Saturday, 15 July 2023

*समान नागरिक संहिता पर एसयूसीआई (कम्युनिस्ट ) का विचार*

*समान नागरिक संहिता पर एसयूसीआई (कम्युनिस्ट ) का विचार*

प्रति,
सदस्य सचिव,
भारत का विधि आयोग
चौथी मंजिल, लोक नायक भवन
खान मार्केट, नई दिल्ली-110003

माननीय महोदय,
जैसा कि आमंत्रित किया गया है, हम इस समय भारत में समान नागरिक संहिता के लागू करने पर अपने विचार रख रहे हैं।

मार्क्सवादी के तौर पर, हम दृढ़तापूर्वक सभी के लिए लागू होने वाली समान नागरिक संहिता चाहते हैं, अगर और जब वह समाज के जनवादीकरण की वैज्ञानिक प्रक्रिया के जरिये देश के लोगों के सभी तबकों की सहमति से तैयार हो। सच्चा धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र यही कहता है। लेकिन इसके अनुकूल एक सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के निर्माण की जरूरत है। क्या भारत के मौजूदा हालात समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए उपयुक्त हैं? वास्तविकता यह है कि इसके लिए हालात उपयुक्त नहीं हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक विविधताओं से भरे बहु-धर्मीय, बहु-राष्ट्रीयताओं वाले और बहु-जातीय भारत में हमारे पास धार्मिक समानता और जाति के आधार पर विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार के लिए अलग-अलग कानून हैं। पर्सनल लॉ वे हैं, जो लोगों को उनके धर्म, जाति, आस्था और विश्वास के आधार पर नियंत्रित करते हैं। ये कानून जैसे हिन्दू विवाह अधिनियम, मुस्लिम पर्सनल लॉ आदि धार्मिक ग्रंथों और रीति-रिवाजों के आधार पर बनाये गये हैं। बौद्ध, सिख, ईसाई, मुसलमान, पारसी और हिन्दू तथा विभिन्न जनजातियां विवाह, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार, संपत्ति के उत्तराधिकार आदि के लिए अपने संबंधित पारिवारिक कानूनों या रीति-रिवाजों का पालन करती हैं। यहां तक कि हिन्दू धर्म में भी, देश के विभिन्न हिस्सों में कई समुदाय विवाह और तलाक के मामले में एक जैसी प्रथाएं नहीं अपनाते हैं। इसके साथ ही, भारत में आदिवासी समुदायों में विवाह, तलाक और उत्तराधिकार के संबंध में अलग-अलग प्रथागत कानून हैं। इसके अलावा, सीआरपीसी-1973 जैसे केन्द्रीय कानूनों के कुछ प्रावधान पूर्वोत्तर क्षेत्रें में लागू नहीं हैं। गोवा में, मुसलमान पुर्तगाली कानून के साथ-साथ शास्त्र-आधारित हिन्दू कानून द्वारा शासित होते हैं, न कि मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा। मेघालय और नागालैंड में भी ऐसी ही विविधताएं देखने को मिलती हैं। यहां तक कि जम्मू और कश्मीर में भी, हिन्दुओं द्वारा माने जाने वाले स्थानीय कानून केन्द्रीय कानूनों से भिन्न हैं। इसका मतलब यह है कि हम सभी प्रासंगिक महत्वपूर्ण पहलुओं से अवगत हुए बिना जबरन 'तथाकथित सामान्य कानून' नहीं बना सकते। इसलिए,  इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर कोई भी सुधार लाने से पहले लोगों के सभी सामाजिक-सांस्कृतिक अंतरों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। संबंधित लोगों की सहमति और पूर्ण रजामंदी के बिना कोई भी महत्वपूर्ण सुधार लोकतंत्र में वर्जित है।
स्पष्ट तौर पर सवाल यह है कि आजादी के 75 साल बाद भी भारतीय समाज में धर्म, जाति और क्षेत्र के आधार पर ऐसे विभाजन, ऐसी विविधताएं और अलग-अलग रीति-रिवाज क्यों कायम हैं? सच्चाई यह है कि इसके निश्चित सामाजिक-ऐतिहासिक कारण हैं। जैसा कि इतिहास बताता है, हमारा आजादी आन्दोलन धर्म, खासकर हिन्दू धर्म के प्रभाव से मुक्त नहीं था। इस धर्म-उन्मुख राष्ट्रवाद ने व्यापक मुस्लिम जनता को आजादी आन्दोलन से अलग-थलग कर दिया और उन्हें एक धर्मनिरपेक्ष जनवादी समाज के सिद्धांतों के साथ असंगत इस्लामी धार्मिक रीति-रिवाजों के संरक्षण के लिए प्रेरित किया। इससे मुस्लिम जनता और राष्ट्रवादी ताकतों के बीच की खाई और चौड़ी हो गयी। इसके अलावा, आजादी आन्दोलन के नेतृत्व में ऊंची जाति के हिन्दुओं का वर्चस्व था। इसलिए तथाकथित नीची जाति के हिन्दुओं का एक बड़ा तबका, जो अब दलित के रूप में जाना जाता है, विभिन्न तरह की आदिवासी आबादी और ईसाई धर्म सहित विभिन्न धर्मों को मानने वाले दबे-पिसे तबके भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा से बाहर रह गये। इसके अलावा, हमारे समाज का जनवादीकरण नहीं हुआ, जिसके होने से विभिन्न समुदायों के बीच तमाम विविधताओं और अंतरों को समाप्त करने और एक एकल भारतीय राष्ट्रीय पहचान तैयार करने में मदद मिलती। यह इसलिए नहीं हुआ कि हमारा आजादी आन्दोलन आवश्यक सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार किये बिना आधे-अधूरे और खंडित तरीके से समाप्त हो गया। ऐसा नहीं होने पर सामंती रूढ़िवादता से उत्पन्न और पोषित भारत के लोगों को सदियों पुराने पंथों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, पाबंदियों, धार्मिक पिछड़ेपन और अंधविश्वास से मुक्त होने में मदद मिलती। 

ये अंतर, विरोधाभास, कट्टर मान्यताएं और पूर्वाग्रह आज भी भारतीय समाज में लोगों के मन में मजबूती से रचे-बसे हुए हैं, क्योंकि स्वतंत्र भारत के शासकों द्वारा इन्हें मिटाने की कोई प्रभावी सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहल नहीं की गयी है। वरन हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि शासकों ने, चाहे वे किसी भी रंग के हों, ऐसे पिछड़े, अप्रचलित और प्रतिगामी विचारों को और अधिक लोगों के दिमाग में बिठाने के लिए प्रोत्साहित किया है। इसलिए, यद्यपि हम राजनीतिक रूप से एक राष्ट्र के रूप में उभरे हैं, फिर भी हम धर्म, जाति, भाषा, नस्ल, आदि में बंटे रह गये। दूसरे शब्दों में, समाज का जनवादीकरण करने वाली एक सही सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के अभाव में अलग-अलग विश्वासों वाले और विभिन्न सामाजिक रीति-रिवाजों को मानने वाले विभिन्न समुदायों के लोगों को एक समरूप राष्ट्र में एकीकृत करने का सबसे बड़ा कार्यभार अधूरा रह गया। हाल में इस तरह के धार्मिक, जातीय और नस्लीय विभाजन कम होने की बजाय वर्तमान शासन की त्रुटिपूर्ण नीतियों और परिपाटियों की वजह से और अधिक बढ़ गये हैं।
इतना ही नहीं। धर्म और अन्य सभी विभाजनों से ऊपर उठकर तमाम तरह की धार्मिक जटिलताओं से बाहर आने की बजाय, स्वतंत्र भारत के शासक हिन्दू धार्मिक मूल्यों के अभ्यास की वकालत करने लगे। उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद के आध्यात्मिक आधार के निर्माण के लिए पौराणिक महाकाव्यों का प्रचार किया, जो उनकी हिन्दू धार्मिक प्रथाओं से ऊपर उठने की विफलता के कारण हिन्दू राष्ट्रवाद में तब्दील हो गया।

इसके अलावा, निहित स्वार्थों द्वारा एक मिथक बनाया जा रहा है कि हिन्दू एक ही पर्सनल लॉ द्वारा शासित होते हैं। लेकिन यह बिल्कुल सच नहीं है। इतिहास यह है कि आजादी के बाद 1947 में हिन्दू कानून समिति द्वारा तैयार किये गये ड्राफ्रट हिन्दू कोड बिल में तत्कालीन मौजूदा प्रथाओं जैसे बहुविवाह, बेटियों के संपत्ति अधिकारों की मान्यता आदि में कई सुधार लाने की मांग की गयी थी। हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत कोई विवाह पंजीकृत न होने पर भी वैध होता है, बशर्ते कि उसमें सप्तपदी या सात फेरे जैसे कुछ समारोह किये गये हों। कई पुरुष जब सार्वजनिक रूप से धूमधाम और दिखावे के साथ दूसरी शादी करने जाते हैं, तो कानून की अनदेखी करने लेकिन सामाजिक स्वीकृति पाने के लिए जानबूझकर समारोह के कुछ हिस्सों को छोड़ देते हैं। यही वजह है कि हिन्दू धर्म में दूसरी शादी की मनाही होने के बावजूद यह हिन्दुओं के एक तबके में प्रचलित है। इसी तरह, अधिकांश हिन्दू संहिताबद्ध हिन्दू कानून का नहीं, बल्कि अपने गोत्र समूहों या धर्म में प्रचलित प्रथागत कानूनों का पालन करते हैं।  उदाहरण के लिए, उत्तर भारत में करीबी रिश्तेदारों के बीच विवाह निषिद्ध है, लेकिन दक्षिण के कुछ क्षेत्रें में और मुसलमानों के बीच भी इसे शुभ माना जाता है। हिन्दू धर्म की शुद्धता के संरक्षण और तथाकथित परम्परा, रिवाज और संस्कृति के नाम पर जो उचित ठहराया जा रहा है, वह है पितृसत्तात्मक वर्चस्व और महिलाओं की अधीनता के साथ-साथ अंध धार्मिक आस्था के प्रति प्रश्नातीत निष्ठा। सबसे बढ़कर, उनका मानना है कि हिन्दुत्व, जिस सिद्धांत का वे हिन्दू धर्म के नाम पर प्रचार करते हैं, अनुल्लंघनीय और सर्वाेच्च है। अतएव इसके नियमों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता।

दूसरी ओर, जहां तक इस्लामिक कट्टरपंथियों और धर्मांध लोगों द्वारा मुस्लिम पर्सनल लॉ के बारे में धर्मशास्त्रीय दावे की बात है, वहां मुस्लिम कट्टरपंथियों के तर्क के स्वर और ढांचे के साथ पुरोहितों और सामाजिक दलालों की समानता पायी जा सकती है। क्या 'मुस्लिम पर्सनल लॉ' पवित्र कुरान में है या कि वह शरीयत से लिया गया है? क्या शरीयत और पवित्र कुरान एक ही हैं? नहीं, शरीयत 'ईश्वरीय हुक्म' नहीं है। जब इस्लाम अरब धरती से बाहर फैला, तब जो सामाजिक समस्याएं उभरने लगीं, उन्हें हल करने के लिए लोग उन प्रतिष्ठित हस्तियों की राय लेते थे, जो पवित्र धर्मग्रंथ की गहरी समझ रखने वाले तथा सद्गुणों से भरे जीवन और नैतिक चरित्र वाले इन्सान के रूप में जाने जाते थे। ये सभी हस्तियां इस्लाम की अपनी-अपनी अनुभूतियों और उसके निर्देशों के आधार पर राय दिया करती थीं। इन सभी का सारांश शरीयत में दिया गया है, जिसके बारे में शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच मतभेद भी बने हुए हैं।
उल्लेखनीय बात यह है कि जहां तक धार्मिक फरमानों, रीति-रिवाजों और हठधर्मिता को 'ईश्वर की इच्छा' के रूप में उचित ठहराने की बात है, सभी धर्मों के स्व-घोषित संरक्षक, एक अर्थ में अजीब मित्र हैं।

यह समझा जाना चाहिए कि समान नागरिक संहिता की अवधारणा समाज के जनवादीकरण के स्वाभाविक परिणाम के रूप में नेक इरादे वाले लोगों के दिमाग में उभरी। इसलिए एक वास्तविक धर्मनिरपेक्ष राज्य में, लोगों के विभिन्न तबकों को नियंत्रित करने वाले नागरिक कानून एक समान होने चाहिए। धर्म व्यक्तिगत विश्वास का मामला होगा और राज्य की न्यायपालिका को विभिन्न धार्मिक विश्वासों को मानने वाले या गैर-आस्तिक श्रेणी के महिलाओं या पुरुषों के बीच अंतर नहीं करना चाहिए। जीवन की जनवादी अवधारणा विवाह को एक पुरुष और एक महिला के बीच आपसी मूल्यों की मान्यता और एक-दूसरे की गरिमा को बनाये रखने पर आधारित एक सामाजिक संबंध के रूप में देखती है। आपसी सहमति अथवा जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता वैवाहिक रिश्ते की बुनियाद होनी चाहिए। धर्म, जाति, नस्ल--कुछ भी ऐसे मिलन के रास्ते में बाधक नहीं बनना चाहिए। लेकिन अंतर-धार्मिक या अंतर-जातीय विवाह, पसंद की स्वतंत्रता, धार्मिक आदेशों के बंधन से मुक्त सामाजिक जीवन जीना, दूसरों की गरिमा का सम्मान करना और उसकी रक्षा करना, पुरुष और महिला के बीच कोई भेदभाव नहीं करना तथा विभिन्न धर्मों या जातियों के व्यक्तियों के बीच कोई अंतर नहीं करना आदि बातों की गारंटी तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक कि सभी तबको के लोगों की स्वैच्छिक सहमति और रजामंदी से सामान्य कानून उभरकर न आयें। 
क्या प्रचलित भारतीय वास्तविकता ऐसी पूर्व शर्तों का अनुपालन करती है? अगर वास्तविक समान नागरिक संहिता के सार को सही ढंग से समझा जाये, तो क्या 'लव जिहाद', ऑनर किलिंग, यहां तक कि राज्य द्वारा भी अंतर-धार्मिक विवाहों पर रोक और गोरक्षा के नाम पर मॉब लीचिंग जैसी हास्यास्पद बातें बेरोकटोक जारी रह सकती हैं? क्या समान नागरिक संहिता, जो जाति, पंथ, धर्म, नस्ल और लिंग का लिहाज किये बिना भारत के तमाम नागरिकों के लिए समान रूप से लागू होने वाले केवल एक पर्सनल लॉ के निर्माण की जरूरत बताती है, के तहत किसी राष्ट्र में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ खुलेआम नफरत भरे अभियान चलाये जा सकते हैं और उन्हें उत्पीड़न का शिकार बनाया जा सकता है? दूसरे शब्दों में, क्या इस समय विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में सभी धार्मिक समुदायों पर एक ही कानून लागू हो सकता है? क्या कल्पना की दृष्टि से भी यह कोई अच्छा प्रस्ताव है? हमारा मानना है कि यह कोई अच्छा प्रस्ताव नहीं है। क्या समान नागरिक संहिता के लिए उपयुक्त समय आ गया है, जब मणिपुर रक्तरंजित नस्लीय हिंसा का गवाह बना हुआ है और देश के विभिन्न हिस्सों में साम्प्रदायिक, जातीय, नस्लीय और अंधराष्ट्रवादी संघर्षों के छिटपुट विस्फोट हो रहे हैं? इसके अलावा, लोकप्रिय कल्पना में यह माना जाता है कि समान नागरिक संहिता से पर्सनल लॉ खत्म हो जायेंगे। क्या वर्तमान भारत में ऐसा हो सकता है, जहां कट्टरपंथी, साम्प्रदायिक, जातिवादी और नस्लीय झगड़े-फसाद तथा धार्मिक रूढ़िवादिता का बाजार गर्म है? क्या सबसे पहले ऐसी सभी विकृतियों, हठधर्मिताओं और विसंगतियों को जनवादीकरण की प्रक्रिया से दूर नहीं किया जाना चाहिए? एकरूपता के लिए लोगों का जबरन एकीकरण जरूरी नहीं है, बल्कि इसके लिए जनवादी मूल्यों और नीति-नैतिकता के आधार पर लोगों को लगातार समझाने-बुझाने और उनकी शंकाओं को दूर करने की जरूरत होती है। इसके लिए राज्य को सच्चे धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का सम्मान करना चाहिए और उन सिद्धांतों के द्वारा शासित होना चाहिए।
अतः जब बढ़ती फूट की व्यापकता हो, तो एकता की संहिता लागू करना कितना विवेकपूर्ण है? समान नागरिक संहिता की औचित्यता और प्रतिक्रियावादी ताकतों के सभी तुच्छ साम्प्रदायिक हितों और मकसदों पर हावी होते हुए इसे लागू करने की सामाजिक आवश्यकता को पहले महसूस किया जाना चाहिए। ऐसा किये बिना समान नागरिक संहिता थोप देने से भारतीय नागरिकों के विभिन्न तबकों के बीच मतभेद, विभाजन, अविश्वास और वैमनस्यता ही बढ़ेगी।

यह याद दिलाना उचित होगा कि भारतीय संविधान के निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता को अपनाने के मुद्दे पर चर्चा की थी और महसूस किया था कि केवल संविधान सभा में चर्चा और मतदान के द्वारा समान नागरिक संहिता को अपनाने का यह उपयुक्त समय नहीं है। उस मामले में उनकी यह आशंका सही थी कि समान नागरिक संहिता अप्रभावी हो जायेगी। समग्र स्थिति को देखते हुए उन्होंने इसे 'राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों' की श्रेणी में रखने का निर्णय लिया। संविधान तैयार करते समय, संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ- बी-आर- अम्बेडकर ने कहा था कि पहले एक सही प्रक्रिया के जरिये कमजोर समूहों के प्रति भेदभावों को समाप्त करते हुए और विविध धार्मिक, जातीय व नस्लीय समूहों में सद्भाव कायम करते हुए देश भर में समान संहिता लागू करना वांछनीय है। उस समय की जरूरत के मुताबिक संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 को समान नागरिकता की गारंटी के रूप में तैयार किया था, लेकिन स्पष्ट कारणों से इसे स्वैच्छिक बना दिया गया था। फिर जब तक अनुच्छेद 44 को अनिवार्य नहीं बना दिया जाता, तब तक इसके बारे में क्या दृष्टिकोण होना चाहिए? यहीं पर अनुच्छेद 35 आता है। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि कानून बनाने, कुछ निर्दिष्ट मौलिक अधिकारों को प्रभावी करने की शक्ति केवल संसद के पास होगी, राज्य विधानसभाओं के पास नहीं।

महत्वपूर्ण बात यह है कि 2016 में गठित 21वें विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता को ''न तो आवश्यक और न ही वांछनीय'' कहा, बल्कि पहले लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने और असमानता को दूर करने की भी सिफारिश की। आयोग ने कहा, "इसलिए यह आयोग समान नागरिक संहिता प्रदान करने की बजाय भेदभावपूर्ण कानूनों से निपटा है, जो इस स्तर पर न तो आवश्यक हैं और न ही वांछनीय हैं। अधिकांश देश अब अंतर को मान्यता देने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और अंतर का अस्तित्व मात्र भेदभाव नहीं है, बल्कि एक मजबूत लोकतंत्र का संकेत है।" इसके अलावा, परामर्श पत्र के पहले पृष्ठ पर 21वें विधि आयोग ने यह स्पष्ट कर दिया कि समान नागरिक संहिता पर कोई आम सहमति नहीं बन सकी है, इसलिए मौलिक अधिकारों का खंडन किये बिना ''विविधता को संरक्षित करना'' समय की मांग है। परामर्श पत्र में इस बात का उल्लेख किया गया है कि ''समान नागरिक संहिता पर किसी आम सहमति के अभाव में आयोग ने महसूस किया कि आगे बढ़ने का सबसे अच्छा तरीका पर्सनल लॉ की विविधता को संरक्षित करना हो सकता है, लेकिन साथ ही यह सुनिश्चित करना होगा कि पर्सनल लॉ भारत के संविधान के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का खंडन न करें।'' हमारा मानना है कि 21वें विधि आयोग का अवलोकन वस्तुनिष्ठ था। लेकिन फिर 21वें विधि आयोग द्वारा व्यत्तफ़ विचारों पर कोई चर्चा क्यों नहीं हुई? इसे पूरी तरह से दरकिनार करने और केवल यह कारण बताकर एक नये आयोग का गठन करने की क्या सख्त आवश्यकता है कि परामर्श पत्र अब तीन साल से अधिक पुराना हो गया है? सरकार को तार्किक रूप से यह साबित करने से किसने रोका कि 21वें आयोग का मूल्यांकन गलत था? पिछले आयोग को दरकिनार करते हुए 22वें विधि आयोग का गठन करने के लिए सत्तारूढ़ सरकार को किसने प्रेरित किया, जिस 22वें आयोग ने 14 जून 2023 को एक नोटिस जारी करके एक बार फिर समान नागरिक संहिता पर विचार मांगा है?
कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो ऐसी विविधता और धर्म संबंधी समस्याओं का कानूनी समाधान तलाश रहे हैं। चूंकि समस्या को किसी धार्मिक-नस्लीय पहचान के संरक्षण के नजरिये से नहीं देखने की जरूरत है, इसलिए यह केवल कानूनी लड़ाई नहीं होनी चाहिए। अगर कानून के रूप में भी कोई चीज बाहर से जबरन थोपी जाती है, तो इससे कट्टरपंथियों को धर्म के अधिकार के हनन के रूप में पेश करने और धार्मिक अपील के आधार पर जनता को भड़काने में मदद मिल सकती है। बदलाव की मांग पीड़ित जनता के भीतर से एक सचेत आग्रह के रूप में आनी चाहिए। हम सभी को यह समझना होगा कि किसी चीज का न्यायसंगत होना कानूनसंगत होने से श्रेयस्कर होना चाहिए। सभी कानून मानव निर्मित हैं। सामाजिक प्रगति के लिए मनुष्य के संघर्ष के क्रम में इनमें से कुछ कानून तत्कालीन सामाजिक जरूरत को पूरा करने के लिए अस्तित्व में आये। लेकिन समय बीतने के साथ, बदलते परिदृश्य की उभरती सामाजिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ऐसे कई कानूनों को बदल दिया गया या हटा दिया गया। दूसरे शब्दों में कहें तो न्यायसंगत को वैधता प्रदान की गयी। तो फिर किसी भी कानून को पवित्र और अपरिवर्तनीय क्यों माना जाये? 

ऊपर जो कुछ कहा गया है, उससे यह स्पष्ट होना चाहिए कि सभी विविधताओं, अंधविश्वास, धार्मिक-नस्लीय अनम्यताओं के प्रति झुकाव, आपसी घृणा और अविश्वास को धीरे-धीरे खत्म करने के लिए एक वैज्ञानिक प्रक्रिया को अपनाना समान नागरिक संहिता लागू करने के किसी भी विचार से पहले जरूरी है। प्रचलित मतभेदों को समाप्त करने और विशिष्टता की जंजीर से मुक्त होने के लिए सही दृष्टिकोण अपनाने और उससे देश के सभी तबके के लोगों की स्वैच्छिक स्वीकृति और सहमति प्राप्त करने में सक्षम होने के उद्देश्य से पहले से ही अनेक चर्चाएं करने, समझाने-बुझाने व शंकाओं को दूर करने तथा सभी के मन को तर्कसंगतता के साथ स्पर्श करने की कठिन प्रक्रिया से बचकर समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए अनुकूल माहौल बनाना कभी संभव नहीं है। वास्तव में, न केवल मुस्लिम और ईसाई समुदाय, बल्कि जैन, पारसी, सिख और आदिवासी आबादी ने भी इस समय समान नागरिक संहिता का दृढ़ता से विरोध किया है। हम दुबारा कहना चाहते हैं कि समान नागरिक संहिता, जो विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार से संबंधित व्यक्तिगत रीति-रिवाजों और प्रथाओं को लेकर जाति, समुदाय, धर्म या लिंग के आधार पर नागरिकों में भेदभाव नहीं करती है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मामलों में सभी के लिए समान अधिकार की गारंटी देती है, सभी आवश्यक शर्तों को पूरा करने के बाद ही सुचारू और स्वीकार्य रूप से लागू होने के लिए उपयुक्त मानी जा सकती है। लोगों की एकता, साम्प्रदायिक, जातीय और नस्लीय सद्भाव, धार्मिक असहिष्णुता का अंत और क्षेत्रीय-भाषाई सम्प्रदायवाद का उन्मूलन आवश्यक पूर्व शर्तें हैं, जिन्हें पूरा किया जाना है। एकरूपता के लिए लोगों का जबरन एकीकरण जरूरी नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से निर्धारित प्रक्रिया का पालन करके उस वांछित एकीकरण को विकसित करना है।

हमारा अंतिम निवेदन यह है कि समान नागरिक संहिता को कट्टर हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों के एक प्रमुख एजेंडे को वैध बनाने के लिए लागू नहीं किया जाना चाहिए। ये ताकतें लोगों के विभिन्न तबकों के बीच समानता, एकरूपता और सौहार्द लाने की वास्तविक इच्छा से नहीं, बल्कि अपने मुस्लिम-विरोधी घृणा अभियान को तेज करने के परिप्रेक्ष्य में ''एक राष्ट्र, एक भाषा और एक कानून'' के आकर्षक नारे पर सवार होकर इसे लागू करना चाहती हैं। यह 'हिन्दू राष्ट्र' बनाने और मुसलमानों या ईसाइयों के 'हिन्दूकरण' करने के घृणित लक्ष्य को प्राप्त करने का उनका एक फार्मूला है। यह हार्दिक आग्रह है कि 22वें विधि आयोग के माननीय सदस्यगण देश की स्थिति पर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनायें, सभी प्रासंगिक कारकों और अवरोधों को ध्यान में रखने, काफी दिनों से जांचे-परखे तर्क और सत्य की कसौटी पर ऊपर दी गयी दलीलों की निष्पक्षता से जांच करें और फिर किसी भी बाहरी शक्ति के प्रभाव से मुक्त होकर तर्कसंगत निष्कर्ष पर पहुंचें।

*प्रभास घोष*
महासचिव
*सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया (कम्युनिस्ट)*

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