जर्मनी में, धर्म की आलोचना मुख्यतया पूरी हो चुकी है, और धर्म की आलोचना ही समस्त आलोचना का पूर्व-आधार है।
भूल से सम्बन्धित दिव्य भाषण का (oratio pro aris et focise* का) जब तिरस्कार कर दिया जाता है तो उसका अपवित्र लौकिक अस्तित्व भी बे आबरू हो जाता है । मनुष्य स्वर्ग की काल्पनिक वास्तविकता में किसी महामानव की तलाश कर रहा था, लेकिन स्वयं अपने प्रतिविम्ब के अतिरिक्त उसे वहाँ और कुछ नहीं मिला। इसके बाद जहाँ भी अपनी सच्ची असलियत की अब वह तलाश करता है और करेगा वहाँ उसे सिवा स्वयं अपने रूपके, अपनी अमानवी (Unmensch) सूरत के और कुछ नहीं मिलेगा ।
अधार्मिक आलोचना का आधार यह है कि: मनुष्य धर्म बनाता है, धर्म मनुष्य को नहीं बनाता। दूसरे शब्दों में, धर्म ऐसे मानव की आत्मचेतना तथा आत्मानुभूति है जिसने या तो अभी तक अपना अता-पता पाया नहीं है या जो उसे पाकर अपने को फिर खो बैठा है। परन्तु मानव ऐसा कोई हवाई प्राणी नहीं है। जो दुनिया से बाहर कहीं पल्थी मारे बैठा हो । मानव मनुष्य की दुनिया है, राज्य है, समाज है। यह राज्य, यह समाज धर्म को, उल्टी विश्व चेतना को जन्म देता है, क्योंकि वे स्वयं एक उल्टी दुनिया हैं।
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*. धर्मवेदी तथा अग्नि कुण्ड के समक्ष दिये जाने वाला पवित्र भाषण ।- सम्पादक
धर्म उसी दुनिया का आम सिद्धान्त है, उसका सक्षिप्त विश्व - कोश है, लोकप्रिय रूप मे उसका तर्क-शास्त्र है, उसके आत्मिक सम्मान का गौरव है, उसका श्रद्धोन्माद है, उसकी नैतिक शक्ति है, उसकी पवित्र परिपूर्णता है, सान्त्वना तथा समर्थन का उसका सार्व भौमिक आधार है। वह मानव के मूलभूत सार का काल्पनिक साकार रूप है क्योकि मानव के मूलभूत सार की कोई सच्ची असलियत नही है। इसलिए, धर्म के विरुद्ध संघर्ष अप्रत्यक्ष रूप से उस दूसरी दुनिया के विरुद्ध संघर्ष है धर्म जिसका आत्मिक सौरभ है ।
धार्मिक पीडा साथ ही साथ वास्तविक पीड़ा की भी अभिव्यक्ति तथा वास्तविक पीडा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन है। धर्म उत्पीडित प्राणी की आह है, एक हृदय हीन दुनिया का वह हृदय है, उसी तरह जिस तरह कि किसी आत्मा-विहीन स्थिति की वह आत्मा है । वह जनता की अफीम है ।
जनता के मिथ्या सुख के रूप मे धर्म का उन्मूलन करना उसके वास्तविक सुख के लिए आवश्यक है। अपनी दशा के सम्बन्ध में भ्रान्तियो को तिलाजलि दे देने की माँग जनता से उस दशा को तिलां जलि दे देने की मांग है जिसमें भ्रान्तियों की आवश्यकता होती है । इसलिए धर्म की आलोचना, वीज रूप में, दुख की उस घाटी की आलो चना है धर्म जिसका प्रभा मण्डल है ।
आलोचना ने बेड़ियो से उनके काल्पनिक फूलो को इसलिए नही तोड़ लिया है जिससे कि उन बेड़ियो को बिना किसी कपोल-कल्पना अथवा सान्त्वना के मनुष्य पहन सके, बल्कि इसलिए तोड़ दिया है कि वह उन बेड़ियो को ही उतार फेंके और सच्चे जीवित फूल को तोड़ सके। धर्म की आलोचना मनुष्य के भ्रमो को इसलिए तोड देती है जिससे कि एक ऐसे आदमी के रूप मे वह सोच और कार्य कर सके और अपनी परिस्थितियों का निर्माण कर सके जिसके भ्रम दूर हो चुके है और जिसने बोधत्व प्राप्त कर लिया है। धर्म की आलोचना ऐसा इसलिए करती है जिससे कि मनुष्य स्वयं अपनी और इस प्रकार, अपने ही सच्चे सूर्य की परिक्रमा करने लगे। धर्म केवल वह मिथ्या सूर्य है जो मनुष्य के चारो तरफ उस समय तक परिक्रमा करता रहता है जिस समय तक कि वह स्वयं अपने चारो तरफ़ परिक्रमा नहीं करने लगता।
इसलिए, उस संसार के मिट जाने के बाद जो सत्य से परे है, इतिहास का कार्य इस संसार के सत्य की स्थापना करना हो जाता है। मानवी आत्म-परकीयकरण (self alienation) के साधु स्वरूप का निराकरण हो जाने के बाद, दर्शन का, जो इतिहास की सेवा के लिए सदा तत्पर रहता है- तात्कालिक कार्य आत्म-परकीयकरण के अपवित्र स्वरूपों का निरावरण करना हो जाता है। इस भाँति, स्वर्ग की आलोचना पृथ्वी की आलोचना बन जाती है, धर्म की आलोचना अधिकार की आलोचना, और धर्म शास्त्र की आलोचना राजनीति की आलोचना।
नीचे की व्याख्या का जो कि उक्त कार्य मे एक योगदान है- तात्कालिक सम्बन्ध मूल दर्शन से नहीं, बल्कि उसकी एक प्रतिलिपि से है, राजसत्ता और अधिकार के जर्मन दर्शन से है और इसका एकमात्र कारण यह है कि इसे जर्मनी मे लिखा गया है।
अगर कोई जर्मनी की यथास्थिति से ही आरम्भ करना चाहे, और वह भी उसके एकमात्र उचित ढंग से, अर्थात्, नकारात्मक ढंग से, तब भी उसका नतीजा असंगतपूर्ण ही निकलेगा। हमारे राजनीतिक वर्तमान का निषेध तक आधुनिक राष्ट्रो के ऐतिहासिक कबाड़खाने के अन्दर धूल से ढँक गया है। अगर मै पाउडर लगे जूड़े का निषेध कर दूं तब भी बिना पाउडर का जूडा तो मेरे पास बच ही जायगा। अगर मैं जर्मनी की १८४३ की हालतो का निषेध कर दूं तब भी, समय की फ्रान्सीसी गणना के अनुसार, मै १७८६ तक भी नही पहुँचा माना जाऊँगा-वर्तमान के केन्द्र स्थान तक पहुँचने का तो सवाल ही नहीं उठता।
हाँ, जर्मन इतिहास यह कहकर खुश होता रहता है कि इतिहास के स्वर्ग मे जिस गति से वह गुज़रा है उससे न तो उससे पहले कोई कौम गुज़री थी और न उसके बाद ही गुज़रेगी। हमने आधुनिक राष्ट्रो की पुनर्स्थापनाओ मे तो हिस्सा बँटाया है, लेकिन उनकी क्रान्तियो मे हमने हिस्सा नही लिया| हमारी पुनस्थापना हो गयी थी, क्योकि एक तो दूसरे राष्ट्रो ने क्रान्ति करने का साहस दिखाया था और दूसरे, क्योकि अन्य राष्ट्रो को प्रति क्रान्ति के कष्टों को झेलना पडा था। पहली बार हमारी पुनर्स्थापना इसलिए हो गयी थी कि हमारे शासक डरते थे, और दूसरी बार इसलिए कि हमारे शासको को उसका डर नही था। अपने गडरियो के नेतृत्व मे रहने के कारण हम कभी आजादी के पास नही पहुँचे सिवा एक बार के उस दिन जिस दिन उसे दफनाया जा रहा था !
एक सम्प्रदाय जो आज की नीचता को यह कहकर कानूनी ठहराता है कि कल भी नीचता मौजूद थी, एक सम्प्रदाय जो किसी हटर के समय द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त प्राचीन, ऐतिहासिक होने पर उस इन्टर के प्रहारो के विरुद्ध उठने वाले अर्ध-दास के प्रत्येक क्रंदन को विद्रोही करार दे देता है, एक सम्प्रदाय जिसे इतिहास केवल अपना पिछाडा ही दिखाता है, उसी तरह जिस तरह कि इजरायल के ख़ुदा ने अपने सेवक मोज़ेज को दिखाया था -अधिकार का यह ऐतिहासिक सम्प्रदाय- २१ जर्मन इतिहास को ज़रूर ढूढ निकालता अगर उसे खुद जर्मन इतिहास ने न खोज निकाला होता! यह शाईलोक है, लेकिन सेवक शाइलोक। यह अपनी गुलामी की, अपनी ऐतिहासिक गुलामी की, अपनी ईसाई धर्मी जर्मन गुलामी की कसमे खाता है कि जनता के हृदय प्रदेश से वह मांस का अपना एक एक पौंड कटवा लेगा।
इसके विपरीत, सरल स्वभाव वाले उत्साही लोग, जन्म से जर्मन सोदाई और विचार से बेदीन लोग आजादी के हमारे इतिहास की तलाश हमारे इतिहास से भी आगे प्राचीन ट्यूटानी जंगलो मे करते है । लेकिन इस इतिहास को अगर केवल जंगलो मे ही पाया जा सकता है तो हमारी आजादी के इतिहास तथा सुअर की आजादी के इतिहास के बीच अन्तर क्या है ? इसके अलावा, यह बात सर्वविदित है कि जंगल के अन्दर जो कुछ आप चिल्लाते है उसी को वह दोहरा देता है। इसलिए बेहतर होगा कि प्राचीन ट्यूटानी जंगलो को शान्ति में ही पड़ा रहने के लिए छोड़ दिया जाय।
जर्मन हालात के विरुद्ध युद्ध! अवश्य छेड़िए! ये हालात इतिहास के स्तर से नीचे है, वे किसी भी प्रकार की आलोचना के अयोग्य हैं। परन्तु फिर भी, उस अपरावी की तरह वे भी आलोचना के पात्र है जो मानवता के स्तर से भीचा होता हुआ भी जल्लाद के लिए एक पात्र होता है। उन हालतो के खिलाफ संघर्ष मे आलोचना करना मस्तिष्क का कोई आक्रोश नहीं है, बल्कि वह आक्रोश का मस्तिष्क है। वह नश्तर की छुरी नहीं है, बल्कि एक अस्त्र है। उसका लक्ष्य उसका शत्रु है, जिसका वह खण्डन नहीं करना चाहता, बल्कि जिसे वह जड़-मूल से मिटा देना चाहता है क्योंकि उस हालत की भावना का खण्डन पहले ही हो चुका है। अपने आप मे ऐसी कोई चीज वह नहीं है जिसके बारे में सोचा जाय, वह ऐसी स्थिति है जो उतनी ही घृणित है जितनी उससे घृणा की जाती है। इस स्थिति के सम्बन्ध में अपने तई और कोई स्पष्टीकरण करने की जरूरत आलोचना को नहीं है, क्योकि इस काम को उसने पहले ही पूरा कर लिया है। वह अब स्वयम् कोई लक्ष्य नही रह गयी है, मात्र एक साधन रह गयी है। उसका मूल रस क्रोध है, उसका मूल कार्य निन्दा करना।
सवाल यहाँ पर तमाम सामाजिक क्षेत्रों के एक-दूसरे के ऊपर पड़ने वाले पारस्परिक नीरस दबाव का वर्णन करने का है, एक आम निष्क्रिय बदमिजाजी के, एक ऐसी सीमितावस्था के वर्णन करने का है जो एक सरकारी व्यवस्था के ढाँचे के अन्तर्गत अपनी असलियत को जितना जानती है उतना ही उसके बारे मे भ्रम भी रखती है। हर तरह की मनहूसियत के ऊपर जिन्दा रहनेवाली यह सरकारी व्यवस्था स्वयम् सरकार के रूप में बैठी हुई मनहूसियत के अलावा और कुछ नही है !
कैसा दृश्य है! टुच्ची अदावतो, अशान्त अंतःकरणो तथा पाशविक 'सामान्यावस्था के कारण एक-दूसरे की दुश्मन नाना जातियों में समाज अनन्त रूप से बँटता चला जा रहा है, और एक-दूसरे के प्रति उनके सन्दिग्ध तथा अविश्वासी दृष्टिकोण के कारण इन तमाम जातियों के साथ, बिना किसी अपवाद के - यद्यपि भिन्न-भिन्न औपचारिक विधियो से - उनके शासक रियायत में दी गयीं जिन्दगियों की तरह बर्ताव करते है और उनसे इस बात की आशा करते हैं कि अपनी इस स्थिति को स्वयं ईश्वर की कृपा मान कर उन्हे उसका धन्यवाद करना चाहिए कि उन्हें गुलाम बना लिया गया है, उन पर शासन किया जा रहा है, उन पर अधिकार रखा जाता है ! और दूसरी तरफ, स्वयम् शासक लोग है जिनकी महानता उनकी संख्या के उल्टे अनुपात मे है !
इस तरह की आलोचना हाथापाई के रूप में की जाने वाली आलोचना है। इस लड़ाई मे मतलब की चीज यह नहीं है कि विरोधी कुलीन, बराबरी का, दिलचस्प विरोधी है, मतलब की चीज सिर्फ यह है कि उस पर प्रहार किया जाय। मतलब की चीज यह है कि अपने को घोखा देते रहने तथा पस्त अवस्था में पड़े रहने के लिए जर्मनो को मिनट भर का भी समय न दिया जाय। उनके ऊपर जो वास्तविक दबाव डाला जाता है उसमे दबाव की चेतना को जोड़कर उसे और भो भारी बना दिया जाय, उनकी शर्म को उसका प्रचार करके और भी अधिक शर्मनाक बना दिया जाय। साबित कर दिया जाय कि जर्मन समाज का प्रत्येक अंग जर्मन समाज का partie honteuse (शर्मनाक अंश) है, इन पापाणवत् निष्प्राण सम्बन्धियो को उन्ही का गीत सुनाकर नचाया जाये। जनता मे साहस का संचार करने के लिए उसे स्वयम् अपने से डरना सिखलाया जाय। ऐसा करना जर्मन राष्ट्र की एक अत्यावश्यक जरूरत को पूरा करना होगा, और राष्ट्रो की जरूरते स्वयम् उनकी पूर्ति का परम ओचित्य होती है।
जर्मन यथास्थिति की तुच्छ तृप्तावस्था के विरुद्ध यह सच आधुनिक राष्ट्रों के लिये भी महत्वहीन नहीं हो सकता, क्योंकि जर्मनी की यथास्थिति प्राचीन शासन की अप्रच्छन्न पूर्ति है और प्राचीन शासन आधुनिक राज्य की प्रच्छन्नहीनता है। जर्मनी के राजनीतिक वर्तमान के विरुद्ध संघर्ष करना आधुनिक राष्ट्रो के अतीत के विरुद्ध संघर्ष करना है और ये राष्ट्र अतीत की स्मृतियों के बोझ से अब भी बहुत दबे हुए हैं। प्राचीन शासन को, जो उनके साथ-साथ अपनी ट्रेजिडी से गुजर चुका है, व एक जर्मन प्रेत की तरह अपनी कमेडी (स्वाग) दिखाते देखना उनके लिए शिक्षाप्रद है। प्राचीन शासन का इतिहास वास्तव मे तब तक दुखदायी (ट्रैजिक ) था जब तक कि वह दुनिया की पहले से मौजूद सत्ता बना हुआ था, और, दूसरी ओर, स्वतन्त्रता उसके लिए मात्र एक व्यक्तिगत कल्पना थी। संक्षेप में, जब तक अपने न्याय-संगत होने मे यह स्वयं विश्वास करता था और ऐसा करने के लिए मजबूर था तब तक प्राचीन शासन का इतिहास दुखपूर्ण ही था। एक मौजूद विश्व व्यवस्था के रूप में प्राचीन शासन उस विश्व के विरुद्ध जब तक संघर्ष कर रहा था जो अभी पैदा ही हो रहा था, तब तक उसकी भूल एक ऐतिहासिक भूल थी, वैयक्तिक भूल नहीं। यही कारण है कि उसका अधःपतन दुखदायी था।
दूसरी तरफ, वर्तमान जर्मन शासन है, जो कि एक काल-दूपण है, आमतौर से मानी हुई स्वयम् सिद्ध बातो का नग्न विरोध है, दुनिया के सामने प्रदर्शित प्राचीन शासन की शून्यता है। उसका निरा ख्याल है कि उसे स्वयम् अपने में आस्था है, और वह माँग करता है कि दुनिया भी ऐसा ही ख्याल करे। उसे स्वयम् अपने मूलतत्व मे अगर आस्था होती, तो उस मूलतत्व को क्या वह एक बाहरी मूलतत्व के आवरण मे छिपाने की कोशिश करता और पाखण्ड तथा सोफीवाद की शरण लेता? आधुनिक प्राचीन शासन उस विश्व व्यवस्था का महज एक माँड़ है जिसके सच्चे नायक मर चुके है। इतिहास अपना काम पूरे तौर से करता है और किसी पुराने रूप ( व्यवस्था को उसकी क़ब्र की ओर ले जाते समय अनेक अव स्थाओ से गुज़रता है। किसी विश्व ऐतिहासिक रूप ( व्यवस्था की अतिम अवस्था उसका स्वांग (कमेडी) होती है। यूनान के देवताओ को, जो एस्कि लस के बन्दी प्रोमीथियस (प्रोमीथियस बाउण्ड) में पहले ही दुखदायी ढंग से घायल होकर मर चुके थे, लूशियन के कथोपकथन मे दुबारा हास्यास्पद ढंग से मरना पड़ा था इतिहास ऐसा रास्ता क्यो अपनाता है? – जिससे कि मानवता अपने अतीत से खुशी-खुशी विदा ले ले। जर्मनी के राज नीतिक अधिकारियों के लिए ऐसे ही सुखमय ऐतिहासिक भवितव्य की पैरवी हम करते है।
इस बीच, ज्योंही स्वय आधुनिक राजनीतिक-सामाजिक वास्तविकता की आलोचना होने लगती है, ज्योही आलोचना वास्तविक मानवीय समस्याओं को पकड़ने की स्थिति में पहुँच जाती है, त्योही वह देखती है कि वह जर्मनी की यथास्थिति से बाहर पहुँच गयी है। ऐसा न होता तो अपने लक्ष्य को वह अपने लक्ष्य के नीचे पकड़ने की कोशिश करती एक उदाहरण लीजिए। आम सम्पदा के ससार के साथ राजनीतिक संसार के साथ उद्योग-धंधे के सम्बन्ध की समस्या आधुनिक काल की प्रमुख समस्याओं में से एक है। इस समस्या ने जर्मनो का ध्यान किस रूप मे अपनी ओर आकर्षित करना शुरू किया है? राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संरक्षण शुल्कों के रूप मे, प्रतिषेधात्मक व्यवस्था के रूप मे। जर्मनोन्माद मनुष्य से निकल कर भूत (द्रव्य) मे चला गया है। इसीलिए एक दिन सुबह सूती कपडे के हमारे शहन्शाहो और लोहे के नायको ने देखा कि वे अचा नक देशभक्त बन गये हैं ! इसीलिये जर्मनी के लोग इजारेदारी को बाहरी प्रभुसत्ता सौप कर उसकी प्रभुसत्ता को देश के अन्दर स्वीकार कर रहे है । इस तरह, जर्मनी मे लोग अब उस चीज को शुरू करने जा रहे है जिसे फ्रान्स और इंगलैण्ड मे लोग खत्म करने जा रहे है। जिन पुरानी भ्रष्ट परिस्थितियों का ये देश सिद्धान्त रूप मे विरोध कर रहे है और जिन्हे वे उसी तरह से धारण किये हुए है जिस तरह आदमी बेड़ियाँ पहने रहता है, उनका जर्मनी मे एक सुन्दर भविष्य के प्रभात के रूप में अभिनन्दन किया जा रहा है। इस भविष्य की अभी तक इतनी हिम्मत नही हुई है कि वह मक्कारी-भरे सिद्धान्त के क्षेत्र से कठोर व्यवहार के क्षेत्र मे कदम रक्खे । फ्रान्स और इंगलैण्ड मे जहाँ समस्या राजनीतिक अर्थशास्त्र अथवा सम्पदा के ऊपर समाज के शासन की स्थापना करने की है वही जर्मनी मे समस्या राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था अथवा राष्ट्रीयता के ऊपर निजी सम्पत्ति का आधिपत्य कायम करने की है। तब फिर, फ्रान्स और इंगलैण्ड मे समस्या उस इजारेदारी का उन्मूलन करने की है जो अपने चरम परिणामो तक पहुँच गयी है; और जर्मनी में समस्या इजारेदारी को उसके चरम परिणामो तक ले जाने की है। वहां पर समस्या समाधान की है, यहाँ अभी तक वह संघर्ष की है। आधुनिक समस्याओं के जर्मन स्वरूप का यह उपयुक्त उदाहरण हैं, यह इस बात का उदाहरण है कि, एक फूहड रंगरूट की तरह हमारे इतिहास को अब भी किस प्रकार उन चीजो को सीखने के लिए अतिरिक्त कवायद करनी है जो इतिहास मे पुरानी और जीर्ण-शीर्ण हो चुकी है।
इसलिए, सम्पूर्ण जर्मन विकास यदि जर्मनी के राजनीतिक विकास से आगे नही गया, तो वर्तमान काल की समस्याओं मे किसी जर्मन निवासी का अधिक से अधिक उतना ही दखल हो सकता है जितना कि किसी रूसी निवासी का है। परन्तु जब कोई अलग-थलग व्यक्ति राष्ट्र की सीमाओ से नही बँधा होता, तब उस एक व्यक्ति की मुक्ति से सम्पूर्ण राष्ट्र की ओर भी कम मुक्ति होती है। यूनान के दार्शनिको मे एक स्काइथिया निवासी २२ भी था। इस बात से यूनानी संस्कृति की ओर एक कदम भी आगे बढ़ने में स्काइथिया के निवासियों को मदद नही मिली थी।
सौभाग्य से, हम जर्मन स्काइथिया-वासी नहीं है।
प्राचीन कौमे अपने प्रागैतिहास काल से जिस तरह कल्पना ही कल्पना मे, पौराणिक कथाओं के रूप मे गुजरी थी, उसी तरह हम जर्मनों ने अपने आगामी इतिहास को चिन्तन की दुनिया मे, दर्शन के क्षेत्र में तय कर लिया है। उसके ऐतिहासिक समकालीन हुए बिना ही वर्तमान काल के हम दार्शनिक समकालीन है। जर्मन दर्शन जर्मन इतिहास का भाववादी विस्तार है। इसलिए, अपने वास्तविक इतिहास के अधूरे कामों (aeuvres incompletes) के स्थान पर, अगर हम अपने भाववादी इतिहास के बाद के कामों (aeuvres posthumes ) की आलोचना करते है, तो दर्शन, जो हमारी आलोचना है, जिन प्रश्नों से उलझा हुआ है वे भी वही है जिनके बारे में वर्तमान काल कहता है : वही असली प्रश्न है । प्रगतिशील राष्ट्रो मे जिस चीज़ का अर्थ राज्य की आधुनिक परिस्थितियों के साथ व्यावहारिक रूप से सम्बन्ध विच्छेद करना होता है, उसी का अर्थ जर्मनी मे - जहाँ वे परिस्थितियाँ अभी तक अस्तित्व मे ही नहीं आयी है-परिस्थितियों के दार्शनिक प्रतिविम्ब के साथ सर्वप्रथम आलोचनात्मक सम्बन्ध विच्छेद करना होता है।
अधिकार तथा राज्य का जर्मन दर्शन ही जर्मन इतिहास की एक मात्र ऐसी चीज है जो सरकारी तौर से मान्यता प्राप्त आधुनिक वर्तमान के स्तर तक (al pari) पहुंचती है। इसलिए आवश्यक है कि जर्मन राष्ट्र अपने इस स्वप्निल इतिहास का अपनी वर्तमान परिस्थितियो के साथ सम्बन्ध स्थापित करे और न केवल इन मौजूदा परिस्थितियो की, वल्कि, साथ ही साथ उनके हवाई विस्तार की भी आलोचना करे। उसके भविष्य को न तो राज्य तथा अधिकार की उसकी वास्तविक परिस्थितियों के तात्कालिक निषेध तक सीमित किया जा सकता है और न उसके राज्य तथा अधिकार की भाववादी परिस्थितियों को तुरन्त व्यावहारिक रूप देने के काम तक, क्योकि उसकी भाववादी परिस्थितियो मे उसकी वास्तविक परिस्थितियों का तात्कालिक निषेध निहित है, और पड़ोसी राष्ट्रों के चिन्तन मे वह अपनी भाववादी परिस्थितियों की तात्कालिक अभिपूर्ति की अवस्था से एक तरह से आगे निकल गया है। इसलिए, जर्मनी की व्यावहारिक काम में जुटी हुई राजनीतिक पार्टी अगर माँग करती है कि दर्शन का निषेध किया जाए तो ऐसा वह सकारण ही करती है। उसकी गलती इस बात में नहीं है कि वह इस चीज की माँग करती है, बल्कि इस बात मे है कि वह इसी माँग पर रुक जाती है । इस माँग की न तो वह गम्भीरता से अभिपूर्ति करती है और न उसकी अभिपूर्ति कर ही सकती है। उसका विश्वास है कि दर्शन की ओर पीठ फेर कर और उसकी तरफ से मुह मोड़ कर और उसके सम्बन्ध मे कुछ सड़ी पुरानी तथा कोष भरी बातें बुदबुदा कर उक्त निषेध के कार्य को वह पूरा कर रही है ! अपने दृष्टिकोण की सीमितता के कारण जर्मन वास्तविकता की परिधि मे वह दर्शन को शामिल नहीं करती, अथवा वह सोचती है कि जर्मन अमल तथा उसके सहायक सिद्धान्तों के स्तर से दर्शन नीचा है। आप माँग तो इस बात की करते है कि शुरुआत वास्तविक जीवन के बीजों से की जाय, परन्तु आप भूल जाते हैं कि जर्मन राष्ट्र के वास्तविक जीवन का बीज अभी तक सिर्फ उसकी खोपड़ी के अन्दर ही बढता रहा है। एक शब्द मे- दर्शन को एक वास्तविकता बनाये बिना आप उसका उन्मूलन नहीं कर सकते !
यही गलती दर्शन से पैदा होनेवाली सैद्धान्तिक पार्टी ने की थी-उसमे केवल उसके कारको का क्रम उल्टा हो गया था।
वर्तमान सघर्ष में उसने जर्मन संसार के विरुद्ध दर्शन के केवल आलोचनात्मक संघर्ष को ही देखा था उसने इस बात पर विचार नही किया था कि वर्तमान काल तक का दर्शन स्वयम् संसार का एक अंश है और उसी की परिपूर्ति है, यद्यपि वह उसकी भाववादी प्रति पूर्ति है। अपने जोडीदार (प्रतिरूप अनु०) के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखते हुए भी स्वयम् अपने प्रति उसका दृष्टिकोण आलोचनात्मक नही था। दर्शन के पूर्वावयवों (premises) से श्रीगणेश करके या तो दर्शन द्वारा प्रस्तुत किये गये परिणामो पर ही वह रुक गयी, या फिर उसने कही और की मांगो और निष्कर्षो को दर्शन की तात्कालिक मांगो तथा निष्कपों के रूप में पेश कर दिया। वास्तव में, इन मांगों तथा निष्कर्षो को, बशर्ते कि वे सही हो, वर्तमान काल तक के दर्शन का स्वयम् दर्शन का ही निषेध करके ही प्राप्त किया जा सकता है। इस विषय के सम्बन्ध मे और विस्तार से विचार करने के अपने अधिकार को हम सुरक्षित रखते है। उसकी बुनियादी कमजोरी को निम्न शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है। उसने सोचा था कि दर्शन को एक वास्तविकता बनाये बिना ही यह उसका उन्मूलन कर सकती है।
राजसत्ता और अधिकार के जर्मन दर्शन की आलोचना सब से सुसंगत, सबसे समृद्धणाली तथा अन्तिम विकास होगेल के हाथों में हुआ था। इस आलोचना में आधुनिक राज्य तथा उससे सम्बन्धित वास्तविकता का आलोचनात्मक विश्लेषण भी है, और जिस तरह से राजनीति तथा अधिकार के क्षेत्र में जर्मन-चेतना को अब तक कार्यान्वित किया गया है उस पूरे ढंग का दृढता के साथ किया गया निषेध भी। इस चेतना का सबसे प्रतिष्ठित, सबसे अधिक सार्वभौमिक रूप, जिसे विज्ञान के स्तर तक पहुँचा दिया गया है, अधिकार का परिकल्पी (speculative) दर्शन स्वयम् है। यदि यह सही है कि अधिकार का परिकल्पी दर्शन, अर्थात् आधुनिक राज्य के सम्बन्ध में जिसकी वास्तविकता दूसरे लोक की, चाहे वह लोक राइन के उस पार ही हो, वस्तु बनी रहती है। वह हवाई अतिशयोक्तिपूर्ण चिन्तन यदि केवल जर्मनी में ही सम्भव था, तो इसका उल्टा यानी यह भी सही है कि आधुनिक राज्य का जर्मन चिन्तन-बिम्ब, जो वास्तविक आदमी को भी हवाई ( अमूर्त अनु०) बना देता है, केवल इसीलिए सम्भव हो सका है कि आधुनिक राज्य स्वयम् वास्तविक आदमी को हवाई बना देता हैं, अथवा पूरे मनुष्य को मात्र कल्पना लोक मे ही सतोप प्रदान करता है। राजनीति मे जर्मन जिस चीज को सोचते थे दूसरे राष्ट्र उसे अमल मे पूरा कर रहे थे। जर्मनी उनका सैद्धान्तिक अन्तःकरण था।
भाग १ शेष अगले भाग २ में
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