जातिवाद के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण
आज के दलितवादी बुद्धिजीवियों खासकर लेखको का एक हिस्सा दावा कर रहा है कि दलितों के राजनीतिक व बौद्धिक प्रतिनिधि केवल दलित ही हो सकते है क्योकि सदियो से वे ही दलित-पीड़ा झेलते हुए इसे समझ सकते है,अन्य जातियां विशेषकर ऊपरी दोनों तीनो जातियॉ तो दलितों की उत्पीड़क व शोषक रही है । दलित तर्कवादियो को पहले यह बताना चाहिये कि वे ब्राह्मण समुदाय के उन ब्राह्मणों के साथ चुनावी व मंत्रिमण्डलीय एकता व सहयोग क्यों करते रहे ,जिन ब्राह्मणों की वे 1990 से पहले न हिक भर निन्दाये किया करते थे बल्कि बीते से अब तक चली आई अपनी समूची दुर्दशओ का उन्हें एक मात्र दोषी ठहराया करते थे । यह प्रचार करते करते पूरे भारत में ब्राह्मण -विरोधी मंच बना के 1990 से वे चुनाव जीतना शुरू किये थे । यह क्यों ? उनका यह तर्क हो कि चुनावी व संसदीय राजनीति में इस तरह के संयुक्त -मोर्चे बनाने पड़ते है ,वैसे ही दलितों ने ब्राह्मणों के साथ बनाये । कहिये कि सत्ता राजनीति की नीचे से लेकर ऊपर तक की कुर्सियों पर चढ़ने के अवसर आयेगे तो हम अपनी चढ़त -बढ़त की स्वार्थी -राजनीति के अनुसार ब्राह्मणों को भी दलितो का हितैषी कह सकते है। मतलब ? दूसरे निजी स्वार्थियो की तरह जब हमारा निजी स्वार्थ होगा तब हम इसी स्वार्थपूर्ति के अनुसार अपना प्रतिनिधि मान सकते है और मौका आते ही इंकार कर सकते है । कई उच्च -जातीय अधिकारी बुद्धिजीवी व लीडरान जब 1990 के बाद से सपा बसपा चढ़त बढ़त शुरू हुई तो इसे भाँप कई एक भीतर से घोर जातिवादी उच्च जातियो के लोग दलितवाद व पिछडवाद के समर्थक बन गए । उन्ही के बौद्धिक प्रतिनिधि बनकर उन्ही के पक्ष में बोलने लग गए। लेकिन दलितवाद के जोशीले दलितवादी बुद्धिजीवी अधिकारी व लीडर इस पर कुछ नही बोले । जबकि उन्हें अपने दम्भी दावे के अनुसार "दलितों के प्रतिनिधि केवल दलित ही हो सकते है" उच्च जातियो के मौकापरस्तो के मुँह पर कहने की हिम्मत करनी चाहिये थी कि आप उच्च-जातीय है,आप हमारे प्रतिनिधि नही हो सकते। लेकिन ऐसा उन्होंने कभी नही कहा और न ही कह सकते है।क्योकि दलितों व पिछडो के हिमायती व प्रतिनिधि बने उच्च जातीय लोगो का एक हिस्सा सरकारी अधिकारी नेतागीरी व दीगर पैसे कुर्सी पर विरजमान था वहै । इसीलिए ऐसी स्थितियों से दलितवादी बुद्धिजीवी निजी फायदा उतने की लालच में इनकी आलोचना नही कर पाये ।बिल्कुल वैसे जैसे आज के बहुतेरे दलितवादी व पिछडवादि मध्यम व उच्च मध्यमवर्गीय लोग उच्च जातीय लोगो की तरह सुसभ्य व सुसंस्कृत होने का ढोंगी दिखावा करने हेतु ब्राह्मणों से तरह तरह की पूजा-पाठ करवाने लगे है ,उच्च-जातियो के रीति रिवाज मानने लगे है ।बेहतर होती आर्थिक स्थिति के कारण दलितों व पिछडो का जीवन स्तर अगर उच्च जातियॉ का जैसा हो जाता है तो यह न तो अचरज लायक है और न ही होना चाहिये ,यह समर्थनीये,स्वागत योग्य है।परन्तु उच्च जातियो के जैसे तरह तरह के धार्मिक व गैर धार्मिक कर्मकांड मनाना यह क्या है? क्या यह सैकड़ो सालो से भीतर छिपी हुई उस लालसा व भूख का द्योतक नही है की मैं भी उन दलितों का जैसा नही ,बल्कि उच्च जातियो का जैसा दिखूं।
याद रखे मार्क्सवाद ऐसे सब ढोग,दिखावे काल्पनिक या व्यवहारिक भूख लालसा लालच की जैसी आदतो को बड़ी हिकारत की दृष्टि से देखता है ।वह गरीब कमकरो की ओर सर धनाढय अमीरो के विरूद्ध वर्ग -संघर्ष का एलान करता है।
सन्दर्भ -जी डी सिंह के विभिन्न पुस्तको से ।
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