#प्रेमचंद का "ठाकुर का कुआं", सद्गति और "सवा सेर गेहूं" पूंजीवाद के आज के स्वरूप में !!
उत्पीड़ित जातियों तथा साधनहीन मेहनतकश वर्ग को आज बदले हुए मालिक उपेक्षा, अलगाव और जलालत भरी जिंदगी जीने के लिए बाध्य कर रहे हैं। अंग्रेजों के राज में गांव के साधनों पर मुख्यत: ऊंची जाति के सामंतों और धनी किसानों का अधिकार था। उत्पीड़ित जाति के मेहनतकश वर्ग दक्षिण टोला में रहते थे, जो जमीन भी मालिकों का ही होता था। मालिक अपनी खेती और सेवा के लिए अक्सर ऐसे टोले बसया करते थे। ठीक उनके सटे पिछड़ी जातियों के साधन हीन किसानों और दस्तकारों का टोला होता था। 80 के दशक में भी इन सभी मेहनतकश वर्गों को कच्चे कुएं और नदी का पानी पीते मैंने देखा है। बरसात के दिनों में इनके स्नान और कपड़े की सफाई आहर और पइन के किनारे होता था।
भारत के पूंजीवाद के विकास के साथ शहरों का तीव्र विकास हुआ। गांव के सामंतों और घनी किसान की नई पीढ़ियां इन शहरों के रोज ऊंची होती सुविधा संपन्न हाउसिंग कॉलोनियों में बसने लगी। दूर शहर के एक कोने में निम्न मध्यवर्ग के लोग कच्ची कॉलोनियों के रूप में जगह पाने लगे और ठीक इन दोनों के आसपास नालों, फुटपाथों और परती परी जमीनों पर झूंगी झोपड़ियां बसने लगी। यहां न पानी पीने की व्यवस्था है न ही कोई शौचालय की, क्योंकि यह अवैध है। इस आबादी की सेवा की जरूरत सरकार चलाने वाले नौकरशाह, न्यायपालिका के न्यायाधीशों, बुद्धिजीवियों, टेक्नोक्रेट सब को है। शहरों की सड़क बनाने वाले बड़े-बड़े टावर और फ्लैट बनाने वाले,पुल और रेल बनाने वाले, पार्क सजाने वाले,घरों में काम करने वाले, ड्राइवर और माली सब गांव के दक्षिण टोला से उठ करके काम की तलाश में इन कच्ची कॉलोनियों और झोपड़ियों में जा बसे हैं। कई पैसे वाले तो इन कच्ची कॉलोनियों और झुग्गी झोपड़ियों में भी अस्थाई मकान खड़ा कर किराया वसूलने लगे हैं।
इन काम करने वालों की जिंदगी में प्रेमचंद के ठाकुर का कुआं से आगे लगभग 100 वर्षों में क्या फर्क आया है? आज भी अगर इन फ्लैटों के कैंपस में कभी कोई मजदूर काम करते हुए उनके शौचालय का इस्तेमाल कर सकता ह,क्या झुग्गी झोपड़ियों को वहां से पानी लेने की सुविधा मानवीयता के आधार पर विकास हुआ है? क्या यह आबादी घंटों बाल बच्चे सहित पानी के टैंकरों के पीछे पानी के लिए लाइन लगे बड़े शहरों में नहीं दिखते हैं? क्या यह आज भी गंदे पानी पीने और बीमार पड़ने के लिए अभिशप्त नहीं है? तो आज ठाकुरों के कुंआ के मालिकों की जगह पर जिन मालिकों का राज है, शहर के साधनों पर के चप्पा चप्पा पर इनका कब्जा है।
इसीलिए जब प्रेमचंद अपनी रचनाओं में जातीय उत्पीड़न के प्रश्न को उठाते हैं, तब उनके लिए जातीय उत्पीड़न पढ़े लिखे उत्पीड़ित जातियों की सीमाओं में कैद नहीं रहता है। उनके लिए जाती उत्पीड़न समाज के साधनों से सीधे जुड़ा था। इसीलिए इस उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए उन्होंने ऐसे स्वराज्य की कल्पना की जिसमें साधनों पर मेहनत करने वाले का अधिकार हो।
'सवा सेर गेहूं' महाजनी सभ्यता सुदखोरी के द्वारा शोषण करने के चरित्र का पर्दाफाश करता है। आज गांव के महाजन की जगह पर बड़े-बड़े साम्राज्यवादी देशों के द्वारा संचालित आईएमएफ, वित्तीय संस्थान, हेज फंड और उनकी पूंजी के मजबूत जाल में फंसे सरकार तथा उनके लिए काम करने वाले पूंजीपति तथा बैंकों के द्वारा इन छोटे किसानों का संपत्तिहरण बेरहमी के साथ किया जा रहा है। गांव के सूदखोरों की अपेक्षा पूंजीवादी सूदखोर ज्यादा बेरहमी के साथ बहुत बड़ी आबादी को साधनहीन बना दे रहे है।
प्रेमचंद ने अपने समय के ब्राह्मणवाद के नागपाश को सद्गति जैसे कहानियों में रखा था। यह नागपाश मेहनतकशों के जन आंदोलन के साथ बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में कुछ कमजोर हुआ था, लेकिन जैसे ही आंदोलन कमजोर पड़ा मेहनतकश आबादी के बीच में वर्ग संघर्ष की जगह पहचान की लड़ाई आगे बढ़ी। जातीय गौरव के अभियान को तेजी से बढ़ाया गया और यह अभियान बड़ी ही चालाकी से पूंजी की मालिकों की मदद से हिंदू धर्म की पहचान के रूप में जनमानस के अंदर फैलाया जाने लगा। आज हिंदू पहचान में डूब जाने की ऐसी होड़ बची है कि तमाम दलित तथा पिछड़ी जातियों के नौजवान धर्म का अलग अलख जगाने के लिए नशे में डूबे प्रतीत होते हैं। कुछ लोगों को इस बात से शिकायत होती थी कि धर्म एक अफीम है, जो मेहनतकशों को अपनी पीड़ा भुलाने के लिए अपने में डूबा लेती है। वह प्रत्यक्षतः इस धर्म के नशे का प्रभाव आज के युवाओं में देख सकते हैं। परिवार के कल्याण के लिए ब्राह्मणों पर उत्पीड़ित समाज की निर्भरता आज और अधिक बढ़ गई है। आज ब्राह्मणों के लिए बढ़ती आय का तीव्रता के साथ विस्तार हुआ है। पिछड़ी तथा दलित जातियों के बीच से उभरे नव धनाढ्यों ने धार्मिक अनुष्ठानों के द्वारा ब्राह्मणों की मांग और महत्व को तेजी से बढ़ाया है। अब इसमें आज के गरीब और मजदूर हिस्सेदारी करके धर्म पर अपनी छोटी सी कमाई को भी खर्च करदे रहे हैं।वे ना तो इलाज करा पाते हैं ना बच्चों को पढ़ा-लिखा पा रहे हैं, लेकिन बाबा भोलेनाथ के दर्शन के लिए कई दिनों की मजदूरी कमाकर जरूर यात्रा कर रहे हैं।
तो आज की इन चुनौतियों से जूझने के लिए हमें आज के संदर्भ में समझना चाहिए। युगांतरकारी रचनाकार इसी मायने में कालजयी होते हैं। वह अपने युग से आगे बढ़कर हमें मशाल दिखता है।
नरेंद्र
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