तुम्हारी मेहनत का फल सेठ गटकते क्यों हैं?
 
उपरोक्त पंक्तियाँ आम आदमी के रक्त में विद्युत प्रवाह की तरह नवचेतना का संचार करने के साथ-साथ उसे दिशा बोध कराते हुए शोषण के प्रति सचेत भी करती हैं। सफ़दर के इस आह्वान गीत ने प्रौढ़ अनपढ़ों में शिक्षा की लौ तो जलाई ही, साथ ही उन्हें यह आभास भी कराया कि पढ़-लिख कर वे यह तो जान जाऐंगे कि कौन से कारण हैं, जो उनका शोषण होता है और वे कौन लोग हैं जो उनको लूटते हैं। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन का यह गीत संपूर्ण भारतीय परिवेश में विकीर्ण होकर आम आदमी को प्रभावशाली ढंग से जागरूक कर रहा था और इस आह्वान ने ही प्रौढ़ों की शिक्षा के प्रति नए आयाम गढ़े।

प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान(आलिमे-दीन) मौलाना अहमद सईद देहलवी सफदर हाशमी के चाचाजाद दादा थे। हाशमी ख़ानदान के तीन बेटे, हमीद हाशमी, अनीस हाशमी और हनीफ़ हाशिमी(सफ़दर के पिता) वामपंथी विचारों से लैस देश की आज़ादी के योद्धा थे। सफ़दर के चाचा और ताऊ बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए ,जबकि सफ़दर के पिता हनीफ़ हाशमी भारत में ही रहे। सफ़दर के पिताजी ने गाँधी जी के आह्वान पर 'भारत छोड़ो' आंदोलन में हिस्सा लिया था। वे १९४२ में गिरफ़्तार हुए, चार साल जेल में काटकर १९४६ में रिहा हुए। इसके पश्चात मुल्क के बँटवारे के बाद पाकिस्तान जाने के बजाय भारत में ही रहकर दिल्ली में कश्मीरी गेट पर फर्नीचर की दुकान खोली। दो भाइयों के पाकिस्तान चले जाने तथा बंटवारे से उत्पन्न कारीगरों की कमी के कारण हनीफ़ हाशमी गंभीर आर्थिक संकट से घिर गए। इन्हीं संकट के दिनों में १२ अप्रैल १९५४ ई० को सफ़दर का जन्म हुआ। डॉ० ज़ाकिर हुसैन उन दिनों अलीगढ़ विश्वविद्यालय के कुलपति थे और उस समय दिल्ली आए हुए थे। उनके किसी दोस्त ने बताया कि आपके पुराने नैश्नलिस्ट दोस्त इदरीश हाशमी का मँझला बेटा हनीफ़ हाशमी पाकिस्तान नहीं गया है और आजकल गंभीर आर्थिक संकट से ग्रस्त है। ज़ाकिर हुसैन साहब यह सुनकर उनके घर मिलने गए। घर की आर्थिक दशा देखकर उन्होंने हनीफ़ से कहा कि तुरंत अलीगढ़ आ जाओ, विश्वविद्यालय को तुम्हारी कला की ज़रूरत है। हनीफ़ हाशमी के वहाँ पँहुचने पर डॉ० हुसैन ने इंजीनियरिंग कॉलेज में वर्कशाप खुलवा दी। इस तरह फरवरी १९५५ में सफ़दर की माँ भी अपने बच्चों के साथ अलीगढ़ पँहुच गईं। हामिद इलाहाबादी ,जो यूनिवर्सिटी में सोवियत साहित्य बेचा करते थे, वे सफ़दर से बहुत स्नेह करते थे और उन्हें महान सोवियत साहित्यकारों, जैसे- गोर्की, टॉलस्टॉय, पुश्किन, चेखव, मिखाईल शोलोखोव, चेर्नविस्की, फ्योदार दायतोवस्की, गोगोल, तुर्गनेव, लेर्मेन्तोव की किताबें पढ़ने के लिए दिया करते थे। बहुत ही छोटी उम्र में सफ़दर ने टीन के एक छोटे से डिब्बे में कँकड़ डाल कर उसे डुगडुगी की तरह बजाना शुरू कर दिया। सफ़दर को बचपन से ही ड्राइंग का शौक था और वह बहुत अच्छे स्केच व पेंटिंग कर लेते थे।

सफ़दर के व्यक्तित्व के विकास में बाल-भवन का बहुत योगदान रहा। सफ़दर और उनके भाई-बहनों ने क्ले-मॉडलिंग, म्युजिकल-इंस्ट्रुमेंटस, क्रिएटिव आर्टस, ड्रामा, गायन आदि यहीं से सीखे, जो उनके जीवन के विकास में नींव के पत्थर साबित हुए। वहीं इन बच्चों ने अपने खुद के तैयार किए हुए कई नाटक प्ले किए। इससे उन्हें भरपूर सीखने व आगे बढ़ने का मौका मिला।

*सफ़दर हाशमी का रचना संसार और कृतित्व* 

सफ़दर हाशमी एक प्रगतिशील कम्युनिस्ट, भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी से संबंधित परिवार में पैदा हुए। परिवार के प्रगतिशील संस्कार बाल-सभा के सदस्य रहते और मजबूत हुए। मज़दूर संगठन सीटू और इप्टा से वह शुरूआत से ही जुड़ गए थे। सफ़दर स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के सदस्य बनकर उनकी गतिविधियों में  बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे। सफ़दर के एस०एफ०आई० में शामिल होने के कुछ समय बाद ही कई नौजवानों द्वारा प्रसिद्ध नाटक 'न्याय की तलाश में' जो "In Search of Justice" का हिंदी अनुवाद है तथा  "Exception  And The Rule " को हिंदी में अनुवाद कर खेला गया। इनसे सफ़दर का रुझान ड्रामे की तरफ़ तेज़ी से बढ़ा। 

उन्हीं दिनों १९७३ में इप्टा से निकले नौजवानों ने 'जन नाट्य मंच' की स्थापना की। १९७३ से १९७५ तक के वर्ष  "जनम" के लिए बहुत अच्छे दिन रहे। जनम द्वारा बँगला नाटक "मृत्यु अतीत" का हिंदी अनुवाद १९७३ में खेला गया। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का लिखा हुआ नाटक "बकरी" का कई बार मंचन किया गया और इस नाटक ने पूरे नाट्य जगत में तहलका मचा दिया। इसी प्रकार एक नाटक "भारत भाग्य विधाता" आयोजित किया गया, जिसमें जनम के बेहतरीन कलाकार शामिल हुए।

कुछ समय तक सफ़दर हाशमी ने लीव वैकेंसी पर दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। आपातकाल के दौर में उन्होंने गढ़वाल और कश्मीर विश्वविद्यालय में भी अध्यापन का कार्य किया। गढ़वाल में सफ़दर के साथी पंत, श्यामल, सच्चानंद, अरुण सेनन रहे। इसी बीच सफ़दर ने कश्मीर में भी एक ड्रामेटिक सोसाएटी की स्थापना कर ली। अगस्त, १९७८ में सफ़दर दिल्ली वापस आ गए और जन नाट्य मंच, अपनी पार्टी सीपीएम, मज़दूर संगठन सीटू के कामों को बखूबी संचालित करने लगे। प्रारंभ में जन नाट्य मंच प्रोसीनियम थियेटर करता था, बाद में पैसे की तंगी के कारण सफ़दर की पहल पर नुक्कड़ नाटक करना शुरू किया गया। उन्हीं दिनों मज़दूरों की एक फैक्ट्री हैरिंग इंडिया में कैंटीन व सायकिल स्टैंड के प्रश्न पर मालिकों से वार्ता विफल होने के पश्चात हड़ताल हुई। हड़ताल करने वाले मज़दूरों पर फैक्ट्री मालिकों द्वारा गोली चलवाई गई। छह मज़दूर मारे गए। इसी पृष्ठभूमि पर सफ़दर ने जनम के लिए 'मशीन' नाटक लिखा जो जन नाट्य मंच के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। इसके अनेक शो हुए। इस नाटक के एक शो में दो लाख तक दर्शक इकट्ठा हुए।

प्रवासी मज़दूरों की समस्याओं पर नाटक "गाँव से शहर तक" तथा अलीगढ़ में हुए भयानक सांप्रदायिक दंगों को लेकर "हत्यारे" नाटक को भी दर्शकों ने बहुत पसंद  किया। इसी मध्य सफ़दर ने प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की पत्रिका 'विदुरा' के संपादकीय पर काम करते रहे। इसके अलावा 'स्टूडेंट्स स्ट्रगल', 'टाइम्स ऑफ इंडिया', इकोनोमिक टाइम्स' आदि में सफ़दर के लेख बराबर छपते रहे। इसके पश्चात जनम ने कामकाजी महिलाओं की समस्याओं को लेकर हुए एक सम्मेलन में 'औरत' नुक्कड़ नाटक खेला जो काफी प्रसिद्ध हुआ, उसमें प्रयुक्त गीत की कुछ पँक्तियाँ देखें,
"दिल में  जो डर का किला है तोड़ दो अंदर से तुम
एक ही धक्के में अपने आप ही ढह जाएगा
आओ मिलकर हम बढ़ें अधिकार अपने छीन लें
काफिला जो चल पड़ा है, अब न रोका जाएगा।"
 
इसके पश्चात "जंग के खतरे" नाटक दर्शकों के समक्ष आया, जिसमें राष्ट्रपति रीगन का रोल खुद सफ़दर ने किया। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फ़िल्म "बर्निंग एम्बर्स" की पटकथा और गीत भी सफ़दर ने ही लिखे थे। उस फ़िल्म का एक गीत बहुत प्रसिद्ध है,
आसमान पर गिद्ध धर्म के आज तलक मंडराते हैं 
अंधे विश्वासों के साए अंधकार गहराते हैं 
जिंदा राख़ बदन पर मलकर मठाधीश गुर्राते हैं 
नारी को यों स्वाहा करके फूले नहीं समाते हैं।
 
इसके पश्चात सफ़दर का नाटक 'समरथ को नहिं दोष गोंसाई' आया, जिसमें किसानों की खुली लूट और कालाबाज़ारी को प्रस्तुत किया गया। उसके गीत की कुछ पंक्तियाँ हैं,
"गोदाम में जकड़ दिया साले ने मुझको जी
अब आया हूँ बाहर तो बस है यही तमन्ना
दौलत की इस जकड़ से मैं आज़ाद रहूँगा
मेहनत की मैं औलाद हूँ मेहनत की देन हूँ 
मेहनतकशों की बस्ती में आबाद रहूँगा।"
       
सफ़दर का सीटू के साथ बहुत गहरा रिश्ता रहा और अधिकांश नाटक वह उसके लिए ही करते रहे। सफ़दर ने बच्चों के लिए भी गीत लिखे,
 "किताबों में रॉकेट का राज है,
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों का कितना बड़ा संसार है,
किताबों में ज्ञान का भंडार है
किताबें कुछ कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।"
 
सफ़दर ने दूरदर्शन के लिए भी बहुत सारे वृत्त चित्र बनाए। इनका प्रौढ़ शिक्षा के लिए निर्मित टीवी सीरियल "खिलती कलियाँ" प्रौढ़ों की शिक्षा के लिए एक मिसाल माना जाता है। एक जनवरी, १९८९ को दिल्ली में मज़दूरों की वेतन वृद्धि के सवाल को लेकर प्रस्तुत किए जाने वाले नाटक "हल्ला बोल" की प्रस्तुति के दौरान सीटू के एक मजदूर कामरेड रामबहादुर का  क़त्ल कर दिया गया। इसी हमले में सफ़दर के सर की हड्डी तीन जगह से टूट गई और उन्हें बहुत सी गंभीर अंदरूनी चोटें भी लगीं। ०२‍ जनवरी, १९८९ को महज़ ३९ वर्ष की उम्र में ही सफ़दर हाशमी इस दुनिया से रुखसत हो गए।  सफ़दर की मृत्यु पर साहित्य जगत से लेकर आम आदमी तक बहुत गंभीर प्रतिक्रियाएं हुईं। देश और विदेशों की मीडिया और अख़बारों ने इस ख़बर को प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया। देश के सभी हिस्सों में इस हत्या के खिलाफ़ दुःख और रोष व्यक्त किया गया। सफ़दर की शव यात्रा में देश की जानी-मानी हस्तियों ने भाग लेकर अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि दी। दिल्ली में सफ़दर की याद में एक सड़क का नाम, 'सफ़दर हाशमी मार्ग' रखा गया है।
 
०४ जनवरी, १९८९ को सफ़दर की पत्नी ने गाजियाबाद में उसी घटनास्थल पर उनके अधूरे नाटक को पूरा किया। तबसे प्रतिवर्ष उसी जगह सफ़दर की याद में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। भीष्म साहनी और हबीब तनवीर आदि के प्रयासों से 'सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट' (सहमत) की स्थापना हुई, यह ट्रस्ट अनेक पुस्तकों की तरह ही "सहमत मुक्तिनाद" पत्रिका का प्रकाशन भी कर रहा है तथा देश में नुक्कड़ नाटकों के प्रसार हेतु प्रयासरत है। सफ़दर की मृत्यु के तुरंत बाद देश के विभिन्न स्थानों पर लगभग तीन सौ नाट्य ग्रुप बने और इन्होंने एक माह के अंदर चालीस हजार प्रस्तुतियाँ कीं। अब यह आंदोलन एक विशाल वटवृक्ष बन चुका है। 

अंत में ब्रेख़्त की पंक्तियों के साथ इस महामानव को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ,
"क्या अंधेरे में ज़ुल्मतों के गीत गाए जाऐंगे
हाँ अंधेरे में ही ज़ुल्मतों के गीत गाए जाऐंगे।"

सफ़दर हाशमी : जीवन परिचय
जन्म
१२ अप्रैल १९५४, दिल्ली
निधन
 ०१ जनवरी, १९८९
पिता
हनीफ़ हाशमी
माता
क़मर आज़ाद हाशमी
पत्नी
मलयश्री हाशमी
कार्य-क्षेत्र
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के संगठनकर्ता
एसएफआई व जन नाट्य मंच के संस्थापक

                      
लेखक 
*सुनील कुमार कटियार*

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...