Sunday, 13 June 2021

फिल्म

अंजुमन (1986) फिल्म निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली।फिल्म का म्यूजिक मुहम्मद जहूर ख़य्याम साहब ने दिया है।अंतिम गीत जिस पर फिल्म ख़त्म होती है।उसे फैज़ अहमद फैज़ ने लिखा है।और उस जनांदोलन पर आधारित ख़ूबसूरत गीत को जगजीत सिंह और जगजीत कौर ने बहुत ख़ूबसूरती से गया है।फिल्म अंजुमन फिल्म गर्म हवा और उमराव जान की तरह मशहूरियत नहीं पा सकी।मुझे बहुत अफसोस है।हिन्दुस्तान की तमाम राज्य शासित और केन्द्र शासित यूनीवर्सिटीज़ में साहित्य पढ़ने वाले स्टूडेंट्स और जर्नलिज्म पढ़ने वाले स्टूडेंट्स को कलात्मक फिल्मों के बारे में कभी न कभी सिलेबस या सेमिनार व्याख्यान में बताया जाता है।कुछ फिल्में हमेशा प्रासंगिक रहेंगी।जब अच्छी सामाजिक राजनीतिक आर्थिक दलित विमर्श स्त्री विमर्श जनांदोलन से जुड़ी क्रांतिकारी फिल्मों की चर्चा होती है।कुछ फिल्में हमेशा याद की जाती हैं।जैसे गर्म हवा,उमराव जान, सद्गति, मंडी,अर्थ,मिर्च मसाला,आक्रोश, बाज़ार, साथ-साथ,पार्टी,इजाज़त,इत्यादि।

मैंने भी अपने स्टूडेंट्स लाइफ में बहुत सी फिल्मों की चर्चा सुनी।और मुतास्सिर होकर देखी।जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पत्रकारिता के दौरान हिन्दी सिनेमा के इतिहास का एक विषय हमारे किसी पेपर में था।उसकी कक्षा हुआ करती थी।मुझे बहुत पसंद थी वो कक्षाएं।बेहतरीन फिल्मों का ज़िक्र उन कक्षाओं में हुआ करता था।मैं रात को आकर वो फिल्में ज़रूर देखती थी।फिल्म देखकर मैं बहुत सोचती थी।
कल मैं यू ट्यूब पर कुछ सर्च कर रही थी देखने के लिए।मेरे सामने रेख़्ता की एक वीडियो आ गई।उस विडियो में मेहमान थी वहीदा रहमान, शबाना आज़मी,मुज़फ़्फ़र अली। प्रोग्राम का विषय उर्दू भाषा थी।बॉलीवुड में उर्दू भाषा और तहजीब का स्थान।ये बातचीत बहुत उम्दा थी।इसपर यहां नहीं लिखूंगी।

मगर दो बातों का ज़िक्र ज़रूर करूंगी।पहली जिसपर वहीदा रहमान जी ने ज़ोर दिया।उर्दू मुसलमान की ज़बान नहीं है।यह हिन्दुस्तान की ज़बान है।यह हिन्दी इंग्लिश की तरह स्कूलों में पढ़ानी चाहिए।और ईमानदारी से पढ़ानी चाहिए।विकल्प चुनने का अधिकार स्टूडेंट्स के हाथ में होना चाहिए कि वो हिन्दी इंग्लिश मातृभाषा के बाद अपनी इच्छा से अन्य भाषा का चयन करे।और जिसे उर्दू पढ़नी है वो पढ़े।आज दिल्ली के तमाम सरकारी  स्कूलों में उर्दू है... मगर भाषाओं को चुनने का जो विकल्प का ढाचा है।वो ऐसे है कि जो उर्दू भाषा चुनेगा उसे हिन्दी मीडियम मिलेगा,जो संस्कृत भाषा चुनेगा वो इंग्लिश मीडियम से पढ़ेगा।इंग्लिश रोजगार की भाषा है अंतरराष्ट्रीय संपर्क की भाषा है वो सबसे ज़रूरी है पढ़ना इसलिए स्टूडेंट्स उर्दू नहीं चुनते।इस सियासत पर आप सब सोचें।ये बात मैं यहां ख़त्म करती हूं।क्योंकि यहाँ इसपर लिखना उद्देश्य नहीं है।

दूसरी बात मुझे शबाना आज़मी की अच्छी लगी।बॉलीवुड में जो अक्सर मुस्लिम समाज दिखाया जाता रहा है।वो कृत्रिम समाज है।बॉलीवुड का बनाया हुआ।हक़ीक़त में वैसा नहीं है।कुछ फिल्मों को छोड़कर जिनमें मुसलमानों की हक़ीक़त दिखाई है उनकी आर्थिक सामाजिक स्थिति।बाक़ी की फिल्मों में रोमांस शेरो शायरी उच्च घरानों की प्रेम कहानी दिखाई गई है।शबाना आज़मी ने दो फिल्मों का जिक्र किया एक गर्म हवा।दूसरी उनकी ख़ुद की फिल्म अंजुमन का।

गर्म हवा ज़मीनी हक़ीक़त पर बनी फिल्म है।जिसमें आज़ादी के बाद भारत के ग़रीब मज़दूर मध्य वर्ग के सामाजिक आर्थिक संघर्ष ग़ैरबराबरी को दिखाया है।फिल्म का अंत जनांदोलन पर होता है।गर्म हवा हमेशा चर्चा में रहती है।मगर अंजुमन फिल्म इन चर्चाओं से गायब है।क्यों ? मैंने ख़ुद कल शबाना आज़मी के मुँह से ही इस फिल्म के बारे में सुना।इससे पहले कभी नहीं, किसी व्याख्यान किसी कक्षा किसी अख़बार में नहीं।अंजुमन यक़ीनन शबाना आज़मी की मास्टर पीस है।शबाना आज़मी की जब बात होती है तो मंडी, अर्थ, निशांत, अंकुर पर सूई आकर अटक जाती है।अंजुमन पर कोई क्यों नहीं बात करता ? जबकि अंजुमन भी आज़ादी के बाद मज़दूर तबके की सामाजिक आर्थिक स्थिति को,स्त्री अस्मिता, स्त्री अस्तित्व, स्त्री के निर्णय लेने के अधिकार, लाइफ पार्टनर चुनने के अधिकार को  बहुत क्रांतिकारी तरीक़े से पेश करती है।

मैंने अक्सर साहित्य प्रेमियों के मुँह से सुना है कि।

"मैंने फला कहानी पढ़ी,मैंने फला किताब पढ़ी,मैंने फला उपन्यास पढ़ा।मैं उससे अभी तक बाहर नहीं आया।"

मैंने अभी थोड़ी देर पहले फिल्म अंजुमन देखी...मैं अभी तक उस फिल्म से बाहर नहीं निकल सकी।

शबाना आज़मी की फिल्म मंडी में वैश्यावृत्ति में फंसी महिलाओं की बहुत मार्मिक और विडंबनिय स्थिति दिखाई है।फिल्म में शबाना आज़मी ने बहुत उम्दा अभिनय किया है।मगर फिल्म की दूसरी नायकी समिता पाटिल आत्महत्या कर लेती है।और दूसरी स्त्री  आश्रम के घृणित व्यवस्था शोषण से भागकर वापिस शबाना आज़मी की शरण में उसी वैश्यावृत्ति के कारोबार में शामिल हो जाती है।इस फिल्म में विडंबनिय स्थित शोषण को सामने रखा है।मगर कोई विरोध क्रांतिकारी चरित्र सामने नहीं रखा।सब स्थिति के समक्ष घुटने टेक चुके हैं।

वहीं शबाना आज़मी की फिल्म अंजुमन में लखनऊ के विश्वप्रसिद्ध चिकनकारी हुनर की श्रमिक महिलाओं का संघर्ष है, शोषण है पूंजपतियों का दमन है।मुनाफे के लिए पूंजीपति कुछ भी कर सकता है।उसके लिए मज़दूर सिर्फ़ मुनाफा कमाने का साधन है।उसकी नज़र में मज़दूर इंसान नहीं है।इसीलिए उन्हें उनकी महनत का पर्याप्त उचित महनताना नहीं देता।फिल्म में चिकनकारी की मज़दूर महिलाएं हैं।आज भी हमारे समाज में महिलाओं को श्रमिक का दर्ज़ा प्राप्त नहीं है।घरेलू महिलाओं के काम को काम नहीं समझा जाता।और घरेलू महिलाओं को मज़दूर नहीं समझा जाता।आम बात मशहूर है...

"हूँ घर में आराम से बैठकर खाना पकाना, झाड़ू पोछा बर्तन धोना,बच्चे पालना कोई काम है भला, इसमें कौनसी मेहनत लगती है।काम तो हम मर्द करते हैं घर से बाहर जाकर पसीना बहाते हैं।"

घर में काम करने से पसीना नहीं आता, औरतों का पसीना पसीना नहीं इत्र है।घर में खासकर रसोई घर में मलयानिल पर्वत से आकर सुगंधित मलयानिल पवन चलती है!

महिलाओं को श्रमिक नहीं माना गया।उनके काम पर महिला विरोधी घटिया तृतीय श्रेणी का चुटकुला साहित्य लिखा और पढ़ा जाता है।किसी में हिम्मत नहीं कुछ बोल दे जो बोलेगा उसकी ट्रोलिंग शुरु हो जाती है।ट्रोलिंग होने से रचना और भी मशहूर हो जाती है।इसी ट्रोलिंग समाज में 1986 में मुज़फ़्फ़र अली हिम्मत करते हैं और अंजुमन फिल्म बनाते हैं।मानवीय संवेदना को कुचलते पूंजीवाद की अमानवीयता शोषणतंत्र का मुँह तोड़ जवाब देती क्रांतिकारी फिल्म अंजुमन बनाते हैं।अंजुमन नायिका प्रधान फिल्म है।मुज़फ़्फ़र अली की उमराव जान और अंजुमन दोनों ही नायिका प्रधान फिल्म हैं।दोनों ही दमदार हैं।नायिका प्रधान और भी फिल्में बनी हैं।मगर मैं बेस्ट फिल्म उसे मानती हूँ जिसमें नायक-नायिका शोषणकारी व्यवस्था के सामने झुकते नहीं बल्कि अंत तक आवाज़ उठाते हैं, बोलने की हिम्मत करते हैं।जनांदोलन करते हैं।हार और जीत तो समय तय करता है।हिम्मत से बोलने वाले नायक-नायिका अपने दर्शकों को भी हिम्मत देते हैं।

फिल्म के कुछ दृश्य बहुत जबरदस्त हैं।एक दृश्य में फिल्म की नायिका शबाना आज़मी अपनी चिकनकारी की उस्ताद बूढ़ी औरत खाला बदूल को आँखों की डॉक्टर शर्मा के क्लीनिक ले जाती है।डॉक्टर शर्मा का किरदार फील्म में बहुत महत्वपूर्ण है।क्योंकि वो सिर्फ़ एक डॉक्टर नहीं हैं।वो एक सुलझी  हुई निष्पक्ष दृष्टिकोण की शख़्सियत हैं।अपने मरीज़ों से सिर्फ़ अपनी फीस का लालच नहीं रखती।बल्कि उनके साथ वो संवेदना भी रखती है।उन ग़रीब चिकनकारी की मज़दूर औरतों की सिर्फ़ आँखों को ठीक नहीं करती, सिर्फ़ रौशनी बढ़ाने का चश्मा और दवा नहीं देती।वो उनकी दिमाग़ और सोच की भी बत्ती जलाती है।वो उन्हें उनके होने का अहसास कराती है, उनके वजूद उनके हुनर की क़ीमत और अहमियत बताती है।आँखों के साथ उनकी सोच को भी नई रौशनी देती है।फिल्म में श्रमिक महिलाओं के जनांदोलन के रीढ की हड्डी डॉ शर्मा ही हैं।आज के समय में हमारे समाज में डॉक्टर लोगों के दिमाग़ की बत्ती क्या खोलेगा,पूंजीवादी व्यवस्था का चेहरा चश्मे से क्या दिखाएगा।आज के आधे से ज़्यादा डॉक्टर ही पूंजीपति हैं, शोषणकारी, सिर्फ़ मुनाफा कमाने वाले कसाई।

फिल्म का सबसे दमदार दृश्य फिल्म की मुख्य नायिका अंजुमन की शादी का दृश्य है।अंजुमन की शादी उसकी मर्ज़ी के खिलाफ उससे उम्र में दो गुना बड़े खड़ूस नवाब बाक़े से की जा रही होती है।जब निकाह का रजिस्टर लेकर क़ाज़ी अंजुमन से निकाह की इजाज़त लेने आते हैं।उससे पूछते हैं।
"अंजुमन तुम्हें ये निकाह क़ुबूल है...क़ुबूल है..."
अंजुमन अपना सहरा ऊपर उठाकर ज़ोर से बोलती है।

"नहीं.. नहीं... मुझे ये निकाह क़ुबूल नहीं।क़ुबूल करने न करने का हक़ मुझे मेरे अल्लाह ने दिया है।और मैंने अपने हक़ का इस्तेमाल किया है क़ाज़ी साहब।"

फिल्म की ग़रीब श्रमिक मजदूर लड़की ग़रीब तबक़े की बेटी वो कर दिखाती है। जो आज तक किसी कॉलेज यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा पर्याप्त मुस्लिम लड़की नहीं कर सकी।आज भी लाखों करोड़ों लड़कियों की शादी उनकी पसंद के खिलाफ की जाती है।लड़कियों के पास विकल्प नहीं स्थिति के सामने सब घुटने टेक कर क़ुबूल है क़ुबूल है।कहती आ रही हैं।क़ुबूल नहीं है कहने की हिम्मत ख़ुदमुख़तारी देती है रोजगार देता है। श्रमिक मज़दूर होना शर्म की नहीं गौरव की बात है।मज़दूर के पास पैसे बहुत कम होते हैं मगर हिम्मत बहुत ज़्यादा होती है।उच्च शिक्षा प्राप्त लड़कियां अपने शराबी जुवारी पति को वो मुँह तोड़ जवाब नहीं दे पाती। जो कि घरों में काम करनेवाली श्रमिक महिलाएं दे पाती हैं।

अंजुमन फिल्म नायिका प्रधान फिल्म है।मगर उसमें नायक भी है...नायक की भूमिका फ़ारूख़ शैख़ ने बड़ी ख़ूबसूरती से अदा की है।नायक का जिक्र न करना फिल्म और नायक दोनों के साथ नाइंसाफी होगी।क्योंकि फिल्म के नायक एक प्रगतिशील सोच के मालिक हैं।वो अपनी शरीक़ेहयात में कोई अमीर नवाब की ख़ूबसूरत बेटी नहीं देखते।बल्कि अमीर नवाब की आला तालीम याफ्ता लड़की को ठुकरा कर वो एक श्रमिक लड़की क्रांतिकारी सोच की मालिक लड़की को चुनते हैं।उसका समर्थन करते हैं।अंत में उसके साथ जनांदोलन में शामिल होते हैं।जबकि वो एक नवाब हैं श्रमिक नहीं।फिल्म के नायक नायिका के सौन्दर्य का नखशिक वर्णन नहीं करते।जैसा अधिकतर फिल्मों में होता है।हिरोइन एक शो पीस है, हिरो उसकी सुंदरता की तारीफ करेगा, सुंदरता की बुनियाद पर प्यार होगा और शादी भी।अंजुमन फिल्म का नायक अपनी प्रेमिका के हसीन  चेहरे गुलाबी होंठों,काली ज़ुल्फ़ों की तारीफ नहीं करते।बल्कि उसके क्रांतिकारी विचारों उसकी हिम्मत उसके वजूद की लड़ाई उसकी दिलेरी की तारीफ करते हैं।

अंजुमन की माँ एक ऐसी महिला है जिसके पति ने उसे तीन बच्चों के साथ छोड़ दिया है।मजबूरन वो अपने पिता के घर अपने भाई के परिवार के साथ रहती हैं।कुछ मदद बच्चों के मामू करते हैं।बाक़ी खर्च माँ-बेटी चिकनकारी करके निकालती हैं।मगर उनको और उनके जैसी दूसरी मजदूर महिलाओं को उनकी पर्याप्त और उचित मजदूरी नहीं मिलती।फिल्म की नायिका गृह शोभा नहीं पढ़ती,अच्छे खाने बनाने की रेसिपी नहीं पढ़ती।वो फैज़ को पढ़ती है बग़ैर यूनिवर्सिटी गए।फिल्म की नायिका अपने दु:ख दर्द को लिखती है।वो बहुत उम्दा लिखती है।कहीं प्रकाशित नहीं होती।क्योंकि उसके पास तो पेट भरने के तन ढकने के पर्याप्त पैसे नहीं।फिर प्रकाशकों को पैसे देकर वो अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने का खर्च कहाँ से लाए।जिन्हें शायरी का ज़बर जेर भी नहीं मालूम जिन्हें कविता का क ख ग  भी ठीक से नहीं पता उनकी रचनाएं धड़ल्ले से प्रकाशित होती आई हैं क्योंकि उनके पास प्रकाशकों का जमीर ख़रीदने के पर्याप्त पैसे हैं।

वैसे क्रांतिकारी विचार प्रकाशित होने से ज़्यादा ज़रूरी है कि उन क्रांतिकारी विचारों को अमलीजामा पहनाया जाया...उन्हें अपने अमल में लाया जाए।हमारे मुआशरे में बड़े बड़े क्रांतिकारी प्रगतिशील लेखक शयर कवि निजी ज़िंदगी में वही खोखले इंसान हैं जिनके बारे में वो अपनी रचनाओं में लिखते हैं आलोचना करते हैं।

फिल्म की नायिका....क़ुबूल नहीं है क़ुबूल नहीं है कहती है।ये सिर्फ़ अनमेल शादी का ठुकराना नहीं है।बल्कि समाज की हर ग़ैरबराबरी शोषण को ठुकराना है।

"ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता"

फिल्म की नायिका अपनी रचनाओं को प्रकाशित करवाने का संघर्ष न करकर।अपने मज़दूर तबक़े के इंसान,उनकी मजदूरी का उचित महताना पाने की लड़ाई के लिए खड़ी होती है।जेएनयू की छात्राओं की तरह सर फुड़वाकर भी जनांदोलन करती है।
फिल्म का अंत फैज़ अहमद फैज़ की इस ग़ज़ल पर होता है।

कब हाथ में तेरा हाथ नहीं
कब याद में तेरा साथ नहीं
सात सुकर के अपने रातो में
अब हिज़र की कोई रात नही।

मैं जाने वफ़ा दरबार नहीं
यहाँ मैं सबकी पूछ कहाँ
आशिक़ तो किसी का नाम नहीं
कुछ इश्क़ किसी की जात नहीं
कब याद में तेरा साथ नहीं
कब हाथ में तेरा हाथ नहीं

जिस धज से कोई वक़्तल में गया
वो शान सलामत रहती हैं
ये जान तो आनी जनि हैं
इस जा की तो कोई बात नहीं
कब याद में तेरा साथ नहीं
कब हाथ में तेरा हाथ नहीं।

अगर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी हैं
जो चाहो लगा दो डर कैसा
अगर जीत गए तो क्या कहना
हारे भी तो बाज़ी मात नहीं
अगर जीत गए तो क्या कहना
हारे भी तो बाज़ी मात नहीं
कब याद में तेरा साथ नहीं
कब हाथ में तेरा हाथ नहीं
सात सुकर के अपने रातो में
अब हिज़र की कोई रात नहीं.....

ऐसे जनांदोलन और ऐसे क्रांतिकारी चरित्र की आज भी समाज को ज़रूरत है।क्योंकि हमारा मीडिया प्रशासन की गोद में बैठा है।और हमारे शासक पूंजपतियों की गोद में बैठे हैं।तुले हैं सभी सरकारी चीज़ें का नीजिकरण करने पर सबकुछ पूंजपतियों को शोंपने पर।पूंजीवादी शोषण अभी भी ज़ारी है।अभी पूरी तरह से सभी सेक्टर का नीजिकरण नहीं हुआ...मगर वर्क फ्रॉम हॉम के नाम पर पंद्रह सोलह घंटे काम कराना शुरू हो गया है।

-मेहजबीं 

No comments:

Post a Comment

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...