Thursday, 31 October 2024

दीपावली और मजदूर वर्ग


दीपावली, रोशनी का त्यौहार, जहाँ हम अपने घरों को सजाने और प्रदर्शनी में पड़ोसी से आगे बढ़ने के उत्साह से भर देते हैं। यह त्यौहार हिंदू परंपरा, मिथकों और मौसमी चक्रों का मिश्रण है—भगवान राम के अयोध्या आगमन से लेकर देवी लक्ष्मी की पूजा तक के मिथकों से भरा हुआ। यह त्यौहार अंधकार पर प्रकाश की जीत का प्रतीक है, लेकिन मौजूदा समय में दिखावे और प्रशंसा का अवसर बन गया है।  वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि बताती है कि त्यौहार का समय प्राचीन कृषि चक्रों,  और कीटों को दूर रखने की पर्यावरणीय आवश्यकता के साथ मेल खाता है। 

आज दीपावली त्योहार को मुख्यतः मिथकों से जोड़कर देखा जाता है, जबकि इसके वैज्ञानिक और कृषि संबंध लगभग विस्मृत कर दिए गए हैं। 

दीपावली, जिसे कभी आस्था, परंपरा, और सामाजिक बंधन के रूप में मनाया जाता था, पूंजीवादी परिवेश में यह आज व्यावसायीकरण का शिकार हो गया है। अब यह त्योहार आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बन गया है, जहां बाजार की चकाचौंध और उपभोक्तावाद ने इसके मूल भाव को धूमिल कर मुनाफा कमाने का अवसर बना दिया है। इस व्यावसायिकरण में पारंपरिक मिट्टी के दीयों की जगह अब इलेक्ट्रॉनिक लाइट्स, लक्जरी गिफ्ट्स, और महंगे उपहारों ने ले ली है। यह बदलाव न केवल दीपावली के पारंपरिक मूल्यों से हमें दूर कर रहा है, बल्कि त्योहारी उत्सव को आर्थिक सामर्थ्य के प्रदर्शन का प्रतीक बना दिया है।

ऑनलाइन शॉपिंग, ई-कॉमर्स सेल्स, और ब्रांडेड उत्पादों के विशेष ऑफर्स ने उपभोक्तावाद को और बढ़ावा दिया है। छोटे व्यापारियों और कारीगरों की जगह बड़े-बड़े ब्रांड्स ने ले ली है, जिससे इस त्योहार की लोकल इकोनॉमी को नुकसान हुआ है। ग्रीन पटाखों की बात हो या पर्यावरणीय जागरूकता, सब कुछ अब व्यावसायिक लाभों में लिपटा हुआ प्रतीत होता है।

दीपावली का यह व्यावसायीकरण एक ऐसे समाज की ओर इशारा करता है जो सांस्कृतिक जड़ों से दूर और बाजार की चमक में उलझा हुआ है।

दीपावली का राजनीतिकरण और उसके साथ "भगवाकरण" भारतीय समाज में त्योहारों के सांप्रदायिकरण का चिंताजनक संकेत है। जो त्योहार कभी भारतीय संस्कृति और एकता का प्रतीक थे, वे अब राजनीतिक एजेंडे के विस्तार का साधन बनते जा रहे हैं। दीपावली, जो ऐतिहासिक रूप से एक सांस्कृतिक और धार्मिक त्योहार के रूप में मनाई जाती रही है, अब कुछ शक्तियों द्वारा हिन्दू पहचान के प्रतीक के रूप में उपयोग की जा रही है। इसने त्योहारों को धार्मिक और सांप्रदायिक मुद्दों में उलझा दिया है, जिससे उनमें विभाजनकारी राजनीति घुलती जा रही है।

इस राजनीतिकरण का एक गहरा प्रभाव मुस्लिम व्यापारियों के बहिष्कार के रूप में भी सामने आया है। जहाँ त्योहार कभी सभी समुदायों के व्यापारियों के लिए लाभ का अवसर होते थे, अब कुछ संगठन बहिष्कार की अपील कर रहे हैं, जो गहरे सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा दे रहा है। यह न केवल भारत की विविधता और सहिष्णुता के आदर्शों के खिलाफ है, बल्कि अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है।

 दीपावली, जो भारत में धन, समृद्धि और खुशी का प्रतीक मानी जाती रही है, अक्सर मजदूर वर्ग के लिए एक विपरीत परिप्रेक्ष्य में भी प्रस्तुत होती है। जहाँ उच्च और मध्यम वर्ग दीपावली को उत्सव, सजावट और उपहारों के साथ मनाते हैं, वहीं मजदूर वर्ग के लिए यह पर्व कठिन श्रम और आर्थिक चुनौतियों का प्रतीक बन जाता है। दीपावली की तैयारियों में सबसे अधिक श्रम और योगदान इन्हीं मजदूरों का होता है—चाहे वो पटाखे बनाने वाले मजदूर हों, सजावट और मिट्टी के दीये बनाने वाले कारीगर हों, या घरों और दुकानों की साफ-सफाई करने वाले लोग हों।

यहाँ एक विरोधाभास उभरता है—दीपावली जो रोशनी और खुशहाली का पर्व है, उन्हीं के लिए अक्सर आर्थिक और सामाजिक अंधकार का कारण बनती है। मजदूर वर्ग कई बार इस उत्सव के दौरान भी न्यूनतम मजदूरी में अधिक काम करने को विवश होता है, ताकि उनके परिवार के लिए आजीविका चल सके। दूसरी ओर, पटाखा और सजावट के निर्माण में लगे मजदूरों के लिए यह पर्व खतरनाक स्वास्थ्य जोखिम भी लाता है, क्योंकि वे अत्यंत खतरनाक और असुरक्षित परिस्थितियों में काम करते हैं।

मजदूर वर्ग के लिए दीपावली का पर्व आर्थिक असमानता और श्रम की अवहेलना को भी उजागर करता है। जब उच्च वर्ग इस पर्व में समृद्धि का जश्न मनाता है, वहीं मजदूर वर्ग के लिए यह पर्व एक कठिन परिस्थिति बन जाता है। उनके लिए वास्तविक दीपावली तब होगी, जब समाज में उनके श्रम का सम्मान होगा, उन्हें आर्थिक सुरक्षा मिलेगी। और यह पूंजीवादी समाज मे नही, समाजवादी समाज मे ही, सर्वहारा के राज्य में ही सम्भव हो सकता है।

 

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*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...