Tuesday, 24 August 2021

बच्चे और वैज्ञानिक सोच

विज्ञान के टॉपर बच्चे भी वैज्ञानिक सोच से कोसों दूर हैं।

पिछले साल की बात है, एक मित्र के घर बारहवीं क्लास में टॉप किये एक बच्चे से बात हो रही थी। वह अपने कुत्ते के साथ खेल रहा था, अचानक उसका पैर एक किताब पर लगा और उसने तत्काल अपने कान पकड़े और किताब को प्रणाम किया। इसी बीच खेलते हुए उसका पैर कुत्ते को भी लगा। उसने फिर कुत्ते के प्रति भी क्षमा व्यक्त की। मैंने पूछा कि ऐसा क्यों किया? तो उसने कहा कि यह कुत्ता नहीं भैरूजी महाराज हैं। मैंने एक टीवी सीरियल में देखा था, एक देवता की तस्वीर में भी मैंने कुत्ते देखे हैं।

मैंने उसकी किताब को गौर से देखा उसकी किताब पर नेम चिट में हवा में उड़ने वाले एक देवता की तस्वीर के बगल से उसका नाम लिखा हुआ था।

मैंने पूछा यह किस तरह का जीव है? उसने कहा यह जीव नहीं भगवान् हैं जो हवा में उड़ सकते हैं।

मैंने इस बात को इग्नोर करके उससे गुरुत्वाकर्षण के बारे में पूछा। उसने गुरुत्वाकर्षण का पूरा नियम एक सांस में सुना दिया। फिर मैंने उससे पलायन वेग (एस्केप वैलोसिटी) और प्लेनेटरी मोशन पर कुछ पूछा। उसने तुरंत दूसरी सांस में इनसे सम्बंधित सिद्धांत सुना दिए। यह सुनाते हुए वह बहुत प्रसन्न था।

मैंने फिर पूछा कि एक रॉकेट को उड़ने और जमीन के गुरुत्व क्षेत्र से बाहर जाने में कितना समय और ऊर्जा लगती है? क्या यह ऊर्जा एक इंसान या जानवर में हो सकती है? उसने कहा—"नहीं, इतनी ऊर्जा एक बड़ी मशीन में ही हो सकती है जैसे कि हवाई जहाज या रॉकेट।"

मैंने उससे फिर पूछा कि ये उड़ने वाले देवता कैसे उड़ते होंगे? उसे यह प्रश्न सुनकर बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ। उसने बड़ी सहजता से उत्तर दिया कि वे भगवान हैं और भगवान कुछ भी कर सकते हैं।

मैंने फिर आखीर में पूछा कि क्या भगवान प्रकृति के नियम से भी बड़ा होता है? उसने कहा—"मुझे यह सब नहीं पता लेकिन भगवान जो चाहें वह कर सकते हैं।"

अभी देश भर में परीक्षा में टॉप कर रहे बच्चों की खबरें आ रही हैं और हर शहर में जश्न हो रहा है। जिन बच्चों ने टॉप किया है निश्चित ही वे बधाई के पात्र हैं। उन्होंने वास्तव में कड़ी मेहनत की है और जैसी भी शिक्षा उन्हें दी गयी उसमें वे ज्यादा अंक लाकर सफल हुए।

लेकिन इन बच्चों की सफलता का वास्तविक मूल्य क्या है? क्या ये वास्तव में अच्छे इंसान और अच्छे नागरिक बन पाते हैं? क्या इनकी शिक्षा–जो अधिकाँश मामलों में विज्ञान विषयों के साथ होती है–इन्हें वैज्ञानिक विचार और सोचने-समझने की ताकत देती है? 

ये टॉपर बच्चे अक्सर ही रट्टू तोते होते हैं जिन्हें मौलिक चिंतन और विचार नहीं बल्कि विश्वास सिखाये जाते हैं। ये पश्चिमी बॉसेस के लिए अच्छे बाबू, टैक्नीशियनऔर मैनेजर साबित होते हैं। ये खुद कुछ मौलिक नहीं कर पाते।
 
परीक्षा परिणामों का यह जश्न मैं 20 सालों से देख रहा हूँ और दावे से कह सकता हूँ कि इन टॉपर्स में से अधिकांश बच्चों को IIT, JEE, AIIMS इत्यादि की स्पेशल कोचिंग वाले भयानक दबाव वाले रट्टू और प्रतियोगी वातावरण में तैयार किया जाता है। 

ये बच्चे किसी ख़ास परीक्षा में पास होने के लिए तैयार किये जाते हैं। इनमें ज्ञान के प्रति, सीखने और समझने के प्रति कितना लगाव है यह एक अन्य तथ्य है, जिसका कोई सीधा सम्बंध इन बच्चों की उपलब्धियों से नहीं है। ऐसे अधिकांश बच्चे धर्मभीरु, विचार की क्षमता से हीन, आलोचनात्मक चिंतन से अनजान और समाज, सँस्कृति और प्रकृति के ज्ञान से शून्य होते हैं।

अधिकतर इन्हें प्रतियोगिता परीक्षाओं की स्पेशल कोचिंग में उच्चतर विज्ञान और गणित इत्यादि घोट-घोटकर पिलाये जाते हैं और घर लौटते ही इन्हें मिथकीय शास्त्रों, महाकाव्यों, आसमानी बातों, तोता-मैना की कहानियां पिलाई जाती हैं। 

ये न केवल मिथकों, महाकाव्यों, आसमानी बातों में श्रद्धा रखते हैं बल्कि स्कूल कॉलेज या परीक्षा के लिए जाते समय प्रसाद चढ़ाकर,नमाज़ पढ़ाकर या मन्नत मांगकर भी जाते हैं। ये बच्चे एक तरफ ग्रेविटी, एस्केप वैलोसिटी इत्यादि रटते हैं और दूसरी तरफ आसमान में पहाड़ लेकर उड़ जाने वाले देवताओं की पूजा भी करते हैं। 

ये एक भयानक किस्म का सामूहिक स्कीजोफेनिया है जिसमें एक ही तथ्य के प्रति कई विरोधाभासी जानकारियाँ और अंधविश्वास लेकर बच्चे जी रहे हैं। वे ज्ञान के किसी भी आयाम में कुछ मौलिक नहीं खोज पाते। वे सिर्फ पहले से ही खोज ली गयी चीजों के अच्छे प्रबंधक या तकनीशियन या बाबू हो सकते हैं लेकिन विज्ञान, कला, साहित्य, दर्शन इत्यादि में कुछ नया नहीं दे पाते हैं।

इन बच्चों का एक ही लक्ष्य होता है कि किसी तरह से कोई परीक्षा पास करके जीवन भर के लिए कोई बड़ी डिग्री हासिल कर ली जाए और एक बड़ी कमाई तय कर ली जाए। इसके आगे-पीछे जो कुछ है उससे उन्हें कोई मतलब नहीं होता। अधिकाँश बच्चों में आरंभ में इस तरह की जिज्ञासा होती है लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारे परिवारों के अंधविश्वास पूजा-पाठ, दुआ-मन्नतें और कर्मकांड इन जिज्ञासाओं को मार डालते हैं।

आप कल्पना कीजिये जिस परिवार में पहाड़ लेकर उड़ जाने वाले देवता की पूजा होती है उस घर का कोई बच्चा गुरुत्वाकर्षण के वर्तमान सिद्धांत में कोई कमी निकालकर उसे कभी चुनौती दे सकेगा? जो बच्चा मन्त्र की शक्ति से विराट रूप धर लिए किसी अवतार की पूजा करता आया है क्या वह जैनेटिक्स या जीव विज्ञान के स्थापित सिद्धांतों में कमियाँ खोजकर कुछ नया और मौलिक विचार प्रस्तुत सकता है?

निश्चित ही ऐसे बच्चे इस दिशा में अधिक सफल नहीं हो सकते। यह संभव भी नहीं है। जो मन आलोचनात्मक चिंतन कर सकता है वह परीलोक की कहानी को जीवन भर सहेजकर उसकी पूजा नहीं कर सकता। ये दो विपरीत बातें हैं।

इसीलिये भारत के करोड़ों करोड़ बच्चे, जो किसी न किसी परीक्षा में पास होकर या टॉप करके निकलते रहे हैं उन्होंने ही मिलकर उस भारत को बनाया है जिसमें मंत्री नेता और अधिकारी लोग बारिश लाने के लिए हवन कर रहे हैं।

उन्ही बच्चों ने यह भारत बनाया है जिसमें आज सीमाओं की रक्षा के लिए राष्ट्र रक्षा महायज्ञ हो रहा है और डिफेंस की टैक्नोलॉजी फ्रांस और इजराइल से खरीदी जा रही है। उन्हीं बच्चों के बावजूद आज वह निष्कर्ष सामने है जिसमें गाय के नाम पर या लव जिहाद के नाम पर सरेआम लिंचिंग हो रही है या धर्म के नाम पर ईराक, ईरान से लेकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान तक उत्पात मचाये हुए हैं। 
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