Tuesday, 28 November 2023

Pfizer forced to disclose vaccine side effects data!

*Congratulations to those who were not vaccinated!  Your persistence is wise and correct!*

Pfizer lost the court case and was required to disclose all the serious side effects. FDA loses case! Pfizer forced to disclose vaccine side effects data!

9 pages of side effects! The whole world was stunned.

US168 Information Network 2022-03-05 02:1

cardiomyopathy, acute respiratory failure, injection site vasculitis, seizures, alopecia areata, anaphylactic shock, Anaphylaxis of pregnancy, aplastic anaemia, thrombosis, Arrhythmias, arthritis, Asthma, bronchospasm, cardiac arrest, heart failure, Chest discomfort, choking, chronic autoimmune, glomerulonephritis, chronic cutaneous lupus erythematosus, chronic spontaneous urticaria, hemolytic anaemia, colitis, dermatitis, diabetes, disseminated varicella zoster, Embolic cerebral infarction, Endocrine disorders, pruritus, swollen eyes, facial paralysis, genital herpes, glossopharyngeal nerve palsy, hemorrhagic vasculitis, cervicitis, lupus cystitis, lupus encephalitis, multiple sclerosis, neonatal myasthenia gravis, myelitis, noninfectious oophoritis, thyroiditis, Ulcerative proctitis.

The above is more than a thousand kinds of reactions, not limited to the side effects / physical discomfort symptoms that many people have. It is the choice behaviour that hurts oneself out of fear...

Out of 46,000 people tested, 42,000 had adverse reactions!  1200 people died! Did you hit? Nothing fun! Nothing fun!

Unvaccinated people!*Congratulations on keeping your immune system functioning properly*

क्या भारत में बौद्ध धर्म के क्षय की एक वज़ह पुष्यमित्र था?

आख़िरी मौर्य राजा की हत्या करके राज्य पर कब्ज़ा करने वाला पुष्यमित्र शुंग कौन था? क्या उसने बौद्ध विहारों और स्तूपों को नष्ट किया? क्या उसने बौद्ध भिक्षुओं की हत्या के लिए इनाम की घोषणा की थी? क्या भारत में बौद्ध धर्म के क्षय की एक वज़ह पुष्यमित्र था?

पुरूषोत्तम शुंग, जिन्हें पुष्यमित्र शुंग के नाम से भी जाना जाता है, शुंग वंश के राजा थे जिन्होंने 185 से 149 ईसा पूर्व तक भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया था। उन्हें मौर्य साम्राज्य को उखाड़ फेंकने और अपना राजवंश स्थापित करने के लिए जाना जाता है।

पुष्यमित्र शुंग को उभरते व्यापारी वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में देखा जा सकता है। मौर्य साम्राज्य एक शक्तिशाली केंद्रीकृत राज्य था जिसने किसानों और श्रमिक वर्ग के हितों को बढ़ावा दिया था। हालाँकि, पुष्यमित्र के सत्ता में आने के समय तक, मौर्य साम्राज्य पतन की ओर था। जमींदारों द्वारा किसानों का शोषण किया जा रहा था, और श्रमिक वर्ग पर राज्य द्वारा अत्याचार किया जा रहा था।

पुष्यमित्र शुंग व्यापारी वर्ग के असंतोष की अपील करके सत्ता पर कब्ज़ा करने में सक्षम हुआ था। उन्होंने उनके हितों की रक्षा करने और साम्राज्य में व्यवस्था बहाल करने का वादा किया। एक बार सत्ता में आने के बाद, उन्होंने ऐसी नीतियां लागू करना शुरू कर दिया जिससे व्यापारी वर्ग को लाभ हुआ। उन्होंने व्यापार और वाणिज्य पर कर कम कर दिया और व्यापारी वर्ग को अधिक राजनीतिक शक्ति प्रदान की।

पुष्यमित्र शुंग की नीतियाँ किसान और मजदूर वर्ग में लोकप्रिय नहीं थीं। उन्होंने उसे एक तानाशाह के रूप में देखा जो केवल खुद को और अपने सहयोगियों को समृद्ध बनाने में रुचि रखता था। परिणामस्वरूप, उन्होंने(किसानों और मजदूरों) बौद्ध धर्म का समर्थन करना शुरू कर दिया, जिसे अधिक समतावादी और न्यायपूर्ण धर्म के रूप में देखा जाता था।

पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध धर्म का उत्पीड़न शुरू करके इस चुनौती का जवाब दिया। उसने बौद्ध मठों और मंदिरों को नष्ट कर दिया, और उसने बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला या निर्वासित कर दिया। उन्होंने किसी भी बौद्ध भिक्षु के सिर के लिए इनाम की भी पेशकश की।

यह कहना कठिन है कि पुष्यमित्र शुंग के उत्पीड़न का भारत में बौद्ध धर्म के पतन पर कितना प्रभाव पड़ा। हालाँकि, यह स्पष्ट है कि उनकी नीतियों ने किसानों और श्रमिक वर्ग के बीच बौद्ध धर्म की बढ़ती लोकप्रियता में योगदान दिया।

 पुष्यमित्र शुंग उभरते हुए व्यापारी वर्ग का प्रतिनिधि था। वह व्यापारी वर्ग के असंतोष की अपील करके सत्ता में आये और उन्होंने ऐसी नीतियां लागू कीं जिनसे उन्हें लाभ हुआ। बौद्ध धर्म के प्रति उनका उत्पीड़न किसानों और श्रमिक वर्ग के बीच बौद्ध धर्म की बढ़ती लोकप्रियता से उत्पन्न चुनौती की प्रतिक्रिया थी।


Sunday, 26 November 2023

अम्बेडकर और संविधान

अम्बेडकर और संविधान

संविधान दिवस के मौके पर



  जिस वर्ग की सत्ता होती है वह वर्ग अपने वर्ग हितों की सुरक्षा के लिए संविधान बनाता या बनवाता है।

 जिन्हें लगता है कि संविधान हमारा है, उन्हें विचार करने के लिए हम कुछ तथ्य दे रहे हैं-

 (1)अनुच्छेद-19- 1(A)  बोलने की आजादी देता है जबकि 1951में पहला संविधान संशोधन करके अनु. 19- 1(B)- जोड़कर 'आन्तरिक सुरक्षा को खतरा' के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी छीन ली गयी।

 (2)अनु. 25 बौद्ध, जैन, सिख,लिंगायत आदि को हिन्दू धर्म का अंग मानता है। जब कि अम्बेडकर इस के विरुद्ध थे। बौद्ध बनकर हिन्दू धर्म छोड़ने की बात कर रहे थे।

(3) अनु.290(क) के अन्तर्गत केरल राज्य प्रतिवर्ष 46 लाख 50 हजार तथा तमिलनाडु राज्य 13 लाख 50 हजार प्रतिवर्ष हिन्दू मंदिरों के लिए देवस्थानम् निधि को देने के लिये बाध्य है। यहाँ तो गारण्टी दिया जा रहा है। 

 जब कि अनु. 36 से 51 तक लिखे नीति निर्देशक तत्व जो कि जनता के पक्ष में हैं, उन जनपक्षधर प्रावधानों को लागू करने के लिये सरकारों को बाध्य नहीं किया गया है। 

  सामन्ती मठाधीशों के हितों में तो गारण्टी है मगर जनता के मामले में कोई गारण्टी नहीं है। इन नीति निर्देशक तत्वों को सरकार चाहे तो लागू करे, चाहे तो न करे।

(4) अनु. 363 भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के हितों का संरक्षण करता है। इसमें ब्रिटिश साम्राज्य के हितों को सुप्रीम कोर्ट से भी ऊपर रखा गया है

(5) अनु. 14 में सिर्फ विधि के समक्ष समता की बात की गयी है। पूरे संविधान में आर्थिक समानता के लिए कोई प्रावधान नहीं है।

 (6)  पूरे संविधान में कहीं भी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई जिक्र तक नहीं है। जब कि राजनीतिक स्वतंत्रता बिना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता 99%जनता के लिए निरर्थक है।

  उद्देश्यिका में भी फ्रीडम नहीं लिबर्टी शब्द है, वह भी  पूजापाठ के लिए। जबकि हमारे लोगों को सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र में समानता एवं राजनीतिक क्षेत्र में क्षेत्र में फ्रीडम यानी स्वतंत्रता जरूरी थी।

 मगर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्र में सिर्फ न्याय देने की बात लिखी है। 

 (7) अनु. 372- जाति एवं वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने को मजबूर करता है।

  इसी कारण तमिलनाडु सरकार ने जब मठाधीशी में आरक्षण लागू नहीं करने की कोशिश किया तो कोर्ट ने इस आरक्षण को निरस्त कर दिया।

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सीलिंग एक्ट के बावजूद आज भी हजारों एकड़ जमीन के मालिक कैसे मौजूद हैं? दरअसल संविधान यह छूट देता है कि सामन्ती ताकतें ट्रस्ट के जरिये चाहे जितनी जमीन हड़प लें, संविधान या सीलिंग एक्ट उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

मुनाफे के जरिये चन्द पूँजीपति देश की 90% संपदा हड़प चुके हैं, जनता कर्ज लेकर गुजारा करने के लिए बाध्य है। दरअसल मुनाफे के जरिये कोई एक ही पूँजीपति पूरा देश लूट ले, संविधान इस पर कोई रोक नहीं लगाता।

पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ाने के लिए मँहगाई बढ़ाना और इस तरह मँहगाई बढ़ाकर गरीबों की हत्या करना संविधानसम्मत है।  

  मँहगाई, बेरोजगारी बढ़ाना संविधान की मूल भावना के विरुद्ध नहीं है।

यह संविधान उत्पीड़न की खिलाफत करता है मगर शोषण की खिलाफत नहीं करता है।

   
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कुछ लोगों को भ्रम है कि संविधान हमारा है क्योंकि हमारे बाबा ने बनाया है। गजब तर्क है। जिसने मकान बनवाया उसका नहीं है, मकान उसका हो गया जिसके बाबा ने राजगीरी की है।

  शोषक वर्ग यही तो चाहता है- तुम जातिवाद करो, मजदूरों किसानों में फूट डालो शोषक वर्ग के इस संविधान को पूजो क्योंकि तुम्हारे बाबा ने बनाया है।

 तुम बताते रहो कि बाबा ने दिन-रात कठिन परिश्रम करके दोनों हाथों से संविधान लिखा है। संविधान सभा में बाकी सब घास छील रहे थे।

 संविधान किसी ने भी लिखा हो, यह मायने नहीं रखता। मायने यह रखता है कि किसके पक्ष में है।

   कोई बलात्कारी बलात्कार करने के बाद 10-20 रूपये दे दे तो इसे उपलब्धि नहीं माना जा सकता। मगर कुछ लोग ऐसी चीजों को भी उपलब्धि मानते हैं।

 वे संविधान की सच्चाइयों को जानने के बावजूद  कहते हैं कि "कुछ तो मिला।"
   
*रजनीश भारती*
*जनवादी किसान सभा

Saturday, 25 November 2023

जाति (वर्ण) व्यवस्था -

इस लेख पर दो-चार बातें----


यह लेख लिखने से लगभग 10 साल पहले 1979-80 में जातिय (वर्ण) व्यवस्था पर जो चर्चायें हो रही थीं, उन्हीं के संदर्भों में लिखा गया था। उसके बाद जो नई चर्चायें उठी हैं, उन पर इस लेख में कोई चर्चा नहीं है। उदाहरणार्थ, उन दिनों वामपंथियों का एक हिस्सा यह कबूलने लगा था कि भारत में वर्ण (जातिय) व्यवस्था ही वर्ग व्यवस्था है, जबकि इससे पहले तक मार्क्सवादी इस अवधारणा को हमेशा नकारते आये थे। इसे लेकर लोहियावादी समाजवादी मार्क्सवादियों पर इल्जाम लगाते थे कि वे वर्ण व्यवस्था को जाने-समझे वगैर पश्चिम की वर्ग-व्यवस्था की अवधारणा भारत में लागू करते हैं। इसी विवाद के कारण इस प्रश्न पर इस लेख में ज्यादा चर्चा की गयी है। दूसरी बात, चूंकि 1980 में यह लेख मैंने यानी (जी.डी. सिंह )  छपाने के लिये नहीं, हाथों-हाथ नकल करके वांटने के लिये लिखा था (क्योंकि तब तक वामपंथियों और गैर-वामपंथियों में भी यह रिवाज चला आ रहा था कि कई लेख छपाये जायें और कई नकल करके बांटें जायें, इसलिये हुआ यह कि जब कुछ साथियों ने मुझे पुराना लेख छपवाने के लिये कहा और मुझे इसकी जो प्रति (नकल) उनसे मिली, वह इतनी ज्यादा त्रुटिपूर्ण हो चुकी थी कि उसे त्रुटि मुक्त करने के लिये मुझे कई जगह शब्द ही नहीं वाक्य तक बदलने पड़े लेकिन ऐसा करते हुए मैंने यह ध्यान रखा कि न तो कोई नया विचार जोड़ा जाये और न ही किसी पहले को काटा-छांटा जाये। लेख जस का तस रह जाये। अतः वही पुराना लेख आपके सामने है। तीसरी बात - लेख की लेखनी उबड़-खाबड़ भी है। कारण, यह लेख मैंने बनारस के देहातों में घूमते हुए लिखा था; वह भी हाथों-हाथ बांटने की दृष्टि से । इसलिए यह कमी स्वाभाविक थी। वह भी जस की तस है। अंतिम पैरा लेख के सारांश के रूप में नया जोड़ा गया है।


आज उठने वाले प्रश्नों का यह लेख कितना उत्तर दे पाता है, इसका फैसला पाठक करेंगे। हाँ, यह लेख अगर आज में दुवारा लिखता तो इसमें • धर्म पर अधिक चर्चा करता। विशेषकर इस पर कि अपने काल में क्रांतिकारी भूमिका निभाने वाले बौद्ध धर्म-दर्शन ने (i) ब्राह्मणवादी उच्चता व प्रभुत्व का; (ii) कर्म से नहीं जन्म से निर्णीत जातिय ऊंच-नीच का, (iii) वैदिक धर्म और उसके कर्म-काण्ड इत्यादि का विरोध करते हुए; (iv) अच्छे आचरण करने पर भी बल दिया था। जिसमें हिंसा तथा झूठ फरेब चोरी मक्कारी आदि के विरोध भी शामिल थे। आज के बौद्ध धर्म-दर्शन के प्रशंसक व अनुयाई अन्य दार्शनिक पहलुओं के अतिरिक्त इस धर्म-दर्शन के इन्हीं सामाजिक पहलुओं पर ज्यादा जोर देते हुए इन्हें वर्तमान समाज की विभिन्न समस्याओं के निदान के रूप में पेश करते हैं। इनसे वर्तमान समस्याओं का कितना निदान होगा या नहीं, यह तो दीगर बात है। परन्तु प्रश्न है, क्या महात्मा बुद्ध ने इन्हीं चारों (ऐसे ही अन्य ) आचरणों को ही "मुक्ति" या "मोक्ष का मार्ग" बताया था ? किसी अन्य को नहीं ? क्या उन्होंने इस जगत को "दुखी जगत" कहते हुए इससे "निर्वाण", "मोक्ष" या "मुक्ति" प्राप्त करने हेतु अन्य कोई मार्ग नहीं बताया था ? संसार में दुख तब से लेके आज तक चले आ रहे हैं। हां, किसी के लिए हैं और किसी के लिये नहीं हैं। इनसे "निर्वाण" या "मुक्ति" का प्रश्न तब से लेके आज तक खड़ा है। अपने समाधान की पुकार आज भी लगाता है।


सितम्बर 1989 में  जी० डी० सिंह के लिखे यह लेख, पढ़कर पाठक खुद तय करे कि आज कितना प्रासंगिक है । जाति (वर्ण ) व्यवस्था के बारे में ।

(बनारस)

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जाति (वर्ण) व्यवस्था ----------  चन्द ज्वलंत प्रश्न (1989) -------------------------------------------------------------------------    


वर्ण व्यवस्था

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पहला प्रश्न- क्या जाति या वर्ण व्यवस्था अनादि या अनन्त है ? 


उत्तर- कोई भी वस्तु पदार्थ के सिवा अनादि अनन्त नहीं है, तिस पर भी सामाजिक संरचना । मानव समाज के बारे में दी जाने वाली एकदम प्रारंभिक शिक्षा से भी पता लगता है कि मानवीय शरीर और उसके मस्तिष्क का विकास होने में न जाने कितनी शताब्दियां लग गयीं थीं। फिर मनुष्य को मानव समाज में रहना सीखने के लिए कई सौ साल लगे। मानव समाज के गठित होने के बहुत देर बाद "वर्ण-व्यवस्था"का बनना संभव हुआ। वर्ण-व्यवस्था, जैसाकि शब्दों से स्पष्ट है, एक सामाजिक व्यवस्था थी, जिसका आविर्भाव स्वभावतः मानव समाज के गठित होने के बाद, न कि उससे पहले हुआ। अतः जो लोग यह कहते हैं कि 'वर्ण व्यवस्था' अनादि है, उन्हें यह भी मानना होगा कि मानव समाज, तथा मानव शरीर का वर्तमान रूप भी अनादि है। लेकिन अनादिवादियों के प्रिय ग्रन्थ (उदाहरणार्थ, स्मृतियां) ऐसा खुद नहीं मानती। उनका कहना है कि रचयिता या सृष्टिकर्ता ने इस सृष्टि एवं समाज की रचना की। सृष्टिकर्ता काल्पनिक ही सही, परन्तु वे यह तो मानते हैं कि समाज की रचना की गयी, वह अनादि नहीं है और न ही इसकी वर्ण व्यवस्था ।

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दूसरा प्रश्न :- तब वर्ण-व्यवस्था' कब व कैसे पैदा हुई ?


उत्तरः- प्राचीन भारत की जानकारी प्राप्त करने का प्रथम स्रोत 'ऋग्वेद' है। उसे लेकर अगर हम प्राचीन समाज व्यवस्था के बारे में अनुमान लगायें तो, जो बातें स्पष्ट होती हैं, वे निम्नलिखित हैं।


1. उस काल में आर्य कहलाने वाले लोगों में ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य, चर्मकार, कृषक, रथकार, बुनकर, दास व दासियां आदि चर्चा में आते हैं। ब्राह्मण द्वारा मंत्रों को रचने व उच्चारने, राजन्य द्वारा लड़ने व समाज की व्यवस्था करने, वैश्यों द्वारा सामानों का क्रय-विक्रय करने तथा बुनकरों व चर्मकारों द्वारा कपड़ा बनाने व चमड़े के कार्य करने की उस ग्रंथ में चर्चा आती है। ये कार्य सामाजिक श्रम विभाजन के द्योतक हैं, और साथ ही इस बात के भी कि आयों में वर्ग-विभाजन प्रारम्भिक रूप में मौजूद था परन्तु एक पेशे के कार्य करने वाले दूसरे पेशों के भी कार्य कर सकते थे। इस पर कोई पाबन्दी नहीं थी, और न ही किसी को अछूत मानने की जैसी कोई परम्परा थी। इसके विपरीत न केवल एक दूसरे के कार्यों को सम्मान से देखा जाता था, बल्कि एक का कार्य दूसरा भी कर सकता था। एक, दूसरा, बन सकता था। उदाहरणार्थ, ब्राह्मण राजन्य और राजन्य ब्राह्मण वन सकता था। कई एक मंत्र अनार्यों द्वारा भी रचे हुए हैं। इन अलग अलग कार्यों व पेशों में लगे लोगों को न तो वर्ण कहा गया और न ही उनके आधार पर उस काल की व्यवस्था को 'वर्ण व्यवस्था' कहा गया, जैसाकि बाद में हुआ।


2. जिस एक दूसरे के प्रति घृणा को ऋग्वेद में व्यक्त किया गया है, सो भी आर्यों के द्वारा अनार्यों के प्रति, जिन्हें आर्य भिन्न भिन्न नामों व संज्ञाओं से संबोधित करते थे। जैसे, काले वर्ण वाले, ठिगने, चपटी नाक वाले, मोटे होंठों वाले, लिंग पूजक, गाय व आर्यों के देवताओं को न मानने वाले राक्षस व दास आदि आदि। इस घृणा का मुख्य कारण यह था कि आर्यों को इन लोगों से यहां बसने के वास्ते लगातार लड़ना पड़ता था, जिन पर चर्चाओं से ऋग्वेद के (विशेषतः) पहले 'अध्याय' भरे पड़े हैं।


3. वर्ण शब्द केवल आर्य वर्ण, तथा कृष्ण वर्ण, दास वर्ण के संबंध में ही प्रयोग में आया था। वर्ण का शाब्दिक अर्थ वैसे भी रंग होता है। इसी अर्थ में आर्यों द्वारा भी इसका प्रयोग होता था। आर्य अपने आपको गौर वर्ण बताते थे और अनार्यों को काले या कृष्ण वर्ण से संबोधित करते थे। वर्ण शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में, जाति-पाति या विभिन्न जातियों तथा पेशों या कार्यों के रूप में कत्तई नहीं हुआ।

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4. क्या ऋग्वेद-काल के आर्यों में आपसी भिन्नता या ऊंच-नीच थी ?


 उत्तर. इसका संकेत दो बातों से स्पष्ट है 

I -खुद आर्यों में दास-दासियां रखने का प्रचलन था। उदाहरणार्थ, युद्ध में हारे आदमियों को दास बनाना तथा घरेलू कार्यों में दास-दासियों से कार्य करवाना।


II- राजा या कवीले के सरदार को बलि या शुल्क देना, जो सम्पत्ति के संग्रह का द्योतक है।


ये बातें इस बात की द्योतक हैं कि उन दिनों एक तो स्वयं आर्यो में सम्पत्ति पर आधारित वर्ग-विभाजन था। दूसरे प्रारंभिक काल में आर्य अपने शत्रु-अनार्यों को मारते काटते थे; परन्तु जैसे जैसे वे यहां आकर खुद बसने लगे, पशु पालन के साथ साथ खेती करना उनका एक मुख्य पेशा बनता गया; इसके लिये व अन्य कार्यों के लिए मानवीय श्रम की आवश्यकता बढ़ने लगी, तो उन्होंने अनार्य लोगों को मारना बन्द कर दिया। युद्ध में हारे लोगों को अपना दास बना लिया ताकि उनसे आवश्यक श्रम की पूर्ति कर सकें। इस तरह ऋग्वेद काल में दासों का एक अलग सामाजिक अंग के रूप में, समाज के एक श्रमिक वर्ग के रूप में चलन शुरू हो गया ।

ऋग्वेद काल दो स्पष्ट सामाजिक गुटों में बंट गया-एक, दासों का; दूसरा, दासों के मालिक आर्यों का। इस संबंध में ध्यान रखें कि आर्यों में से भी कुछ लोग दास बन जाते थे, जैसे, आपसी युद्धों में व जुए में हारे हुए आर्य । लेकिन अधिकांश दास अनार्य थे। चूंकि अनार्यों को राक्षस, दस्यु या दास आदि शब्दों से संबोधित किया जाता था और उन्हें ही गुलाम बनाया जाता था। अतः दस्यु या दास शब्द गुलाम का द्योतक बन गया। इतिहास में आपको कई ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जिनमें आप पायेंगे कि प्राचीन काल में विजेता कबीलों ने जिन कवीलों (या जातियों) को पराजित करके अपना गुलाम बनाया था, उन्हीं पराजित कबीलों का नाम गुलाम शब्द का द्योतक हो गया। उदाहरणार्थ, प्राचीन रोमवासियों ने जब आज के यूगोस्लाविया, चेकोस्लाविया आदि की 'स्लाव' नामक नस्ल या जाति को अपना गुलाम बनाया तो स्लाव (slav) शब्द अंग्रेजी में स्लेव ( slave) अर्थात गुलाम का प्रतीक वन गया। इसी प्रकार मध्य एशिया, ईरान, इराक, टर्की में 'हैरियान' तथा 'दाही' शब्द | ऐसी बातों का निचोड़ यह है कि, दास या गुलाम का मूल तत्व है, उत्पादन कार्यों में लगे श्रमिक वर्ग ।

चूंकि आर्य लोग स्वयं को आर्य और दासों को दास अथवा आर्य वर्ण एवं दास वर्ण के जैसे शब्दों से संबोधित करते थे, इसलिए वर्ण शब्द जो दो रंगों की जातियों के लिए उपयोग होता था, वह विजेता तथा पराजित के लिए, और फिर, मालिकों व गुलामों के लिए प्रयोग होने लग गया। सामाजिक, विभाजन का वह प्रतीक बनता गया। अतः वैदिक काल के समाज के विकास की एक अवस्था में वर्ण शब्द दो वर्गों का प्रतीक बनता गया। वर्ण का अर्थ वर्ग भी हो गया, कबीलायी जनजातियों में भिन्नता के साथ साथ वह वर्ग विभाजन का भी द्योतक बनता गया।


4. आर्य, अनार्य लोगों को आर्य बनाते तो थे परन्तु यह आम प्रचलन नहीं था। वैसे भी शुरू के काल में उन्हें जब खेती या हस्त उद्योग आदि के लिए दास बनाया जाने लगा तो अनार्य से आर्य में परिवर्तन कम हो गया। कारण, गुलाम या दास होने के नाते उन्हें शत्रु नहीं, बल्कि अपने से सामाजिक आर्थिक दृष्टि से तथा वैदिक काल के रीति रिवाजों के अनुसार निम्न, नीचा (नीच) समझा जाने लगा; जैसाकि मालिक अपने गुलाम को देखता है। इस दृष्टि से अनार्य दासों के प्रति जो घृणा थी, वह अब शत्रु के नाते, या केवल अनार्य होने के नाते नहीं रह गयी थी, अपितु, सामाजिक धार्मिक एवं आर्थिक दृष्टि से निम्न या नीचा होने के कारण शुरू हो गयी थी। उदाहरणार्थ, ऋग्वेद में एक ऋषि दूसरे ऋषि को गाली देते हुए कहता है कि उसका आचरण दासों जैसा है। इसी सामाजिक अवस्था में अनार्य लोगों का आर्यों में परिवर्तन कम हो गया और इन्हें दास बनाया जाने लगा, तो यह प्रचलन एक रिवाज बन गया कि अनार्य-दास मालिक नहीं बन सकते। परिणामतः, अनार्य दासों के बच्चे भी दास होंगे, अर्थात जन्म से ही दास और मालिक वर्ण या वर्ग बनने लगे। अतः मालिक और दास वर्गों के एक दूसरे से विभिन्न पेशे (एक का मालिक बनकर उत्पादन हड़पना और दूसरे का उत्पादन करना) जन्म से ही निर्धारित होने लगे। पेशे जन्मजात निश्चित मान लिये गये। तिस पर भी जाति पांति के जैसे सामाजिक शब्दों का शुरू में प्रयोग नहीं होता था। इसके लिए समाज के आर्थिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक विकास की अवस्था अभी आनी थी, जिसमें श्रम विभाजन की अलग-अलग इकाइयां खड़ी हुई और वही जाति पांति का आधार बनीं, जैसाकि स्मृतियों के काल में हुआ।


इस संदर्भ में याद रखें कि भारत की समतल भूमि, खेतियों की सिंचाई हेतु नदियों की बहुतायत, प्राकृतिक वर्षा तथा भूमि का उपजाऊपन इत्यादि ऐसी मौलिक व भौतिक परिस्थितियां थीं, जिन्होंने आर्यों को खेती करने, उसे जीवन का मुख्य कार्य या पेशा बनाने और इसी कारण ग्रामों में बसने, तथा उपजाऊ भूमि का क्षेत्र अनुसार आपस में बांटने के आधार प्रदान किये । यहीं से आर्यों में क्षत्रिय व ब्राह्मण के अलग अलग कार्यों और वैसे ही उन्हें शब्द सम्बोधन के नाम देने की नींव भी पड़ी। कवीलों में क्षेत्रीय बंटवारा होने से जो व्यक्ति अपने क्षेत्र का प्रबंधन करता था, उसे क्षेत्र पति कहा जाने लगा और जो मंत्र उच्चारण करता था, वह ब्राह्मण कहलाने लगा। समाज के उच्च व श्रेष्ठ तबकों में ऐसा बंटवारा संसार की तमाम प्राचीन सभ्यताओं में फलीभूत हुआ था, जैसे रोम, यूनान, फारस व मिस्र की सभ्यताओं में ।


ग्रामीण जीवन के टिकाऊपन से उत्पादन के साधनों के विकास का क्रम शुरू हुआ। परिणामतः, विभिन्न प्रकार के उत्पादन में वृद्धि का भी। इसके चलते एक ओर काले वर्ण वाले दास कमकरों और दूसरी ओर गौरवर्ण वाले आर्य मालिकों के बीच वर्ग विभाजन भी बढ़ता व गहराता गया। कारण ? विभिन्न प्रकार के उत्पादनों का संग्रह दासों के पास नहीं बल्कि आर्य मालिकों के पास होता था। इससे जहां आर्यों व अनार्यों में ऊंचनीच का वर्ग विभाजन बढ़ने लगा, वहीं पर आर्यों में भी क्षत्रियों एवं ब्राह्मणों के अंतरभेद बढ़ने लगे, वे दो प्रकार के अलग अलग सामाजिक कार्यों को करने वाले और कालांतर में पेशों की वर्ण-जातियां बनने लगी थीं। इसकी शुरूआती जड़ें ऋगवेद के प्रारम्भिक काल में भी मिलती हैं। उसमें ब्राह्मण व क्षत्रिय को 'बलि' (अर्थात शुल्क) देने की चर्चा है। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली, ब्राह्मण व क्षत्रिय को शुल्क इसलिए मिलता था, क्योंकि दोनों कोई ऐसे विशिष्ट कार्य करते थे, जिन्हें करने का कार्यभार उन्हीं पर था, जिसके एवज में उन्हें शुल्क मिलता था। दूसरे, सामाजिक उत्पादन इस हद तक होने लग गया था कि शुल्क देने वाला समाज अपने उत्पादन से अपने जीवनयापन हेतु खर्चा निकाल के अतिरिक्त बचा सके

और उसे शुल्क के नाम से दूसरे को उसके कार्यभार के एवज में दे सके। शुल्क लेने व देने वाले दोनों आर्य ही थे। तो भी दोनों में यह विभाजन पहले से मौजूद था जो आर्य समाज के प्रारम्भिक वर्ग-विभाजन का द्योतक है।


यही विभाजन बाद में एक सुस्पष्ट अति कठोर व निर्मम वर्ग-विभाजन में विकसित व परिवर्तित हो गया जब अनार्यें दास एक विशिष्ट कमकर वर्ग के रूप में आर्य समाज के अंग बने और आर्य उनके मालिक शोषण दोहन पर आधारित इसी वर्ग-विभाजन के चलते उत्पादन के साधनों के विकास तथा विभिन्न प्रकार के उत्पादनों में वृद्धियां हुई। फलतः आर्यों के पास धन-संग्रह भी। यहीं से उसकी शुरूआत हुई, जिसे कालांतर में ऊंच-नीच की आदतें, प्रवृत्तियां व मनोवृत्तियां कहा जाने लगा। आर्य-मालिकों के पास धन-संग्रह और सुख-सुविधायें आने से और दूसरी ओर उत्पादन कार्यों के लिए दास-कमकरों का एक विशिष्ट वर्ग बनने से आर्य-मालिकों ने उत्पादन कार्यों में भारी श्रम करना धीरे-धीरे बंद कर दिया। यहीं से उनमें और समाज में परजीवीपन का चलन शुरू हुआ—स्वयं शारीरिक श्रम किये बगैर दूसरों के श्रम से किये गये उत्पादन को हड़पना। यहीं से आर्यों में उच्चता व श्रेष्ठता के भाव भी पैदा हुए।


 जिन उत्पादन कार्यों को वे मालिक होने के नाते खुद नहीं करते थे। उन कार्यों को तथा उनमें शारीरिक श्रम करने वाले दास कमकरों को, वे अपने से नीचा (नीच), छोटा (निम्न) काम (कालांतर में कमीना) इत्यादि मानने लगे । स्वभावतः उन्हें व उन कार्यों को करने वाले दासों को भी वे घृणा व हिकारत की नजर से देखने लगे। बाद में सामाजिक विकास की एक खास अवस्था आने पर जब जनम (जाति) से सामाजिक कार्यों (पेशों) का निर्धारण होने लगा; सामाजिक पेशे (या कार्य ) पैतृक बनते गये, तब ऐसी तमाम जातियां जो पैतृक पेशों अनुसार उत्पादन कार्य करती थीं, जिन्हें उच्च जातियां नहीं करती थीं, उन कार्यों ( पेशों ) को और उनमें श्रम करने वाली जातियों को निम्न, नीच इत्यादि कहा जाने लगा। चूंकि उच्च जातियां स्वयं कई उत्पादन कार्य नहीं करती थी अर्थात उन्हें स्वयं छूती तक नहीं थीं, इसलिए उन कार्यों को, और उन्हें करने वाले कमकर लोगों (या जातियों) को अछूत कहा जाने लगा। यहीं से छुआछूत का पहले तो चलन शुरू हुआ, और बाद में परजीवी उच्च जातियों का एक नियम बन गया। इस संदर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए कि आर्यों में स्वयं को विजेता और अनार्यो को पराजित मानकर अनार्य के प्रति घृणा व तिरस्कार का दृष्टिकोण पहले से ही मौजूद था। यही दृष्टिकोण वर्ग विभाजन बढ़ने से और विशेष कर उसके पैतृक बनने से अधिकाधिक जड़ी भूत व विकसित होता गया।


स्मृतियों विशेषकर मनुस्मृति का काल, वह काल है जब विभिन्न प्रकार के सामाजिक कार्य पैतृक बन चुके थे। हर जाति ही नहीं, बल्कि उस जाति का पेशा तय हो चुका था। कोई एक दूसरे की सीमा नहीं लांघ सकता था। इस पर कठोर नियम बन चुके थे। सामाजिक संरचना में कठोर वर्ग विभाजन आ चुका था। यही वर्ग-विभाजन जाति-विभाजन में छिपा हुआ था। अतः जाति विभाजन, वर्ग-विभाजन का वह रूप है व था, जिसमें वर्ग-विभाजन पैतृक हो चुका था (जैसेकि किसी काल में आज के ईरान व मिस्र में भी था)। जाति-पांति रूपी वर्ग-विभाजन पर आधारित सामाजिक संरचना 'मनुस्मृति' के काल में राजतंत्रीय हो चुकी थी। जिस प्रकार विभिन्न प्रकार की छोटी जातियों के पेशे तय थे, उसी प्रकार राजा के कार्यभार भी, जिनमें आम लोगों से टैक्स वसूलने व युद्ध लड़ने की नीतियों से लेकर जातीय अंतर व भेदभाव से संबंधित नियमों का उल्लंघन करने पर नीच जातियों को दंड देने के विधि विधान भी शामिल थे। 


अब धर्म पर अगले भाग में चर्चा होगी । धन्यवाद ।


जी.डी. सिंह ।


अब धर्म ---         जाति (वर्ण) व्यवस्था  (दूसरा भाग )

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बताने की आवश्यकता नहीं कि ऊंच-नीच में विभाजित समूची सामाजिक संरचना, उसमें एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्गों का शोषण उत्पीड़न, दोहन, और वैसे ही अमानवीय व दंभी दृष्टिकोण एवं व्यवहार तथा इनसे संबंधित कड़े नियम सबको ईश्वर व धर्म के नाम पर जायज ठहराया जाता था। उन्हें ईश्वरीय ईश्वर के बनाये विधान-माना जाता था; और हर वर्ण, जाति या वर्ग द्वारा उनका पालन करना हर एक का धर्म (कर्तव्य) कहा जाता था। जबकि सच्चाई यह थी कि ईश्वर ने न तो कोई सामाजिक संरचना बनायी थी, और न ही उसका विधि विधान, सबका निर्माण व विकास सामाजिक विकास के साथ साथ मनुष्य ने स्वयं किया था। तो भी तमाम प्राचीन सभ्यताओं में जैसे प्राकृतिक क्रियाओं को, वैसे ही अपने द्वारा रचित व निर्मित सम्पदाओं व उनसे संबंधित कार्यों को भी देववाणी अनुसार या ईश्वर के निर्देशन पर किये कार्य अथवा निर्माण कहा जाता था। इन्हीं में से एक समाज का जातिय विभाजन भी था। इसे भी ईश्वर द्वारा निर्देशित, अतः अनादि मान लिया गया। जबकि, जैसेकि हमने पहले बताया, ईश्वर ने मानव की रचना तक नहीं की थी और न ही मानव समाज की। इसकी जातिवादी संरचना और इसके लिए ईश्वर द्वारा वैसे ही कठोर नियम बनाने का कोई प्रश्न ही नहीं था। तो भी अगर आरम्भिक काल में स्वयं अपने द्वारा बनायी संरचना को जायज सिद्ध करने के लिए ईश्वर को पसीट के लाया गया, तो इसका कारण था, मनुष्य की अज्ञानता। इसी अज्ञानता के चलते मनुष्य समेत पूरी सृष्टि को किसी ऐसे निर्माता द्वारा रचित मान लिया गया जो रचयिता भी है और विनाशकर्ता भी है। वही हर वस्तु को गति देता है --चांद तारे, सूर्य, वर्षा, पानी, वायु, पृथ्वी से लेके मनुष्य के जनम मरण तक को मृत्यु को न समझ पाने से यह समझ लिया गया कि मनुष्य में कोई अदृश्य आत्मा नाम की चीज होती है, जो जब तक किसी में रहती है तब तक वह जीवित रहता है। जब वह निकल जाती है, तो वह मर जाता है। फिर वही आत्मा किसी दूसरे में जाकर नये मनुष्य के रूप में प्रकट होती है। यहीं से आत्मा पूजन, फिर पितृ-आत्मा पूजन, फिर पितृ-पूजन, और पितरों को देवता मान के उन्हें पूजने का रिवाज चला सो भी, लगभग तमान प्राचीन सभ्यताओं में। यहीं से यह चिंतन भी चला कि जिस मनुष्य ने अच्छे (धर्म) कर्म किये होते हैं, उसकी आत्मा या उसका जनम अच्छे या उच्च जीवन में होता है; और बुरे कर्म वाले का बुरा या नीचा कार्य करने वालों में । इसी अन्ध-दृष्टिकोण ने पैतृक-श्रम विभाजन, पैतृक वर्ग विभाजन को, ऊंची-नीची जातियों वाली जातिवादी सामाजिक संरचना को धार्मिक आधार प्रदान किये।


सामाजिक संरचना को धार्मिक रूप देने का एक अन्य मौलिक कारण भी सहायक हुआ। मनुष्य के जीवन-मरण के बारे में अज्ञानता की तरह ही प्राकृतिक वस्तुओं के बारे में भी अनुष्य अज्ञान था और साथ ही उनकी तुलना में असहाय व लाचार भी। उनसे उनको लाभ भी होता था और हानि भी; जैसे सूर्य, वादल, अग्नि, वर्षा, नदियां, पहाड़, पृथ्वी व उसकी उपज इत्यादि । इन्हें अपनी शक्ति से ज्यादा शक्तिशाली तथा लाभकारी व हानिकारक देखकर मनुष्य ने उन्हें देव-शक्ति या देवता मान लिया। उन्हें प्रसन्न करने अथवा उनका क्रोध शान्त करने हेतु उनकी पूजा करने लगा। इस प्रकार प्राचीन युगों में और पूरे संसार में "प्राकृतिक धर्म" का आविर्भाव हुआ। जो लोग पूजा करते थे, वे पूरे संसार में पुजारी कहलाये। प्रकृति पूजा से ही देव-शक्तियों को प्रसन्न करने हेतु पशुओं और यहां तक कि मनुष्यों को वलि देने का भी चलन आया। चूंकि यह जानना कि कौन देवता क्यों रंज है; उसी के चलते वह वाढ़ या अग्नि व अन्य महामारी के रूप में मनुष्यों को क्यों दंडित या पीड़ित करता है तथा उसके क्रोध को शांत करने हेतु उसकी पूजा कैसे कैसे की जाय, अथवा यह कि जीवित मनुष्य निर्जीव क्यों हो जाता है ऐसे सभी कार्य विचार या चिन्तन करने के कार्य थे। ये कार्य भी पुजारी करने लगे। चूंकि समूचा चिन्तन मनोगंत या आध्यात्मिक था, इसी कारण प्रारंभिक चिंतन या विचार स्वयं आध्यात्मिक थे। धार्मिक थे। चूंकि पूजा करने एवं मनुष्य व प्रकृति के बारे में विचारने के कार्य प्रायः एक ही व्यक्ति करने लगा, इसलिए वही पुजारी और वही विचारक भी बनने व कहलाने लगा। चूंकि इस सामाजिक हिस्से ने अपनी भौतिक आवश्यकताओं का उत्पादन करने हेतु स्वयं शारीरिक श्रम करना बंद कर दिया; उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति दास-कमकरों के शारीरिक श्रम से हुए उत्पादों से होने लगी। यूं कहिए, धर्म, दर्शन विचार और विचार करने के जैसे उस काल के नितांत आवश्यक सामाजिक कार्य करने वाले पुजारी व विचारक वर्ग की शुरूआत कमकर वर्गों के शारीरिक श्रम पर निर्भरता पर खड़ी हुई जो परजीवीपन में और फिर कमकर वर्गों के कठोर व निर्मम, शोषण, दोहन में विकसित हुई ।


ब्राह्मणों के बारे में इतिहासकारों का कहना है कि 'ब्रा' शब्द का अर्थ चूंकि उच्चारना (बोलना), उच्चारण होता है इसलिए जो लोग मंत्रोच्चारण का कार्य करते थे, वही ब्राह्मण कहलाने लगे। बाद में वही मंत्रोच्चारण करने वाले पुजारी बनने के साथ साथ धर्म गुरू भी बन गये। इतिहासकार यह भी बताते हैं कि "ऋग्वेद" का "पुरुष सूक्त" नामक अंतिम अध्याय काफी बाद में जोड़ा गया था, जब समाज का जातिवादी संरचना में बंटवारा हो चुका था । कारण, उसी अध्याय में यह कहा गया है कि ब्रह्मा के मुँह से ब्राह्मणों की, भुजा से क्षत्रियों की और पैर से शुद्रों की उत्पत्ति हुई। जबकि पूरे वेद में, जैसे कि पहले बताया गया समाज के ऐसे कठोर विभाजन की कहीं चर्चा नहीं है।


अब वैदिक काल के बाद का काल देखें। विद्वान बताते हैं कि लोहे की खोज भारत में लगभग 800 वर्ष ईसा पूर्व हुई थी। इससे समाज में मूलभूत परिवर्तन आये। कारण, लोहे से बने उत्पादन के साधन ज्यादा मजबूत व ज्यादा टिकाऊ थे। इसके चलते जंगल काटने, उपजाऊ भूमि को समतल वनाने, कृषि उत्पादन को विकसित व विस्तृत करने के जैसे कार्य ज्यादा सुगम हो गये । औद्योगिक उत्पादन तथा यातायात के साधनों का भी विकास तेजी से होने लगा। कुल मिला के कहा जाये तो यह कि सामाजिक उत्पादन और इसके विनिमय में वृद्धि व तेजी आयी। परन्तु समाज में धन व उसके चलन को वृद्धि का यह मतलब नहीं कि उसका लाभ समाज के सभी लोगों को मिला। प्रभुत्वकारी मालिक धन सम्पदा की उत्तरोत्तर उत्पत्ति एवं वृद्धि के साथ साथ अधिकाधिक धनाढ्य व सम्पत्तिवान होते गये। वहीं दूसरी ओर समाज के कमकर तबके के ऊपर उनका प्रभुत्व व अंकुश तथा उनका शोषण भी उतना ही बढ़ता गया; जैसे कि आज भी होता है। नतीजा यह कि उस काल के विकास के अनुसार लोहे के यंत्रों से जितना अधिक जंगल काटकर खेती का • विकास व विस्तार होता गया व खनिज भंडारों की खोज के साथ साथ अत्यअधिक उत्पादन भी बढ़ता गया, उतना ही अधिक मानवीय श्रम के तीव्र शोषण की आवश्यकता भी बढ़ती गयी। उसके लिए कमकर वर्गों को दासों या अर्ध दासों की स्थिति में रखकर उनसे काम लेने की आवश्यकता भी बढ़ती गई। इसी आवश्यकता पूर्ति के लिए शारीरिक श्रम करने वाले तमाम वर्गों को समाजिकताओं, (सामाजिक अधिकारों) से वंचित कर दिया गया। एक वैश्य को छोड़कर बाकी सबको शूद्र नामक एक संज्ञा दी गयी। शुद्र एक आम श्रेणी थी, जिसमें नाना प्रकार के लोग आते थे। उदाहरणार्थ-बुनकर, चमार, बढ़ई, लोहार, रथकर व धनुष बनाने वाले, जानवर व पक्षी मारने वाले, सांप पकड़ने वाले, खनिज व उद्योगों में तथा खेतियों में काम करने वाले मजदूर, मकान व सड़कें बनाने वाले मजदूर आदि इन सबके पेशे के अनुसार इन सबके नाम पड़ते गये, जैसे कि आज भी है। लेकिन समाज की श्रेणियों की दृष्टि से एक ही नाम इस श्रेणी का था, वह था शुद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के बाद सबसे नीचे शूद्र । अर्थात वर्ण तो चार थे। परन्तु शूद्र वर्ण में पैतृक पेशे के अनुसार उनके नाम की कई जातियां भी बनने लग गयीं ।


वैदिक काल के बाद स्मृतियों में शूद्रों व दासों को जब धन सम्पत्ति रखने से तथा वेद इत्यादि पढ़ने से रोका गया, तो इसका क्या अर्थ था? केवल यह कि वे दास वर्ग के लोग हैं, न तो उच्च वर्गों के कार्य कर सकते हैं और न ही उनके जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक अधिकार पा सकते हैं। स्मृतियों में यह भी स्पष्ट किया गया है कि अगर दास का मालिक दास को छोड़ भी देता है, तो वह दास के कार्य से मुक्त नहीं हो जाता है; अर्थात उसको इस व्यक्ति की नहीं तो उस व्यक्ति की दासता करनी ही पड़ेगी। नारद स्मृति तथा मनु-स्मृति देखें तो उसमें भी यही लिखा है कि शूद्रों का काम ही ऊपर की तीनों, खासकर दो वर्णों की सेवा करना है। वह अन्य वर्णों का कार्य नहीं कर सकता। ऊपर के दो वर्ण अगर चाहें, खासकर ब्राह्मण, तो शूद्रों के धन का प्रयोग कर सकता है। यह शारीरिक श्रम करने वाले तमाम पेशों में लगे शूद्रों के अर्द्ध-दासता की स्थिति का परिणाम था। उन दिनों के समाज के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक विकास का उच्चतम रूप पहले मौर्य राज्य की स्थापना थी। इस राज्य की स्थापना की नींव शूद्रों के दास जीवन पर खड़ी हुई। शूद्रों के बिना उस राज्य की स्थापना हेतु आवश्यक धन सम्पदा का उत्पादन सम्भव नहीं था। इसी की ही खातिर स्मृतियों में वर्णित शूद्रों पर अमानवीय अत्याचार किये गये। मौर्य राज्य के इतिहासकार बताते हैं कि कई हजार शूद्रों को उड़ीसा व अन्य जगहों से लाकर बिहार में बसाया गया था।


जैसा कि बताया गया है कि धन सम्पदा की वृद्धि ने ब्राह्मणों व क्षत्रियों के धन वैभव, आर्थिक व सामाजिक प्रभुत्व को बढ़ा दिया और क्रमशः उसके निरंकुश शासन व उत्पीड़न को भी ब्राह्मण खुद तो राज्य नहीं करते थे, लेकिन राज पुरोहित होने के कारण सामाजिक संरचना की व्याख्या करते थे और वह भी धर्म के नाम पर जैसाकि पहले बताया, कि दैविक शक्ति की पूजा आदि के अलावा सामाजिक धर्म का केवल एक ही मतलब था, वह था तमाम जातियों द्वारा अपनी-अपनी जातियों के अनुसार काम करना । न करने पर दंड का भागी बनना ब्राह्मण चूंकि बिना श्रम किये सम्पदाओं का उपभोग करते थे; उनके काम थे दैविक शक्तियों की पूजा करना और इससे जुड़े कर्म कांड करना इत्यादि। लेकिन इसके साथ ही पृथ्वी, इसके रचयिताओ तथा सामाजिक संरचनाओं एवं आदमी के जीने मरने के बारे में ब्राह्मण चिन्तन करते थे, इसके चलते पहले के कर्मकांडी ब्राह्मणों के साथ दूसरे प्रकार के विचारक ब्राह्मणों की भी श्रेणियां बनती गयीं। समाज पर ब्राह्मणों व क्षत्रियों के प्रभुत्व ने, विशेषकर कर्मकांडी ब्राह्मणों को अपने धन, पद व प्रतिष्ठा के लालच में सैकड़ों प्रकार के झूठे व फरेबी कर्मकांडों व सामाजिक आचरणों को गढ़ने के आधार प्रदान किये। इनसे समाज मिथ्या प्रपंचों के जाल में फंसता गया।


ईसा पूर्व 600 साल के काल को मोटे तौर पर चार वर्णों में बंटा हुआ पाते हैं। उन्हें हम उस समय के तीन या चार प्रमुख वर्ग भी कह सकते हैं। पहला, ब्राह्मण व क्षत्रिय थे तो दो वर्ण; पर दोनों का वर्ग सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से एक था; वैसे ही जैसे आज हम बड़े पूंजीपतियों एवं बड़े अधिकारियों को एक ही श्रेणी या वर्ग में रखते हैं। तीसरा वर्ण, और दूसरा वर्ग वैश्य था। चौथा वर्ण एवं वर्ग शूद्र था, जिसमें आज की मजदूर श्रेणी की तरह ही नाना प्रकार के व्यवसायों में लगे कमकर आते थे, जो जनम-जात अर्ध दास होते थे, जैसेकि आज नहीं होते। शायद आप पूछें, क्या उन दिनों ब्राह्मण या क्षत्रिय, गरीब मजदूर या श्रमिक नहीं होते थे ? अगर वे थे तो उन्हें उच्च ब्राह्मण व क्षत्रियों के साथ एक ही श्रेणी या वर्ग में कैसे रखा जा सकता है ? इसके बारे में दो बातें यहां ध्यान देने लायक हैं।


एक, यदि आप स्मृतियां व अन्य शास्त्र देखें तो स्मृतियों की रचना करने वालों ने बहुत से ऐसे ब्राह्मणों या क्षत्रियों को नीचा ब्राह्मण या नीचा क्षत्रिय कहा था, जो नीचों या शूद्रों जैसे ऐसे कार्य एवं व्यवहार करते थे जिनकी शास्त्रों द्वारा मनाही की गयी थी। केवल आपात काल में ही शूद्रों के सभी नहीं पर कई काम करने हेतु उच्च वर्णों को कहा गया है। दूसरे, ऐसे ब्राह्मण या क्षत्रिय को नीचा ब्राह्मण या क्षत्रिय कहा गया है, जो स्थानीय या अन्य जातियों के साथ घुल-मिल गये थे; ब्याह शादी के द्वारा या वैसे भी रक्त मिश्रण हो गया था। तात्पर्य यह है कि शास्त्रों में आपातकालीन छूट होने के बावजूद ऐसे ब्राह्मणों व क्षत्रियों को उच्च ब्राह्मण व क्षत्रिय तिरस्कार व घृणा की दृष्टि से देखते थे। उन्हें अपने समाज का अंग नहीं मानते थे, उनसे सामाजिक बंधन नहीं जोड़ते थे। क्या ऐसी सैकड़ों हजारों साल पुरानी बातों के अवशेष आज तक नहीं मिलते ? आज जब प्राचीन युगों से चले आये भेदभाव के अवशेष मिलते हैं, जबकि जमाना इतना बदल गया है कि ब्राह्मणवादी प्रभुत्व तथा क्षत्रिय प्रभाव स्वयं गिर चुका है; तो प्राचीन काल में समाज से बहिष्कृत ब्राह्मणों या क्षत्रियों की क्या स्थिति हुई होगी, जब ब्राह्मणवादी प्रभुत्व अपनी चरम सीमा पर था। इसका आप अनुमान लगाके देखें । अतः नाम से ब्राह्मण या क्षत्रिय होने पर भी अगर वे शुद्ध ब्राह्मणों या क्षत्रियों के वर्णों से कटे रहते थे, तो हम क्या यह कहें कि अगर वे भी ब्राह्मणों या क्षत्रियों के वर्णों व वर्गों में शामिल थे ? हाँ, वे दासों-कमकरों-शूद्रों से उच्च थे, इसमें शक की कोई गुन्जाइश नहीं है। अतः यह कहना पूर्णतः गलत है कि प्राचीन काल के समाज में वर्ग नहीं केवल वर्ण होते थे। केवल वर्ण विभाजन था, वर्ग विभाजन नहीं था।


प्राचीन काल के समाज को उसके वर्ण विभाजन (जातीय विभाजन) को बदलने का काम सर्व प्रथम महात्मा बुद्ध ने किया। बुद्ध ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता, ब्राह्मणवाद तथा कर्मकाण्ड जैसी अनेक सामाजिक बुराइयों का विरोध किया। उन्होंने कर्मकाण्डों के द्वारा नर्क से बचकर स्वर्ग में जाने की अवधारणा की जगह निर्वाण या मोक्ष प्राप्ति का सिद्धांत दिया। कर्मकाण्डों में पशु या मानव की बलि के स्थान पर अहिंसा का सिद्धांत स्थापित किया। जन्म से जाति निर्धारण की जगह कर्म से जाति निर्धारण का सिद्धांत तो दिया, परंतु जाति पांति या वर्ण व्यवस्था का विरोध, ब्राह्मणवादी प्रभुत्व के विरोध तक ही सीमित रहा। कारण ? ब्राह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों, वैश्यों को अपने ही कुल में ब्याह करने का भी उन्होंने उपदेश दिया। हां, वौद्ध विहार में शामिल होने पर किसी वर्ण विशेष पर कोई रोक नहीं लगायी। परंतु दासों पर लगायी । अव चूंकि शूद्रों में से बहुत से लोग दास होते थे, वे वौद्ध दीक्षा से वंचित रह गये। 


बौद्ध धर्म का सबसे प्रमुख प्रभाव वैश्य वर्ण पर पड़ा। वास्तव में इसी वर्ण ने बौद्ध धर्म को फैलाया भी। कारण यह था कि वर्ण-व्यवस्था के अनुसार वैश्य वर्ण तीसरे नम्बर पर आते थे, उनमें कृषि करने वाले वैश्य को शुद्र के समान ही माना जाता था। मौर्य राज्य की स्थापना के बाद जब खनिज व खेती का काम बढ़ा तो उत्पादनों का क्रय विक्रय व्यापार का विस्तार होने लगा। इसके चलते वैश्यों का महत्व आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से बढ़ गया। उनकी सामाजिक श्रेष्ठता तथा आर्थिक विकास में अगर कोई बाधक थे, तो वे थे ब्राह्मणों का ब्राह्मणवाद और क्षत्रिय इस ब्राह्मणवाद को उस काल में अगर किसी ने नकारा था तो वह बौद्ध धर्म था, इसलिए बौद्ध धर्म को सबसे अधिक समर्थन वैश्यों से मिला।


इसके बाद ब्राह्मणवाद को अगर किसी ने चोट पहुंचाई तो वे थे, पहली व दूसरी शताब्दी के यूनानी, शक और कुषाण हमलावर। उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा राजतिलक न करने पर वैश्यों, शूद्रों को बढ़ावा दिया। ब्राह्मणों ने इसी कारण यवनों एवं मलेच्छों के राज्यों में ब्राह्मणों का रहना वर्जित घोषित कर दिया था। इसके पश्चात सातवीं से दशवीं शताब्दी तक मुसलमानों के बार बार हमलों ने और अंत में उनके लगभग 800 साल तक चले राज-काज ने किस प्रकार ब्राह्मणवाद एवं समूचे जातिवाद को तोड़ने में भूमिकाएं निभाई, यह बताने की आवश्यकता नहीं। 


लेकिन हिन्दू समाज के भीतर की वर्ण-व्यवस्था में मुसलमान कोई मौलिक परिवर्तन नहीं कर सके। इस परिवर्तन की सर्वप्रथम आधार शिला अंग्रेजों ने डाली। उन्होंने हिन्दू सामाजिक संरचना की पहली बार जड़ें खोदीं। एक सामाजिक सुधारक होने के कारण नहीं, वरन पहले व्यापारी और बाद में पूंजीवादी लुटेरे होने के कारण। अपनी लूटपाट का राज काज स्थापित करने हेतु अंग्रेजों ने जातिवाद तोड़ने से संबंधित कई कार्य किये। जैसे...


( 1 ) पैतृक जमींदारी प्रथा तोड़कर ठेके के आधार पर जमींदारी चलायी। इसमें हर वर्ण या जाति का व्यक्ति जमींदार हो सकता था, जो अधिकाधिक जमींदारी लगान अंग्रेजों को दे सके। इससे कायस्थ और बनिया वर्ण या जाति के लोग भी जमींदार बन गये। इसके चलते बहुतेरे ब्राह्मण व क्षत्रिय उनकी चाकरी करने लग गये ।


( 2 ) प्राचीन शिक्षा दीक्षा तथा शिक्षा की पद्धति की जगह अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा तथा अपनी पद्धति लागू करके ब्राह्मणवादी शिक्षा-दीक्षा अतः ब्राह्मणबाद को गिराना शुरू कर दिया। इससे न केवल ब्राह्मणों व क्षत्रियों की श्रेष्ठता टूटी, बल्कि वैश्य जाति के लोग उच्च शिक्षा प्राप्त करके अंग्रेजी प्रशासन में अधिकारी बनकर अन्य जातियों की तुलना में श्रेष्ठता प्राप्त करने लग गये।


( 3 ) औद्योगीकरण के चलते वर्ण व्यवस्था पर क्या क्या प्रभाव पड़े, इसकी बहुत सी बातें आप जानते होंगे, लेकिन अगर उन्हें यहां गिनाया जाय तो संक्षेप में वे यों हैं— पुराने पेशों का टूटना, जैसे, कपड़ा बुनना, चमड़े का सामान बनाना, वर्तन बनाना, तेल निकालना इत्यादि इत्यादि जिन जिन पेशों को औद्योगीकरण तोड़ता गया, वो धीरे-धीरे विलीन होते गये। परिणाम यह हुआ कि ऐसे पेशों में श्रम करने वाली शुद्र जातियां जो अपने अपने पैतृक पेशों के कारण उन पेशों के नामों से पुकारी जाती थीं, वे जातियां भी पेशे टूटने के साथ-साथ टूटती गयीं। परिणामतः उन पर ब्राह्मणों और क्षत्रियों का सदियों पुराना प्रभुत्व भी टूटता गया। दूसरी ओर ब्रिटिश प्रशासन, ब्रिटिश उद्योग व व्यापार आदि में और बाद में भारतीयों के व्यापार एवं उद्योगों में भी हर उस व्यक्ति को बिना जाति-पांति का लिहाज किये नौकरियां दी गयीं, तो जातिवाद में भीतरी टूटन शुरू हो गयी ।


4. नई प्रकार की जमींदारियों व नये प्रकार के लगान एवं नई भूमि व्यवस्था के साथ साथ जब पुरानी की जगह नई प्रकार की खेतियां शुरू हुई, (उदाहरणार्थ, पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार में नील व अफीम की खेतियां, महाराष्ट्र व मद्रास में कपास की, बंगाल में चाय व जूट की खेतियां शुरू हुई और पंजाब में गेहूं की खेती पर जोर दिया गया। इससे किसानों तथा देहातों में बदहाली तो फैली परंतु जाति-पांति की जड़ व्यवस्था भी टूटी। गावों की ओर से शहर भागकर आने से कई जातियों के लोग नये औद्योगिक जीवन के मज़दूर हो गये। वर्ण या के जातियां वर्गों में बदल गयीं।


5. वर्ण व्यवस्था को तोड़ने में कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन ने भी सहयोग दिया। अपने तमाम सुधारवादी व अवसरवादी चरित्र के बावजूद कांग्रेस आंदोलन ने जाति-पांति तोड़ने में सुधारवादी ही सही, परंतु महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्यों?


कोई भी राष्ट्र जब किसी विदेशी शक्ति से लड़ता है, तो उसे एकजुट होना पड़ता है। इसके वास्ते उसके भीतरी अन्य विरोध कम होने चाहिए। इसी कारण हरिजन कल्याण जैसे विभिन्न प्रकार के आंदोलन कांग्रेस की ओर से चलाए गये, परंतु इससे अधिक नहीं, क्योंकि कांग्रेस मूलतः भारतीय पूंजीपतियों का प्रतिनिधित्व करती थी। उन्हीं के हितों के लिए लड़ती थी। यूं कहिए, अंग्रेजों के विरूद्ध कांग्रेस का आंदोलन भारतीय पूंजीपतियों के हितों को दृष्टि क्रांति में रखकर चलाया जाता था। इसी कारण कांग्रेस कोई भी सामाजिक की भूमिका नहीं निभा पायी। शूद्रों के संबंध में क्रांतिकारी भूमिका क्या हो सकती थी, इसे हम बाद में देखेंगे। इससे पहले हम 1947 के बाद के काल पर आ जायें। और अपनी बहस को उस चर्चित प्रश्न से शुरू करें, जो मार्क्सवाद का विरोध करने के लिए खड़ा किया जाता है।


पहला प्रश्न - भारत दुनियां का एक विलक्षण देश है। इसकी सामाजिक संरचना का मूल तत्य वर्ण-विभाजन है। और यह वर्ण-विभाजन शताब्दियों से चला आ रहा है।


दूसरा प्रश्न - वर्ण-विभाजन पर आधारित वर्ण संघर्ष न कि वर्गों पर -

आधारित वर्ग-संघर्ष भारत में होना चाहिए। यही स्थिति भारत को अन्य देशों से भिन्न करती है। इसे एक विलक्षण देश बनाती है।


इन प्रश्नों के उत्तर अब अगले पोस्ट में ।


जी.डी. सिंह ।


जाति (वर्ण) व्यवस्था----------   (तीसरा भाग )

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पहला प्रश्न-भारत दुनियां का एक विलक्षण देश है। इसकी सामाजिक संरचना का मूल तत्व वर्ण-विभाजन है। और यह वर्ण-विभाजन शताब्दियों से चला आ रहा है।


दूसरा प्रश्न - वर्ण-विभाजन पर आधारित वर्ण संघर्ष न कि वर्गों पर आधारित वर्ग-संघर्ष भारत में होना चाहिए। यही स्थिति भारत को अन्य देशों से भिन्न करती है। इसे एक विलक्षण देश बनाती है। 


पहली बात को लें – शताब्दियों से वर्ण व्यवस्था क्यों चली आयी ? सीधा जवाब तो यह है कि आर्थिक बनावट भी शताब्दियों से चली आयी है। जिस हद तक आर्थिक संरचना में परिवर्तन हुए उसी हद तक सामाजिक (वर्ण ) व्यवस्था में भी परिवर्तन हुए। प्रश्न है, भारत की कौन-सी ऐसी विशेष बनावट या विशिष्ट चारित्रिक गुण है जो सदियों से चला आ रहा है ? पंडित नेहरू जैसे विद्वानों का कहना है कि भारत में कोई न कोई विशिष्ट (आध्यात्मिक ) गुण है, जो उसकी धर्म संस्कृति सभ्यता को हजारों साल तक बनाये रखा है। विदेशी आक्रमणकारी तक इस सभ्यता में समाविष्ट हो जाते हैं। आप जानते हैं कि हिन्दुस्तान को कृषि प्रधान देश कहा जाता रहा है। इसका क्या अर्थ है? केवल इतना ही नहीं कि यहां कि 80% जनसंख्या (या पहले कभी 95% ) कृषि में लगी हुई रही है, बल्कि यह भी कृषि पर निर्भरता लम्बे काल से चली आ रही है। अधिकांश जनसंख्या की कृषि पर निर्भरता और वह भी उसका लम्बे समय से चले आना, यह क्यों ? और इसके सामाजिक परिणाम क्या होंगे ? हिन्दुस्तान, यूरोपीय या अरब देशों से इस माने में बिल्कुल भिन्न है कि (i) यहाँ पश्चिम से लेकर पूरव तक उत्तर से लेकर दक्षिण तक हजारों-हजार मील समतल व उपजाऊ भूमि है । (ii) प्राकृतिक वनस्पतियां ( Natural Vegetable) बहुत अधिक हैं। (iii) नदियों के अलावा समय समय पर खरीफ के लिए वर्षा होती है। इन सब बातों ने यहां के जीवन को प्रकृति पर निर्भर बना दिया और उसकी उपासना करने पर मजबूर कर दिया। इतना ही नहीं भूमि तथा अन्य प्राकृतिक स्रोतों से मनुष्यों की लगभग तमाम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति से यहां के समाज को निर्भरशील, शिथिल व टिकाऊ बनाया। उन्हें अन्य देशों के लोगों की तरह अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु दुनिया के अन्य इलाकों को लूटने या उनमें जाकर बसने को मजबूर नहीं किया, जैसेकि यूनानवासियों अरबों या रोमवासियों के साथ हुआ। वहां कृषि लायक भूमि तथा कृषि की सुविधाएं दोनों ही अपर्याप्त थी। मूलतः इसके चलते जन संख्या की वृद्धि ने उन्हें अपने देश व नगर को छोड़कर अन्य देशों पर हमलावर बनने को मजबूर किया। परंतु यहां पर, जैसे पहले कहा गया समतल भूमि हजारों मील फैली हुई थी। आर्य लोग जंगल काट काटकर हर जगह अपने गण (कबीले) बसाते गये थे। कबीले के हिसाब से क्षेत्र बंट गये और उन पर गांव बस गये। गांव अपने आप में एक स्वतंत्र सामाजिक आर्थिक इकाई बनते गये। वे सदियों तक ऐसे ही बने रहे। कारण, खेती द्वारा उनके भोजन और वस्त्र की जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहती थी। खेती के तमाम साधन स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हो जाते थे। भोजन के अलावा अन्य तमाम वस्तुएं तथा उनके उत्पादन के साधन आदि और इन सब वस्तुओं आदि का उत्पादन करने वाले भी गांव में मौजूद रहते थे। बुनकर, कहार, चमार, डोम मुसहर, बढ़ई, लोहार, तेली, किसान, जमीनों के मालिक, जमींदार, कृषि और शादी विवाह के नक्षत्र बताने वाले कर्मकाण्ड रचने वाले वैदिक व अन्य शिक्षा देने वाले। इस तरह गांव की एक स्वतंत्र इकाई की आवश्यकताएं सामाजिक श्रम विभाजन द्वारा एक दूसरे से पूरी हो जाती थीं। और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति का सामाजिक आधार क्या था ? पैत्रिक सामाजिक श्रम विभाजन, पैत्रिक पेशे, अर्थात जाति-पांति। चूंकि ग्रामीण जीवन एक आत्मनिर्भर सामाजिक इकाई की तरह टिकाये रहे, इसलिए इस आत्म निर्भरता का आधार पैत्रिक श्रम विभाजन- जातिवाद - भी टिका रहा। यूनानियों, शकों व मुसलमानों तक के विदेशी हमलावरों ने गांवों को केवल इतना ही हिलाया कि वे उन्हें लूटे-पाटे। इससे गांव कुछ देर के लिये बर्बाद हो गये। परन्तु फिर पहले की ही तरह अपनी भूमि पर पुराने जन-जीवन के रास्ते पर आबाद हो गये। कारण यह भी था कि अंग्रेजों के आने से पहले के हमलावरों के पास जनजीवन का कोई दूसरा रास्ता नहीं था; और ही भारतीयों की तरह कृषि पर आधारित सभ्यता संस्कृति में स्वयं विकसित थे। वे स्वयं पिछड़े हुए थे। इसी कारण वे यहां के उत्पादन व विनिमय, रहन-सहन, रीति रिवाज से प्रभावित हुए। वे यहां खप गये। उन्होंने भी यहां के लोगों को भी प्रभावित किया। किन्तु वर्ण-व्यवस्था की जड़ को उखाड़ने में वे कुछ भी नहीं कर पाये। मुसलमानों से पहले के यवन, शक, हूण आदि आक्रमणकारी स्वयं देश के शासक बनने के कारण यहां के शासकों क्षत्रियों व ब्राह्मणों में खप गये। उन्होंने देश की कृषि पर आधारित व्यवस्था ( जो कि यहां की मुख्य सम्पदा की स्रोत थी ) को नहीं तोड़ा। वैसे भी वे तथा मुसलमान उसी को देखकर यहां आये थे। यहां की कृषि चूंकि ग्रामीण जीवन द्वारा होती थी, जिसकी सामाजिक बनावट पत्रक-सामाजिक श्रम विभाजन अथवा जाति व्यवस्था थी; वह देश की अर्थ व्यवस्था का सामाजिक आधार थी, इसलिए जाति व्यवस्था को किसी के द्वारा तोड़ने का कोई प्रश्न नहीं था। मुसलमानों ने उसे तोड़ने में एक सीमा तक भूमिका जरूर निभाई। एक तो क्षत्रियों व ब्राह्मणों की जगह स्वयं प्रभुत्वकारी शासक - प्रशासक बनकर और दूसरे धर्म परिवर्तन को बढ़ावा देकर; अन्यथा जातीय संरचना जस की तस पड़ी रही।


इसे तोड़ने का कार्य सर्वप्रथम अंग्रेजों ने किया। कारण, अपनी साम्राज्यवादी लूटपाट हेतु उन्होंने ही सबसे पहली बार गांव की अर्थव्यवस्था को तोड़ा, जिसका मूल आधार जातीय संरचना थी। यह कैसे हुआ, इस पर हम पहले ही चर्चा कर आये हैं। कृपया याद रखें अंग्रेजों ने जिस हद तक और जहां जहां गांव की अर्थव्यवस्था को लूटपाट हेतु तोड़ा, उसी हद तक वहां जाति-पांति भी टूटी। महाराष्ट्र, मद्रास व बंगाल में उनके औद्योगीकरण, वाणिज्य व व्यापार का विस्तार हुआ। वहीं पर उनकी नई शिक्षा पद्धतियों तथा प्रशासकीय केन्द्रों की स्थापना भी हुई। परिणामतः इन प्रांतों में यू.पी., विहार आदि जैसे पिछड़े प्रांतों की तुलना में जाति-पांति न केवल आज कम है, बल्कि अंग्रेजी शासन काल में ही असवर्ण जातियाँ मद्रास तथा महाराष्ट्र में राजनीतिक व प्रशासकीय क्षेत्रों में भी उभरकर आयीं। उन्होंने ब्राह्मणों के एकाधिकार तथा आधिपत्य को नष्ट करने के आंदोलन भी चलाये। ये जातियां कौन थीं? क्या वर्ण-व्यवस्था की सबसे निचली जातियां ? अथवा मध्यम वर्गीय जातियां, जैसे कुनबी, वैश्य, लाला, यादव आदि आदि ? शुद्र जातियां क्यों नहीं शुरू में उभर पायीं? अंग्रेजों के समय में जो भी कहीं-कहीं भूमि सुधार हुए थे और उसके साथ ही किसानों के जो आंदोलन हुए उसके चलते जमींदारी प्रणाली के अधीन किसान (जातियां) जमीनों के छोटे व औसत टुकड़ों के मालिक (भूमिधर) बन गईं। परन्तु शुद्र जातियां जो प्रायः भूमिहीन व सम्पत्तिहीन थीं, वे भूमिहीन रह गयीं। वे न केवल आज भी शूद्र हैं, या गांधी जी की दी गयी संज्ञा के अनुसार हरिजन हैं, बल्कि मद्रास महाराष्ट्र के पिछड़े देहाती इलाकों में आज भी उनके साथ बुरा व्यवहार किया जाता है। क्योंकि पहले की तरह वे आज भी सम्पत्तिहीन व भूमिहीन हैं। आज भी जीविका हेतु जमींदारों व किसानों पर निर्भर हैं। उधर किसान व जमींदार स्वयं पिछड़ी हुई खेती पर या प्राकृतिक खेती पर निर्भर हैं। उनके उत्पादन के साधन कहीं कहीं पूर्णतः और प्राय: आंशिक रूप से पिछड़े हुए हैं। गांव में बटाईदारी व सूदखोरी भी विद्यमान है। इन सबके फलस्वरूप मजदूरों तथा किसानों व जमींदारों में मालिक व मजदूर के पुराने संबंध भी मौजूद हैं, खास कर यू.पी., बिहार में । अर्थात एक का मूल उत्पादक के रूप में भूमिहीन कमकर होना और दूसरे का मालिक होना। जिस हद तक गांव पुराने स्वरूप में मौजूद हैं उस हद तक वर्ण व्यवस्था भी वहां मौजूद है।


महाराष्ट्र व बंगाल के बड़े नगरों को देखिए जो आज कई दशकों से वाणिज्यिक, व्यापारिक तथा आधुनिक शिक्षा व प्रशासकीय जीवन और अंग्रेज विरोधी क्रांतिकारी आंदोलन और फिर पूंजीवादी विचारों व आंदोलनों तथा मार्क्सवादी-मजदूर एवं मध्यम वर्गीय आंदोलनों व संघर्षों इत्यादि के गतिशील सामाजिक व राजनीतिक जीवन से गुजर रहे हैं। वहां के रहने वाले लोगों की चिंतनधारा क्या है ? जिन्होंने एक या दो तीन पीढ़ियां इन नगरों में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक उथल-पुथल में बितायीं, वे विभिन्न जातियों से संबंध तो रखते रहे परन्तु उनमें न तो जाति-पांति का, और न ही ऊंच-नीच का इतना भेदभाव है और न आपसी शादी-व्याह करने से इतना परहेज है जितना कि पिछड़े प्रांतों में। हां, वे लोग जो एकाध पीढ़ी से नगरों में बसे हैं और गांव के जीवन से आर्थिक रूप से जुड़े हैं वे जाति पांति के चक्करों से पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाये। कम से कम शादी-व्याह के मामलों पर । गांव के सदियों से प्रकृति पर निर्भर जीवन की तुलना में नगरों का जीवन मूलतः भिन्न है। शहरों का जीवन मानव द्वारा निर्मित स्रोतों पर निर्भर रहता है। उत्पादन व विनिमय में हर एक के श्रम का योगदात रहता है, न केवल शूद्र का। दूसरे, शहर में पूंजीवाद हर व्यक्ति को पूंजी व मालों से जोड़ता है, न कि अपनी जाति से। जो व्यक्ति उसकी पूंजी व मुनाफे को बढ़ाता है वह उसी को प्रोत्साहन देता है, चाहे उसकी जाति कुछ भी हो। अतः अपने स्वार्थी व शोषणकारी चरित्र के कारण वह पुरानी व्यवस्था तोड़ देता है। पुराने पैतृक श्रम विभाजन की जगह वह पूंजी की नई दासता वाला श्रम विभाजन पैदा करता है, सो भी सैकड़ों प्रकार के नये उत्पादन एवं पैदा करके। प्रश्न है, आज के पूंजीवादी विकास के बावजूद जाति-पांति क्यों कायम है ? जवाब बिल्कुल साफ है। भारत का अभी पूर्ण औद्योगीकरण नहीं हुआ है। क्या देहातों में खेती के नये साथ पुराने तरीके, मालिक व मजदूर के पुराने संबंध और पुराने रीति-रिवाज, धर्म-कर्म आदि अभी मौजूद नहीं है? क्या आज भी गांवों में अधिकतर बड़ी जातियां ही भूमि की मालिक नहीं है? क्या आज भी वे गांव की राजनीतिक व्यवस्था नहीं चलातीं ? क्या शूद्र मजदूर पहले की तरह मालिकों के साथ बहुत से पुराने व कई नये संबंधों से नहीं बंधा हुआ है ? तब प्रश्न है, जातियां या वर्ण व्यवस्था कैसे टूटेगी? इसका जवाब भी एकदम साफ है। जब गांव की पुरानी अर्थ व्यवस्था टूटेगी। 


इस व्यवस्था का एक प्रमुख गुण है शारीरिक श्रम करने वाले मूल उत्पादक (वर्णों) का सम्पत्ति हीन और भूमिहीन होना। अतः अपनी जीविका हेतु जमीनों के मालिकों, चाहे वे ब्राह्मण, क्षत्रिय हों या यादव हों, पर निर्भर रहना। मालिकों और मजदूरों में कई पुराने संबंधों का होना और वैसे ही पुराने जातिवादी संबंधों का होना । जब ये संबंध टूटेगें; श्रम करने वालों की सम्पत्तिहीनता टूटेगी, तब हरिजनों की जाति-शूद्र वर्ण भी टूट जायेगा। बिलकुल उसी प्रकार, जिस प्रकार वे संबंध औद्योगिक इलाकों में टूटे जहां मजदूर और मालिक के संबंध तो आज भी हैं, परन्तु सामंती नहीं पूंजीवादी हैं; पूंजीपति व मजदूर के संबंध हैं। देहातों में पुराने सामंती संबंध कैसे टूटे और उनकी जगह नये पूंजीवादी संबंध कैसे आयें ? यह तभी होगा जब एक तो पिछड़ी हुई खेती की जगह नई खेती का विकास हो । नये-नये साधनों वाली खेती हो । भूमि संकेन्द्रण, बंटाइदारी, सूदखोरी का अन्त हो । भूमि का पुनः वितरण हो । भूमि का अधिकांश उपजाऊ हिस्सा आज भी उस वर्ग द्वारा जोता बोया जाता है जो खुद मालिक नहीं होता। लेकिन इसके विपरीत मालिक वे हैं जो मूल उत्पादक की तरह श्रम नहीं करते। खेती के विकास में रूचि भी कम लेते हैं। वे वटाईदारी, सूदखोरी में अधिक रूचि रखते हैं। यहां दो तरीके हैं। या तो उच्च जातियां अपना शारीरिक श्रम लगाकर कृषि उत्पादन करने लग जायें; अथवा भूमि आवण्टन से कमकर जातियों में भूमि वांट दी जाये। दोनों से कृषि उत्पादन भी बढ़ेगा और जातिवाद भी टूटेगा। इसके सबूत भी आप खुद देख सकते हैं। नये औद्योगिकरण ने चमड़े के सामान बनाने, ऊनी व सूती वस्त्र बनाने, हल चलाने, गुड़ व चीनी बनाने, वर्तन बनाने, तेल निकालने इत्यादि के जैसे पुराने उत्पादनों के लिये सैकड़ों प्रकार के नये-नये साधन निकाल दिये हैं। इन सारे धंधों या पेशों में क्या किसी वर्ण विशेष या जाति के लोग काम करते हैं? नहीं, सभी जातियों के लोग करते हैं? क्या पुराने भूमिपतियों की जगह अब पूंजीपतियों ने सबको अपना दास-मजदूर नहीं बना लिया है ? ऐसा क्यों है ? कारण यह है कि अब आदमी की भौतिक आवश्यकताएं उद्योगों द्वारा (और कृषि के औद्योगि करण के द्वारा ) पूरी हो रही हैं। ये आवश्यकताएं जिस हद तक पूरी हो रही है, अर्थात, जिस हद तक औद्योगीकरण भारत में हुआ है, उस हद तक पूंजी की दासता भी फैली है। इसी हद तक वर्ण-व्यवस्था भी टूटी है। अतः वर्ण व्यवस्था को तोड़ने हेतु औद्योगिकरण आवश्यक है। हरिजनों को नये पेशे व सम्पत्तिवान बनाने के लिये, पर साथ ही पुराने समाज के पेशे पुराने उत्पादन खत्म करके नये-नये ढंग के उत्पादन शुरू करके। समाज के औद्योगिकरण में नई शिक्षा का विकास विस्तार भी शामिल है, और साथ ही नई सरकारी व गैर-सरकारी नौकरियां ।


कांग्रेस का ब्रिटिश विरोधी आंदोलन मूलतः भारतीय पूंजीपतियों का आंदोलन था। वे अपने उद्योग व व्यापार आदि का विस्तार करना चाहते थे। जिस पर अंग्रेज रोक लगाने थे। उन्हें अपने उद्योग के वास्ते कच्चे मालों, मशीनों व मण्डियों आदि के साथ मजदूरों की भी आवश्यकता थी। जबकि मजदूर देहात में बंधुआ मजदूर के रूप में सामंती खेती में अर्द्धदास थे। उनकी वहां से मुक्ति आवश्यक थी, ताकि वे पूंजी के कमकर बन सकें। इसलिए कांग्रेस के हरिजन उत्थान तथा छूआछूत विरोधी तमाम आंदोलनों का उन्होंने स्वयं समर्थन किया और उसे हर प्रकार से सहायता भी दी। तीसरा कारण, चूंकि भारतीय पूंजीपति खुद आमतौर पर मारवाड़ी जाति के थे। वर्ण व्यवस्था के हिसाब से वे न तो पहली श्रेणी के ब्राह्मण थे, न दूसरी वर्ण जाति के क्षत्रिय थे। इसीलिए भारतीय पूंजीपतियों ने हरिजन कल्याण और उत्थान में जमींदारी प्रथा के सीमित विरोध के साथ-साथ ब्राह्मणों व क्षत्रियों का विरोध करते हुए छूआछूत का विरोध किया।


लेकिन शूद्रों हेतु कांग्रेस इससे बढ़कर कुछ और नहीं कर पायी। वह शूद्रों को उनकी उस वर्गीय स्थिति से मुक्त नहीं कर पायी, जिस स्थिति ने समाज के उन लोगों को शूद्र बनाया था। इस स्थिति से मुक्ति तभी हो सकती थी जब कांग्रेस हरिजनों में भूमि आवण्टन के सामंतवाद विरोधी कार्यक्रम बनाती। यह काम कांग्रेस ने नहीं किया। भारतीय पूंजीपतियों और उनकी पार्टी ने जिस तरह अंग्रेजों के विरुद्ध समझौते और संघर्ष का रवैया अपनाया वही रवैया उन्होंने सामंतवाद के विरुद्ध भी अपनाया। 1947 के बाद जमींदारी उन्मूलन के द्वारा किसानों से लगान लेने का हक सामंतों से सरकार ने खुद ले लिया और जमीनें लगभग उन्हीं के पास छोड़ दीं। भूमि सुधार के तमाम कानूनों के बावजूद भूमि का आवण्टन हरिजन भूमिहीनों में नहीं हो पाया। हरित क्रांति के द्वारा नये उत्पादन के साधनों ने बड़ी जोतों के मालिकों को नये प्रकार के पूंजीवादी धनी किसान बनने में सहायता की। क्या इससे हरिजनों के हरिजन वर्ण होने की स्थिति में कुछ अन्तर आया है ? बिल्कुल आया। जहां जहां ये उत्पादन के साधनों का प्रयोग अधिक हो रहा है, वहां आप हरिजन मजदूरों की आर्थिक, सामाजिक स्थिति में अन्तर पायेंगे, चाहे वे कितनी ही कम क्यों न हों। दूसरी ओर आम पूंजीवादी विकास के कारण उच्च जातिय वर्गों की अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति गिरने से भी जातिय व वर्गीय अन्तर आये हैं। कारण, जिन्हें उच्च जाति-वर्ग उन्हें हरिजन समझते थे और इन्हीं क के कारण ही कमकर वर्ग अछूत-हरिजन थे। 


भारतीय तथा विदेशी पूंजीपतियों द्वारा भारत में औद्योगिक, वाणिज्यिक तथा व्यापारिक विस्तार व विकास तथा शिक्षा एवं प्रशासकीय मशीनरी के विकास में कितने पुराने पेशों (अतः जातियों) का विनाश करके नये पेशे पैदा किये हैं और किस प्रकार वर्ण व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने में मुख्य भूमिका निभाई, इसकी चर्चा हम कर चुके हैं। चूंकि यह सारा पूंजीवादी औद्योगीकरण मुख्यतः विदेशी पूंजी के हितों के अनुसार होता आ रहा है; अतः एकांगी भी है। किसी इलाके का अधिक, किसी इलाके का कम और किसी इलाके का एकदम कम विकास हुआ है। जैसे पंजाब व हरियाणा की तुलना में पूर्वी यू.पी. व बिहार में खेती का कम विकास महाराष्ट्र व बंगाल में सर्वाधिक औद्योगिक विकास के बावजूद भी कृषि का पिछड़ापन आदि। इसीलिए पुरानी पिछड़ी हुई अर्द्ध-सामंती कृषि व कई देहाती उद्योग आज भी कई इलाकों ( प्रांतों ) में मौजूद हैं। इसीलिए उन्हें पिछड़े हुए प्रांत या क्षेत्र कहा जाता है। इसी के चलते उन इलाकों में जमीन के पुराने मालिकाने और पुराने ढंग के मजदूरों के संबंध और वैसे ही व्यक्तिगत व सामाजिक विचार व्यवहार, अतः वर्ण व्यवस्था के कई अभिशाप मौजूद हैं।


अब वर्ण व्यवस्था के घोर विरोधी समाज सुधारकों को लें;  लेकिन अगले भाग में ।


जी.डी. सिंह ।


Wednesday, 22 November 2023

In the Realm of Cricket, Where Greed and Corruption Reign Supreme


Amidst the roar of the crowd and the thrill of the game, the Cricket World Cup stands as a beacon of sporting prowess and national pride. Yet, beneath the veneer of excitement and camaraderie lies a world tainted by greed, corruption, and a shameless exploitation of the passion for cricket.

The BCCI, the governing body of cricket in India, basks in the glory of its exorbitant wealth, amassing a staggering ₹6,558.80 crore from the tournament alone. This astronomical figure dwarfs the GDP of many small countries, a stark reminder of the immense financial power wielded by the cricket establishment.

While the BCCI revels in its riches, the players pocket hefty sums, their salaries far exceeding the remuneration of most ordinary citizens. Rohit Sharma, Virat Kohli, Ravindra Jadeja, and Jasprit Bumrah, the crème de la crème of Indian cricket, each walk away with ₹7 crore, a mere starting point for their earnings. To this, add an additional ₹6 lakh per match, a testament to their ability to transform passion into profit.

As the players bask in their financial success, the officials of the BCCI lead a life of extravagance, their lavish lifestyles a stark contrast to the struggles of the common man. Their opulent homes, luxurious cars, and extravagant vacations paint a picture of a world far removed from the realities of everyday life.

And amidst this whirlwind of wealth and privilege, the bookies, the shadowy figures lurking in the background, thrive on the insatiable appetite for gambling. With their clandestine operations and shady deals, they exploit the passion for cricket, transforming it into a lucrative business venture.

In this realm of cricket, where greed and corruption hold sway, the fans, the true backbone of the sport, are left with a hollow sense of satisfaction. Their hard-earned money, spent on tickets, jerseys, and other merchandise, fuels the coffers of the BCCI and its cronies. Their countless hours spent watching matches, often at the expense of sleep and other commitments, are a mere spectacle for the entertainment of the privileged few.

The Cricket World Cup, once a symbol of sporting excellence and national unity, has morphed into a stage for the brazen display of wealth and the covert operations of those who seek to profit from the passion of the masses. The fans, the true bearers of the cricket spirit, are left with the bitter taste of exploitation, their genuine love for the game overshadowed by the greed and corruption that taint its very core.

The exact earning of the bookies in the recent cricket world cup match is unknown as they operate in an illegal and clandestine manner. However, it is estimated that the global illegal betting market for cricket is worth around US$100 billion per year. This means that the bookies could have potentially made billions of dollars from the recent Cricket World Cup.

For example, in a study conducted by the International Centre for Sports Security (ICSS) in 2018, it was found that the illegal betting market for the Indian Premier League (IPL) was worth around US$3.4 billion. This suggests that the betting market for the Cricket World Cup could be even larger, given that it is a global tournament with a much larger audience.

The bookies make their money by taking bets on matches and then paying out to the winners. They also charge a commission on all bets, which is known as the "vigorish" or "juice". The vigorish is typically around 5-10%, and it can be a significant source of income for the bookies, especially when large sums of money are being wagered.

In addition to the money they make from betting, the bookies can also make money by manipulating matches. This is known as "match-fixing", and it involves a player or players agreeing to deliberately lose a match in order to favor the bookies. Match-fixing is a serious problem in cricket, and it has led to the suspension or ban of several players in recent years.

The illegal betting market for cricket is a complex and dangerous world, and it is difficult to estimate the exact amount of money that the bookies make from it. However, it is clear that they can make billions of dollars from major tournaments such as the Cricket World Cup.

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...