"एक अनोखा लोकप्रिय नेता – छोटी सी कद-काठी, पुराने जर्जर कपड़े, कुछ ज्यादा ही लंबी पतलून, दिखने में फ़ीका, गंभीर, बीहड़ और किसी भी चित्रात्मक विलक्षणता से कोसों दूर, व्यक्तित्व में ऐसा कुछ भी असाधारण नहीं जिससे कि वह ऐसे किसी विशाल जनसमूह के अथाह प्रेम को जीतने वाले शायद इतिहास के गिने चुने नायकों की फेहरिस्त में शामिल होने लायक दिखता हो। लेकिन किसी भी प्रगाढ़ और गहन विचार को बिल्कुल सरल शब्दों में समझा देने और किसी भी ठोस परिस्थिति का तार्किक विश्लेषण कर देने की असाधारण, अद्वितीय क्षमता। एक ऐसा जन-नेता जो विशुद्ध रूप से सिर्फ और सिर्फ अपनी बौद्धिक क्षमता की वजह से लोकप्रिय हो"
~ दस दिन जब दुनिया हिल उठी (लेनिन की पहली झलक का वर्णन करते हुए जॉन रीड)
लेनिन जिंदाबाद
पहली जंग के दौरान इटली की सानकार्लोर जेल की अन्धी कोठरी में
ठूँस दिया गया एक मुक्ति योद्धा को भी
शराबियों, चोरों और उच्चकों के साथ।
ख़ाली वक़्त में वह दीवार पर पेन्सिल घिसता रहा
लिखता रहा हर्फ़-ब-हर्फ़ –
लेनिन ज़िन्दाबाद!
ऊपरी हिस्से में दीवार के
अँधेरा होने की वजह से
नामुमकिन था कुछ भी देख पाना
तब भी चमक रहे थे वे अक्षर – बड़े-बड़े और सुडौल।
जेल के अफ़सरान ने देखा
तो फौरन एक पुताई वाले को बुलवा
बाल्टी-भर क़लई से पुतवा दी वह ख़तरनाक इबारत।
मगर सफ़ेदी चूँकि अक्षरों के ऊपर ही पोती गयी थी
इस बार दीवार पर चमक उठे सफ़ेद अक्षर:
लेनिन ज़िन्दाबाद!
तब एक और पुताई वाला लाया गया।
बहुत मोटे ब्रश से, पूरी दीवार को
इस बार सुर्ख़ी से वह पोतता रहा बार-बार
जब तक कि नीचे के अक्षर पूरी तरह छिप नहीं गये।
मगर अगली सुबह
दीवार के सूखते ही, नीचे से फूट पड़े सुर्ख़ अक्षर –
लेनिन ज़िन्दाबाद!
lenin art
तब जेल के अफ़सरान ने भेजा एक राजमिस्त्री।
घण्टे-भर वह उस पूरी इबारत को
करनी से खुरचता रहा सधे हाथों।
लेकिन काम के पूरा होते ही
कोठरी की दीवार के ऊपरी हिस्से पर
और भी साफ़ नज़र आने लगी
बेदार बेनज़ीर इबारत –
लेनिन ज़िन्दाबाद!
तब उस मुक्तियोद्धा ने कहा,
अब तुम पूरी दीवार ही उड़ा दो!
ब्रेख्त
#लेनिन की एकमात्र कविता!
लेनिन की यह कविता अपनी कलात्मकता में अनुपम है। लेनिन पेशेवर कवि नहीं थे। लेकिन 1905 की क्रांति की असफलता और उसके आसपास दमन उत्पीड़न का राज्य ने जो नंगा रूप प्रस्तुत किया उसके खिलाफ जब प्रतिरोध कमजोर पड़ने लगा, तो लेनिन सपनों के संसार में
बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से मेहनतकश जनता का आवाहन करते हैं,नई उम्मीद जगाते हैं, उसकी क्षमता पर भरोसा जताते हैं और फिर से शासक और सत्ता के खिलाफ युद्ध की तैयारी के लिए कमर कसने का आवाहन करते हैं ।
उस समय रूसी मजदूर तथा किसानों की पीड़ा का जो बर्फ था, पूरी दुनिया में प्रतिक्रिया बाद का जो बोलबाला था, उसे चुनौती देते हुए जनमानस को खड़ा करना महत्वपूर्ण कार्यभार था। पराजित सेना के लिए भी उसका सेनापति अपनी कल्पना में विजय की रूपरेखा पेश कर फिर से युद्ध के लिए तैयार करता है। लेनिन का यही दूरदृष्टि उन्हें बिना आगा पीछा सोचे क्रांति की तैयारी में पूरी तरह से लगा देता है। किसी भी तरह की निराशा पूर्ण बात करने के खिलाफ अपनी कविता और राजनीतिक संघर्षों में मजबूती के साथ खड़ा हो जाते हैं ।
हम एकबार फिर आज उसी दौर से गुजर रहे हैं ,जब मेहनतकश की सेना, उसकी राजनीति , उसका दर्शन उसका सौंदर्य बोध अपने दुश्मनों के हमले से बिखर रहा है, लेनिन की इस कविता से उर्जा बटोर कर अपने इरादे को मजबूत कर, मेहनतकश की सेना को हर मोर्चे पर संगठित करना है, कविता और साहित्य के मोर्चे पर भी।
यह कविता मैने यथार्थ पत्रिका से ली थी और बहुत तेरे क्रांतिकारी साथियों को भेजा था।
कविता के बारे में
1907 की गर्मी में लेनिन भूमिगत रूप से फिनलैण्ड में रहे। ज़ार के हुक्म से दूसरी दूमा 'रूसी संसद' उस वक्त तोड़ दी गई थी। लेनिन व सोशल डेमोक्रेट दल के दूसरे कार्यकर्ताओं के गिरफ़्तार होने का खतरा था। लेनिन फिनलैण्ड से भागकर बाल्टिक के किनारे उस विस्ता गांव में छहा्र नाम से कई महीने रहे। डेढ़ साल के लगातार तीव्र राजनीतिक कामों 'जिसका अधिकांश भूमिगत रूप से करना पड़ा था,' के बाद लेनिन को कुछ समय के लिए आराम करने का मौका मिला। इस अज्ञातवास में उनकी पार्टी के ही एक साथी उनके साथ रहे। एक दिन बाल्टिक के किनारे टहलते हुए लेनिन ने अपने साथी से कहा-पार्टी जनता में प्रचार के काम के लिए काव्य विधा का अच्छी तरह इस्तेमाल नहीं कर रही है; उनका दुख यह था कि प्रतिद्वन्द्वी सोशल रेवोल्येशनरी दल इस मामले में काफी समझदारी का परिचय दे रहे हैं। 'काव्य रचना सबके बूते की बात नहीं है', उनके साथी के यह बात कहने पर लेनिन ने कहा 'जिन्हें लिखने का अभ्यास है, काफी मात्रा में क्रान्तिकारी आकांक्षा तथा समझ है वह क्रांन्तिकारी कविता भी लिख सकते है'। उनके साथी ने उन्हें कोशिश करने के लिए कहा, इस पर, उन्होंने एक 'कविता' लिखने की शुरुआत की और तीन दिन बाद उसे पढ़कर सुनाया। इस लम्बी कविता में लंनिन ने 1901-1907 की क्रान्ति का एक चित्र उकेरा है- जिसके शुरुआती दौर को उन्होंने 'वसन्त' कहा है, उसके बाद शुरु हुए प्रतिक्रिया के दौर को उन्होंने 'शीत' कहा है, आहवान किया है मुक्ति के नये संग्राम के लिए। लेनिन की कविता जेनेवा में चन्द रूसी डेमोक्रेट कार्यकर्त्ताओं द्वारा स्थापित पत्र 'रादुगा' (इन्द्रधनुष) में छपने की बात थी। लेनिन ने कहा था, कविता में लेखक का नाम 'एक रूसी' दिया जाए, न कि उनका नाम। मगर कविता छपने से पहले ही वह पत्रिका बन्द हो गयी। पीटर्सबुर्ग से निर्वाचित डिप्टी, सोशल डेमोक्रेट ग्रेगोयार आलेकशिन्स्की का भूमिगतकालीन नाम पियतर आल था। कविता अब तक उनके संग्रह में ही छिपी रही। उन्होंने पिछले साल (1946) इसका फ्रांसीसी अनुवाद पहली बार फ्रेंच पत्रिका -L' arche में प्रकाशित किया। किसी भाषा में इससे पहले यह प्रकाशित नहीं हुई। जहाँ तक पता चलता है, इसके अलावा लेनिन ने और कोई कविता नहीं लिखी। यही उनकी एकमात्र कविता है। फ्रांसीसी से अनुवाद करके कविता नीचे दी जा रही है। जहां तक सम्भव है-लगभग शाब्दिक अनुवाद किया गया है। मर्जी मुताबिक कुछ जोड़ने या घटाने की कोशिश नहीं की गई है।
अरुण मित्रशारदीय स्वाधीनता, 1947
वह एक तूफानी साल| कविता |
वी आई लेनिन
वह एक तूफानी साल।
आँधी ने सारे देश को अपनी चपेट में ले लिया। बादल बिखर गए
तूफान टूट पड़ा हम लोगों पर, उसके बाद ओले और वज्रपात
जख्म मुँह बाए रहा खेत और गाँव में
चोट दर चोट पर।
बिजली झलकने लगी, खूँखार हो उठी वह झलकन।
बेरहम ताप जलने लगा, सीने पर चढ बैठा पत्थर का भार।
और आग की छटा ने रोशन कर दिया
नक्षत्रहीन अंधेरी रात के सन्नाटे को।
सारी दुनिया सारे लोग तितर-बितर हो गए
एक रूके हुए डर से दिल बैठता गया
दर्द से दम मानो धुटने लगा
बन्द हो गए तमाम सूखे चेहरे।
खूनी तूफान में हजारों हजार शहीदों ने जान गँवायी
मगर यूँ ही उन्होंने दुख नहीं झेला, यूँ ही काँटों का सेहरा नहीं पहना।
झूठ और अंधेरे के राज में ढोंगियों के बीच से
वे बढ़ते गए आनेवाले दिन की मशाल की तरह।
आग की लपटों में, हमेशा जलती हुई लौ में
हमारे सामने ये कुर्बानी के पथ उकेर गए,
ज़िन्दगी की सनद पर, गुलामी के जुए पर, बेड़ियों की लाज पर
उन्होंने नफरत की सील-मुहर लगा दी।
बर्फ ने साँस छोड़ी, पत्ते बदरंग होकर झरने लगे,
हवा में फँसकर घूम-घूम कर मौत का नाच नाचने लगे।
हेमन्त आया, धूसर गालित हेमन्त।
बारिश की रुलाई भरी, काले कीचड़ में डूबे हुए।
इन्सान के लिए जिन्दगी घृणित और बेस्वाद हुई,
ज़िन्दगी और मौत दोनों ही एक-से असहनीय लगे उन्हें।
गुस्सा और र्दद लगातार उन्हें कुरेदने लगा।
उनका दिल उनके घर की तरह ही
बर्फीला और खाली और उदास हो गया।
उसके बाद अचानक वसन्त!
एकदम सड़ते हेमन्त के बीचोंबीच वसन्त,
हम लोगों के उपर उतर आया एक उजला खूबसूरत वसन्त
फटेहाल मुरझाये मुल्क में स्वर्ग की देन की तरह,
ज़िन्दगी के हिरावल की तरह, वह लाल वसन्त!
मई महीने की सुबह सा एक लाल सवेरा
उग आया फीके आसमान में,
चमकते सूरज ने अपनी लाल किरणों की तलवार से
चीर डाला बादल को, कुहरे की कफन फट गयी।
कुदरत की वेदी पर अनजान हाथ से जलायी गयी
शाश्वत होमाग्नि की तरह
सोये हुए आदमियों को उसने रोशनी की ओर खींचा
जोशीले खून से पैदा हुआ रंगीन गुलाब,
लाल लाल फूल, खिल उठे
और भूली-बिसरी कब्रों पर पहना दिया
इ़ज्ज़त का सेहरा।
मुक्ति के रथ के पीछे
लाल झण्डा फहरा कर
नदी की तरह बहने लगी जनता
मानो वसन्त में पानी के सोते फूट पड़े हैं।
लाल झण्डा थरथराने लगा जुलूस पर,
मुक्ति के पावन मन्त्र से आसमान गूँज उठा,
शहीदों की याद में प्यार के आँसू बहाते हुए
जनता शोक-गीत गाने लगी। खूशी से भरपूर।
जनता का दिल उम्मीद और ख्वाबों से भर गया,
सबों ने आनेवाली मुक्ति में एतबार किया
समझदार, बूढ़े, बच्चे सभी ने।
मगर नींद के बाद आता है जागरण।
नंगा यथार्थ,
स्वप्न और मतवालेपन के स्वर्गसुख के बाद ही आता है
वंचना का कडुवा स्वाद।
अन्धेरे की ताकतें छाँह में छिपकर बैठी थीं,
धूल में रेंगतें हुए वे फुफकार रहे थे;
वे घात लगाकर बैठे थे।
अचानक उन्होंने दाँत और छुरा गड़ा दिया
वीरों की पीठ और पाँव पर।
जनता के दुश्मनों ने अपने गन्दे मुँह से
गरम साफ खून पी लिया,
बेफिक्र मुक्ति के दोस्त लोग जब मुश्किल
राहों से चलने की थकान से चूर थे,
निहत्थे वे जब उनींदी बाँसे ले रहे थे
तभी अचानक उन पर हमला हुआ।
रोशनी के दिन बुझ गए,
उनकी जगह अभिशप्त सीमाहीन काले दिनों की कतार ने ले ली।
मुक्ति की रोशनी और सुरज बुझ गया,
अन्धरे में खड़ा रहा एक साँप-नजर।
घिनौने कत्ल, साम्प्रदायिक हिंसा, कुत्सा प्रचार
घोषित हो रहा है देशप्रेम के तौर पर,
काले भूतों का गिरोह त्योहार मना रहा है।
बेलगाम संगदिली से,
जो लोग बदले के शिकार हुए हैं
जो लोग बिना वजह बेरहमी से
विश्वासघाती हमले में मारे गये हैं
उन तमाम जाने-अनजाने शिकारों के खून से वे रंगे हैं।
शराब की भाप में गाली-गलौज करते हुए मुट्ठी संभाले
हाथ में वोद्का की बोतल लिये कमीनों के गिरोह
दौड़ रहे है पशुओं के झुण्ड की तरह
उनकी जेब में खनक रहे गद्दारी के पैसे
वे लोग नाच रहे हैं डाकुओं का नाच।
मगर इयेमलिया,(1) वह गोबर गणेश
बम से डर से और भी बेवकूफ बन कर चूहे की तरह थरथराता है
और उसके बाद निस्संकोच कमीज़ पर
''काला सौ''(2) दल का प्रतीक टाँकता है।
मुक्ति और खुशी की मौत की घोषणा कर
उल्लुओं की हँसी में
रात के अन्धेरे में प्रतिध्वनि करता है।
शाश्वत बर्फ के राज्य से
एक खूखार जाड़ा बर्फीला तुफान लेकर आया,
सफेद कफन की तरह बर्फ की मोटी परत ने
ढँक लिया सारे मुल्क को।
बर्फ की साँकल में बाँधकर जल्लाद जाड़े ने बेमौसम मार डाला
वसन्त को।
कीचड़ के धब्बे की तरह इधर-उधर दीख पड़ते हैं
बर्फ से दबे बेचारे गाँवों की छोटी-छोटी काली कुटियों के शिखर
बुरे हाल और बदरंग जाड़े के साथ भूख ने
अपना गढ़ बना लिया है सभी जगह तमाम दूषित घरों को।
गर्मी में लू जहाँ आग्नेय उत्ताप को लाती है
उस अन्तहीन बर्फीले क्षेत्र को घेर कर
सीमाहीन बेइन्तहा स्तेपी को घेर कर
तुषार के खूखार वेग आते-जाते हैं सफेद चिड़ियों की तरह।
बंधन तोड़ वे तमाम वेग सांय-सांय गरजते रहे,
उनके विराट हाथ अनगित मुठियों से लगातार बर्फ फेंकते रहे।
वे मौत का गीत गाते रहे
जैसे वे सदी-दर-सदी गाते आए हैं।
तूफान गरज पड़ा रोएँदार एक जानवर की तरह
ज़िदगी की धड़कन जिनमें थोड़ी सी भी बची है उन पर टूट पड़े,
और दुनिया से ज़िदगी के तमाम निशान धो डालने के लिए
पंखवाले भयंकर साँप की तरह झटपट करते हुए उड़ने लगे।
तूफान ने पहाड़ सा बर्फ इकट्ठा करके
पेड़ पौधों को झुका दिया, जंगल तहस-नहस कर दिया।
पशु लोग गुफा में भाग गये हैं।
पथ की रेखाएँ मिट गयी हैं, राही नदारद हैं।
हडडीसार भूखे भेडिए दौड़ आए,
तूफान के इर्द-गिर्द घूमने-फिरने लगे,
शिकार लेकर उनकी उन्मत छीनाझपटी
और चाँद की ओर चेहरा उठाकर चीत्कार,
जो कुछ जीवित हैं सारे डर से काँपने लगे।
उल्लू हँसते हैं, जंगली लेशि(3) तालियाँ बजाते हैं
मतवाले होकर काले दैत्यलोग भँवर में घूमते हैं
और उनके लालची होंठ आवाज करते हैं-
उन्हें मारण-यज्ञ की बू मिली है,
खूनी संकेत का वे इन्तजार करते हैं।
सब कुछ के उपर, हर जगह मौन, सारी दुनिया में बर्फ जमी हुई।
सारी ज़िन्दगी मानो तबाह है,
सारी दुनिया मानो कब्र की एक खाई है।
मुक्त रोशन ज़िदगी का और कोई निशान नहीं है।
फिर भी रात के आगे दिन की हार अभी भी नहीं हुई,
अभी भी कब्र का विजय-उत्सव ज़िदगी को नेस्तानाबूद नहीं करता।
अभी भी राख के बीच चिनगारी धीमी-धीमी जल रही है,
ज़िदगी अपनी साँस से फिर उसे जगाएगी।
पैरों से रौंदे हुए मुक्ति के फूल
आज एकदम नष्ट हो गये हैं,
''काले लोग''(4) रोशनी की दुनिया का खौफ देख खुश हैं,
मगर उस फूल के फल ने पनाह ली है।
जन्म देने वाली मिट्टी में।
माँ के गर्भ में विचित्र उस बीज ने
आँखों से ओझल गहरे रहस्य में अपने को जिला रखा है,
मिट्टी उसे ताकत देगी, मिट्टी उसे गर्मी देगी,
उसके बाद एक नये जन्म में फिर वह उगेगा।
नयी मुक्ति के लिए बेताब जीवाणु वह ढो लाएगा,
फाड़ डालेगा बर्फ की चादर,
विशाल वृक्ष के तौर पर बढ़कर लाल पत्ते फैलाए
दुनिया को रोशन करेगा,
सारी दुनिया को,
तमाम राष्ट्र की जनता को उसकी छाँह में इकट्ठा करेगा।
हथियार उठाओ, भाइयो, सुख के दिन करीब हैं।
हिम्मत से सीना तानो। कूद पड़ो, लड़ाई में आगे बढ़ो।
अपने मन को जगाओ। घटिया कायराना डर को दिल से भगाओ!
खेमा मजबूत करो! तनाशाह और मालिकों के खिलाफ
सभी एकजुट होकर खड़े हो जाओ!
जीत की किस्मत तुम्हारी मतबूत मजदूर मुट्ठी में!
हिम्मत से सीना तानो! ये बुरे दिन जल्दी ही छंट जाएंगे!
एकजुट होकर तुम मुक्ति के दुशमन के खिलाफ खड़े हो!
वसन्त आएगा… आ रहा है… वह आ गया है।
हमारी बहुवांछित अनोखी खूबसूरत वह लाल मुक्ति
बढ़ती आ रही है हमारी ओर!
तनाशाही, राष्ट्रवाद, कठमुल्लापन ने
बगैर किसी गलती के अपने गुणों को साबित किया है
उनके नाम पर उन्होंने हमें मारा है, मारा है, मारा है,
उन्होंने किसानों की हाड़माँस तक नोचा है,
उन लोगों ने तोड़ दिए है दाँत,
जंजीर से जकड़े हुए इन्सान को उन्होंने कैदखाने में दफनाया है।
उन्होंने लूटा है, उन्होंने कत्ल किया है
हमारी भलाई के लिए कानून के मुताबिक,
ज़ार की शान के लिए, साम्राज्य की भलाई के लिए!
जार के गुलामों ने उसके जल्लादों को तृप्त किया है,
उनकी सेनाओं ने उसके लालची ग़िद्धो को दावत दी है
राष्ट्र की शराब और जनता के खून से।
उनके कातिलों को उन्होंने तृप्त किया है,
उनके लोभी गिद्धों को मोटा किया है,
विद्रोही और विनीत विश्वासी दासों की लाश देकर।
ईसा मसीह के सेवकों ने प्रार्थना के साथ
फांसी के तख्तों के जंगल में पवित्र जल का छिड़काव किया है।
शाबाश, हमारे ज़ार की जय हो!
जय हो उसका आशीर्वादप्राप्त फाँसी की रस्सी की!
जय हो उसकी चाबुक-तलवार-बन्दूकधारी पुलिस की!
अरे फौजियो, एक गिलास वोद्का में
अपने पछतावों को डुबो दो!
अरे ओ बहादुरों, चलाओ गोली बच्चो और औरतों पर!
जहाँ तक हो सके अपने भाइयों का कत्ल करो
ताकि तुम लोगों के धर्म पिता खुश हो सकें!
और अगर तुम्हारा अपना बाप गोली खाकर गिर पड़े
तो उसे डूब जाने दो अपने खून में, हाथ के कोड़े से टपकते खून में!
जार की शराब पीकर हैवान बनकर
बगैर दुविधा के तुम अपनी माँ को मारो।
क्या डर है तुम्हें?
तुम्हारे सामने जो लोग हैं वे तो जापानी(5) नहीं हैं।
वे निहायत ही तुम्हारे अपने लोग हैं
और वे बिल्कुल निहत्थे हैं।
हे ज़ार के नौकरो, तुम्हें हुक्म दिया गया है
तुम बात मत करो, फाँसी दो!
गला काटों! गोली चलाओं! घोडे़ के खुर के नीचे कुचल दो!
तुम लोगों के कारनामों का पुरस्कार पदक और सलीब मिलेगा…
मगर युग-युग से तुमलोगों पर शाप गिरेगा
अरे ओ जूडास के गिरोह!
अरी ओ जनता, तुम लोग अपनी आखिरी कमीज दे दो,
जल्दी जल्दी! खोल दो कमीज!
अपनी आखिरी कौड़ी खर्च करके शराब पीओ,
ज़ार की शान के लिए मिट्टी में कुचल कर मर जाओ!
पहले की तरह बोझा ढोनेवाले पशु बन जाओ!
पहले की बोझा ढोने वाले पशु बन जाओ!
हमेशा के गुलामों, कपड़े के कोने से आंसु पोंछो
और धरती पर सिर पटको!
विश्वसनीय सुखी
आमरण ज़ार को जान से प्यारी, हे जनता,
सब बर्दाश्त करते जाओ, सब कुछ मानते चलो पहले की तरह…
गोली! चाबुक! चोट करो!
हे ईश्वर, जनता को बचाओ(6)
शक्तिमान, महान जनता को!
राज करे हमारी जनता, डर से पसीने-पसीने हों ज़ार के लोग!
अपने घिनौने गिरोह को साथ लेकर हमारा जार आज पागल है,
उनके घिनौने गुलामों के गिरोह आज त्योहार मना रहे हैं,
अपने खून से रंगे हाथ उन्होंने धोये नहीं!
हे ईश्वर, जनता को बचाओ!
सीमाहीन अत्याचार!
पुलिस की चाबुक!
अदालत में अचानक सजा
मशीनगन की गोलियों की बौछार की तरह!
सजा और गोली बरसाना,
फाँसी के तख्तों का भयावह जंगल,
तुमलोगों को विद्रोह की सजा देने के लिए!
जेलखाने भर गए हैं
निर्वासित लोग अन्तहीन दर्द से कराह रहें हैं,
गोलियों की बौछार रात को चीर डाल रही है।
खाते खाते गिद्धों को अरुचि हो गई है।
वेदना और शोक मातृ भूमि पर फैल गया है।
दुख में डूबा न हो, ऐसा एक भी परिवार नहीं है।
अपने जल्लादों को लेकर
ओ तानाशाह, मनाओ अपना खूनी उत्सव
ओ खून चूसनेवालों, अपने लालची कुत्तों को लगाकर
जनता का माँस नोंच कर खाओ!
अरे तानाशाह, आग बरसाओ!
हमारा खून पिओ, हैवान!
मुक्ति, तुम जागो!
लाल निशान तुम उड़ो!
और तुम लोगों अपना बदला लो, सजा दो,
आखिरी बार हमें सताओ!
सज़ा पाने का वक्त करीब है,
फैसला आ रहा है, याद रखो!
मुक्ति के लिए
हम मौत के मुँह में जाएंगे; मौत के मुँह में
हम हासिल करेंगे सत्ता और मुक्ति,
दुनिया जनता की होगी!
गैर बराबरी की लड़ाई में अनगिनत लोग मारे जाएँगे!
फिर भी चलो हम आगे बढ़ते जाऐँ
बहुवांछित मुक्ति की ओर!
अरे मजदूर भाई! आगे बढ़ो!
तुम्हारी फौज लड़ाई में जा रही है
आजाद आँखें आग उगल रही हैं
आसमान थर्राते हुए बजाओ श्रम का मृत्युंजयी घण्टा!
चोट करो, हथौड़ा! लगातार चोट करो!
अन्न! अन्न! अन्न!
बढ़े चलो किसानों, बढ़े चलो।
जमीन के बगैर तुम लोग जी नही सकते।
मलिक लोग क्या अभी भी तुमलोगों का शोषण करते रहेंगे?
क्या अभी भी अनन्तकाल तक वे तुमलोगों को पेरते रहेंगे?
बढ़े चलो छात्र, बढ़े चलो।
तुमलोंगों में से अनेकों जंग में मिट जाएँगे।
लालफीता लपेट कर रखा जाएगा
मारे गए साथियों का शवाधार।
जानवरों के शासन के जुए
हमारे लिए तौहीन हैं।
चलो, चूहों को उनके बिलों से खदेडें
लड़ाई में चलों, अरे ओ सर्वहारा!
नाश हो इस दुखदर्द का!
नाश हो ज़ार और उसके तख्त का!
तारों से सजा हुआ मुक्ति का सवेरा
वह देखों उसकी दमक झिलमिला रही है!
खुशहाली और सच्चाई की किरण
जनता की नजर के आगे उभर रही है।
मुक्ति का सूरज बादलों को चीर कर
हमें रोशन करेगा।
पगली घण्टी की जोशीली आवाज
मुक्ति का आवाहन करेगी
और ज़ार के बदमाशों को डपटकर कहेगी
''हाथ नीचा करो, भागो तुम लोग।''
हम जेलखाने तोड़ डालेंगे।
जायज गुस्सा गरज रहा है।
बन्धनमोचन का झण्डा
हमारे योद्धाओं का संचालन है।
सताना, उखराना,(7)
चाबुक, फाँसी के तख्तों का नाश हो!
मुक्त इन्सानों की लड़ाई, तुम तुफान सी पागल बनो!
जलिमों, मिट जाओ!
आओ जड़ से खत्म करें
तानाशाह की ताकत को।मुक्ति के लिए मौत इज्जत है,
आओ तोड़ डालें गुलामी को,
तोड़ डालें गुलामी की शर्म को।
हे मुक्ति, तुम हमें
दुनिया और आजादी दो!
(1) रूसी लोग इयेमलिया नाम बेवकूफी के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करते है।
(2) ज़ार के जमाने का चरम प्रतिक्रियावादी राजनीतिक दल।
(3) रूस का अपदेवता।
(4) हर जगह ''काला सौ'' न कहकर ''काला'' से ही लेनिन ने उस दल को बताया है।
(5) साफ है लेनिन ने रूस-जापान युद्ध में ज़ार की सेनाओं के पलायन तथा पराजय का उल्लेख किया है।
(6) ज़ार साम्राज्य संगीत की पंक्ति 'हे ईश्वर, ज़ार को बचाओं' को बदल कर लेनिन ने इस तरह इस्तेमाल किया है। (7) क्रान्तिकारी आन्दोलन के दमन में जुटा हुआ ज़ार का राजनीतिक गुप्तचर विभाग।
स्रोत यथार्थ पत्रिक।
कामरेड्स, हम कम्युनिस्ट एक खास मिटटी के बने लोग होते हैं। हम एक विशेष पदार्थ से बने हैं। हम एक सेना हैं, सर्वहारा के महान रणनीतिकार, कॉमरेड लेनिन की सेना। जिस पार्टी के संस्थापक और नेता कॉमरेड लेनिन थे, उस पार्टी के सदस्य की उपाधि से सम्मानजनक कुछ नहीं। ऐसी पार्टी का सदस्य होना हर किसी के बस की बात नहीं है। मेहनतक़श मजदूर वर्ग की औलादें, अभाव और संघर्ष की औलादें, बे-इन्तेहा अभाव और अद्भुत वीरता के वारिश ही हैं जो सबसे पहले ऐसी पार्टी के सदस्य बनते हैं। इसीलिए लेनिनवादियों की पार्टी, कम्युनिस्टों की पार्टी को मजदूर वर्ग की पार्टी भी कहा जाता है।…
सर्वहारा के अधिनायकत्व की स्थापना हमारे देश में श्रमिकों और किसानों के बीच गठबंधन के फलस्वरूप ही हो सकी थी। यह मैत्री सोवियत के गणराज्य का पहला और मौलिक आधार है। मज़दूरों और किसानों के इस तरह के गठबंधन के बिना पूंजीपतियों और जमींदारों को परास्त नहीं किया जा सकता था। किसानों के समर्थन के बिना मजदूर पूंजीपतियों को नहीं हरा सकते थे और मजदूरों के नेतृत्व के बिना किसान जमींदारों को नहीं हरा सकते थे। यह हमारे देश में गृहयुद्ध के पूरे इतिहास से साबित होता है। लेकिन सोवियत गणराज्य को मजबूत करने का संघर्ष किसी भी तरह से समाप्त नहीं हुआ है - इसने केवल एक नया रूप धारण किया है।….
कॉमरेड लेनिन ने हमसे बिछड़ते हुए हमें कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सिद्धांतों के प्रति वफादार रहने का निर्देश दिया। कॉमरेड लेनिन! हम आपके सामने अपना सर झुकाकर शपथ लेते हैं कि हम पूरी दुनिया के मेहनतक़श लोगों के संघ, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल को मजबूत करने और बढ़ाने के लिए अपने जीवन को न्यौछावर कर देंगे!
कॉमरेड लेनिन की मृत्यु पर बोलते हुए कॉमरेड स्टालिन
विश्व सर्वहारा के महान नेता, शिक्षक, पथ प्रदर्शक कॉमरेड लेनिन को उनके स्मृति दिवस पर लाल सलाम
स्मृति दिवस
#21जनवरी1924 ::
लेनिन की याद में उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ
आओ जड़ से खत्म करें
तानाशाह की ताकत को।
मुक्ति के लिए मौत इज्जत है,
बेड़ियों में जकड़ी हुई जिन्दगी शर्म है।
आओ तोड़ डालें गुलामी को,
तोड़ डालें गुलामी की शर्म को।
हे मुक्ति, तुम हमें
दुनिया और आजादी दो!
----- लेनिन
✊✊✊✊✊✊✊✊
*मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक व्लादीमिर इल्यीच लेनिन के 98वें स्मृति दिवस (21 जनवरी) पर क्रांतिकारी सलाम*
व्लादीमिर इल्यीच लेनिन मज़दूर वर्ग के महान नेता, शिक्षक और दुनिया की पहली सफल मज़दूर क्रान्ति के नेता थे। लेनिन के नेतृत्व में सोवियत संघ में पहले समाजवादी राज्य की स्थापना हुई थी जिसने दुनिया को दिखा दिया कि शोषण-उत्पीड़न के बन्धनों से मुक्त होकर मेहनतकश जनता कैसे-कैसे चमत्कार कर सकती है। आज उनके कुछ महत्वपूर्ण लेखों (व कुछ उनके जीवन के परिचयात्मक लेख भी) के लिंक दिये जा रहे हैं जिससे हमें ये समझने में मदद मिलेगी कि मज़दूर वर्ग अपनी सत्ता कैसे प्राप्त करता है और मज़दूर वर्ग के लिए क्रांतिकारी सिद्धांत, क्रांतिकारी पार्टी और एक क्रांतिकारी मज़दूर अख़बार का क्या महत्व है
*लेनिन के जीवन पर कुछ लेख*
👉मज़दूर वर्ग के महान नेता और शिक्षक लेनिन - https://www.mazdoorbigul.net/archives/2125
👉अक्टूबर क्रान्ति के शताब्दी वर्ष की शुरुआत के अवसर पर 'लेनिन कथा' से कुछ अंश https://www.mazdoorbigul.net/archives/10487
👉सुब्बोत्निक पर लेनिन https://www.mazdoorbigul.net/archives/4982
👉लेनिन कथा के दो अंश… https://www.mazdoorbigul.net/archives/227
👉रूस में मज़दूरों के क्रान्तिकारी अख़बार 'ईस्क्रा' की शुरुआत की रोमांचक कहानी https://www.mazdoorbigul.net/archives/510
👉बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविता – लेनिन जिन्दाबाद https://www.mazdoorbigul.net/archives/7833
👇 *लेनिन के लेखों के लिंक* 👇
⏺कम्युनिस्ट पार्टी की ज़रूरत के बारे में लेनिन के कुछ विचार… https://www.mazdoorbigul.net/archives/3691
⏺मज़दूर अख़बार – किस मज़दूर के लिए - https://www.mazdoorbigul.net/archives/1060
⏺कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा - https://www.mazdoorbigul.net/archives/9634
⏺आम लोगों में मौजूद मर्दवादी सोच और मेहनतकश स्त्रियों की घरेलू ग़ुलामी के ख़िलाफ़ संघर्ष के बारे में कम्युनिस्ट नज़रिया https://www.mazdoorbigul.net/archives/3529
⏺क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों से मज़दूर का वार्तालाप https://www.mazdoorbigul.net/archives/2245
⏺राजनीतिक उद्वेलन और प्रचार कार्य का महत्व https://www.mazdoorbigul.net/archives/1229
⏺बुर्जुआ चुनावों और क़ानूनी संघर्षों के बारे में सर्वहारा क्रान्तिकारी दृष्टिकोण https://www.mazdoorbigul.net/archives/4196
⏺संघर्ष के रूपों के प्रश्न पर मार्क्सवादी नज़रिया https://www.mazdoorbigul.net/archives/3900
⏺धर्म के बारे में मजदूरों की पार्टी का रुख https://www.mazdoorbigul.net/archives/9168
⏺मई दिवस - मेहनतकश वर्ग के चेतना की दुनिया में प्रवेश करने का जश्न https://www.mazdoorbigul.net/archives/3989
⏺फ़ैक्ट्री-मज़दूरों की एकता, वर्ग-चेतना और संघर्ष का विकास https://www.mazdoorbigul.net/archives/3809
⏺मार्क्सवाद और सुधारवाद https://www.mazdoorbigul.net/archives/6104
⏺बुर्जुआ जनवाद : संकीर्ण, पाखण्डपूर्ण, जाली और झूठा; अमीरों के लिए जनवाद और गरीबों के लिए झाँसा https://www.mazdoorbigul.net/archives/4817
⏺हड़तालों के विषय में https://www.mazdoorbigul.net/archives/680
⏺जनवादी जनतन्त्र: पूँजीवाद के लिए सबसे अच्छा राजनीतिक खोल https://www.mazdoorbigul.net/archives/4951
⏺जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाले के रूप में मज़दूर वर्ग https://www.mazdoorbigul.net/archives/4911
⏺टेलर प्रणाली – मशीन द्वारा आदमी को दास बनाया जाना https://www.mazdoorbigul.net/archives/9009
⏺मार्क्सवादी पार्टी बनाने के लिए लेनिन की योजना और मार्क्सवादी पार्टी का सैद्धान्तिक आधार https://www.mazdoorbigul.net/archives/7498
⏺संशोधनवादियों के संसदीय जड़वामनवाद (यानी संसदीय मार्ग से लोक जनवाद या समाजवाद लाने की सोच) के विरुद्ध लेनिन की कुछ उक्तियाँ https://www.mazdoorbigul.net/archives/7394
⏺मज़दूरों के सबसे बुरे दुश्मन लफ़्फ़ाज़ https://www.mazdoorbigul.net/archives/7207
⏺सर्वहारा वर्ग में व्याप्त ढुलमुलयक़ीनी, फूट, व्यक्तिवादिता आदि का मुक़ाबला करने के लिए उसकी राजनीतिक पार्टी के अन्दर कठोर केन्द्रीयता और अनुशासन होना ज़रूरी है https://www.mazdoorbigul.net/archives/557
⏺किसानों के बारे में कम्युनिस्ट दृष्टिकोण : कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू https://www.mazdoorbigul.net/archives/9542
⏺समाजवादी क्रान्ति का भूमि-सम्बन्ध विषयक कार्यक्रम और वर्ग-संश्रय : लेनिन की और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की अवस्थिति https://www.mazdoorbigul.net/archives/9541
लेनिन के स्मृतिदिवस (21 जनवरी) के अवसर पर उनका एक मौजू उद्धरण:
"सिर्फ़ शोहदे और बेवकूफ़ लोग ही यह सोच सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग को पूँजीपति वर्ग के जुवे के नीचे, उजरती गुलामी के जुवे के नीचे, कराये गये चुनावों में बहुमत प्राप्त करना चाहिए, तथा सत्ता बाद में प्राप्त करनी चाहिए। यह बेवकूफी या पाखण्ड की इन्तहा है, यह वर्ग संघर्ष और क्रान्ति की जगह पुरानी व्यवस्था और पुरानी सत्ता के अधीन चुनाव को अपनाना है।"
('इतालवी, जर्मन और फ्रांसीसी कम्युनिस्टों का अभिनन्दन', ग्रंथावली, चौथा रूसी संस्करण, ग्रंथ-30, पृ.40)
एक बूढ़ा अवकाश प्राप्त कर्नल और लेनिन
लघु कथा
समय:- 1922-23 स्थान:- पेट्रोवस्की पार्क
एक बूढ़ा जारशाही अवकाश प्राप्त कर्नल जिसकी अंतिम रुबल( पेंशन) खत्म हो चुकी थी, उसके पास कोई रास्ता नहीं बचा था क्योंकि वह अपने को दुश्मन की कतारों में बिताए लम्हों से विचलित रहता था। आंखे नीची...कर्नल का कोट ( क्योंकि उसके पास दूसरा कोई कपड़ा नहीं था) ..एक छड़ी के सहारे सड़क पर भीख मांगने के लिए खड़ा हो गया, पर भीख भी कौन दे?...इस कोट से ही डर जाते थे सब.........अंततः उसने फैसला किया कि जीवन अब किसी काम का नहीं! वह आकर बैठ गया पेट्रोवस्की पार्क के एक बेंच पर.....शांत....और अंतिम शांति की उधेड़बुन के साथ! तभी एक काली सूट और टोपी पहने मंझोले कद के व्यक्ति जो टहल रहे थे अचानक आकर रूक गये और बोले- ' क्या मैं बैठ सकता हूँ?'
उस बूढ़े ने कहा:-" आपको दिखता नहीं मैं एक भिखमंगा हूँ- मुझसे दूर बैठो"
" हां मैं देख रहा हूँ आप संकटग्रस्त मालूम पड़ते है "
" आप एक भूतपूर्व अफसर है"
" हॉ! एक कुत्ता ! एक कलंकित आदमी-इतना ही अर्थ है इसका"
"थोड़ा रुकिए! अफसर भी भिन्न प्रकार के थे"
काफी देर बात हुई दोनों में-वह व्यक्ति बार -बार खुलकर हस भी रहा था, अंत में अपने पॉकेट से एक कागज निकालकर कुछ लिखकर बूढ़ा के तरफ उन्होंने बढ़ाया। बूढ़ा उसे अनमने ढंग से अपने कोट में रख लिया और धन्यवाद किया! वह व्यक्ति चले गये।
वह बूढ़ा अब मरने का ख्याल छोड़कर फिर भीख मांगने में व्यस्त हो गया।
लेकिन अभाव का दौर और भी खतरनाक होता गया, अचानक उसे उस नोट की याद आयी। उस नोट पर एक विभाग का पता लिखा हुआ था....वह जैसे-तैसे उस पते पर पहुंच गया। उस नोट को पढ़ते ही उसे कार्यालय में सम्मान के साथ बैठाया गया। उस बूढ़े के पास जो भी कागज था अपनी नौकरी से संबंधित उसने दिखाया- उसे कार्यालय से एक पेंशन पुस्तिका, खाद्य पदार्थों, कपड़ों और कुछ अन्य वस्तुओं-ईंधन की लकड़ी या डॉक्टर उपचार के लिए आर्डर पुस्तिका के साथ एक पैकेट रुबल प्राप्त हुआ। और कहा गया कि यह पेंशन की पहली किस्त है- हर महीने आकर ले जाना है।
उस बूढ़े के आंखों में आंसू था-वह सबसे पहले अपने लिए रोटी खरीदना चाहता था। जैसे ही वह दुकान पर पहुचा उसकी नजर एक पोस्टर पर पड़ी , जो वही व्यक्ति थे जो पार्क में नोट दिया था और नीचे लिखा था।
"ब्लादिमीर इल्यीच लेनिन"
उस बूढ़े की भूख जाती रही....आंखों से आंसू और नजरे ऊंची! सहसा ही उसके मुह से निकल पड़ा।
" लेनिन, तुम क्या आदमी हो! मेरे देश का भविष्य एक सही व्यक्ति के हाथों में है"
वह बूढ़ा नजरे ऊंची करके सड़कों में खो गया.........!
स्रोत :- लेनिन विषयक कहानियां
लेनिन के स्मृति दिवस (21 जनवरी) पर
वह रात
दमीत्री और मरीया ऊपर, बच्चों के कमरे में, सो रहे थे – वे कुछ नहीं जानते थे। माँ पीटर्सबर्ग में थीं। जो हुआ था, उसके बारे में सबसे पहले उन्हें ही पता लगा था।
खाने के कमरे में धीमी रोशनी से जलता लैंप मेज़ और 'सिम्बीर्स्क समाचार' की एक प्रति पर प्रकाश का चौड़ा घेरा डाल रहा था। ओल्गा अपने सिर को हाथों में जकड़े आगे-पीछे हिचकोले खा रही थी। उसकी आँखों से आँसुओं की धार बह रही थी।
व्लादीमिर इन भयानक पंक्तियों से अपनी आँखें नहीं हटा पा रहा था :
"सीनेट के विशेष कार्यालय द्वारा सुनाई गई सज़ा के अनुसार अपराधी गेनेरालोव, अंद्रेयुश्किन, ओसिपानोव, शेविर्योव और उल्यानोव को आज, 8 मई, 1887 को फाँसी दे दी गयी।"
व्लादीमिर ने अख़बार पर हाथ फेरा, मानो इन पंक्तियों को रगड़कर मिटा देने के लिए। वह इन शब्दों के डरावने, विकराल अर्थ को समझ नहीं पा रहा था।
क्या यह सम्भव है कि अलेक्सान्द्र मर गया है? क्या यह सम्भव है कि इतने चतुर, इतने दयालु और इतने भले अलेक्सान्द्र को फाँसी दे दी गयी है?
व्लादीमिर का मन कर रहा था कि वह चीख़ पड़े, लपके, अपने भाई के हत्यारों को ढूँढ़े और उन्हें मार डाले।
ओल्गा भी ऐसी ही दीवानी हो रही थी। व्लादीमिर ने पहले उसे तैयार करने की कोशिश की थी, लेकिन आख़िर जब उसने ख़बर दी ही थी, तो वह यह चिल्लाते हुए फ़र्श पर गिर पड़ी थी कि "मैं ज़ार को मार डालूँगी!"
व्लादीमिर अपलक अख़बार को देख रहा था। उसे उसकी लकीरों के बीच अपने प्यारे भाई अलेक्सान्द्र का चेहरा नज़र आ रहा था।
यह हो कैसे सकता है ?
कितनी ही बार उसने और अलेक्सान्द्र ने एकान्त पाने के लिए बरसाती में जाकर अपनी पढ़ी हुई किताबों के बारे में गरमागरम बहस की थी। हर युग और हर काल में विभिन्न जनों के वीरतापूर्ण संघर्ष दोनों को ही आकर्षित करते थे।
अलेक्सान्द्र ने फ्रांसीसी क्रान्ति और पेरिस कम्यून के बारे में काफी कुछ पढ़ा था। व्लादीमिर को कम्यूनाडों की नियति के बारे में बताते हुए उसने कहा था कि ऐसा समय आयेगा , जब रूस में कम्यून विजयी होगा। तव व्लादीमिर ने सोचा था कि अलेक्सान्द्र आगे चलकर क्रान्तिकारी बनेगा।
पिछली छुट्टियों में घर आने पर अलेक्सान्द्र आम तौर पर ज़्यादा ही ख़ामोश रहा और अपने ही कामों में उलझा रहा था – अपनी खुर्दबीन में, अपने शोध प्रबन्ध की तैयारी में ही रमा रहता था। उसे देखकर व्लादीमिर को निराशा-सी होती – उसे लगता कि अलेक्सान्द्र कभी क्रान्तिकारी नहीं बनेगा।
एक दिन व्लादीमिर ने अपने भाई को बागीचे में देखा। अलेक्सान्द्र वहाँ अपनी उँगलियाँ बाँधे, गहरे विचार में लीन अकेला वैठा था। उसकी गहरी आँखों में एक ख़ामोश आग जल रही थी। व्लादीमिर ने हैरानी के साथ अपने भाई की तरफ़ देखा। अलेक्सान्द्र अपनी माँ और बहनों की बात करने लगा और व्लादीमिर से वोला कि उसे उनकी अच्छी तरह देखभाल करनी चाहिए और उन्हें कभी किसी तरह तंग नहीं करना चाहिए। अलेक्सान्द्र और आन्ना पीटर्सबर्ग में पढ़ रहे थे, इसलिए घर पर व्लादीमिर ही सबसे बड़ा था...
अँधियारी खिड़की से बाहर की तरफ़ देखते हुए व्लादीमिर अपने बालों में उँगलियाँ चला रहा था। इस बात की जानकारी से कि अलेक्सान्द्र मर गया है, कि वह इतनी भयंकर मौत मरा है, इस अनुभूति की दारुण वेदना से जैसे उसकी शक्ति छीज गयी थी।
...ओल्गा बैठक में सोफ़े पर पड़ी हुई थी। फ़र्श पर पड़ती चाँदनी गमले में उगे ताड़ की काली छायाओं से कटी हुई थी।
"सो रही हो क्या?" व्लादीमिर ने पूछा।
उसने जवाब नहीं दिया। वह निश्चल पड़ी रही। व्लादीमिर ने एक दियासलाई जलायी। उसकी लपकती रोशनी में उसकी बहन के चेहरे पर मौत जैसी पीलिमा नज़र आ रही थी। क्षण भर के लिए तो उसे यही लगा कि वह मर गयी है।
"ओल्गा! प्यारी ओल्गा! आँखें खोल!" व्लादीमिर ने उसका सिर उठाते हुए कहा।
ओल्गा ने कराहकर सिर अपने भाई की छाती पर टिका दिया और सुबकने लगी।
"अलेक्सान्द्र के बिना हम क्या करेंगे? माँ का क्या होगा? काश कि पिताजी ज़िन्दा होते!"
"पिताजी क्या इस सबको झेल पाते!" व्लादीमिर ने मानो अपने से ही कहा।
वह यह महसूस कर सकता था कि उसकी बहन के गरमगरम आँसुओं से उसकी कमीज़ तर हो रही है। उसने उसे अपने सीने से लगा लिया और मौन रहा। "तुम कुछ कहते क्यों नहीं? तुम क्या सोच रहे हो?"
"अलेक्सान्द्र के बारे में, माँ के बारे में और यह कि काम कैसे चलाया जाये।"
चाँद और ऊपर चढ़ गया, जिससे छायाएँ और गहरी हो गयीं और खिड़की की तरफ़ सरक गयीं।
ओल्गा रोते-रोते बिलकुल निढाल होकर सो गयी। व्लादीमिर ने आहिस्ता से उसके सिर के नीचे एक तकिया रखा और फिर ऊपर अलेक्सान्द्र के कमरे में चला गया।
मेज़ पर फ्लास्क और परखनलियाँ थीं। काँच की ये भंगुर वस्तुएँ और अलेक्सान्द्र की और सभी चीज़ें मौजूद थीं, पर वह ख़ुद अब नहीं था।
व्लादीमिर ने छज्जे की तरफ़ की खिड़की खोल दी। उसने अपने कॉलर का बटन खोला और ताज़ा हवा में गहरी साँस ली।
उसके मन में विचार पर विचार आ रहे थे।
वह करे क्या? ज़ार की हत्या कर दे? अलेक्सान्द्र की मौत का बदला ले और उसी के पदचिह्नों पर चले?...उससे लोगों का क्या लाभ होगा? छह वर्ष हुए, 'नरोदनाया वोल्या' के सदस्य ग्रीनेवीत्स्की* ने ज़ार की हत्या कर दी थी। लेकिन अलेक्सान्द्र द्वितीय की जगह अलेक्सान्द्र तृतीय ने ले ली थी और देश में हालत और भी बिगड़ गयी थी। लोगों की दशा पहले से भी ख़राब हो गयी : हर सही, प्रगतिशील चीज़ का गला घोंटा जा रहा था। पिताजी के स्कूल, जिन्हें उन्होंने इतनी मुश्किलों से स्थापित किया था, बन्द किये जा रहे थे।
______
*रूसी आतंकवादी-क्रान्तिकारी दल के सदस्य, जो आतंक की कार्रवाइयाँ करके ज़ारशाही का तख़्ता पलटना चाहते थे।
हर शाम माँ एक लोरी गाया करती थीं। आज भी उसके शब्द उसके कानों में बड़ी स्पष्टता के साथ गूँज रहे थे :
...सदियों से जग में है रहस्य जो
देख, समाज उसको लेना
संघर्षों के लिए मनुज को
नई शक्ति, नव बल देना।
नव बल। संघर्षों के लिए। लेकिन यह नया बल है किसमें? कहाँ है वह? अन्याय और दमन का ख़ात्मा कैसे किया जा सकता है? एक आदमी तो अकेला कभी यह कर नहीं सकता। एक क्या, सौ बहादुर से बहादुर आदमी भी कभी यह नहीं कर सकते। लाखों-करोड़ों लोग एक साथ लड़कर ही इस काम को कर सकते हैं। लेकिन लाखों-करोड़ों लोगों को एक ही लक्ष्य के लिए कैसे संगठित किया जाये?
"अलेक्सान्द्र , मैं आज़ादी की तुम्हारी मशाल को उठाऊँगा। मैं उसी लक्ष्य को पाने की कोशिश करूँगा, मगर मैं जीत का दूसरा रास्ता खोजूँगा। अलेक्सान्द्र! तुम जिस लक्ष्य की सिद्धि करना चाहते थे, उसके लिए मैं अपनी सारी ज़िन्दगी, अपनी सारी ताक़त लगा दूँगा..."
पेड़ों के फूलों की महक से भरी ताज़ा हवा से कमरा भर गया।
व्लादीमिर को वह समय याद आया, जब उन्होंने इस मकान को पहली बार देखा था। उसकी माँ ने झाड़ियों से भरे अहाते को देखकर भावी फलोद्यान की कल्पना की थी। यह कल्पना अब साकार हो चुकी थी। बाग में एक भी शाख़ मरी हुई नहीं थी – हर पेड़ पर बहार आयी हुई थी।
सूरज उगने लगा था, चेरी के पेड़ों के झुण्ड उसकी किरणों से गुलाबी और एल्म वृक्ष के तने ताम्र वर्ण के हो गये थे।
उसने गाड़ी के पहियों के चरमराने की आवाज़ सुनी। एक घोड़ा हिनहिनाया।
व्लादीमिर ने लपककर नीचे जाकर दरवाज़ा खोला। उसकी बहन आन्ना लगभग उसकी बाँहों में ही आ गिरी। उसकी माँ ने अपने चेहरे पर से रूबन्द उठाया, अपनी टोपी उतारी और धीरे-धीरे सीढ़ियों पर चढ़ने लगीं। वह अलेक्सान्द्र के कमरे में जा रही थीं।
"माँ और आन्ना वापस आ गयी हैं," व्लादीमिर ने ओल्गा को हिलाकर जगाते हुए कहा, "जाओ, बाल ठीक करो, मुँह धोओ और अपने को काबू में करो। माँ को हमारे आँसू नहीं नज़र आने चाहिए..."
बच्चों के कमरे में भागकर जाते हुए वह चिल्लाया, "चलो, उठो सब!" उसने दमीत्री की कपड़े पहनने में मदद की और मरीया के बाल गूँथने की बेकार कोशिश की। "चलो, माँ के पास चलें!"
बच्चे अलेक्सान्द्र के कमरे के दरवाजे पर ही रुक गये। उनकी माँ पलंग पर पड़ी हुई थीं, उनका चेहरा तकिये में छिपा हुआ था।
"माँ!" व्लादीमिर ने आहिस्ता से आवाज़ दी।
मरीया अलेक्सान्द्रोव्ना ने जवाब नहीं दिया। व्लादीमिर ने मरीया को कोहनी मारी। वह पलंग पर चढ़ गयी और हाथों से अपनी माँ के गले को लपेट लिया।
"इधर देखो, माँ!"
मरीया अलेक्सान्द्रोव्ना उठ बैठीं और उन्होंने अपने बच्चों की तरफ़ देखा। उनके चेहरे पर मुस्कान-सी दौड़ गयी।
अपनी आँखों में दर्द और प्यार भरे उनकी तरफ़ देखते खड़े बच्चे मानो कह रहे थे, "हमें तुम्हारी ज़रूरत है और तुम्हें हमारी।"
"चलो, नीचे चलें और नाश्ता करें," मरीया अलेक्सान्द्रोव्ना ने बच्चों से उसी हमेशा जैसी शान्त आवाज़ में कहा।
– जे. वोस्क्रेसेन्स्काया
No comments:
Post a Comment