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कहते है गंगा नदी बहुत पवित्र नदी है। इसमें जो नहाता है वह पवित्र हो जाता है। लेकिन शूद्रों की कई पीढ़ियां गुजर गई नहाते- नहाते, वे आज तक भी अपवित्र हैं, गरीब और अछूत बने हुए हैं। शूद्रों की गरीबी और बदहाल सामाजिक स्थिति मंदिर में ज्योतबत्ती, धूपबत्ती और अगरबत्ती जलाने के अधिकार से नही, लालबत्ती यानी मजदूर सत्ता के हथियार से ही खत्म हो सकता है। पूंजीवाद उन गरीब अछूतो के बहुमत को मजदूर वर्ग, भविष्य का शासक वर्ग बना रहा है।
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जिस देश में आम गरीब जनता के लिए बने सरकारी स्कूल की छत टपकती हो और मंदिर पर सोने का कलश हो वहां धर्म धंधा ही नहीं डकैती भी है !
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सारी उम्र मंदिर-मस्जिद के लिए लड़ते झगड़ते रहे
जब पैसा खाने का मौका आया तो अंसारी-तिवारी एक हो गए
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भारत में दलितों का उत्पीड़न एक सच्चाई है, मगर उससे बड़ी सच्चाई यह है कि "कुछ अपवादों को छोड़कर गरीब दलितों का ही उत्पीड़न होता है" हम सिर्फ इसी सच्चाई को पकड़ कर सभी गरीबों की एकता बनाकर मुक्ति की लड़ाई जीत सकते हैं। जातिगत संघर्ष तो हमें कमजोर बनाकर हमारी गुलामी को बढ़ाएगा। AS
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वो तुम्हें हिन्दू मुसलमान, जात-पात, ऊंच-नीच में उलझायेंगे, लेकिन तुम मजदूरी-मुनाफा, गरीबी-अमीरी, महंगाई, स्वास्थ, अर्थव्यवस्था पर टिके रहना, देखना कैसे वे भाग खड़े होते है।
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पत्थर की मूर्ति से ना गाय डरती है ना बंदर डरता है ना बिल्ली डरती हैं ना कुत्ता डरता है,
बस मंदबुद्धि और अंधविश्वासी इंसान डरता है!
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धर्म और पूंजीवाद
मन्दिरों में आने वाले चढ़ावों से लेकर मन्दिरों के ट्रस्टों और महन्तों की सम्पत्ति स्पष्ट कर देती है कि ये मन्दिर भारी मुनाफा कमाने वाले किसी उद्योग से कम नहीं हैं।
हर पूँजीवादी उद्योग की तरह धर्म के धन्धे में भी गलाकाटू होड़ है। मार्क्स ने कहा था कि पूँजीवाद अब तक की सबसे गतिमान उत्पादन पद्धति है और यह अपनी छवि के अनुरूप एक विश्व रचना कर डालता है। पूँजीवाद ने धर्म के साथ ऐसा ही किया है। इसने इसे पूँजीवादी धर्म में इस क़दर तब्दील कर दिया है कि धर्म स्वयं एक धन्धा बन गया है, और इससे अलग और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है।
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