आज जाति वर्ग में विभाजित हो गया है, अब बिल्कुल homogenous group नही रह गया है इस ओर भी ध्यान देने की जरूरत है। नीचे कुछ विस्तारित करने की कोशिश की गई है:
*सवर्ण(प्रगतिशील विचारो वाले) सर्वहारा* - इनके जीवन की मुख्य समस्या क्या है? हजारो वर्षो से चली आ रही धार्मिक पाखण्ड, कूड़ा कड़कट बचपन से ही इनके दिमागों में ठूसा गया है, उससे मुक्ति कैसे पाया जाए? यह बहुत ही कठिन है, और पूंजीवादी व्यवस्था के रहते हुए इससे पूर्ण मुक्ति पाना लगभग असंभव है। फिर भी मार्क्सवादी दर्शन बहुत हद तक इन्हें मदद कर सकता है।
*दलित मध्यम वर्ग*-इनकी प्रमुख समस्या क्या है? इस बात का दुख, मलाल कि इनके पुरखो को आदि काल से, यहां तक कि राम राज्य में भी, ज्ञान पाने के अधिकार से बंचित रखा गया। कौन सा ज्ञान? जाहिर है धार्मिक पाखण्ड का ज्ञान, वेद, पूराण, महाभारत, गीता , मनुस्मृति का ज्ञान। क्योकि एक विशेष दलित जाति होने के चलते पेशे से सम्बंधित ज्ञान तो वे पिता से विरासत में ही पाते थे और आज किसी भी तरह की शिक्षा पाने का अधिकार सभी को है। आज दलित उस धार्मिक पाखण्ड से भरे ज्ञान और कूड़े कचड़े को अपने दिमाग मे ठूसने के लिये स्वतन्त्र है। सरकार चाहती भी यही है। पूंजीवाद में बुर्जुवा विकास के बढ़े हुये अवसर ने उन्हें मन्दिर, पूजा पाठ आदि में पैसे खर्च करने के लिये सक्षम भी बनाया है। इस लिये, गंगा चाहे कितनी भी मैली हो, वे भी कुम्भ में डुबकी लगा रहे है, मोदी मोदी चिल्ला रहे है, शम्बूक बध को भूल कर श्री राम की जय किये जा रहे है। दलितों में मध्यम वर्ग का अच्छा खासा हिस्सा उस पतित ब्राह्मणवादी संस्कृति को फिर से गले लगा रहे है, जिसे फुले, पेरियार और डॉ आंबेडकर सख्त नफरत करते थे। इनकी संस्कृति, इनके रहन सहन, आचार व्यवहार, उनकी सोच उन दबे कुचले मुफ़लिस *दलित सर्वहाराओं* से बिल्कुल अलग होते जा रहे है जो अभी 1947 में मिले आजादीऔर आरक्षण के लागू होने के 70 साल से ज्यादा होने के बावजूद भयंकर गरीबी और मुश्किल भरे दिन गुजार रहे है। इनकी मुख्य समस्या क्या है? आर्थिक उन्नति के अवसर मिलने और उसका फायदा उठा कर आर्थिक संपन्नता हासिल करने के बावजूद भी "ब्राह्मणत्व" का गौरव उन्हें आज भी नही मिला, आज भी सवर्णो द्वारा इन दलितों को दलित समझा जाता है और रोटी बेटी का सम्बंध नही बनाया जाता है। इसलिये ये सोचते है-जाति-प्रथा का समाधान आर्थिक विषमता दूर कर के नही हो सकती, आर्थिक विषमता प्रमुख नही है, सामाजिक विषमता प्रमुख है जिसे पहले खत्म करना होगा। डॉ अम्बेडकर भी ऐसा ही सोचते थे।
*दलित सर्वहारा -* ये सीधे साधे भोले लोग सदियों से शोषण और जातीय उत्पीड़न के शिकार रहे लोग है। पूंजीवादी विकास ने और आरक्षण ने एक बहुत छोटे तबके को ही विकास करने का अवसर दिया है। धार्मिक पाखण्ड का कु-प्रभाव इनमे सबसे कम है। विरासत में मिले पेशेगत जीविका का साधन अब सहायक नही है, पूंजीवाद में प्रयाप्त पूंजी के बिना ये बेकार है। इनकी मुख्य समस्या है- बेरोजगारी, इनकी गरीबी। इसका निवारण पूंजीवाद में नही, सिर्फ समाजवाद में है।
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