"यथार्थवादी" मूर्ख-मण्डली के आस-पास भी फटकने के विनाशकारी परिणाम का एक जीता-जागता उदाहरण: श्रीमान एम. के. आज़ाद
एम. के. आज़ाद नामक महोदय अलग अलग समय पर अपने "ज्ञान" की नुमाइश करते रहते हैं। लेकिन इन्हें बेहद सरल बातें भी समझ नहीं आती है। इस बार इन्होंने बिना सोचे समझे, "यथार्थवादी" मण्डली के सरगनाओं में से एक मूर्खेश/मुकरेश असीम की एक मूर्खता के जवाब में साथी अभिनव द्वारा लिखी एक पोस्ट के "खण्डन" के चक्कर में जनवादी क्रांति-नवजनवादी क्रांति पर ज्ञान बघारने की मूर्खतापूर्ण और हास्यापद कोशिश की है।
पहली बात यह है कि इन महोदय को साथी अभिनव की पोस्ट की मूल बात पल्ले ही नहीं पड़ी! उस पोस्ट की मूल बात यह है कि (किसी भी किस्म की) जनवादी क्रांति में चार वर्गों का मोर्चा बनता है और क्रांति के उस चरण में वे चार वर्ग जनता या जनसमुदाय की श्रेणी में आते हैं। दूसरी बात, जनवादी क्रांति अपने आप में एक जेनेरिक शब्द है, जो क्रान्ति के उस चरण की नुमाइन्दगी करता है जिसमें जनवादी कार्यभार पूरा करना प्रधान कार्यभार है। यदि जनवादी क्रांति का नेतृत्व बुर्जुआ वर्ग के हाथ में है तो वह क्रांति बुर्जुआ जनवादी क्रांति कहलाती है (मसलन, पश्चिमी यूरोप के कुछ देशों व अमेरिका में हुई क्रान्तियाँ), जिसमें कि बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में मज़दूर वर्ग, समूची किसान आबादी व मध्य वर्ग सामन्तवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हैं; लेकिन साम्राज्यवाद के युग में बुर्जुआ वर्ग जनवादी क्रान्ति के नेतृत्व देने की क्षमता खो बैठता है और इस कार्यभार को भी कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग और समूचे किसान वर्ग के संश्रय के आधार पर सम्पन्न करती है; ग़ौरतलब है कि इसमें भी चार वर्गों का मोर्चा ही होता है। लेनिन ने बताया कि मज़दूर वर्ग पहले समूचे किसान वर्ग को साथ लेकर जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को पूरा करेगा और फिर ग़रीब और मँझोले किसानों को साथ लेकर समाजवादी क्रान्ति को सम्पन्न करेगा; लेनिन ने स्पष्ट किया कि रूस में औद्योगिक पूँजीपित वर्ग न तो सुसंगत तौर पर जनवादी क्रान्ति को नेतृत्व दे सकता है, और न ही वह जनता की जनवादी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग का भरोसेमन्द संश्रयकारी बन सकता है; रूस में जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सर्वहारा वर्ग समूची किसान आबादी के साथ मज़बूत संश्रय कायम करेगा, जिसमें धनी पूँजीवादी उद्यमी किसान भी शामिल हैं, और जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को सुसंगत रूप में पूरा करेगा। यह है जनता की जनवादी क्रान्ति का व्यापक फ्रेमवर्क। दूसरे चरण में, यानी समाजवादी क्रान्ति के चरण में, धनी किसान (जो कि खेतिहर पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करता है) क्रान्तिकारी वर्ग संश्रय से बाहर हो जाता है। पहले चरण में किसी भी जनवादी क्रान्ति के समान जनता की जनवादी क्रान्ति में भी चार वर्गों का मोर्चा बनता है जिसमें मज़दूर वर्ग, ग़रीब व मँझोले किसान तथा मध्यवर्ग के साथ पूँजीवादी धनी किसान भी शामिल होते हैं और औद्योगिक बुर्जुआ वर्ग के भी कुछ हिस्से ढुलमुल मित्र के रूप में शामिल हो सकते हैं।
यदि हम किसी उपनिवेश की बात कर रहे हैं तो जनता की जनवादी क्रान्ति के राष्ट्रीय कार्यभार भी होते हैं। वहाँ भी चार वर्गों का ही मोर्चा बनता है। इस सूरत में जो बुर्जुआ वर्ग क्रान्ति के मित्र के रूप में शामिल होता है, वह राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग कहलाता है क्योंकि साम्राज्यवाद से अन्तरविरोध ही उसके राष्ट्रीय चरित्र को पैदा करता है। श्रीमान एम. के. आज़ाद को लगता है कि राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग की बात केवल नवजनवादी क्रान्ति की सूरत में ही की जा सकती है! यहाँ पर भी इन महोदय ने अपनी मूर्खता और अज्ञान का पिटारा खोल दिया है। किसी भी देश में जहाँ जनवादी क्रान्ति के राष्ट्रीय कार्यभार भी होंगे, वहाँ चार वर्गों के मोर्चे में बुर्जुआ वर्ग का जो हिस्सा भी शामिल होगा, उसका एक राष्ट्रीय चरित्र बनता है।
नवजनवादी क्रान्ति क्या है? जनता की जनवादी क्रांति के ही एक विशिष्ट रूप को नवजनवादी क्रांति कहते हैं जो कि माओ के अनुसार चीन जैसे अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक देशों की विशिष्ट स्थिति में सम्पन्न होती है। वहाँ साम्राज्यवाद और सामन्तवाद के साथ-साथ बड़े दलाल वाणिज्यिक-नौकरशाह पूँजीपति वर्ग से जनता का अन्तरविरोध होता है। नवजनवादी क्रान्ति में मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में चार वर्गों का रणनीतिक संश्रय बनता है: मज़दूर वर्ग, समूची किसान आबादी, राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग और मध्यवर्ग। दूसरी विशिष्टता होती है क्रान्ति का विशिष्ट पथ, जिसे माओ ने दीर्घकालिक लोकयुद्ध का नाम दिया।
लेकिन हम चाहे बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति की बात करें, या कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में किसी प्रकार की जनता की जनवादी क्रान्ति की बात करें (उपनिवेश होने की सूरत में जिसके साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय कार्यभार भी हो सकते हैं) या फिर हम नवजनवादी क्रान्ति की बात करें, जो विशेष तौर पर अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक देश की विशिष्ट परिस्थितियों में जनता की जनवादी क्रान्ति का ही एक विशिष्ट रूप है, हम चार वर्गों की रणनीतिक संश्रय की ही बात कर रहे हैं, जिसमें कि बुर्जुआ वर्ग का कोई न कोई हिस्सा शामिल होता है और जिन देशों में साम्राज्यवाद के साथ अन्तरविरोध होता है, वहाँ वह राष्ट्रीय चरित्र रखता है और राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग कहा जाता है। यह केवल नवजनवादी क्रान्ति के लिए ही प्रासंगिक नहीं है, बल्कि किसी भी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के लिए प्रासंगिक है। लेकिन एम. के. आज़ाद की स्थिति 'अधजल गगरी छलकत जाय' जैसी है! यह अपने इस "ज्ञान" की नुमाइश करने की जल्दी में रहते हैं और अक्सर ही अपनी भद्द पिटवाते रहते हैं। यही वजह है कि इन्हें साथी अभिनव की पोस्ट का अर्थ तक समझ नहीं आया है।
इस पोस्ट की मूल बात यह थी कि जनवादी क्रांति चाहे किसी भी प्रकार की हो यानी बुर्जुआ जनवादी क्रांति, या जनता की जनवादी क्रांति या इसका एक विशिष्ट रूप नवजनवादी क्रांति हो, इसमें रणनीतिक वर्ग संश्रय नहीं बदलता और चार वर्गों का ही मोर्चा बनता है। जबकि समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में तीन वर्गों का मोर्चा बनता है क्योंकि पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा उसमें शामिल नहीं होता चाहे वह धनी किसान हो या फिर औद्योगिक पूँजीपति वर्ग का कोई हिस्सा हो। इसी के अनुसार 'जनसमुदाय' और 'जनता' की परिभाषा एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी के लिए बदल जाती है। लेकिन यह सीधी-सी बात इन महोदय के पल्ले नहीं पड़ी (हालाँकि इनके लिए यह कोई नयी बात हो नहीं है, पहले भी इसकी पर्याप्त मिसालें इन महोदय ने प्रस्तुत की हैं जबकि कोई साधारण-सी बात इनके दिमाग में नहीं घुसती थी!)
इनकी उपरोक्त मूर्खता के कैसे भयंकर नतीजे निकलते हैं, आइये देखते हैं। एम. के. आज़ाद के नवीनतम आविष्कार के अनुसार, नवजनवादी क्रान्ति के अपवाद के अतिरिक्त, जनवादी क्रांति में (इसमें यह महोदय फर्क नहीं करते कि यह बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति की बात कर रहे हैं या जनता की जनवादी क्रान्ति की!) तीन वर्गों का मोर्चा बनेगा और बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा इसमें शामिल नहीं होगा। यानी, जनवादी क्रान्ति में तीन वर्गों का ही मोर्चा बनेगा और समाजवादी क्रान्ति में भी तीन वर्गों का ही मोर्चा बनेगा! इन महोदय का यह भी मानना है कि वर्ग संश्रय के बारे में पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता है! वह मौके पर व्यवहारवादी तरीके से तय होगा! इस भयंकर मूर्खता पर हम आगे आएँगे। लेकिन अगर जनवादी क्रांति में तीन वर्गों मोर्चा बनेगा और इसमें बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा शामिल नहीं होगा, फिर तो जनवादी क्रांति और समाजवादी क्रांति के बीच की विभाजक रेखा ही समाप्त हो जाएगी! समाजवादी क्रान्ति और जनवादी क्रान्ति के बीच फर्क ही इस आधार पर होता है कि प्रधान अन्तरविरोध बदल जाता है और उसके अनुसार मित्र वर्गों और शत्रु वर्गों की पहचान बदल जाती है और उसी के अनुसार रणनीतिक वर्ग संश्रय भी बदल जाता है जो कि क्रान्ति की मंजिल को तय करता है और उस समूची मंजिल में लागू होता है। इसीलिए इसे 'रणनीतिक वर्ग संश्रय' कहा जाता है और यह अलग-अलग मौकों के विशिष्ट या आम रणकौशल पर निर्भर नहीं करता है, बल्कि अलग-अलग समय के विशिष्ट या आम रणकौशल इस रणनीतिक पहलू के आधार पर निर्धारित होते हैं। यह सब मार्क्सवाद-लेनिनवाद का 'क ख ग' है। लेकिन यह महोदय, जो कि क्रान्तिकारी व्यवहार से किसी भी स्तर पर कोई रिश्ता नहीं रखते और एक पैस्सिव रैडिकल आर्मचेयर "बुद्धिजीवी" हैं, इस बुनियादी सिद्धान्तों में इज़ाफ़ा करने के चक्कर में रणनीतिक वर्ग संश्रय की अवधारणा का ही परित्याग कर देते हैं और सीधे त्रॉत्स्कीपंथ के पंककुण्ड में डुबकी लगा देते हैं! यह समझदारी साफ़-साफ़ त्रॉत्स्कीपंथ के लक्षण को दिखलाता है, क्योंकि त्रॉत्स्की के लिए भी प्रधान अन्तरविरोध और विशिष्ट रणनीतिक वर्ग संश्रय का प्रश्न महत्व नहीं रखता था; कोई भी मंजिल हो, वह एक ही झटके समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने का 'स्थायी क्रान्ति' का सिद्धान्त पेश करता है। एम. के. आज़ाद की यह हास्यास्पद स्थिति समझी जा सकती है! बहुत दिनों तक भूतपूर्व-एसयूसीआई मूर्खेश/मुकरेश असीम जैसे प्रच्छन्न त्रॉत्स्कीपंथी की संगत में रहने से त्रॉत्स्कीपंथ की छूत तो लगनी ही थी!
इन महोदय का यह भी मानना है कि किसी देश की क्रांति में जनवाद और समाजवाद की कितनी अंतर्वस्तु होगी,यह पहले से नहीं निर्धारित किया जा सकता है और न ही समाजवादी क्रांति का रणनीतिक वर्ग संश्रय पहले से निर्धारित लिया जा सकता है! किसी भी क्रांति का रणनीतिक वर्ग संश्रय इस बात से तय होता है कि समाज का प्रधान अंतर्विरोध क्या है और इस प्रधान अंतर्विरोध से ही यह तय होता है कि क्रांति का मित्र वर्ग कौन है और शत्रु वर्ग कौन। अगर रणनीतिक वर्ग संश्रय के ही बुनियादी पैमाने को ख़त्म कर दिया जाय तो (किसी भी किस्म की) जनवादी क्रांति और समाजवादी क्रांति के बीच की विभाजन रेखा ही समाप्त हो जाती है। रणनीतिक वर्ग संश्रय व्यवहारवादी तरीके और मौकापरस्ती के साथ मनमाने ढंग से नहीं तय किया जा सकता, जैसा की M K Azad को लगता है। रणनीतिक वर्ग रणनीतिक वर्ग संश्रय ठीक इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह एक पूरे चरण पर लागू होता है। अगर इस बुनियादी पैमाने को छोड़ दिया जाय तो आप जनवादी क्रांति और समाजवादी क्रांति को गड्डमड्ड करने वाले ट्रोट्स्कीपन्थी पनकुंड में जा गिरते हैं जैसा कि M K Azad के साथ हुआ है। इसमें कोई ज्यादा ताज्जुब की बात नहीं है,अगर आप भूतपूर्व suci मूर्खेश/ मुकरेश असीम जैसे प्रचंड ट्रोट्स्कीपन्थी के संगत में ज्यादा रहेंगे तो ट्रोट्स्कीपन्थ की छूत तो लगेगी ही !
आखिरी बात, चूँकि इन महोदय को जनता, जनसमुदाय की अवधारणा का पता ही नहीं है, इस लिए ये किसी भी सामाजिक आंदोलन को जनता का आंदोलन(social movement) समझते हैं। निश्चित तौर पर प्रतिक्रियावादी वर्गों की भी सामाजिक आंदोलन होते हैं, मिसाल के तौर पर फासीवाद के मार्क्सवादी अध्येताओं ने फासीवाद को एक 'प्रतिक्रियावादी सामाजिक आंदोलन' कहा है! क्योंकि इन मार्क्सवादी अध्येताओं को 'जनता', 'जन समुदाय' और 'समाज' जैसी अवधारणाओं का पता है। इन महोदय का यह मानना है कि कुलकों का यह आंदोलन पूंजीवाद के भीतर राहत की मांग कर रहा है लेकिन वर्ग दृष्टि के अभाव के कारण जनाब यह पूछना भूल गए कि किसके लिए राहत? लाभकारी मूल्य की व्यवस्था निश्चित तौर पर खेतिहर पूंजीपति वर्ग के लिए राहत है, लेकिन व्यापक मेहनतकश जनता के लिए इसका मतलब खाद्यानों की बढ़ती महंगाई और लूट होता है। अपनी मांग से ही स्पष्ट है कि यह खेतियर पूंजीपति वर्ग का आंदोलन है, कोई पूंजीवाद विरोधी आंदोलन नहीं है। यह पूंजीपति वर्ग के विभिन्न धड़ों के आपसी अंतर्विरोध को व्यक्त करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि गरीब किसानों की एक आबादी भी वर्ग चेतना के अभाव और आर्थिक बंधन के कारण इसमें शामिल है। और अगर इससे ही किसी आंदोलन का वर्ग चरित्र तय होता तो M K Azad को राम मंदिर के आंदोलन को भी मेहनतकश जनता का आंदोलन करार देना चाहिए! और इस प्रकार के अज्ञानता पूर्ण आर्म चेयर पैसिव रेडिकल से (जिसे ट्रोट्स्कीपंथ की छूत भी लग चुकी है) और कोई उम्मीद नहीं की जा सकती!